Book Title: Yoga kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौगछौशश (द्वितीय खण्ड) CYCLOPAEDIA OF YOGA जैन दशमलव वर्गीकरण संख्या-०४०५ सम्पादक: स्व० मोहनलाल बाँठिया, बी० कॉम० श्रीचन्द चोरड़िया, न्यायतीर्थ (द्वय) प्रकाशक : जैन दर्शन समिति १६ सी, डोवर लेन, कलकत्ता-७०००२९ सन् - १९९६ Racetroprinternational Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग कोश (द्वितीय खण्ड) CYCLOPAEDIA OF YOGA -------- जनदशमलव वर्गीकरण संख्या-०४०५ सम्पादक: स्व० मोहनलाल बांठिया, बी० कॉम० श्रीचन्द चोरड़िया, न्यायतीर्थ (द्वय ) प्रकाशक: जैन दर्शन समिति १६ सी, डोवर लेन, कलकत्ता-७०० ०२९ सन् १९९६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम विषय कोश ग्रन्थमाला सातवां पुष्प योग कोश ( द्वितीय खण्ड ) : जेन दशमलव वर्गीकरण संख्या - ०४०५ अर्थ सहायक : श्रीमती झमकुदेवी भन्साली मेमोरियल ट्रष्ट, कलकत्ता मारफत — फतेहचंद चेनरूप भन्साली प्रथम आवृत्ति - ५०० मूल्य : भारत में रु० १००/विदेश में Sh १५०/ मुद्रक : महेन्द्र राज मेहता 'मुन्ना' राज प्रोसेस प्रिन्टर्स ब्रजदुलाल स्ट्रीट कलकत्ता - ७०० ००६ दूरभाष : २३३-१५२२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनका जैन दर्शन समिति के प्रत्येक विकासशील कार्य में बहुमूल्य योगदान रहा है, उन शासन सेवी, तत्त्वज्ञ श्रावक स्व० जबरमलजी भंडारी को प्रस्तुत योगकोश का द्वितीय खण्ड सादर समर्पित करता हूँ। -श्रीचन्द चोरडिया Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलन-सम्पादन में प्रयुक्त ग्रन्थों को संकेत-सूची अणुत्त०-अणुत्तरोववाइययदसाओ एवा-ए कन्साइज इटि भोजोजिकल अणुओ०-अणुओगद्दाराई संस्कृतडिक्शनरी अंगु० -अंगुत्तरनिकाय अनं०-अनुज्ञानंदी अंत०--अंतगडदसाओ दसवेअ०-दशवकालिक अगस्त्यसिंह चूणि अभिधा-अभिधान राजेन्द्र कोश दसवेजि०-दशवकालिक जिनदास चणि अनुयो०-अनुयोगद्वारचूणि दसवेहा०-दशवैकालिक-हारिभद्रीय टीका अनु०-अनुयोगद्वार मलधारियटीका देसी०- देसीसद्संगहो अनुयो०-अनुयोगद्वार हारीभद्रीयटीका दसासु०-दसासुयक्खंधो आप्ते-आप्ते संस्कृत इगलिश डिक्शनरी धातु०-धातुपारायणम् आव०-आवश्यक नियुक्ति दीपिका निशी.-निशीथपीठिका चूणि आया०-आयारो धम्म-धम्मसंगणि आव०-आवस्सयं निघणु०-निघण्टु तथा निरुक्त इसिभासियाई नंदी०-नंदी उत्त०-उत्तरज्झयाणी णाया०–णायाधम्मकहाओ उवा-उवासगदसाओ निर० -निरयावलियाओ ओव०-ओवाइयं निसी०-निसीहज्झयणं ओघ-ओघनियुक्ति पचा०-पंचाशक प्रकरण टीका कप्पव०-कप्पडिसियाओ पंच०-पंचसंग्रह टीका कप्पसु०-कप्पसुत्तं पाली० -पाली इंगलिश डिक्शनरी कप्पो०-कप्पो प्राकृ०-प्राकृत व्याकरण कर्म०-कर्मग्रन्थ पण्ण० --पण्णवणा कालू० - कालू स्मृतिग्रन्थ पण्हा०-पण्हावागराण गोक०-गोम्मटसार कर्मकाण्ड पाइअ०--पाइअ सद्द महण्णवो गोजी० गोम्मटसार जीवकाण्ड पूचु० -पुप्फचूलियाओ चंद-चंदपण्णत्ती पुप्फि०-पुप्फियाओ जंबु०-जंबुदीवण्णत्ती बिह-बिहकप्पसुत्तं जीतकल्पभाष्य भग०-भगवई जीवा०-जीवाजीवाभिगमे महा०-महाभारत ठाणं.-ठाणं मनु०—मनुस्मृति तत्त्व.-तत्त्वार्थसूत्र वव०-ववहारो दसवे०-दसवेआलियं वहि-वहिदसाओ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) विवा०-विवागसूयं णमोकार महामंत्र वाच०-वाचस्पत्यम् पं० श्वे.-पंचसंग्रह ( श्वेताम्बर) बिशु०-विशुद्धिमग्ग कम्म-कर्म प्रकृति विशेभा०-विशेषाबश्यक भाष्य-कोटयाचार्य जैनसिदी०-जैन सिद्धान्त दीपिका टीका योग बिन्दु०-योग बिन्दु शब्द-~-शब्दकल्पद्रुम ५ भाग वीरवर्धच०-वीर वर्धमान चरितम् राय०-रायपसेणियं अभिधान चिन्तामणि संस्कृत कोश एकी०-एकीभावस्तोत्र त्रिशलाका-त्रिशष्ठि शलाका पुरुषचरितम् झीणी.-झीणीचर्चा दर्शनसार मिथ्या०-मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक पुदको० १-पुद्गल कोश भाग १ विकास पुदको० २-पुद्गल कोश भाग २ ध्या०-ध्यान कोश विष.-विषपाहार स्तोत्र क्रिया०—क्रियाकोश वर्धको०--वर्धमान जीवन कोश वधo--वर्धमान जीवन कोश, भाग १ भाग २, ३ सूत्रचू०-सूत्रकृतांग चूणि लेको०-लेश्या कोश पउम०-पउमचरिय लेश्याको०-संयुक्त लेश्या कोश कप्र.-करण प्रवचन सारोद्वार (दिगम्बर सोर्स ) योगश०-योगशलक वड्ढच०-वड्ढमाण चरिउ योगसा०-योगसार अयोग-अयोग षट्त्रिंशिका वव०-ववहारो कसापा-कसायपाहुडं सम०-समवाओ -न्यायावतार सूय०--सूयगडो अणुओ० हारि०-अनुयोगद्वार हारिभद्रीय सूर०-सूरपण्णत्ती हेम-सिद्धहेम शब्दानुशासनम् -ज्ञानसार सिद्ध ० -सिद्धहेम शब्दानुशासनम् --समयसार योगस०-योग समुच्चय जि० चू०-जिनदास चूणि षट्०-षटखंडागम भक्तामर स्तोत्र वीरजि०-वीरजिणिदचरिउ उपदेश सप्तति धर्मो०-धर्मोपदेशमाला प्रशमरति प्रकरण वृ० ह. (वृह)-बृहद्हारिभद्रीय टीका मूला०-मूलाचार टीका Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 ) मूल वर्गों के • जैन दार्शनिक .. सामान्य विवेचन ०० सामान्य विवेचन • शब्द-विवेचन पृष्ठभूमि → ०१ गति १) द्रव्य योग ०२ इन्द्रिय (प्रायोगिक) १ जैन दर्शन .१ लोकालोक ०३ कषाय ०४ लेश्या .२ । .५ योग → ३ भाव योग २ धर्म ०२ द्रव्य •६ उपयोग ०७ ज्ञान-अज्ञान •८ दर्शन ३ समाज विज्ञान ०३ जीव ०९ चारित्र १. वेद '५ योग और जीव ११ शरीर ४ भाषा विज्ञान ०४ जीव-परिणाम → १२ अवगाहना १३ पर्याप्ति १४ प्राण '७ योगी जीव ५ विज्ञान ०५ अजीव-अरूपी १५ आहार १६ योनि १७ गर्भ ६ प्रयुक्त विज्ञान ०६ अजीव-रूपी पुद्गल १८ जन्म-उत्पत्ति-उत्पाद ९ विविध १९ स्थिति २. मरण-च्यवन-उद्वर्तन ७ कला-मनोरंजन ०७ पुद्गल-परिणाम २१ वीर्य क्रीड़ा २२ लब्धि २३ करण ८ साहित्य ०८ समय, व्यवहार-समय २४ भाव २५ अध्यवसाय २६ परिणाम ९ भूगोल-जीवनी- ०९ विशिष्ट सिद्धान्त २७ ध्यान इतिहास २८ संज्ञा आदि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपविभाजन का उदाहरण *९६१ ५१ योग की अपेक्षा जीव के भेद ५२ योग की अपेक्षा जीव की वगंणा ५३ विभिन्न जीवों में कितने योग ५४ विभिन्न जीव और योग स्थिति ५५ जीव और योग - समपद • ५६ योगी जीव और • ९६ किसी एक ( 7 ) रत्नप्रभा पृथ्वी के -> नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में शर्कराप्रभा० • ९६२ ९६०३ ९६४ ९६५ धूमप्रभा ० '९६·६ तमप्रभा० अंतरकाल • ५७ जीव समूहों ९६.१६ त्रीन्द्रिय० बालुकाप्रभा० पंकप्रभा ० में कितने योग '९६'१७ चतुरिन्द्रिय० ९६ १८ पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक ० ९६.१३ वायुकायिक ० ९६ १४ वनस्पतिकायिक ० ९६ १५ द्वोन्द्रिय • योनि से स्व/ पर योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों ९६ २२ सौधर्म देव० में कितने * ९६.२३ ईशान देव० योग आदि ९६७ तमतमाप्रभा ० ९६८ असुरकुमार० असंज्ञी पंचेन्द्रिय संज्ञी तिर्येच योनि से ० ९६९ नागकुमार यावत् स्तनितकुमार ९६ १० पृथ्वी कायिक० ९६.१० १० संख्यात वर्ष की ९६.११ अकायिक ९६ १२ अग्निकायिक ० ९६१९ मनुष्य योनि० ९६ २० वानव्यंतर देव० ९६.२१ ज्योतिषी देव० ९६ १०.१ '९६'१०२ '९६'१०'३ ९६ १०४ '९६.१०.५ अग्निकायिक योनि से वायुकायिक योनि से वनस्पतिकायिक योनि से ·९६'१०·६ द्वीन्द्रिय से '९६*१०७ श्रीन्द्रिय से ९६ १०८ चतुरिन्द्रिय से ९६ १०.९ स्वयोनि से अकायिक योनि से आयुवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनि से - ९६.१०.११ असंज्ञी मनुष्य से संज्ञी मनुष्य से '९६ १०१२ *९६*१०*१३ असुरकुमार देवों से *९६°१०·१४ नागकुमार यावत् स्तनितकुमार देवों से *९६ १०.१५ वानव्यंतर देवों से '९६·१०·१६ ज्योतिषी देवों से ९६ १०१७ सौधर्म देवों से *९६१०१८ ईशान देवों से Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) ११४ जैन वाङ्मय का दशमलव वर्गीकरण मूल विभागों की रूपरेखा ज.द.सं० यू. डी० सी० संख्या -जेन दार्शनिक पृष्ठभूमि ०१-लोकालोक ५२३.१ •२-द्रव्य --उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ०३ -जीव १२८ तुलना ५७७ ०४-जीव परिणाम ०५-अजीव-अरूपी •६-अजीव-रूपी-पुदगल ११७ तुलना ५३९ ०७-पुद्गल-परिणाम ०८-समय- व्यवहार-समय ११५ तुलना ५२९ ०९-विशिष्ट सिद्धान्त १ जैन दर्शन ११-आत्मवाद १२.-कर्मवाद -आस्रव-बंध-पाप-पुण्या १३-क्रियावाद-संवर-निर्जरा-मोक्ष १४-जनेतरवाद १५-मनोविज्ञान १६-न्याय-प्रमाण १७-आचार-संहिता १८-स्याद्वाद-नयवाद-अनेकान्तादि १९-विविध दार्शनिक सिद्धान्त २-धर्म २१-जैन धर्म की प्रकृति २२-जैन धर्म के ग्रन्थ २३-आध्यात्मिक मतवाद २४-धार्मिक जीवन २५–साधु-साध्वी-यति-भट्टारक-क्षुल्लकादि २६-चतुर्विध संघ २७- जैन का साम्प्रदायिक इतिहास २८-सम्प्रदाय २९-जनेतर धर्म : तुलनात्मक धर्म ३ समान विज्ञान ३१-सामाजिक संस्थान + + + + 2002+ + rRAMMARm + Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यू० डी० सी० संख्या س س س س ل ل ل ل . ४९१३ ४९१२ ज० द० व० सं० ३२-राजनीति ३३-अर्थशास्त्र ३४ -नियम-विधि-कानून-न्याय ३५-शासन ३६-सामाजिक उन्नयन ३७ -शिक्षा ३८-व्यापार-व्यवसाय-यातायात ३९-रीति-रिवाज-लोक-कथा ४-भाषा विज्ञान-भाषा ४१ साधारण तथ्य ४२-प्राकृत भाषा ४३-संस्कृत भाषा ४४-अपभ्रंश भाषा ४५–दक्षिणी भाषाएँ ४६-हिन्दी ४७—गुजराती-राजस्थानी ४८-महाराष्ट्री ४९-अन्यदेशी-विदेशी भाषाएँ ५-विज्ञान ५१-गणित ५२-खगोल ५३ --भौतिकी-यांत्रिकी ५४-रसायन ५५-भूगर्भ विज्ञान ५६-पुराजीव विज्ञान ५७-जीव विज्ञान ५८-वनस्पति विज्ञान ५९-पशु विज्ञान ६-प्रयुक्त विज्ञान ६१ -चिकित्सा ६२-यांत्रिक शिल्प ६३ –कृषि-विज्ञान ६४--गृह विज्ञान ६५- + ४९४८ ४९१.४३ ४९१.४ ४९१.४६ १ ५२ 01 GK KM WW. rrr Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं० द० ब० सं० ६६ - रसायन शिल्प ६७ - हस्त शिल्प वा अन्यथा ६५ - विशिष्ट शिल्प ६९ - वास्तु शिल्प - कला - मनोरंजन क्रीड़ा - ू ू ७१ - नगरादि निर्माण कला ७२ - स्थापत्य कला ७३- - मूर्तिकला ७४ – रेखांकन ७५- - चित्रकारी ७६ - उत्कीर्णन ७७ - प्रतिलिपि - लेखन - कला ७८ - संगीत ७९ - मनोरंजन के साधन ८- साहित्य ८१- - छंद - अलंकार-रस ८२ - प्राकृन साहित्य ८३ - संस्कृत जैन साहित्य ८४ - अपभ्रंश जैन साहित्य ८५ - दक्षिणी भाषा में जैन साहित्य ८६ - हिन्दी भाषा में जैन साहित्य ८७ - गुजराती - राजस्थानी भाषा में जैन साहित्य ८८ - महाराष्ट्री भाषा में जैन साहित्य ८९ - अन्य भाषाओं में जैन साहित्य ९ - भूगोल - जीवनी - इतिहास ९१ - भूगोल ९२ - जीवनी ९३ - इतिहास ( 10 ) ९४ – मध्य भारत का जैन इतिहास ९५ -- दक्षिण भारत का जैन इतिहास ९६ - उत्तर तथा पूर्व भारत का जैन इतिहास ९७— गुजरात - राजस्थान का जैन इतिहाग ९८ - महाराष्ट्र का जैन इतिहास ९९ - अन्य क्षेत्र व वैदेशिक जैन इतिहास यू० डी० सी० संख्या ६६ ६७ ६८ ६९ 60 ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७८ ७९ ८ ८ १ + + ++++++ ९ ९१ ९२ ९३ + + + + + + Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४ जीव परिणाम का वर्गीकरण ०४०० सामान्य विवेचन ०४०१ गति ०४२९ मिथ्यात्व ०४०२ इन्द्रिय ०४३० सम्यक्त्व ०४०३ कषाय ०४०४ लेश्या ०४३१ वेदना ०४०५ योग ०४३२ सुख ०४०६ उपयोग ०४३३ दुःख ०४०७ ज्ञान ०४३४ अधिकरण ०४०८ दर्शन ०४३५ प्रमाद ०४०९ चारित्र ०४३६ ऋद्धि ०४१० वेद ०४३७ अगुरुलघु ०४३८ प्रतिघातित्व ०४११ शरीर ०४३९ पर्याय ०४१२ अवगाहना ०४४० रूपत्व-अरूपत्व ०४१३ पर्याप्ति ०४१४ प्राण ०४४१ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ०४१५ आहार ०४४२ अस्ति-नित्य-अवस्थितत्व ०४१६ योनि ०४४३ शाश्वतत्व ०४१७ गर्भ .