Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र तृतीय उपांग है / स्थानांग नामक तीसरे अंग का यह उपांग है / यह श्रुतस्थविरों द्वारा संदृब्ध (रचित) है। अंगबाह्यश्रुत कालिक और उत्कालिक के भेद से दो प्रकार के हैं / जो श्रुत अस्वाध्याय को टालकर दिन-रात के चारों प्रहर में पढ़े जा सकते हैं वे उत्कालिक हैं, यथा दशवकालिक आदि और जो दिन और रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में ही पढ़े जाते हैं वे कालिकश्रुत हैं, यथा उत्तराध्ययन प्रादि / प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र उत्कालिकसूत्र है / ' जीवाजीवाभिगम-अध्ययन एक प्रवृत्ति है और कण्टकशाखा मर्दन की तरह निरर्थक प्रवृत्ति बुद्धिमानों की नहीं होती। अतएव ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रयोजन, अभिधेय और सम्बन्ध के साथ मंगल अवश्य ही बताया जाना चाहिए।' 1. प्रयोजन--प्रयोजन दो प्रकार का है-(१) अनन्तरप्रयोजन और (2) परम्परप्रयोजन / पुनः प्रयोजन दो प्रकार का है-(१) कर्तृगतप्रयोजन और (2) श्रोतृगतप्रयोजन / कर्तृगतप्रयोजन-प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम अध्ययन द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से कर्तृ रहित है, क्योंकि वह शाश्वत है, नित्य है। आगम में कहा है-'यह द्वादशांग गणिपिटक पूर्वकाल में नहीं था, ऐसा नहीं; वर्तमान में नहीं है, ऐसा भी नहीं; भविष्य में नहीं होगा, ऐसा भी नहीं। यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है / नित्य वस्तु का कोई कर्ता नहीं होता। पर्यायाथिकनय की अपेक्षा इसके कर्ता अर्थापेक्षया अर्हन्त हैं और सूत्रापेक्षया गणधर हैं। अर्थरूप पागम तो नित्य है किन्तु सूत्ररूप आगम अनित्य है। प्रतः सूत्रकार का अनन्तर प्रयोजन जीवों पर अनुग्रह करना है और परम्पर प्रयोजन अपवर्गप्राप्ति है। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि अर्थरूप पागम के प्रणेता श्री अर्हन्त भगवान् का अर्थप्रतिपादन का क्या प्रयोजन है ? वे तो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनमें प्रयोजनवत्ता कैसे घटित हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि तीर्थकर परमात्मा कृतकृत्य हो चुके हैं, अतएव उनमें प्रयोजनवत्ता घटित नहीं होती तदपि वे तीर्थकर नामकर्म के उदय से अर्थ प्रतिपादन में प्रवृत्त होते हैं / जैसा कि कहा गया है-तीर्थकर नामकर्म का वेदन कैसे होता है ? अग्लान भाव से धर्मदेशना देने से तीर्थकर नामकर्म का वेदन होता है।" 1. उक्कालियं प्रणेगविहं पण्णत्तं तंजहा-दसवेयालियं, कप्पिया, कप्पियं, चुल्लकप्पसुयं महाकप्पसुयं, उववाइयं रायपसेणियं जीवाभिगमो.... -नंदीसूत्र 2. प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ फलादि त्रितयं स्फुटम् / मंगलञ्चव शास्त्रादी वाच्यमिष्टार्थसिद्धये // -जीवा. मलयगिरि टीका 3. एयं दुवालसंग गणिपिडगं न कया वि नासी, न कयाइ वि न भवइ, न कया वि न भविस्सइ / धुनं गिच्चं सासयं। -नन्दीसूत्र 4. तं च कहं वेइज्जइ ? प्रगिलाए धम्मदेसणाए। --आवश्यकनियुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org