४४४ परिस्पंदन ०४१८ जन्म-उत्पत्ति-उत्पाद ०४४५ संसार संस्थान काल ०४१९ स्थिति ०४४६ संसारस्थत्व-असिद्धत्व ०४२० मरण-च्यवन-उद्वर्तन ०४४७ भव्याभव्यत्व ०४४८ परित्त्वापरित्त्व ०४२१ वीर्य ०४४९ प्रथमाप्रथम ०४२२ लब्धि ०४५० चरमाचरम ०४२३ करण ०४२४ भाव ०४५१ पाक्षिक ०४२५ अध्यवसाय ०४५२ आराधना-विराधना ०४२६ परिणाम ०४२७ ध्यान ०४२८ संज्ञा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन विक्रम सम्वत् २०१२ में आगम सम्पादन का कार्य शुरू हुआ। सम्पादन के लिए जो कल्पना की गई, उसका एक अंग था, आगमों का विषयीकरण । प्रारम्भ में आगमों के अनुवाद, टिप्पण आदि का कार्य शुरू किया। विषयीकरण का भविष्य के लिए स्थगित कर रखा था। मोहनलाल जी बांठिया ने विषयीकरण का कार्य अपने हाथ में लिया। पूरी योजना बनाई । कार्य शुरू किया। उनके कार्य को हमने देखा और आगम सम्पादन के पूरक कार्य के रूप में उसे स्वीकार किया। मोहनलाल जी विद्वान, अध्ययनशील और धर्मनिष्ठ श्रावक थे। उन्हें श्रीचन्द चोरडिया का योग मिला। इस योग ने उनके कार्य को गतिशील बना दिया। योजना बहुत विशाल है, गति मंथर है। कितने दशक और लगेंगे, कहा नहीं जा सकता फिर भी जैन-दर्शन समिति में इस कार्य के लिए उत्साह है, यह प्रसन्नता की बात है। प्रस्तुत पुस्तक योग कोश है। उनके अवलोकन से एक धारणा बनती है-इसमें संग्रह अधिक है, उनके तात्पर्य का अर्थ बोध स्वल्प है। कुछ विषयों पर पुनर्विचार करना भी आवश्यक लगता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि एक अनुसंधित्सु के लिए कोश का उपयोग है । यह उपयोगिता ही इस कार्य को समृद्धि के लिए पर्याप्त प्रमाण है। --आचार्य तुलसी १ जनवरी १९९४ जैन विश्वभारती लाडनू ( राजस्थान) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD It affords me immense pleasure in complying with the request of Pandit Shri Srichand Chorariya that I should write a foreword to his interesting and valuable study of Yoga-Kosa (Cyclopaedia of Yoga). It goes without saying that the work represents the doctrines of Yogas'astra in Jaina religion. It is unquestionably a welcome idea on which Shri Chorariya is so high an authority. Shri Chorariya is an acknowledged and well-reputated scholar in Jainism, and has devoted most of his research time in collecting materials for his Cyclopaedias under the guidence of Late Mohanlal He has compiled so far the Cyclopaedias of Mahavira (Vardhmana-Jivana-Kosa) in three volumes, and of the Lesya, Kriya and Yoga-Kosas. In all his Cyclopaedias he has collected the materials from the Jaina texts on the topics he is describing. Banthia. Mahavira-Jivana-Kosa contains all items on the life and activities of Mahavira as reflected in the Jaina Agamas and other texts. It is a monumental work and every bit of information is authenticated by referring to the sources. This book is a unique contribution to the scholarly world of Jainistic studies. The conception of compiling a dictionary on the life and teachings of Lord Mahavira is itself a new one, and at the same time it is very useful for the handy reference to the source material on Mahavira's life-story. The author has ransacked both the s'vetambara and Digambara sources. In a similar way, the Lesya and the Kriya-Kosas are two philosophical treatises which have surpassed all his predecessors on the subject and which have acclaimed lots of laurels for him. This Latest in the series is the Yoga-Kosa which contains all the references to the Yoga-Sastra found in the Jaina literature. Yoga-Kosa will also tell us how to do research on a particular topic of Jainism. R. L. William's Jaina-Yoga (London, 1962) is a book on the study of sravakacara, but Chorariya's book is a Cyclopaedia on the Jaina Yoga, and naturally the latter will be more exhaustive than the former. The Mithyatvi Ka Adhyatmik Vikasa of Chorariaji is a philosophical treatise which describes carefully the manifestation of scul Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 14 ) according to the Jaina tradition. This treatise shows the masterly scholarship of Chorariyaji over the subject. The plan of all his Cyclopaedias is a unique one. All the Cyclopaedias are divided into several sections as far as 99 and sub-divided into several other decimal points for the easy reference The system followed in this classification is the International decimal system used in the Library. Each decimal point is arranged in accordance with the topic connected with each subject. In each section and under each topic the original quotations from nearly 100 books followed by Hindi translations are given. All his references are not only valuable, but they represent the authenticity of the subject concerned. To compile such quotations in one place is a tremendous labour. Besides these Kosas, Shri Chorariya has also compiled the Pudgala and Dhyana Kosas which will be published in course of time. Shri Srichand Chorariya is a very good Scholar in Jainism. In his own scholastic way, he has been working on Jainism for a long time. In compiling these Cyclopaedias Shri Chorariya consults quite a number of books and gives a sustained effort for the better production of his theses. All his Cyclopaedias deserve cordial welcome from the scholarly world. All his Cyclopaedias have proved the apophthegm of Pythagoras 'Do not talk a little on many subjects, but much on a few.' I trust that all his works must adorn the bookshelf of the library of every learned scholar. University of Calcutta 15th August, 1996. 'me en pollois oliga lege, all 'en oligois polla'. --Satya Ranjan Banerjee Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द जैन आगमों में विभिन्न विषयों के क्रमबद्ध विवेचन की कमी के कारण जैन दर्शन के अध्ययन में अत्यन्त असुविधा होती है। यद्यपि भगवान महावीर ने अपने प्रवचन उस समय की जन भाषा में दिये थे जिससे आम जनता, उनके प्रवचनों से लाभान्वित हो सके लेकिन वर्तमान में जो आगम उपलब्ध है उनमें यत्र-तत्र बिखरा हुआ विवेचन मिलता है उस समय की जन भाषा ( प्राकृत ) थी। इस कारण से उसका अर्थ और भाव दोनों को समझने में बड़ी कठिनाई होती है। कुछ आचार्यों ने क्रमबद्धता लाने का प्रयास किया, जिसके उदाहरण प्रज्ञापना एवं नदी सूत्र में मिलते हैं लेकिन उनमें भी सूत्र शैली की भिन्नता के कारण विषय के प्रतिपादन में परिपूर्णता नहीं आती है। विशेषकर जैनेतर विद्वानों को आगमों का अध्ययन कर सही अर्थ ग्रहण करना कठिन है। जैसा कि मुझे मालुम हुआ स्व० मोहनलालजी बांठिया के समक्ष इस कठिनाई का प्रश्न तुलनात्मक अध्ययन करने वाले जैन व जैनेत्तर विद्वानों ने कई बार रखा। उन्होंने स्वयं ने भी जैन आगमों के अध्ययन में इस कठिनाई का अनुभव किया। इन कठिनाइयों को दूर करने की भावना से उनके मन में विचार का उद्भव हुआ कि आगमों में आये हुए परिभाषिक विषयों का संकलन करके आधुनिक शैली व आधुनिक पद्धति में सजाकर प्रकाशित किया जाय। इस कार्य को क्रियावित करने के उद्देश्य से उन्होंने श्री श्रीचन्द जी चोरड़िया के सहयोग से जैन बाममों के विभिन्न विषयों के पाठों का संकलन करना प्रारम्भ किया। अस्तु प्रथम लेश्या विषय का संकलन कर लेश्या कोश नाम की पुस्तक का प्रकाशन किया गया जिसका देश व विदेश के विद्वानों द्वारा बहु सराहना की गई। कोश निर्माण एवं प्रकाशन कार्य को स्थायी रूप देने के उद्देश्य से जैन दर्शन समिति ( Jain Philosophical Society ) 1969 में स्थापना की गई। तब से यह संस्था स्व. मोहनलालजी बांठिया एवं श्री श्रीचन्दजी चोरडिया द्वारा निर्मित विषयों पर कोश प्रकाशन का कार्य कर रही है। इस प्रकार दसमलव प्रणाली के आधार पर करीब १००० विषयों पर आगम व प्राचीन भारतीय दर्शनों का तलस्पर्शी अध्ययन कर पांडुलिपियाँ तैयार की गई है। इस संस्था के द्वारा निम्नलिखित कोश प्रकाशित हुए है जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है : (१) लेश्या कोश-इस ग्रन्थ में छओं लेश्याओं का विस्तृत विवेचन है । लेश्याओं का आगम ग्रन्थों में अनेक जगह उल्लेख है इस ग्रन्थ में उसका संकलन किया गया है। जो शोध कार्य करने वाले विद्वानों के लिये बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ है। यह पुस्तक अभी "आउट ऑफ प्रिन्ट" है । (२) क्रिया कोश - इस पुस्तक में आरंभिकी आदि २५ क्रियाओं का उल्लेख है। यह पुस्तक भी अभी “आउट ऑफ प्रिन्ट" है । (३) मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास- श्री श्रीचन्द चोरडिया के लगभग २०० ग्रन्थों के ग्रहन एवं गम्भीर अध्ययन का निचोड़ है। इस पुस्तक में शास्त्रों के आधार पर लेखक ने अपने विषय को प्रस्तुत किया है जिसको विद्वानों ने बहुत सहराया है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 16 ) (४) वर्धमान जीवन कोश, प्रथम खण्ड - प्रस्तुतः ग्रन्थ जैन दर्शन समिति की कोश प्रकाशन की कड़ी में एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है इसमें भगवान महावीर का च्यवन गर्भ जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान तथा परिनिर्वाण आदि का विस्तृत विवेचन है । अर्थात गर्भ से परिनिर्वाण तक का जीवन संकलित है । (५) वर्धमान जीव कोश, द्वितीय खण्ड - इस खण्ड में भगवान महावीर के पूर्व भवों के अतिरिक्त ११ गणधर, आर्य चन्दना का पृथक-पृथक विवरण आदि संकलित है । (६) वर्धमान जीवन कोश, तृतीय खण्ड — इस महत्वपूर्ण पुस्तक में भगवान महावीर के चतुविध धर्म की स्थापना एवं समकालीन राजाओं के विवेचन है । (७) योग कोश प्रथम खण्ड - इस उपयोगी ग्रन्थ में योग के पन्द्रह भेदों का विवेचन हुआ है । जीव में कितने योग होते हैं आदि का क्रमवार विवेचन है । (८) योग कोश द्वितीय खण्ड - यह ग्रन्थ जो अभी ने जीव के विविध विषयों को लेकर विवेचन किया है। ग्रन्थ पाठकों के लिये उपयोगी सिद्ध होता । प्रकाशित हुआ है इस में लेखक मुझे पूरा विश्वास है कि यह इस प्रकार जैन दर्शन समिति अपने सिमित दायरे में जैन दर्शन के पारिभाषिक विषयों पर आगमों में आये हुए पाठों का संकलन कर प्रकाशन का कार्य कर रही है । संस्था के शैशव काल में जोधपुर निवासी स्व० जबरमलजी भण्डारी से जैन दर्शन समिति के प्रत्येक ग्रन्थ के प्रकाशन में उनके बहुमूल्य सुझाव मिलते रहते थे । ग्रन्थों के प्रकाशन में भी उनका सहरानीय आर्थिक सहयोग रहा। प्रस्तुत ग्रन्थ श्री फतेहचन्द जी चैनरूप जी भन्साली के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हुआ है। समिति उनके प्रति आभार व्यक्त करती है । जैन दर्मन समिति का प्रमुख उद्देश्य जैन दर्शन को उजागर करना है स्व० मोहनलालजी बाँठिया एवं श्री श्रीचन्द जी चोरड़िया के जैन दर्शन के तलस्पर्शी अध्ययन द्वारा तैयार किये हुए कोष कार्य को प्रकाशित कर जन मानस तक पहुँचाना है । इस समिति के कार्य को सुचारु चलाने में श्री फतेहचन्दजी भन्साली, श्री मांगीलालजी लूणीया श्री केवलचन्दजी नाहटा, श्री नवरतनमलजी सुराणा, श्री श्रीचन्दजी चोरड़िया एवं श्री पद्मचन्दजी रायजादा का विशेष योगदान रहा है । मेरी यह मंगलकामना है कि ज्यादा से ज्यादा लोग समिति द्वारा प्रकाशित ग्रन्थों से लाभान्वित हो । पाठकों से मेरा सविनय अनुरोध है कि अगर वे समिति के सदस्य न हो तो सदस्य बनकर हमें प्रोत्साहित करें । गुलाबमल भण्डारी, अध्यक्ष जैन दर्शन समिति Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय स्व० मोहनलालजी बाँठिया ने, अपने अनुभवों से प्रेरित होकर एक जैन विषय कोश की परिकल्पना प्रस्तुत की तथा श्रीचन्दजी चोरडिया के सहयोग से प्रमुख आगम ग्रन्थों का मंथन करके, एक विषय सूची प्रणीत की। फिर उस विषय सूची के आधार पर जैन आगमों से विषयानुसार पाठ संकलन करने प्रारम्भ किये। यह संकलन उन्होंने प्रकाशित आगमों की प्रतियों से कतरन विधि से किया। इस प्रकार प्रायः १००० विषयों पर पाठ संकलित हो चुके हैं । सर्वप्रथम 'लेश्या कोश' नामक पुस्तक स्वयं ही ई. सन १९६६ में श्रीचन्दजी चोरडिया के सहयोग से प्रकाशित की। जैन दर्शन और वाङ्मय के अध्ययन के लिए जिस रूप में लेश्या कोश को अपरिहार्य बताया गया है और पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा के रूप में जिस तरह से मुक्त कंठ से प्रशंसा की गई है, यह उसकी उपयोगिता तथा सार्वजनीनता को आलोकित करने में सक्षम है। सम्पादकों ने जैनागम एवं वाङ्मय के तलस्पर्शी गम्भीर अध्ययन द्वारा प्रसूत कोश परिकल्पना को क्रियान्वित करने तथा उनके सत्कर्म और अध्यवसाय के प्रति समुचित सम्मान प्रकट करने की पुनीत भावनावश जैन दर्शन समिति की संस्थापना महावीर जयन्ती ई० १९६९ के दिन की (३१-३-६९) गई थी। इस संस्था के द्वारा सन् १९६९ में क्रिया कोश प्रकाशित हुआ। इसके बाद सम्पादकों ने पुद्गल कोश, ध्यान कोश, नरक कोश, संयुक्त लेश्या कोश भी पूर्ण किया जो अभी प्रकाशित नहीं हुए हैं। जैन दर्शन समिति द्वारा श्री बांठिया ने अपने जीवन काल में श्रीचन्दजी चोरडिया के सहयोग से वर्धमान जीवन कोश का काफी संकलन कर लिया था। परन्तु २३-९-१९७६ (आश्विन बदी १५, सं० २०३३ ) में आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। वांठियाजी के स्वर्गवास पर जैन दर्शन समिति को बहुत बड़ा धक्का लगा। श्रीचन्दजी चोरड़िया अपने धुनके पक्के व्यक्ति है। उनके स्वर्गवास के बाद 'मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' जो कोश की कोटि के ग्रन्थ का सन् १९७७ में प्रकाशित हुआ। वर्धमान जीवन कोश, प्रथम खण्ड सन् १९८० में, वर्धमान जीवन कोश, द्वितीय खण्ड सन् १९८४ में तथा वर्धमान जीवन कोश तृतीय खण्ड सन् १९८८ में प्रकाशित हुआ। योग कोश प्रथम खण्ड १९९३ में प्रकाशित हुआ। प्रस्तुत कोश, विद्वद् वर्ग द्वारा जितना समादृत हुआ। तथा जैन दर्शन और वाङ्मय के अध्ययन के लिए जिस रूप में इसे अपरिहार्य बताया गया और पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा के रूप में जिस तरह मुक्त-कंठ से प्रशंसा की गई, यही उसकी उपयोगिता तथा सार्वजनिनता को आलोकित करने में सक्षम है। इसी प्रयास स्वरुप योग कोश (द्वितीय खण्ड) आपके समक्ष प्रस्तुत है। जैन दर्शन समिति ने कोश प्रकाशनों की योजना को किसी तरह की लाभवृत्ति या उपार्जन के लिए हाथ में नहीं लिया है अपितु इसका पावन उद्दश्य एक अभाव की पूर्ति करना, अर्हत् प्रवचन की प्रभावना करना तथा जैन दर्शन और वाङ्मय का प्रचार-प्रसार करना तथा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 18 ) इसके गहन गम्भीर तत्त्वज्ञान के प्रति सर्व साधारण को आकृष्ट करना और इस तरह समाज की सेवा करना ही है । अस्तु योग कोश (द्वितीय खण्ड ) को प्रकाशित करने में भी भमकु देवी मेमोरियल ट्रष्ट, मारफत श्री फतेहचंद चैनरूप भन्साली ने हमें आर्थिक सहयोग दिया है । इसके लिए समिति उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करती है । पुनश्च योग कोश के तीन खण्ड किये गये हैं जिसका पहला व द्वितीय खण्ड आपके सामने आ गया है । प्रस्तुत कोश का प्रतिपादन अत्यन्त प्राञ्जल एवं प्रभावक भाषा रूप में सूक्ष्मता के साथ किया गया है । जैन दर्शन समिति के भूतपूर्व अध्यक्ष स्व० जबरमलजी भण्डारी, वर्तमान अध्यक्ष श्री गुलाबमल भण्डारी, पद्मचन्दजी नाहटा, इन्द्रमलजी भण्डारी, अभयसिंहजी सुराणा, माँगीलालजी लूणिया, नवरतनमल सुराणा, हीरालाल सुराणा, अजीत बाँठिया आदि समिति के उत्साही सदस्यों, शुभचिन्तकों एवं संरक्षकों का साहस निष्ठा का उल्लेख करना मेरा कर्तव्य है । जिनकी इच्छाएँ और परिकल्पनाएँ मुर्त रूप में मेरे सामने आ रही है । स्व० मोहनालजी बांठिया तथा श्री श्रीचन्दजी चोरड़िया अनेक पुस्तकों का अध्ययन कर योग कोश ( द्वितीय खण्ड ) को तैयार कर हमें प्रकाशित करने का मौका दिया उनके प्रति हम आभारी हैं । हमारी समिति द्वारा व पुस्तकें प्रकाशित हुई है जिसमें लेश्या कोश व क्रिया कोश स्टोक में नहीं है अवशेष ६ पुस्तकें स्टोक में है । हमारी समिति के निर्णयानुसार ३०० ) देने वाले सज्जनों को ४०५) रु० का पुस्तकें दी जाती है । १ - मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास २ - वर्धमान जीवन कोश, प्रथम खण्ड ३ - वर्धमान जीवन कोश, द्वितीय खण्ड ४ - वर्धमान जीवन कोश, तृतीय खण्ड ५ - योग कोश, प्रथम खण्ड ६ - योग कोश, द्वितीय खण्ड १००) १००) ४०५) जैन दर्शन समिति ने जैन दर्शन के प्रचार करने के उद्देश्य से योग कोश द्वितीय खण्ड का मूल्य केवल १००) रखा है। जैन - जैनेतर सभी समुदायों से हमारा अनुरोध है कि योग कोश क्रय करके अंततः अपने सम्प्रदाय के विद्वानों, भण्डारों में, पुस्तकालयों में इसका यथोचित वितरण करने में सहयोग दें । राज प्रोसेस प्रिन्टर्स के मालिक महेन्द्र राज मेहता तथा उनके कर्मचारी धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने अनेक बाधाओं के होते हुए भी प्रकाशित करने में सक्षम रहे हैं । १०-१२-१९९६ कलकत्ता १५) ५०) ६५) ७५) पद्मकुमार रायजादा, मन्त्री जैन दर्शन समिति Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जैन दर्शन सूक्ष्म और गहन है तथा मूल सिद्धान्त ग्रन्थों में इसका क्रमबद्ध तथा विषयानुक्रम विवेचन नहीं होने के कारण इसके अध्ययन में तथा इसके समझने में कठिनाई होती है। अनेक विषय के विवेचन अपूर्ण अधूरे हैं, अतः अनेक स्थल इस कारण से भी समझ में नहीं आते हैं। अर्थ बोध की इस दुर्गमता के कारण जैन-अजैन दोनों प्रकार के विद्वान् जैन दर्शन के अध्ययन में सकुचाते हैं। क्रमबद्ध तथा विषयानुक्रम विवेचन का अभाव जैन दर्शन के अध्ययन में सबसे बड़ी बाधा उपस्थित करता है-ऐसा हमारा अनुभव है। __ जब हमने 'पुद्गल' का अध्ययन प्रारम्भ किया तो हमारे सामने भी बड़ी समस्या खड़ी हुई। आगम और सिद्धान्त ग्रन्थों से पाठो का संकलन करके इस समस्या का हमने आंशिक समाधान किया। इस प्रकार जब-जब हमने जैन दर्शन के अन्यान्य विषयों का अध्ययन प्रारम्भ किया तब-तब हमें सभी आगम तथा अनेक सिद्धान्त ग्रन्थों को सम्पूर्ण पढ़कर पाठ-संकलन करने पड़े। इसी तरह जिस विषय का भी अध्ययन किया इसे सभी ग्रन्थों का आद्योपांत अवलोकन करना पड़ा। इससे हमें अनुमान हुआ कि विद्वद वर्ग जैन दर्शन के अध्ययन में क्यों सकुचाते हैं। सर्वप्रथम हमने पाठ संकलन को ३२ श्वेताम्बर आगमों तथा तत्त्वार्थ सूत्र में सीमाबद्ध रखना उचित समझा। ऐसा हमने किसी साम्प्रदायिक भावना से नहीं बल्कि आगम व सिद्धान्त ग्रन्थों की बहुलता तथा कार्य भी विशालता के कारण ही किया है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों के संकलन कर लेने के पश्चात् दिगम्बर सिद्धान्त ग्रन्थों-षट्खण्डागम, कषाय पाहुड आदि से भी संकलन किया। सर्वप्रथम हमने विशिष्ट पारिभाषिक, दार्शनिक तथा आध्यात्मिक विषयों की सची बनाई। विषय संख्या १००० से भी अधिक हो गई। इन विषयों के सष्ट वर्गीकरण के लिए हमने आधुनिक सार्वभौमिक दशमलव वर्गीकरण का अध्ययन किया। तत्पश्चात बहुत कुछ इस पद्धति का अनुसरण करते हुए हमने सम्पूर्ण जैन वाङ्मय को १०० भागों में विभक्त करके मूल विषयों के वर्गीकरण की एक रूप रेखा (देखें पृ०८ ) तैयार की। यह रूपरेखा कोई अन्तिम नहीं है। परिवर्तन, परिवर्द्धन तथा संशोधन की अपेक्षा भी इसमें रह सकती है। मूल विषयों में से भी अनेकों के उपविषय की सूची भी हमने तैयार की है। उनमें जीव-परिणाम ( विषयांकन ०५) की उपविषय सूची पृ० ११ पर दी गई है। जीव परिणाम की यह उपसूची भी परिवर्तन, परिवर्द्धन व संशोधन की अपेक्षा रख सकती है। विद्वद् वर्ग से निवेदन है कि वे इन विषय सूचियों का गहरा अध्ययन करें तथा इनमें परिवर्तन, परिवर्द्धन व संशोधन सम्बन्धी अथवा अपने अन्य बहुमूल्य सुझाव भेजकर हमें अनुगृहीत करें। ___ कतरन व फाइल करने का कार्य पूरा होने के बाद हमने संकलित विषयों में से किसी एक विषय के पाठों का सम्पादन करने का विचार किया। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) सम्पादन में निम्नलिखित तीन बातों को हमने आधार माना है । १-पाठों का मिलान २-विषय के उपविषयों का वर्गीकरण तथा ३-हिन्दी अनुवाद अस्तु लेश्या कोश, क्रिया कोश, मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास, वर्धमान जीवन कोश (खण्ड १, २, ३) के बाद हमने सम्पादन के लिए 'योग' विषय को ग्रहण किया। पुद्गल कोश, ध्यान कोश, संयुक्त लेश्या कोश भी तैयार किये हैं। प्रत्येक विषय में संकलित पाठों तथा अनुसंधित पाठों का वर्गीकरण करने के लिए हमने प्रत्येक विषय को १०० वर्गों में विभाजित किया है तथा आवश्यकतानुसार इन १०० वर्गों को दस या दस से अधिक मूल वर्गों में भी विभाजित करने का हमारा विचार है । सामान्यतः सभी विषयों के कोशों में निम्नलिखित वर्ग प्राय: अवश्य रहेगे। .. शब्द विवेचन ( मूल वर्ग) .०१ शब्द की व्युत्पत्ति-प्राकृत-संस्कृत व पाली भाषाओं में .०२ पर्यायवाची शब्द–विपरीतार्थक शब्द शब्द के विभिन्न अर्थ ..४ सविशेषण-ससमास-सप्रत्यय शब्द '०५ परिभाषा के उपयोगी पाठ .०६ प्राचीन आचार्यों द्वारा की गई परिभाषा .०७ भेद-उपभेद .०८ शब्द संबंधी साधारण विवेचन .०९ विविध ( मूल वर्ग) .०९९ बिषय संबंधी फूटकर पाठ तथा विवेचन अन्य सब मूलवर्ग या उपवर्ग संकलित पाठों के आधार पर बनाये जायेंगे। योग कोश में हमने निम्नलिखित मूलवर्ग रखें हैं - WWW. शब्द विवेचन द्रव्ययोग (प्रायोगिक ) भावयोग (प्रायोगिक) योग और जीव सयोगी जीव विविध यथा सम्भव वर्गीकरण को सब भूमिकाओं में एकरूपता रखी जायेगी। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 21 ) योग कोश विषयांकन हमने ०४०५ किया है। इसका आधार यह है कि सम्पूर्ण जैन वाङ्मव को १०० भागों में विभाजित किया गया है ( देखें मूलवर्गीकरण सूची पृ० ८) इसके अनुसार जीव परिणाम का विषयांकन ०४ है। जीव परिणाम को सौ भागों में विभक्त किया गया है ( देखें जीव परिणाम वर्गीकरण सूची पृ० ११) इसके अनुसार योग का विषयांकन ०५ होता है। अतः योग का विषयांकन हमने ०४०५ किया है। योग के अन्तर्गत आनेवाले विषयों में आगे दशमलव का चिह्न है। योग कोश भी लेश्या कोश की तरह हमारी कोश परिकल्पना का परिक्षण (ट्रायल) है। इस परिकल्पना में पुष्ठता तथा हमारे अनुभव में यथेष्ठ समृद्धि हुई है। योग, लेश्या, भाव, अध्यवसाय, क्रिया तथा परिणाम आदि जैन आगमों के परिभाषिक शब्द है । पर्याय की अपेक्षा जीव अनंत परिणामी है, फिर भी आगमों में जीव के दस ही परिणामों का उल्लेख है । (स्थानांग स्था १०, पण्ण पद १३) जीव परिणाम के दस परिणामों को प्राथमिकता देकर ग्रहण किया गया है लेकिन साथ ही कर्मों के उदय से वा अन्यथा होनेवाले अन्य अनेक प्रमुख परिणामों को वर्गीकरण में स्थान दिया है। इनमें से उत्पाद-व्ययध्रौव्य आदि कई विषय तो अन्यान्य कोशों में भी समाविष्ट होने योग्य है। योग शाश्वत भी है, अशाश्वत भी है। आहारककाय योग व आहारकमिश्र काययोम अशाश्वत है, बाकी तेरह योग शाश्वत है, दिगम्बर मतानुसार वैक्रियमित्र काय योग को अशाश्वत माना है बाकी बारह योग शाश्वत माने हैं । प्राचीन आचार्यों ने योग और लेश्या के विवेचन में निम्नलिखित परिभाषाओं पर विचार किया है। १-लेश्या योग परिणाम है-योग परिणामो लेश्या । २-लेश्या कर्म निस्यद रूप है-कर्म निस्यन्दो लेश्या । ३-लेश्या कषायोदयसे अनुरंजित योग प्रवृत्ति है-कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिबैश्या। ४-योग और लेश्या-नाम कर्म व मोहनीय कर्म का उदय भाव है। ___ अस्तु-लेश्यस्व व योगीत्व जीवोदयनिष्पन्न भाव है। अतः कर्मों के उदय से भी जीव के मन-वचन काय के योग होते हैं । द्रव्य योग : पोद्गलिक है अतः अजीवोदय निष्पन्न होना चाहिए-पओगपरिणामए वण्ये, गंधे, रसे, फासे x x x। जहाँ परिणाम शुभ होते हैं (योग परिणाम), अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं वहाँ लेश्या विशुद्धमान होती है। सयोगी के कर्मों की निर्जरा के समय परिणामों काशुभ होना,अध्यवसायों का प्रशस्त होना तथालेश्या का विशुद्धमान होना आवश्यक है। जब वैराग्य भाव प्रकट होता है तब इन तीनों में क्रमशः शुभता, प्रशस्तत्ता तथा विशुद्धता होती है। यहां परिणाम शब्द से जीव के मूल दश परिणामों में से किस परिणाम की ओर Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22 ) इंगित किया है-यह विवेचनीय है। यहां प्राचीन आचार्यों ने योग को भी परिणाम में ग्रहण किया है। लेश्या और योग ; लेश्या और अध्यवसाय का कैसा सम्बन्ध है यह भी विचारणीय विषय है। क्योंकि अच्छी-बुरी दोनों प्रकार की लेश्याओं में अध्यवसाय प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों होते हैं। इसके विपरीत जब परिणाम अशुभ होते हैं, अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं तब लेश्या अविशुद्ध-संक्लिष्ट होनी चाहिए। जब गर्भस्थ जीव नरकगति के योग्य कर्मों का बंधन करता है तब उसका चित्त, उसका मन, उसकी लेश्या तथा उसका अध्यवसाय तदुपयुक्त होता है। उसी प्रकार जब गर्भस्थ जीव देव गति के योग्य कर्मों का बंधन करता है तब उसका चित्त, उसका मन, उसकी लेश्या तथा उसका अध्यवसाय तदुपयुक्त होता है। इससे भी प्रतीत होता है कि इन तीनों का - मन व चित्त के परिणामों का, लेश्या और अध्यवसाय का सम्मिलित रूप से कर्म बंधन में पूरा योगदान है। इसी प्रकार कर्मों की निर्जरा में भी इन तीनों का पूरा योगदान होना चाहिए । यद्यपि अयोगी के भी महानिर्जग होती है। जीव योग द्रव्यों को ग्रहण करता है तथा पूर्व में गृहीत योग द्रव्यों को नवगृहीत योग द्रव्यों के द्वारा परिणत करता है। जीव द्वारा योग द्रव्यों का ग्रहण नाम कर्म व मोहनीय कर्म के उदय से होता है। यद्यपि इस विषय पर किसी भी टीकाकार का कोई विशेष विवेचन नहीं है। आचार्य मलयगिरि का कथन है कि शास्त्रों में आठ कर्मों के विपाकों का वर्णन मिलता है लेकिन किसी भी कर्म के विपाक में लेश्या तथा योग रूप विपाक उपदर्शित नहीं है। सामान्यतः सोचा जाय तो योग द्रव्यों का ग्रहण किसी नाम कम के उदय से होना चाहिए। नाम कर्मों में ही शरीर नाम कर्म के उदय से ही ग्रहण होना चाहिए। यदि योग का लेश्या के साथ अविनाभाव सम्बन्ध माना जाय तो द्रव्य योग व द्रव्य लेश्या के पुदगलों का ग्रहण शरीर नाम कर्म के उदय से होना चाहिए। क्योंकि योग शरीर नाम कर्म की परिणति विशेष है। ( देखें पृ० १/९६) शुभ नाम कर्म के उदय से शुभ योगों का ग्रहण होना चाहिए तथा अशुभ नाम कर्म के उदय से अशुभ योगों का ग्रहण होना चाहिए । तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जयाचार्य ने झीणी चर्चा में कहा है कि अशुभ लेश्याओं से पाप कर्म का बंधन होता है तथा पाप कर्म का बंधन केवल मोहनीय कर्म से होता है। अतः अशुभ द्रव्य योगों का ग्रहण मोहनीय कर्म के उदय के समय होना चाहिए। अन्यत्र ठाणांग के टीकाकार कहते हैं कि योग-वीर्य अन्तराय के क्षय-क्षयोपशम से होता है। जब जीव एक योनि से मरण, च्यवन, उदवर्तन करके अन्य योनि में जाता है तब जाने के पथ में जितने समय लगते हैं उतने समय में वह काययोगी होता है (सिद्धगति को छोड़कर )। आधुनिक विज्ञान में भी जीव के शरीर से किस वर्ण भी आभा निकलती है इसका अनुसंधान हो रहा है तथा उसके तत्कालीन विचारों के साथ वर्णों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया जा रहा है । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 23 ) जीवों में - उदय भाव से तीनों योग होते हैं । शुभ योग कषायों के उपशम, क्षयक्षयोपशम से होते हैं । अतः योग औपशामिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक भाव भी है । सविशेषण - ससमास - सप्रत्यय योग शब्दों में कितने ही शब्द प्रायोगिक द्रव्य और भाव योग से सम्बन्धित है । मरण तीन प्रकार का कहा है- बालमरण, पंडितमरण व बालपंडितमरण | बालमरण के समय शुभ व अशुभ दोनों योग होते हैं । अवशेष दोनों मरण में शुभयोग व प्रशस्त लेश्या होती है । पंडितमरण छट्ठ गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक व चौदहवें गुणस्थान में अयोगी, अलेली होता है तथा बालपंडितमरण केवल पांचवें गुणस्थान में होता है । योग आत्मप्रदेशों में ही परिणमन करता है, अन्यत्र नहीं करता है । इससे पता चलता है कि संसारी आत्मा के साथ योग के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है और वह अनादिकाल से चला आ रहा है । जीव जब तक अंतक्रिया नहीं करता है तब तक सम्बन्ध चलता रहता है और आत्मा में योगों का परिणमन होता रहता है । यद्यपि चौदहवे गुणस्थान में अयोगी हो जाता है । मनोयोग, वचनयोग व काययोग में 'वट्टमाण' वर्तता हुआ जीव और जीवात्मा एक है, अभिन्न है, दो नहीं है । जब जीवात्मा ( पर्यायात्मा ) योग परिणामों में वर्तता है तब वह जीव यानि द्रव्यात्मा से भिन्न नहीं है, एक है । अर्थात् वही जीव है, वही जीवात्मा है । चूंकि द्रव्यात्मा द्रव्य जीव है, अवशेष सात ( कषाय आदि ) आत्मा भाव जीव है । आत्मा आठ है - (१) द्रव्य आत्मा, (२) कषाय आत्मा, (३) योग आत्मा, (४) उपयोग आत्मा, (५) ज्ञान आत्मा, (६) दर्शन आत्मा, (७) चारित्र आत्मा और (5) वीयं आत्मा हैं । लेश्या और योग का अविनाभावी सम्बन्ध है । जहाँ लेश्या है वहाँ योग है । जहाँ योग है वहाँ लेश्या है । फिर भी दोनों भिन्न-भिन्न तत्त्व है । भावतः लेश्या परिणाम तथा योग परिणाम जीव परिणामों में अलग-अलग बतलाये गये हैं । अतः भिन्न है । द्रव्यतः मनोयोग तथा वाक्योग के पुद्गल चतुः स्पर्शी है तथा काय योग के पुद्गल अष्टस्पर्शी स्थूल है । लेकिन लेश्या के पुद्गल अष्टस्पर्शी तो है लेकिन सूक्ष्म है अर्थात् द्रव्य काय योग के पुद्गलों से सूक्ष्म है क्योंकि लेश्या के पुद्गलों को भावितात्मा अणगार न जान सकता है, न देख सकता है । अतः द्रव्यतः भी योग और लेश्या भिन्न भिन्न है । लेश्या परिणाम तथा योग परिणाम जीवोदय निष्पन्न भाव है - कहा है "से कि तं जीवोदय निफन्ने ? अणंगविहे पन्नत्तं तं जहा-नेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से देवे, पुढविकाइए जाव तसकाइए, कोहकसाइ जाव लोभकसाइ, इत्थीवेयए पुरिसवेयए, नपुं सगवेयए, कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से, मिच्छादिट्ठी Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 24 ) सम्मदिट्ठी सम्ममिच्छादिट्ठी, अविरए, असण्णी, अण्णाणी, आहारए, छउमत्थे, सजोगी, संसारत्थे, असिद्ध सेतं अजीवोदयनिष्फन्ने । -अणुओ० सू १२६ । पृ० ११११ अर्थात् जीवोदय निष्पन्न भाव अनेक प्रकार का है- यथा, नरक गति आदि चार गति, पृथ्वीकायादि छह काय, क्रोध आदि चार कषाय, कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या, मिथ्या दृष्टि आदि तीन दृष्टि, अविरति, असंज्ञी, अज्ञानी, आहारक, छमस्थ, सयोगी, संसारता, असिद्धता। योग वीयं से प्रवाहित होता हैसे गं भंते ! जोए किंपवहे, गोयमा ! वोरियप्पवहे । -भग. भ. १। उ४। सू १४३ अर्थात् योग–वीर्य से प्रवाहित होता है। किस और कितने योग में कौन से जीव एक योग वाले औदारिक काय वाले जीव-दिखाई देने वाले अन्नकण में, कामण काय वाले जीव–वक्रगति में, केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे, पांचवे समय में दो योग वाले चलती हुई चीटी में औदारिक काय योग व व्यवहार वचन योग चलती हुई लट में चलती हुई मक्षिका में तीन योग वाले... (१) पृथ्वीकाय, (२) अपकाय, (३) अग्निकाय और (४) वनस्पतिकाय चार योग वाले जीव (१) द्वीन्द्रिय, (२) त्रीन्द्रिय और (३) चतुरिन्द्रिय पांच योग वाले जीव (१) वायुकाय में छ: योग असंज्ञी में, सात योग केवली मैं, आठ योग तीसरै गुणस्थान की नियमा में, नौ योग परिहार विशुद्धि चारित्र में, दस योग तीसरे गुण स्थान में, ग्यारह योग देवो में, बारह योग श्रावक में, तेरह योग संज्ञी तियंच पंचेन्द्रिय में, चौदह योग मनोयोगी में व पंद्रह योग मनुष्य में होते हैं। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 25 ) सिद्धान्त ग्रन्थों में कहा गया है कि मात्र काययोग से मोहनीय जैसे कर्म का बंध उत्कृष्ट रूप से एक सागर की स्थिति का हो सकता है। वचनयोग मिलते ही पच्चीस सागर की स्थिति का उत्कृष्ट बंध हो सकता है। घ्राणेन्द्रिय यानी नासिका के मिलने पर पचास सागर, चक्षु के मिलते ही सौ सागर की स्थिति का बंध हो सकता है और जब अमनस्क पंचेन्द्रिय की दशा में कान मिलते हैं तो हजार सागर तक बंध संभव है लेकिन मनोयोग मिल गया और उत्कृष्ट मोहनीय कर्म का बंध होने लगा तो वह लाख और करोड़ सागर को पार कर सकता है। सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम का सर्वोत्कृष्ट मोहनीय कर्म का बंध मनोयोग मिलने पर होता है। लेश्या का परिणाम व्यक्तित्व रूपान्तरण का संकेत है। निर्वाण के पूर्व सयोगी केवली के जब मन और वचनयोगों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है। बादर काययोग का भी निरोध हो जाता है-अस्तु उनके सूक्ष्म काययोग-सूक्ष्म कायिकी क्रिया-उच्छवासादि के रूप में होती है। उस स्थिति में शुक्ल लेश्या के साथ शुक्ल ध्यान का तीसरा भेद 'सुहुमकिरिए अनियट्टी' ध्यान होता है। ध्यान से योगों की चंचलता में कमी आती है। योगजनित चंचलता के नष्ट होने पर मिथ्यादृष्टि, आकांक्षा, प्रमाद और आवेश समाप्त हो जाते हैं। भगवती सूत्र में कहा गया है कि कांक्षा मोहनीय कर्म का बंध प्रमाद और योग से होता है। प्रमाद योग से उत्पन्न होता है तथा योग वीर्य, पराक्रम व प्रवृत्ति से उत्पन्न होता है। वीर्य शरीर से व शरीर जीव से उत्पन्न होता है।' सामान्यत: समान गुण व जाति वाले समुदाय को वर्गणा कहते हैं। औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, मन, वचन एवं श्वासोच्छवास वर्गणा-ये आठ मुख्य वर्गणा के भेद हैं । इन वर्गणाओं का योग के साथ घनिष्ट सम्बन्ध है । मूलतः आगमों में योग ब लेश्या की परिभाषा औधिक रूप से उपलब्ध नहीं होती है। कर्म के उदय और क्षयोपशम से जैसे हमारे योगों में परिवर्तन आता है वैसे ही लेश्या भी सतत परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरती रहती है । __ कर्मबंध के दो हेतु हैं-कषाय और योग । प्रकृति बंध तथा प्रदेश बंध का संबंध योग से है और स्थिति बंध और अनुभाग बंध का संबंध कषाय से है। आत्मा के साथ कर्म पुदगलों को श्लिष्ट करने वाली प्रवृत्ति लेश्या है। ये योग के परिणाम विशेष है। योग का निरोध होने पर लेश्या का भी निरोध हो जाता है। आगम साहित्य में लेश्या के बाद योग परिणाम कहा है। दिगम्बर साहित्य में मार्गणाओं की ऋमिकता में योग के बाद लेश्या मार्गणा कही है। जैन दर्शन आठ आत्माएं मानता है। द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मादि। लेकिन लेश्या रूप आत्मा का उल्लेख इनमें नहीं है। आत्मा के आठ भेदों में से किसी एक में उसका अस्तित्व अन्तनिहित अवश्य होना चाहिए। १. भग०१।१४० Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 26 ) भाव चेतना का परिणाम है । ' 'भावः चित्परिणामः ' जीव का स्वरूप पंच भावात्मक है । योग परिणाम भी योगत्रय जनक कर्म के उदय का फल है । योग और लेश्या जीवोदय निष्पन्न भाव भी है | वीर्यान्तराय कर्म के क्षय एवं क्षयोपशम और नाम कर्म के उदय से योगों की निष्पत्ति होती है । उनमें शुभ या अशुभ की विवक्षा करने पर मोह कर्म के क्षय, क्षयोपशम आदि और उदय का साहचर्य अवश्यंभावी है । मन, वचन और काय — ये तीन योग एक साथ शुभ या अशुभ होते हैं, उसी प्रकार एक शुभ और दो अशुभ, दो शुभ और एक अशुभ भी हो सकते हैं । अर्थात् व्यवहार या स्थूल दृष्टि से तीनों योग एक साथ अशुभ भी हो सकते हैं और शुभ भी । तथा एक योग शुभ और एक अशुभ - ऐसे भी हो सकते हैं । निश्चय दृष्टि से एक समय में दो योगों की प्रवृत्ति होती ही नहीं है, इसलिए एक साथ एक योग शुभ और एक योग अशुभ होने का प्रसंग नहीं आता । योग अशुभ होने मोह कर्म का उदय और शुभ होने में क्षयोपशमादि का साहचर्य अवश्यंभावी है । आचार्य भिक्षु ने विरत अविरत की चौपाई में कहा है साधां ने वांदण जाता मारग में, करें जिसा फल सावद्य निरवद तीन जोगां सूं, पुन पाप न्यारा न्यारा वांदण जातां मन जोग सुध हुवे तो, एकंत निरजरा न्यारो रे । वचन ने काया असुध हुवें तो, तिण सूं पाप लागे छे आयो रे ॥१३॥ कदे काया 'वचन दोनू जोग सुध हुवे, त्यां सू पिण हुवे निरजराधर्मो रे । एक मनरो जोग असुध रहयों बाकी, तिणसू लागें पाप कर्मों रे ॥ १४ ॥ कदे तीनू जोग सुधहुवें तो, पाप न लागें लिगारो रे । इणविध वांदण जातां मारगमें, तीनों जोगां रो व्यापार न्यारो ॥१५॥ पाव रे । थायो रे || १२ || असुभ जोगांसू पाप सुभ जोगां सूं पुन, तिण मांहें म जांणो फेरो रे । सावध निरवद रा फल जुवा जुवाछे, दूध पांणी ज्यू जाणों निवेडो रे ।।१६।। कोइ साधां ने असणांदिक आहार वेंहरावें, ते वोलें छे मुख उघाडे रे । काया रो जोग तो निरवद तिणरो, वचन सू वाउकाय ने मारे रे ॥२१॥ उधाड़ें मुख बोलें वाउकाय मारयां, तिणरो लागें पाप काया रा जोग सू जेंणा करनें वेंहरायों, तिणरो छे एकंत मन वचन तणा जोग दोनू असुध, एक काया तणों जोग चोखो रे । तिणरा हाथां सूं साध वेहरें तो, मूल नहीं छे दोसो रे ॥२५॥ १. गोम्मटसार, जीवकांड १६५, जीव तत्त्व प्रदीपिका पृ० २९४ कर्मों रे । धर्मो रे ॥ २२ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 27 ) साधु वेहरें काया रो सुध जोग हुवें तो, जब वेहरयां वेहरायां धर्म निसंकधर्मी रे । मन वचन रा जोग असुध हुवे तो, तिणरो तिणनें इज लागे कर्मों रे ॥२६॥ -विरत अविरत री चौपइ : ढाल ९ अर्थात् मन, वचन और काया- इन तीनों योग सावद्य-निरवद्य दोनों है। यदि मनोयोग शुद्ध है तो एकांत निर्जरा होती है। यदि वचन और काय के योग अशुद्ध है तो उनसे पाप लगता है। साधु को वंदन करने के लिए जाता है तो तीनों योगों की प्रवृत्ति अलग-अलग है। कदाचित् काय और वचन के योग शुद्ध हो तो उनसे निर्जरा होती है। एक मनोयोग अशुद्ध हो तो उससे पापकर्म का बंध होता है। यदि तीनों योग शुद्ध हो तो पापकर्म का बंध नहीं होता है। निष्कर्ष यह है कि अशुभ योग से पापकर्म व शुभ योग से पुण्यकर्म लगता है। सावध व निरवद्य का फल दूध-चीनी की तरह अलग-अलग है। खुले मुह बोलने से वचन का योग सावध है। काययोग का अयतना पूर्वक व्यवहार करना निरवद्य है। कभी-कभी ऐसा भी संभव है मन, वचन का योग अशुभ है व एक काय योग शुभ होता है। कदाचित् ऐसा भी संभव है तीनों योग शुद्ध होते हैं। जैसे सलेशी जीव आरंभी और अनारंभी दोनों होते हैं, वैसे सयोगी जीव आरंभी और अनारंभी दोनों होते हैं। जीव के प्रयोग अर्थात् मन आदि के व्यापार से जो बंध होता है वह जीव प्रयोग बंध है। अनंतरबंध एवं परस्पर बंध का भी विवेचन आगम में मिलता है। ..- है। जीव और पुद्गल का प्रथम समय का बंध अनंतरबंध एवं उनके आगे के समयों का बंध परस्पर बंध कहलाता है। प्रतिसंलीनता तप में योग और इन्द्रियों का निग्रह होता है। साधक के लिए इन्द्रियजय व मनोविजय से बढ़कर और कोई गौरव नहीं होता है। अध्यवसाय की प्रशस्तता-अध्यवसाय का एक परिणाम है। व्यक्तित्व के तीन पहलू है-भाव, विचार और व्यवहार । व्यवहार कायिक प्रवृत्ति ( काययोग ) है। विचार मानसिक प्रवृत्ति ( मनोयोग ) है। दोनों स्नायुओं से संबंधित है। अतः इनका नियंत्रण संभव है। लेकिन भाव लेश्या से जुड़ा है, अतः वह नियंत्रण नहीं, शोधन जरूरी है। योगजन्य प्रवृत्ति अर्थात् क्रियात्मक आचरण का त्याग किया जा सकता है, पर आन्तरिक-प्रमाद व कषाय का कभी प्रत्याख्यान नहीं होता है। धर्म, गुरु, इष्टदेव के प्रति उत्पन्न राग को प्रशस्त कहा गया है। 'धम्माणुराग' शब्द इसी का निर्वाहक है। भाव लेश्या आत्मा का परिणाम विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है। द्रव्य लेश्या पुद्गलात्मक होती है। योग यानी मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति । कतिपय आचार्यों की यह मान्यता है कि योग लेश्या की भूमिका बनाता है और कषाय उस पर रग चढ़ाता है। द्रव्य योग के परिस्पन्दन के सहकार से आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन भाव योग है और द्रव्य लेश्या के सहकार से आत्मभाव का परिणमन भाव लेश्या है। अतः योग को परिस्पन्दन एवं लेश्या को परिणमन कहा जा सकता है। जितने समय में अयोगी केवली जितने कर्म क्षीण करता है उतने कर्म सयोगी केवली संख्येयगुण काल अधिक में क्षीण करता है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 28 ) योग शब्द के दो अर्थ है-प्रवृत्ति और समाधि। इनकी निष्पत्ति दो भिन्न-भिन्न धातुओं से होती है। सम्बन्धार्थक 'युज्' धातु से निष्पन्न होने वाले योग का अर्थ हैप्रवृत्ति। समाध्यर्थक युज् धातु से निष्पन्न होने वाले योग का अर्थ है समाधि । उमास्वाति के अनुसार काय, वाङ् और मन के कर्म का नाम योग है ।' प्रस्तुत कोश में हमने योग का अर्थ प्रवृत्ति किया है। जीव के तीन मुख्य प्रवृत्तियों-कायिक प्रवृत्ति, वाचिक प्रवृत्ति और मानसिक प्रवृत्ति का हमने योग शब्द के द्वारा निर्देश किया है । कर्म-शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम तथा शरीर नाम कर्म के उदय से होने वाला वीर्य योग कहलाता है। भगवती सूत्र में एक प्रसंग आता है सेणं भंते ! जोए किं पवहे ? गोयमा ! वीरियप्पवहे। सेणं भंते ! वीरिए कि पवहे ? गोयमा ! सरीरप्पवहे । सेणं भंते ! सरीरे कि पवहे ? गोयमा ! जीवप्पवहे। -भग० १/१४३-१४५ अर्थात्-योग वीर्य से उत्पन्न होता है। वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है। शरीर जीव से उत्पन्न होता है। इस कर्म-शास्त्रीय परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि योग जीव और शरीर के साहचर्य से उत्पन्न होनेवाली शक्ति है । वृत्ति में उद्धृत एक गाथा में योग के पर्यायवाची नाम इस प्रकार है जोगो वीरयं थामो, उच्छाह परक्कमे तहा चेट्ठा । सत्ती सामत्थयन्ति य, जोगस्स हवंति पज्जाया । -स्थानांग वृत्ति पत्र १०१ अर्थात् १-योग, २-वीर्य, ३-स्थाम, ४-उत्साह, ५--पराक्रम, ६-चेष्टा, ७-शक्ति और सामर्थ। -ये योग के पर्यायवाची नाम है । ___ योग के अनन्तर प्रयोग का निर्देश है। प्रज्ञापना (पद १६ ) के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि योग और प्रयोग-दोनों एकार्थक है । स्थानांग सूत्र में कहा है१. कायबाङ्मनः कर्मयोगः । -तत्त्वार्थ सूत्र अ ६ । सू १ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 29 ) क्रियते येन तत्करणं-मननादि क्रियासु प्रवर्तमानस्यात्मन उपकरणभूतस्तथा तथापरिणामवत्पुद्गलसंघात इति भावः । -स्थानांग वृत्ति पत्र १०१ अर्थात् करण का अर्थ है--मन, वचन और स्पदंन की क्रियाओं में प्रवर्तमान आत्मा का सहायक पुद्गल-समूह है। वृत्तिकारने योग, प्रयोग और करण की व्याख्या करने के पश्चात् यह बतलाया है कि तीनों एकार्थक हैं। भगवई में योग के पन्द्रह प्रकार बतलाये गये हैं। वे हो पन्द्रह प्रकार प्रज्ञापनामें प्रयोग के नाम से तथा आवश्यक में करण के नाम से निर्दिष्ट है। अथवा योगप्रयोगकरणशब्दानां मनःप्रभृतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरण-सूत्रेष्वंभिहितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः, त्रयाणामप्येषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्ति-दर्शनात, तथाहि योगः पंचदशविधः शतकादिषु व्याख्यातः प्रज्ञापनायां त्ववमेवायं प्रयोगशब्देनोक्तः । एक पूर्वकोटि वर्ष की आयु को भोगनेवाला कोई कर्मभूमिज मनुष्य परभव सम्बन्धी एक पूर्व कोटि वर्ष की जलचर सम्बन्धी आयु उसके योग्य सक्लेश और उसके योग्य उत्कृष्ट योग से बांधता है। फिर क्रम से एक पूर्व कोटि काल व्यतीत कर एक पूर्व कोटि आयु के साथ जलचरों में उत्पन्न हुआ। अन्तर्मुहूर्त में सब पर्याप्तियों को पूर्ण करके पर्याप्त हुआ फिर अन्तर्मुहूतं तक विश्राम किया। अन्तर्मुहूर्त में पुनः परभव संबंधी पूर्व कोटि की जलचर सम्बन्धी आयु बांधता है। वह भी उसके योग्य सक्केश और उसके योग्य उत्कृष्ट योग से बांधता है । अस्तु गोम्मटसार की मान्यता के अनुसार चक्रवर्ती में वैक्रिय शरीर भी होता है अतः वैक्रिय काय योग व वैक्रियमिश्र काय योग भी होते हैं। दिगम्बर मान्यतानुसार वादर पर्याप्त अग्निकाय में वैक्रियकाय योग होता है। गोम्मटसार में योग मार्गणा में जीवों की संख्या के विषय में कहा हैं बादर पर्याप्तक तेजस्कायिक जीवों में विक्रिया शक्ति से युक्त जीव अपनी राशि अर्थात् आवली के घन के असख्यातवें भाग में असंख्यात का भाग देने से जितना प्रमाण आता है उतने हैं। तथा बादर पर्याप्त वायुकायिक जीवों में जो कि लोक के असंख्यातवें भाग मात्र कहे हैं, विक्रिया शक्ति से युक्त जीव पल्य के असख्यातवें भाग मात्र होते हैं। अशुभ लेश्याओं में मनुष्य का व्यक्तित्व विघटित, असन्तुलित, असमायोजित होता है। चिन्तन, भाषा और कर्म की दिशायें बदलती है। आचरण में बदलाव आता है। कषायों की तीव्रता के कारण सम्बन्धों पर नियन्त्रण नहीं कर पाता। जब भाव चेतना मलिन हो जाती है, तब मन, वचन और शरीर की क्रिया से भी स्थिर नहीं होती। योग प्रवृत्ति चंचल होने से लक्ष्य सिद्धि दुभंभ हो जाती है। व्यक्ति की भाव चेतना ही उसके ब्यक्तित्व के विघटन या संगठन की मुख्य घटक बनती है। गीता का स्थित प्रज्ञ, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) बौद्ध दर्शन का अर्हत और जैन धर्म के वीतराग का जीवनादर्श परिपक्व व्यक्तित्व की सेर्वाङ्गीण व्याख्या देता है । कर्म की दश अवस्था में उदीरणा, संक्रमण, उद्वर्तना, अपवतन की प्रक्रिया द्वारा विपाक को बदला जा सकता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है लेस्सासोधी अज्झवसाण विसोधीए होई जीवस्स । अज्झवसाणविसोधी मन्दकसायरस गादव्वा || - पंचास्तिकाय २ । १३१ अर्थात् जिसके मोह, राग-द्व ेष होते हैं उनके अशुभ परिणाम होते हैं और जिसके चित्तप्रसाद निर्मल चित्त होता है, उसके शुभ परिणाम होता है । लेश्या की शुद्धि अध्यावसाय से होती है और अध्यवसाय की शुद्धि मंद कषाय से है । अध्यवसाय लेश्या से सूक्ष्म होता है। परिणाम शब्द से योम और लेश्या दोनों का ग्रहण होता है । अध्यवसाय और परिणाम अलग-अलग है । तेरहवें गुणस्थान में भाव लेश्या है परन्तु भाव मनोयोग नहीं है । क्योंकि लेश्या का सम्बन्ध एकांततः भाव मनोयोग के साथ नहीं है । ध्यान से कषाय उपशमित होती है । योगों की चंचलता में कमी आती है । ध्यान से समय भाव धारा पवित्र होने से लेश्याओं का परिणमन शुभ होता है । ध्यान द्वारा लेश्या में बदलाव आसकता है। निर्वाण के अन्तर्मुहूर्त पूर्व जब सयोगी केवली के मन और वचन के योगों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है । बादर काय योग का भी निरोध हो जाता है सिर्फ सूक्ष्म काययोग उच्छ्वासादि के रूप में होता है उस समय उनके सूक्ष्म क्रिया नियट्टी शुक्ल ध्यान होता है । इससे ऐसा मालुम होता है कि योग - लेश्या ध्यान का गहरा सम्बन्ध है । यद्यपि योग और लेश्या के दिना चतुर्दशवें गुणस्थान शुक्ल ध्यान का चतुर्थ भेद पाया जाता है । पढमं जोगे जोगेसु वा मयं बिइअमेगजोगम्मि | तइयं च कायजोगे सुक्कमजोगम्मि य चउत्थं ॥ शुक्ल ध्यान के प्रथम प्रकार में एक ही योग या तीनों योग विद्यमान रह सकते हैं । दूसरे प्रकार में तीनों में से कोई एक योग विद्यमान रहता है। तीसरे प्रकार में केवल एक काययोग ही विद्यमान रहता है तथा चौथे प्रकार में कोई योग नहीं रहता है । अयोगी को ही प्राप्त होता है । वह जोग मार्गणा का एक भेद है इइ दिएस कायै जोगे वेदे कसायणाणे य । संजमदंसणलेस्सा भविया सम्मत्तसण्णि आहारे ॥ ध्याश० गा० ८३ गोजी० ग० १४२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 31 ) अर्थात् चौदह मार्गणाएं हैं - गति, इन्द्रिय, काय, जोग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, सन्नी और आहार । योग के भेद तिविहे जोगे पण्णत्ते, तंजहा - मणजोगे, वइजोमे, कायजोगे । एवं पेरइयाणं विगलिदियवज्जाणं जाव वैमाणियाणं । तिविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा – मणपओगे, वइपओगे, कायपओगे | विगलियवज्जाणं जाव तहा पओगोवि । तिविहे करणे पण्णत्ते, तंजहा – मणकरणे, वइकरणे, कायकरणे । एवं विगलिदियवज्जं जाव वैमाणियाणं । -ठाण० स्था ३ । उ १ । सू १३, १४, १५ योग तीन प्रकार का है १ – मनोयोग, २ – वचनयोग और ३ - काययोग | विकलेन्द्रियों ( एक, दो, तीन, चार इन्द्रियों वाले जीवों ) को छोड़कर शेष सभी दंडकों में तीनों ही योग होते हैं । प्रयोग तीन प्रकार का है १ – मनः प्रयोग, २ -- वचनप्रयोग और ३ - कायप्रयोग । विकलेन्द्रियों (एक, दो, तीन, चार इन्द्रिय वाले जीवों ) को छोड़कर शेष सभी दंडकों में तीनों ही प्रयोग होते हैं । करण तीन प्रकार का है ---- जहा जोगो १ - मनःकरण, २ – वचनकरण, ३ – कायकरण | विकलेन्द्रियों ( एक, दो, तीन, चार इन्द्रिय वाले जीवों ) को छोड़कर शेष सभी दंडकों में तीनों ही करण होते हैं । योग और वर्गणा भासमणवगाणादो कमेण भासामणंतु कम्मादो । अविहम्मदव्वं होदि त्ति जिणेहि णिद्दिट्ठ ॥ टीका - भाषावर्गणास्कन्धैश्चतुर्विधभाषा भवन्ति । कार्मणवर्गणास्कन्धैरष्टविधं कर्मेति जिनैर्निर्दिष्टम् । भाषा वर्गणा के स्कन्धों से चार प्रकार की भाषा होती है । मनोवर्गेणा के स्कंधों से द्रव्य मन होता है और कार्मणवर्गणा के स्कंधों से आठ प्रकार के कर्म होते हैं । कहा है -- गोजी० गा० ६०८ मनोवर्गणास्कन्धैः द्रव्यमनः, निव्वाणगमणकाले केवलिणोद्धनिरुद्धजोगस्स । सुहुम किरियानिट्ठि तइयं तणुकायकिरियस्स || Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 32 ) तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व निप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई, झाणं परमसुक्कं ॥ -ठाण० स्था ४ । उ १ । सू २४७ । टीका में उद्धृत निर्वाण के समय केवली के मन और वचन योगों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्ध निरोध होता है। उस समय उसके शुक्लध्यान का तीसरा भेद "सुहमकिरिए अनियट्टी" होता है और सूक्ष्म कायिकी क्रिया-उच्छ वासादि के रूप में होती है। उस निर्वाणगामी जीव के शैलेशीत्व के-अयोगीत्व प्राप्त होने पर-सम्पूर्ण योग निरोध होने पर भी शुक्लध्यान का चौथा भेद 'समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाती' होता है। यद्यपि शैलेशीव की स्थिति मात्र पांच ह्रस्व स्वराक्षर उच्चारण करने समय जितनी होती है। ध्यान का योग के परिणमन पर क्या प्रभाव पड़ता है यह भी विचारणीय विषय है। क्या ध्यान के द्वारा योग द्रव्यों का ग्रहण नियंत्रित या बंद किया जा सकता है, ध्यान का योग-परिणमन के साथ क्या सीधा संयोग है या योग के द्वारा या लेश्या के द्वारा। इत्यादि अनेक प्रश्न विज्ञजनों के विचारने योग्य हैं। योग और मरण निर्वाणगमनकाल को छोड़कर यदि चारों गति वाले जीव जब मरते हैं तो उनके योग के साथ लेश्या होती है। यदि अशुभ योग में जीव मरता है तो लेश्या भी अशुभ (कृष्ण-नोल-कायोत मे से कोई एक) होती है। यदि शुभ योग में जीव मरता है तो लेश्या भी शुभ (तेजो-पद्म-शुक्ल) होती है। स्थूल शरीर के छूटते ही अंतराल गति होती है उस समय तंजस-कार्मण दो शरीर होते हैं, सिर्फ एक काययोग होता है लेश्या छओं हो सकती है। द्रव्य लेश्या की वगंणा का सम्बन्ध तैजस शरीर की वर्गणा से है अतः द्रव्य लेश्या और तैजस शरीर की वर्गणा का सम्बन्ध अन्वय-व्यतिरेकी माना जा सकता है। द्रव्य काययोग की वर्गणा का सम्बन्ध भी द्रव्य लेश्या की तरह तैजस शरीर की वर्मणा से है। इस अर्थ में द्रव्य काययोग व द्रव्य लेश्या में समानता प्रतीत होती है किन्तु दोनों एक नहीं कहे जा सकते हैं। भाव लेश्या और भाव काययोग में भी अन्वय-व्यतिरेकी सम्बन्ध घटित नहीं होता है। यह नियम अवश्य घटित होता है। जो सयोगी हैं वह सलेशी है। जहाँ कषाय है वहाँ योग और लेश्या दोनों है परन्तु कषाय के बिना भी योग और लेश्या होती हैं। अर्थात् अकषायी-सकषायी दोनों प्रकार के जीव सयोगी-सलेशी हो सकते हैं । वीतराग अकषायी होते हैं पर उनके योगात्मा होती है। कतिपय विद्वानों की यह धारणा है कि केवली के द्रव्य रूप से शुक्ल लेश्या है परन्तु भाव रूप से शुक्ल लेश्या नहीं है। सिद्धान्त ग्रन्थों में-श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 33 ) ने अपनी कृति में कहा है कि केवली के मनोयोग द्रव्य रूप से हैं, भाव रूप से नहीं है । प्रमाद की उत्पत्ति योग से मानी है । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है कायवाङ्मनकर्मयोगः - तत्त्वार्थ सूत्र ६ । १ गया है । काययोग, वचनयोग और मनोयोग- इन तीनों साधनों के द्वारा पुद्गलों को खींचने की प्रक्रिया को दीपक के उदाहरण से समझाया दीपक जल रहा है, बाती निरन्तर तेल को खींच रही है, इसी प्रकार इन जुड़ी हुई हमारी प्राणधारा निरन्तर कर्म - पुद्गलों को आकृष्ट कर रही हैं । योगजनित चंचलता के न होने पर मिथ्यादृष्टि आदि चार आस्रव का कार्य नहीं होता है तीनों से । कार्मण वर्गणा को द्रव्यकर्म भी कहते हैं । द्रव्य कर्म के कारणआत्मा जिस अवस्था में परिणत होता है वह भाव कर्म है । भाव कर्म से द्रव्य कर्म का संग्रह होता है और द्रव्य कर्म के उदय से भाव कर्म में तीव्रता आती है । अष्टसहस्री के टीकाकार आचार्य विद्यानंदी ने द्रव्य कर्म को आवरण और भावकर्म को दोष माना है । मरुदेवी माता हाथी पर बैठी हुई जब क्षपकश्रेणी प्राप्त कर केवलज्ञान प्राप्त किया । उस समय किसी भी गुणस्थान को दो बार प्राप्त नहीं किया । अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त कर फिर अयोग का निरोधकर परिनिर्वाण को प्राप्त हुई । केवली समुद्घात भी नहीं किया । भरत चक्रवर्ती को ६० हजार वर्ष विभिन्न देशों को साधने में लगे । जब दो समान बानवाले आपस में युद्ध करते हैं तो एक की हार कालान्तर में होती तो समझ लेना चाहिये - उसके पुण्य के कर्म क्षीण होने लग गये । विवेह का अर्थ है शरीर का ममत्व छोड़ना । मरुदेवी माता के परिनिर्वाण के समय कोई भी पाखण्ड न था । बाद में कितने वर्षों बाद पाखण्ड का प्रादुर्भाव हो गया था । तेइस तीर्थङ्करों के असाता वेदनीय कर्म एक तरफ, दूसरी तरफ चौबीसवें तीर्थङ्कर वर्धमान के असाता वेदनीय कर्म फिर भी चौबीसवें तीर्थङ्कर के असाता वेदनीय कर्म तुलना में अधिक होंगे । क्षपकश्रेणी के समय अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में मोहनीय की भी सात प्रकृतियों के विना इक्कीस प्रकृतियों की सत्ता मिल सकती है । गोम्मटसार की मान्यता के अनुसार नववें गुणस्थान में क्षपकश्रेणी में सर्वप्रथम अप्रत्याख्यानी - प्रत्याख्यानी क्रोध - मान-माया लोभ इन आठ प्रकृतियों का क्षयकर फिर नपुंसक वेद का, फिर स्त्री वेद का, फिर हास्यादिषट्क का, फिर फिर संज्वलन क्रोध, फिर संज्वलन मान, फिर संज्वलन माया का क्षय करता है ।" केवल ज्ञानी सयोगी के भी होता है व अयोगी के भी । ऋषभदेव तीर्थङ्कर के दो रानियां थी । सुमंगला के ९९ पुत्र व एक ब्राह्मी लड़की थी तथा सुनंदा के बाहुबल व सुन्दरी थी । सब युगल थे । सबसे बड़े भरत थे । मनुष्य का पसीना धूप में नहीं सुकता है १. गोक० गा० ३६० । टीका Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 34 ) लेकिन गीला वस्त्र धूप में सूक जाता है। राग के कारण चार प्रकार की माया, चार प्रकार का लोभ, तीन वेद, हास्य-रति का तथा द्वेष के कारण चार प्रकार का क्रोध, चार प्रकार का मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा का पूर्ण रूप से क्षय होने से सयोगी के राग और द्वेष नष्ट हो चुके हैं। आहारक समुद्घात से केवलिसमुद्घात संख्यातगुण अधिक है। सबसे कम आहारक समुद्घातवाले है व सबसे अधिक वेदना समुद्घातवाले है। वे अनंत होते हैं। स्वरनाम कम के उदय से भाषावर्गणा के रूप में आये हुए पुद्गल स्कन्धों को सत्य, असत्य, उभय और अनुभय भाषा के रूप में परिणमाने की शक्ति की पूर्णता को भाषापर्याप्ति कहते हैं। जिसके भाषापर्याप्ति नहीं है उसके न वचन बल प्राण होता है, न वचन योग होता है। पर्याप्ति अजीव है तथा प्राण जीव है । ___ एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव जब तक शरीर पर्याप्ति से निष्पन्न नहीं होते हैं अर्थात् जब तक उनकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक निर्वृत्यपर्याप्त कहे जाते हैं अर्थात् एक समय कम शरीर पर्याप्ति के काल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त निवृत्यपर्याप्त का काल है। निर्वृत्ति अर्थात् शरीर पर्याप्ति की निष्पत्ति से अपर्याप्त अर्थात् अपूर्ण को निवृत्यपर्याप्त कहते हैं - यह उसकी व्युत्पत्ति है।' अपर्याप्त नामकर्म के उदय होने पर एकेन्द्रिय, चारों विकलेन्द्रिय और संज्ञी जीव अपनी-अपनी चार, पाँच और छह पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं करते हैं । उच्छ् वास के अठारहवें भाग प्रमाण अन्तर्मुहूर्त में ही मर जाते हैं-वे जीव लब्ध्यपर्याप्तक कहे जाते हैं। लब्धि अर्थात् अपनी पर्याप्ति को पूर्ण करने की योग्यता को अपर्याप्त अर्थात् अनिष्पन्न जीब लब्ध्यपर्याप्त है-ऐसी निरुक्ति है । कहा है "तहिं ऋजुगत्योत्पन्नस्यैव कथमुक्त विग्रहगती योगवृद्धियुक्तत्वेन तदवगाहवृद्धियुक्तत्वेन तदवगाहवृद्धिप्रसंगात् ।" -गोजी. गा० ९४ टीका प्रज्ञापना की टीका में मलयगिरि ने कहा है _योग के सद्भाव में लेश्या का भी सद्भाव रहता है तथा योग के अभाव में लेश्या का अभाव रहता है। इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा लेश्या योगनिमित्त से होती है-ऐसा निश्चय होता है, क्योंकि सर्वत्र योगनिमित्त से ही लेश्या होती हैं-ऐसा अन्वयव्यतिरेक से देखा जाता है। लेश्या को योगनिमित्त स्वीकार करने पर दो विकल्प सामने आते हैं - लेश्या योगान्तर्गत द्रव्यरूप है या योगनिमित्त कर्म द्रव्य रूप है ? योग निमित्त कर्म द्रव्य रूप इसलिए नहीं है कि उसका दोनों विकल्पों से अतिक्रमण नहीं होता है और १. गोजी गा० १२१ टीका। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 35 ) यदि योगनिमित्त कर्म द्रव्य रूप स्वीकार करते हैं तो वह घातिक कर्म द्रव्य रूप है या अघातिक कर्म द्रव्य रूप है। घाति-कर्म-द्रव्यरूप इसलिए नहीं है कि उसके अभाव में सयोगी केवली में लेश्या का सदभाव रहता है। अघातिकर्मंद्रव्य रूप इसलिए नहीं है कि उसके सद्भाव में अयोगिकेवलिगुणस्थान में लेश्या व योग का अभाव रहता है । अतः अन्तत: योगान्तर्गत द्रव्यरूप लेश्या स्वीकार करनी चाहिए। योगान्तर्गत द्रव्य सभी कषायों को उदय में लाने वाले होते हैं—ऐसा देखा भी जाता है, जैसा कि पित्त प्रकृति की वस्तुओं में देखा जाता है, यथा पित्तप्रकोप से महान प्रवर्धमान कोप होता है तथा और भी बाह्य द्रव्य कर्मों के उदय, क्षय और उपशम के कारण होते हैं। यथा-ब्राह्मी औषधि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशय का कारण होती है और सुरापान ज्ञानावरणीय कर्म का कारण होता है। तब फिर किस प्रकार युक्तायुक्त विकल्पता उत्पन्न होती है। दधि भोजन निद्रा रूप दर्शनावरण कर्म का कारण होता है- क्या ये सब योगद्रव्य नहीं है। इसलिए लेश्या के कारण शास्त्रान्तर में स्थिति पाक-विशेष कहा जाता है उसी को स्थिति पाकनाम का अनुभाग कहते हैं। कषायोदयान्तर्गत कृष्णादि लेश्याओं के परिणाम उसके कारण होते हैं। वे परमार्थतः कषायों के अन्तर्गत रहने के कारण कषाय स्वरूप ही है, केवल योगान्तर्गत द्रव्य सहकारी कारणों के भेद और वैभिन्य से कृष्णादि भेद होते हैं और तरतम भाव से विभिन्न अनुभव होते हैं। इसलिए कर्म प्रकृतिकार शिवशर्माचार्य ने 'शतक' नाम के ग्रन्थ में जो कहा है"स्थिति-अनुभाग कषाय से बनता है-वह समीचीन ही है। क्योंकि कषायोदय के अन्तर्गत कृष्णादि लेश्या परिणाम भी कषाय रूप है। इसलिए जो कहा जाता है-योग से प्रकृति प्रदेश बंध और कषाय से स्थिति-अनुभाग बध होते हैं। इस वचन से लेश्या को प्रकृतिप्रदेश बंध का हेतु ही माना जाय, न कि कर्म स्थिति का हेतु-यह भी समीचीन नहीं है। क्मोंकि इससे यथोक्त भाव का ज्ञान नहीं होता है और लेश्या स्थिति का हेतु नहीं है, बल्कि कषाय है, लेश्या तो कषायोदय के अन्तर्गत अनुभाग का हेतु है अतएव "स्थितिपाक विशेषस्तस्य भवति लेश्या विशेषेण" यहाँ पाक शब्द का ग्रहण अनुभाग को बतलाने के लिए किया गया है-ऐसा कर्मप्रकृति की टीका में स्पष्ट किया है और उनके सिद्धान्त का परिज्ञान भी ठीक नहीं है। जो कहा गया है-कर्मों का निष्यन्द झड़ना लेश्या है-ऐसा स्वीकार करने पर जब तक कषायोदय रहेगा तब तक कर्म बद्धता भी रहेगी और कर्म स्थिति का कारण भी रहेगा-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि लेश्या के अनुभाग बंध का हेतु होने से स्थिति बंध के हेतु होने योग्य नहीं रह जाती। यदि कर्म निष्यन्द लेश्या है तो वह कर्मकल्क ( सार रहित कर्म ) है या कर्म सार । कर्मकल्क इसलिए नहीं है कि उसके सार रहित होने के कारण उत्कृष्ट अनुभाग बंध के हेतु होने की उसमें योग्यता नहीं रहती है। और लेश्यायें उत्कृष्ट अनुभाग बंध के हेतु भी होती है। तब तो कर्मसार ही ग्रहण करना होगा-इस पक्ष के स्वीकार करने पर यथायोग्य आठों ही कर्मों के विपाक का वर्णन प्राप्त होता है, लेकिन किसी कर्म का लेश्या रूप Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 36 ) विपाक नहीं देखा जाता है, इसलिए कर्मसार पक्ष किस प्रकार स्वीकार किया जा सकता है। अतः पूर्वोक्त पक्ष ही अच्छा है-ऐसा हरिभद्रसूरि आदि आचार्यों ने स्वीकार किया है। उपदेश सप्तति में कहा है "सेविज्ज सव्वन्नुमयं विसाल" अर्थात् सर्वज्ञ के विशाल मत का आश्रय लेना चाहिए। उपनिषद में एक वाक्य आता है-“यो वे भूमा सत्सुखं नात्ये सुखमस्ति' जो विशाल है, विराट् है, उसीमें सुख है। अल्प या क्षुद्र में सुख नहीं है। संस्कृत में एक नीति वचन है-"सेवितव्यो महावृक्षः फल छाया समन्वितः" फल और छाया से युक्त विशाल वृक्ष का आश्रय लेना चाहिए। आचार्य ने सर्वज्ञ शासन को 'विशाल' बतलाया है -इसी विशालता के चार हेतु भी बताये हैं। १-यह उदार है। २-निष्पक्ष है। ३–सापेक्षवादी है। ४–समन्वय प्रधान है। शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद में अयोगी अवस्था होती है तथा तीसरे भेद में एक काययोग होता है। प्रथम तथा द्वितीय शुक्लध्यान के भेदों में तीनों में से कोई एक योग होता है, अथवा कोई एक योग होता है। गोम्मटसार में कहा है भावः चित्परिणाम:-गोजी० गा० १६५। टीका। आत्मा के परिणाम को भाव कहते हैं। कदाचित् छह महिना आठ समय के भीतर चतुर्गति राशि से निकलकर छः सौ आठ जीवों के मुक्ति जाने पर उतने ही जीव नित्यनिगोद-अव्यवहार राशि से निकलकर चतुर्गति भव-व्यवहार राशि में आते हैं।' उमास्वाती ने कहा है-- असदभिधानमनृतम् । -तत्त्वार्थ सूत्र ७ । १४ अर्थात् असत् के प्रतिपादन को अन्त कहा है। अन्त के दो अंग है-विपरीत अर्थ का प्रतिपादन और प्राणी-पीड़ाकर अर्थ का प्रतिपादन ।। मृषा योग के दस प्रकारों में प्रारम्भ के नौ प्रकार विपरीत अर्थ के प्रतिपादक है और दसवां प्रकार प्राणी पीड़ाकर अर्थ का प्रतिपादक है। तत्त्वार्थ राजवातिक में अकलंकदेव ने कहा है १. गोजी• गा० १९७ टीका। २. दसवे०७ । १२, १३ । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 37 ) असदिति पुनरुच्यमाने अप्रशस्तार्थं यत् तत्सर्वमनृतमुक्तं भवति । तेन विपरीतार्थस्य प्राणीपीडाकस्य चानृतत्वमुपपन्नं भवति । --तत्त्वरा० ७ । १४ स्थानांग के टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ने कहा है - ___उवघायनिस्सिए ति उपघाते-प्राणिवधे निश्रितं-आश्रितं दसमं मृषा, अचौरे चोरोऽयमित्यभ्याख्यानवचनम् । -ठाण० स्था १० । सू ८० टीका अर्थात् अभ्याख्यान के संदर्भ में उपघातनिश्रित्त की व्याख्या की है। इसलिए उन्होंने अचोर को चोर कहना-इस अभ्याख्यान वचन को उपधातनिश्रित मृषा माना है। वस्तुतः अचोर को चोर कहना उपघात निश्रित मृषा नहीं है, किन्तु चोर को चोर कहना उपघातनिश्रित मृषा है।' प्रियधर्मी का अर्थ सुलभवोधि से किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध ने चार अंगों से युक्त वचन को निरवद्य वचन कहा है। १-अच्छे वचन को ही उत्तम बताया है, न कि बुरा । २-धार्मिक वचन ही बोलता है न कि अधार्मिक । ३-प्रिय वचन ही बोलता है, न कि अप्रिय । ४-सत्य वचन ही बोलता है, न कि असत्य वचन । (क) अस्तु वह बात बोले जिससे न स्वयं कष्ट पायें और न दूसरे को ही कष्ट हो, ऐसी बात ही सुन्दर है। (ख) आनंददायी प्रिय वचन ही बोले। पापी बातों को छोड़ कर दूसरों को प्रिय वचन ही बोले। (ग) सत्य ही अमृत वचन है, यह सदा का धर्म है। सत्य, अर्थ और धर्म में प्रतिष्ठित संतों ने कहा है। (घ) बुद्ध जो कल्याण वचन निर्वाण प्राप्ति के लिए, दुःख का अंत करने के लिए बोलते हैं, वही वचनों में उत्तम है । जिनदास चूणि में कहा हैजं भासमाणो धम्म णातिक्कमइ, एसो विषयो भण्णइ । -जि. चू० पृ० २४४ १. दसवे० ७/१२, १३ । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38 ) अर्थात् भाषा का वह प्रयोग, जिसमें धर्म का अतिक्रमण न हो, विनय कहलाता है । टीकाकार ने कहा है बाच्या । विनथं शुद्धप्रयोगं विनीयतेऽनेन कर्मेति कृत्वा । अर्थात् भाषा के शुद्ध प्रयोग को विनय कहा है । असत्य और सत्यमृषा भाषा सर्वथा वर्जनीय है, तथा सत्य और असत्यमृषा भाषा, जो बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण है वह वर्जनीय है । असत्यामृषा ( व्यवहार भाषा ) के बारह प्रकार है उनमें दसवां प्रकार हैसंशय करणी । ' जो शाश्वत मोक्ष को भग्नकरे उस असत्यामृषा भाषा और सत्य भापा का भी धीर पुरुष प्रयोग न करे । शीलांकाचार्य ने कहा है । ― - हा० टी० प २१३ तंत्र मृषा सत्यामृषा च साधुनां तावन्न वाच्या, सत्यापि या कर्कशादिगुणोपेता सा न अर्थात् मृषा और सत्यमृषा भाषामुनि के लिए सर्वथा अवाच्य है । विशेषणयुक्त सत्य भाषा भी उसे नहीं बोलनी चाहिए । — आया • ४ । १० टीका कर्कश आदि सत्य भाषा का चौथा प्रकार रूप सत्य है - ( पण्ण० प० ११ ) जैसे प्रव्रजित रूपधारी को प्रव्रजित कहना 'रूप- सत्य - सत्यभाषा है । साधु नाम या गोत्र से आमंत्रित करे । दूसरे के लिए किये गये अथवा किये जा रहे सावद्य व्यापार को जानकर मुनि सावद्य वचन न बोले । छोटे या बड़े किसी भी जीव की घात करने वाली भाषा मुनि के लिए अवाच्य है । जिस भाषा के प्रयोग से महान् भूतोपघात हो उसे गुरुभूतोषघातिकी भाषा कहा जा सकता है । प्राचीनकाल में व्यक्ति के दो नाम होते थे— गोत्र नाम और व्यक्तिगत नाम । व्यक्ति को इन दोनों नामों से सम्बोधित किया जाता था । जैसे भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य का नाम इन्द्रभूति था और आगमों में गौतम - इस गोत्रज नाम से प्रसिद्ध है । वायु को पुरुष लिङ्ग की अपेक्षा वात और स्त्रीलिङ्ग की अपेक्षा वातुली कहना - जनपद सत्य और व्यवहार सत्य भाषा की दृष्टि से यह सही है । वास्तव में साधु वह होता है जो निर्वाण - साधक - योग की साधना करे । अगस्त्यसिंह चूर्णि व जिनदास चूर्णि में अवधारिणी का अर्थ शंकित भाषा अर्थात् संदिग्ध वस्तु के बारे में असदिग्ध वचन बोलना किया है । प्रज्ञापना पद १३ के टीकाकार ने कहा है- "लेश्या परिणाम योग का परिणाम रूप है । क्योंकि 'योग परिणामो लेश्या" ऐसा शास्त्र का वचन है । अतः लेश्या परिणाम के बाद योग परिणाम कहा है । संसारी जीवों को योग का परिणाम होने के बाद उपयोग का परिणाम होता है अतः योग परिणाम के बाद उपयोग परिणाम कहा है । १. पण्ण० पद ११ । १६५ । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 39 ) अनेक प्रकार के परिणाम बाले जीव जिसमें हो उसे 'समवसरण' कहते हैं, अर्थात् भिन्न-भिन्न मतों एवं दर्शनों को 'समवसरण' कहते हैं। समवसरण के चार भेद है । यथा क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी। यहाँ क्रियावादी आस्तिक दर्शन है। कर्ता के बिना क्रिया संभव नहीं है। इसलिए क्रिया का कर्ता जो है, वह आत्मा है। इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व को मानने वाले क्रियावादी है, क्रियावादी सम्यग्दृष्टि होते हैं बाकी तीन मतवाद --अक्रियावादी, विनयवादी व अज्ञानवादी मिथ्यादृष्टि होते हैं । केवली सब द्रव्यों और पर्यायों को साक्षात जानता है। और श्रुत केवली उन्हें श्रुत के आधार पर जानता है। कतिपय आचार्यों ने केवली के भाव मनोयोग नहीं माना है। परन्तु श्रुत केवली के भाव मनोयोग माना है। श्रुत केवली में कार्मण काययोग को बाद देकर चौदह योग होते हैं। भगवान महावीर ने सर्वाक्षरसन्निपाती वाणी के द्वारा धर्म का उपदेश दिया। भगवान ने कहा है---"सूइ समा वियट्ट भावो" "धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठइ" अर्थात् पवित्र वह है जो स्पष्ट है, खुला है। अल्प बोलिए, सदा मधुर बोलिए। कटु या अश्लील शब्द मत बोलिए। बाणी का बार-बार नियन्त्रण कीजिए। सयोगी तेजोलेशी जीव भी नोसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं। इसी प्रकार सयोगी पद्मलेशीशुक्ललेशी भी नोसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं । "यश का हेतु संयम है" यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके 'संयम' को यश शब्द से अभिहित किया है। इसी तरह कारण को कार्य मान कर तपस्या को निर्जरा कहा है तथा सयोगी केवली में उपचार से "भावमन" कतिपय आचार्यों ने स्वीकृत किया है। सयोगी कृष्णलेशी, नीललेशी व कापोतलेशी जीव नोसंज्ञोपयुक्त नहीं है। तीसरे गुणस्थान की स्थिति उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है वह जघन्य स्थिति से ज्यादा है ऐसा मोम्मटसार में कहा है । षट् स्थान इस प्रकार है १ - संख्यातभागहीन । २-असंख्यातभागहीन । ३- अनंतभागहीन । ४-संख्यातगुण अधिक । ५-असंख्यातगुण अधिक तथा ६-अन्ततगुण अधिक । ___औदारिक - उदार शब्द के कई अर्थ होते हैं। एक अर्थ भीम-भयंकर भी होता है। कई आचार्यों ने इसका अर्थ प्रधान किया है। चौथे द्रव्य संग्रह के कर्ता ने भावास्रव के भेदों में प्रमाद को गिनाया है परन्तु गोम्मटसार के कर्ता ने प्रमाद को भावास्रव के भेदों में नहीं माना और वहाँ अविरत ने दूसरे ही प्रकार से बारह भेद किये हैं । पुदगल विपाकी अंगोपांग नामकर्म और शरीर नामकर्म के उदय से मन-वचन और काय पर्याप्ति रूप से परिणत तथा कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणा का अबलम्बन करनेवाले संसारी जीव के लोकमात्र प्रदेशों में रहने वाली शक्ति कर्मों को ग्रहण करने में कारण है वह भाव योग है। और उस शक्ति से विशिष्ट आत्मप्रदेशों में जो कुछ हलन-चलन रूप परिस्पन्द होता है वह द्रव्य योग है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 40 ) अस्तु कर्मवगंणा रूप पुदगलस्कंधों को ज्ञानावरण आदि कर्म रूप से और नोकर्मवर्गणा रूप पुद्गलस्कंधों को औदारिक आदि नोकर्म रूप से परिणमन में हेतु जो सामर्थ्य है तथा आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द को योग कहते हैं । लोक में देखा जाता है कि- जैसे अग्नि के संयोग से लोहे में दहन शक्ति होती है उसी तरह अंगोपांग शरीर नाम कर्म के उदय से मनोवर्गणा तथा भाषा वर्गणा के आये पुद्गलस्कंधों और आहारवर्गणा के आये नोकर्म पुद्गलस्कंधों के सम्बन्ध से जीव के प्रदेशों में कर्म और नोकर्म को ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न होती है । घट में घट का विकल्प सत्य है । घट में पट का विकल्प असत्य है । सत्य और उभय अर्थात् सत्यासत्य है । कुण्डिका में जल धारण करने से किसी को बुलाने पर 'हे देवदत्त' यह विकल्प अनुभय है अर्थात् कहा जाता है । असत्य ज्ञान का विषय अथं घट का विकल्प उभय है। उसे न सत्य और न असत्य जो मन सद्भाव अर्थात् सत्य अर्थं । उसको विषय करने वाला मन सत्य मन है । अर्थात् सत्य अर्थ का ज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति रूप भावमन - सत्यमन है । उस सत्य मन से उत्पन्न हुआ योग अर्थात् प्रयत्न विशेष सत्य मनोयोग है । उससे विपरीत अर्थात् असत्य अर्थ को विषय करने वाले ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति रूप भाव मन से उत्पन्न प्रयत्न विशेष मृषा अर्थात् असत्य मनोयोग है । उभय अर्थात् सत्य और असत्य अर्थ के ज्ञान से उत्पन्न करने की शक्ति रूप भाव मन से उत्पन्न प्रयत्न विशेष उभय मनोयोग है । सत्य और असत्य से युक्त नहीं होता है अर्थात् अनुभय रूप अर्थ के ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति रूप भावमन असत्यमृषा मन है । उस भाव मनसे उत्पन्न जो योग अर्थात् प्रयत्न विशेष है वह असत्यमृषा मनोयोग अर्थात् अनुभय मनोयोग है । भावमन के बिना मनोयोग नहीं होता है । अतः केवली के कथंचिद् भाव मनोयोग है । तीर्थंकरके पांच योग व सामान्य केवली के सात योग का विधान है । सत्य अर्थ का बाचक वचन सत्य वचन है । वह जनपद आदि दस प्रकार के सत्य अर्थ को विषय करने वाले वचन व्यापार को उत्पन्न करने में समर्थ है । स्वर नाम कर्म के उदय से प्राप्त भाषा पर्याप्ति से उत्पन्न भाषा वर्गणा के आलम्बन से आत्मप्रदेशों में शक्ति रूप जो भाव वचन से उत्पन्न योग अर्थात् प्रयत्न विशेष है वह सत्यवचन योग है । उससे विपरीत असत्य है अर्थात् असत्य अर्थ को विषय करने वाला वचन व्यापार रूप प्रयत्न असत्य वचन योग है । कमण्डलु में घट व्यवहार की तरह सत्य और असत्य अर्थविषयक वचन ब्यापार रूप प्रयत्न उभय वचन योग है । जो सत्य और असत्य अर्थ को विषय नहीं करता वह असत्यमृषा अर्थ को विषय करने वाला वचन व्यापार रूप प्रयत्न विशेग अनुभय वचन योग है । उदाहरणतः अमनस् अर्थात् द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की जो अनक्षरात्मक भाषा है तथा संज्ञी पंचेन्द्रियों की जो आमन्त्रण आदि रूप अनक्षरात्मक भाषा वह सब अनुभय वचन योग कही जाती है । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 41 ) जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत्य, व्यवहार, संभावना, भाव, उपमा-इन दस स्थानों में दस प्रकार का सत्य जानना। अमितगति के सामने जीवकाण्ड वर्तमान था। अमितगति ने अपना पंचसंग्रह वि० सं० १०७० में पूर्ण किया था। इससे लगभग तीन दशक पहले गोम्मटसार की रचना हो चुकी थी और अमितगति ने अपने पंचसंग्रह की रचना में इसका उपयोग किया है। १-जनपद सत्य–भिन्न-भिन्न जनपदों में उस-उस जनपद के व्यवहारी पुरुषों के रूढ़ वचन को जनपद सत्य कहते हैं। जैसे भात को महाराष्ट्र देश में भातु-भेटु कहते है, आन्ध्रप्रदेश में वटक-मुकुडु कहते हैं, कर्णाट देश में कुलु और द्रविड़ देश में चोर कहते हैं । २-सम्मति सत्य-संवृत्ति अर्थात् कल्पना से या सम्मति अर्थात् बहुतजनों के स्वीकार करने से सर्वदेश साधारण जो नाम रूढ़ हैं वह संवृत्ति सत्य या सम्मति सत्य हैं । जैसे -पट्टरानीपना नहीं होने पर भी किसी को देवी कहना।। ३-स्थापना सत्य-अन्य में अन्य वस्तु का समारोप स्थापना है। उसका आश्रय करके मुख्य वस्तु की स्थापना सत्य है। जैसे- चंद्रप्रभ की प्रतिमा को चंद्रप्रभ कहना। ४-नाम सत्य-जैसे भातु इत्यादि नाम देश आदि की अपेक्षा सत्य है उसी तरह अन्य की अपेक्षा न करते हुए ही संव्यवहार के लिए किसी का नाम रखना नाम सत्य है । जैसे-किसी पुरुष का जिनदत्त नाम । जिन ने जिसे दिया वह जिनदत्त होता है। किन्तु इस दान क्रिया की अपेक्षा न करते हुए यह नाम प्रयुक्त होता है । ५-रूप सत्य-चक्षु के व्यापार की अधिकता से रूपादि के युक्त पुद्गल के गुणों में रूप की प्रधानता से तदाश्रितवचन रूप सत्य है। जैसे अमुक पुरुष श्वेत है। यहाँ मनुष्यों के केशों के नील आदि वर्ण के होने पर तथा रस आदि अन्य गुणों का सद्भाव होने पर भी उनकी विवक्षा नहीं है । ६-प्रतीत्य सत्य-प्रतीत्य अर्थात् आपेक्षिक सत्य है । जैसे किसी को दीर्घ कहना । यहां दूसरे के छोटेपन की अपेक्षा करके ही प्रकृत को दीर्घ कहा गया है। इसी तरह यह स्थूल है या सूक्ष्म है इत्यादि वचन भी प्रतीत्य सत्य है । ७-व्यवहार सत्य-नैगमादि नय की प्रधानता लेकर कहा गया वचन व्यवहार सत्य है। जैसे-नैगमनय की प्रधानता से 'भात पकता है' ऐसा कहना क्योंकि पक तो चावल रहे हैं, पकने पर भात होगा। नय व्यवहार के आश्रय से होने वाला वचन व्यवहार जैसे-स्यात् सब वस्तु सत् है स्यात् सब वस्तु असत् है, इत्यादि वाक्य व्यवहार सत्य है। 'भात पकता है' यहाँ भातपर्याय-भातपर्याय की पाक समाप्ति के अनन्तरकाल में होती है अतः पाक काल में यद्यपि नहीं है तथापि चावलों की भातरूप पर्याय की. निकटता के Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 42 ) प्ररूपक नंगमनय की विवक्षा से भात पर्याय रूप परिणमन करने वाले द्रव्य की अपेक्षा 'भात पकता है' इस वचन की सत्यता सिद्ध है। ८-सम्भावना सत्य-असंभव के परिहारपूर्वक वस्तु के धर्म का विधान करने वाली संभावना के द्वारा जो वचन व्यवहार होता है वह संभावना सत्य है। जैसे इन्द्र जम्बूद्वीप को पलटने में समर्थ है। यहाँ जम्बूद्वीप को पलटने की शक्ति की असंभवता का परिहार करते हुए उस शक्ति के विधान का वचन पलटने की क्रिया से निरपेक्ष होते हुए सत्य है। जैसे यह कहना कि बीज में अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति है। इन्द्र में जम्बूद्वीप को पलटने की शक्ति असंभव है। इस असंभवता का परिहार करके इन्द्र में पलटन रूप धर्म के अस्तित्व की संभावना नियम से उस क्रिया की अपेक्षा नहीं रखती। अर्थात् इन्द्र जम्बूद्वीप को पलटदे तभी इन्द्र जम्बूद्वीप को पलट सकता है यह कहा जा सकता है ऐसी बात नहीं है। क्रिया तो वाह्य कारण समूह के व्यापार से उत्पन्न होती है । ९-भाव सत्य-अतीन्द्रिय पदार्थों के प्रवचन में कहे गये विधि-निषेध के संकल्प रूप परिणाम को भाव कहते हैं। उसके आश्रित वचन भाव सत्य है। जैसे सूखा हुआ, पकाया हुआ, छिन्न-भिन्न किया हुआ, खटाई या नमक मिलाया हुआ तथा जला हुआ द्रव्य प्रासुक है। अतः उसके सेवन में पापबंध नहीं है। इस प्रकार के पाप के त्याग रूप वचन भाव सत्य है। समस्त अतीन्द्रिय पदार्थों के ज्ञाता के द्वारा उपदिष्ट आगम सत्य ही होता है अतः उसके आधार से जो संकल्पपूर्वक वचन है वह सत्य है। १०-उपमा सत्य-प्रसिद्ध अर्थ के साथ सादृश्य बतलाने वाला वचन उपमा सत्य है। यथा-पल्योपम । पल्य अर्थात अनाज भरने का खत्ता, उनके साथ उपमा अर्थात् सदृश्यता जिसकी है, क्योंकि पल्य में रोमखंड भरे जाते हैं, उसकी संख्या को पल्योपम कहते हैं। प्रज्ञापना पद १३ के टीकाकार ने कहा है--"लेश्या परिणाम योग का परिणाम रूप है। क्योंकि "योग परिणामो लेश्या" ऐसा शास्त्र का वचन है। अत: लेश्या परिणाम के बाद योग परिणाम कहा है। संसारी जीवों को योग का परिणाम होने के बाद उपयोग का परिणाम होता है अतः योग परिणाम के बाद उपयोग परिणाम कहा है। अनेक प्रकार के परिणाम वाले जीव जिसमें हो उसे 'समवसरण' कहते हैं, अर्थात् भिन्न-भिन्न मतों एवं दर्शनों को 'समवसरण' कहते हैं। समवसरण के चार भेद हैं । यथा-क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी। यहाँ क्रियावादी आस्तिक दर्शन है । कर्ता के बिना क्रिया संभव नहीं है। इसलिए 'क्रिया का कर्ता जो है, वह आत्मा है। इस प्रकार आत्मा के अस्तित्श को मानने वाले क्रियावादी हैं व क्रियावादी सम्यग्दृष्टि होते हैं बाकी तीन मतवाद -अक्रियावादी, विनयवादी व अज्ञानवादी मिथ्यादृष्टि होते हैं । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 43 ) इसप्रकार असंख्यातासंख्यात रोमखंडों का आधारभूत अथवा उतने प्रमाण समयों का आधारभूत जो संख्यानविशेष है उसकी जिस किसी प्रकार से पल्य से समानता का आश्रय लेकर प्रवृत्त हुआ पल्योपम का वचन उपमा सत्य है-यह सिद्ध होता है । सागरोपम भी उपमा सत्य है। नारको के अपर्याप्त अवस्था में सास्वादान नामक दूसरा गुणस्थान नहीं होता है । यह गोम्मटसार की व षट्खंडागम की मान्यता है। अतः इस गुणस्थान में वैक्रियमिश्रकाययोग व कार्मण काययोग को बाद दिया है। वायुकाय में दिगम्बर मान्यतानुसार तीन योग होते हैं, यथा-औदारिक, औदारिकमिश्र व कार्मणकाययोग। इनके अपर्याप्त में दो योग व पर्याप्त में एक औदारिक काययोग होता है। मनुष्य और तियंच में मूल वैक्रिय शरीर न होने के कारण वैक्रिय काययोग व वैक्रियमिश्र काययोग को नहीं माना है। उपचार से वैक्रिय काययोग माना है। मनुष्यणी में दिगम्बर मान्यता में प्रयत्न संयत में अपर्याप्त अवस्थान को नकार किया है। दिगम्बर मान्यतानुसार मनुष्यणी में मनःपर्यव ज्ञान नहीं होता है। नारकी को बाद देकर बाकी तीन गतियों में दिगम्बर मान्यता में भी अपर्याप्त अवस्था में दूसरा गुणस्थान भी माना है। योगसूत्र के अनुसार भी पुण्य की उत्पत्ति धर्म के साथ हो सकती है, यही फलित होता है। जैसे धर्म और अधर्म ये क्लेश मूल है। इन मूल सहित क्लेशाक्षय का परिपाक होने पर उनके तीन फल होते हैं-जाति, आयु और भोग। ये दो प्रकार के होते हैंसुखद और दुःखद। जिनका हेतु पुण्य होता है, वे सुखद और जिनका हेतु पाप होता है, वे दुःखद होते हैं। इससे फलित यही होता है कि महर्षि पतञ्जली ने भी पुण्य-पाप की स्वतन्त्र उत्पत्ति नहीं मानी है। जैन विचारों के साथ उन्हें तोले तो कोई अन्तर नहीं आता। तुलना के लिए देखे जैन पातञ्जल योग आस्रव क्लेश मूल शुभयोग अशुभयोग धर्म अधर्म पुण्य पाप पुण्य पाप । । । । वेदनीय नाम गोत्र आयु वेदनीय नाम गोत्र आयु जाति-आयु-भोग जाति-आयु-भोग Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्य वचन योग के दस भेद हैं १. क्रोधनिश्रित २. माननिश्रित ३. मायानिश्रित ४. लोभनिश्रित ५. प्रेयनिश्रित उदय वचव योग के दस भेद हैं ( 44 ) १. उत्पन्नमिश्रित ४. जीवमिश्रित ७. अनंतमिश्रित १०. अद्धाअद्धमिश्रित २. विगतमिश्रित ५. अजीवमिश्रित ८ परीतमिश्रित ३. उत्पन्नविगतमिश्रित ६. जीव अजीवमिश्रित ९. अद्धामिश्रित ६. द्वेषनिश्रित ७. हास्यनिश्रित ८. भयनिश्रित ९. आख्यायिकीनिश्रित १०. उपघातनिश्रित सत्य वचन योग के भी जनपद सत्यादि दस भेद है । व्यवहार वचन योग के भी दस भेद है । शुक्लध्यान में एक योग से दूसरे योग पर परिवर्तन भी किया जाता है । शुक्लध्यान का एक भेद पृथक्त्व - वितर्क - सविचार है । इस ध्यान में परिवर्तन होता है । के प्रथम दो भेदों में तीनों योग होते हैं । शुक्लध्यान अनाहारक अवस्था में केवल कार्मण काययोग होता है । कार्मण काययोग को बाद देकर चवदह योग होते हैं । दण्ड- द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का होता है । द्रव्यत: लाठी आदि को दण्ड कहा जाता है तथा भावतः दुष्ट कर्मों में फंसा हुआ मन-दण्ड है । यह मन- दण्ड अशुभ योग के कारण होता है । कुछ देशों में जो शब्द जिस अर्थ में रूढ़ होता है, देशान्तरों में भी यदि वह शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त होता है तो वह जनपद सत्य कहलाता है । सयोगी तामली तापस ने सम्यग्दृष्टि जीव ऐसी तपस्या मिथ्यादृष्टि था । आहारक अवस्था में प आदि कर्म के द्वारा अर्हदादि के विकल्प स्वरूप स्थापित किया जाता है उसे स्थापना सत्य कहते हैं - यथा अजिन को जिन के रूप में तथा अनाचार्य को आचार्य के रूप में ख्यात करना । जो लोकसम्मत भी हो तथा अभिधानार्थ द्वारा सत्य भी हो उसे सम्मत सत्य कहते हैं । पंकज शब्द अरविन्द अर्थात् कमल के ही अर्थ में रूढ़ माना जाता है अतः वह सम्मत सत्य है । ६० हजार वर्ष तक बेले- बेले की तपस्या की । यदि करे तो सात जीव मोक्ष जा सकते हैं। लेकिन वह Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 45 ) प्रज्ञापना पद ११ के भाषा पद में सत्य भाषा के जनपद भाषा आदि १० भेदों का उल्लेख मिलता है। सबसे कम तीन योग युक्त जीव हैं, उससे दो योग ( वचन-काययोगी) युक्त जीव संख्यातगुणे हैं, उससे अयोगी अनंतगुणे अधिक हैं और उससे एक योगी ( काययोगी) वाले जीव अनन्तगुणे हैं। चारों मनोयोग का काल अन्तमुहूर्त मात्र ही है अर्थात चारों मनोयोग के काल के जोड़ से संख्यातगुणा अन्तर्मुहूर्त सत्य-वचन योग का काल है। उससे संख्यातगुणा अन्तर्मुहूर्त असत्य वचन योग का काल है। उससे संख्यातगुणा अन्तर्मुहूर्त उभय वचन योग का काल है। उससे संख्यातगुणा अन्तमुहूर्त अनुभय वचन योग का काल है। इन सबका योग भी अन्तर्मुहूर्त मात्र है। नोट-संदृष्टि के रूप में मनोयोग से काल से (८५) संख्यातगुणा ८५ x ४ सत्य वचन योग का काल है। उससे संख्यातगुणा ८५४ १६ असत्य वचन योग का काल है। उससे संख्यातगुणा ८५x ६४ उभय वचन तथा उससे संख्यातगुणा ८५४ २५६ अनुभय वचन योग का काल है। इनका जोड़ ८५४३४० होता है। इन चारों वचन योगों के काल का जोड़ ८५४ ३४० सामान्य वचन योग का काल है। __ सम्यगमिथ्यादृष्टि में दस योग होते हैं। परन्तु मारणांतिक समुद्घात नहीं होता है और न आयुष्य को बांधता है, न मरता है। प्रमाद के पन्द्रह भेद होते हैं-चार विकथा, चार कषाय, पांच इन्द्रिय, निद्रा व स्नेह। कहा जाता है कि अप्रमत्त संयत गुणस्थान में शुभ योग होते हैं परन्तु दिगम्बर परम्परा में अशुभ योग भी माना है। उस गुणस्थान में संज्वलन कोध-मान-माया-लोभ चार कषायों का और हास्य आदि नौ नोकषायों का यथासंभव उदय है। चक्रवर्ती तथा वासुदेव में बारह योग होते हैं–४ मनोयोग, ४ वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रिय काययोग तथा वैक्रियमिश्र काययोग। दर्शन मोहनीय का बंध की विवक्षा से एक भेद है। किन्तु उदय और सत्त्व की अपेक्षा मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व, सम्यवत्व प्रकृति तीन भेद हैं। जो मूल में उष्ण है । वह अग्नि है और जिसकी प्रभा उष्ण हो वह आतप है। आतप नामकर्म का उदय सूर्य के बिम्ब में उत्पन्न बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक तिर्यच जीव में होता है। जिसकी प्रभा भी उष्ण न हो वह उद्योत है। हास्यादि षट् नोकषाय का अनिवृत्ति बादर गुणस्थान में क्षय या उपशम होता है। औदारिकमिश्र काययोगी, वैक्रियमिश्र काययोगी, आहारकमिश्र काययोगी व कार्मण काययोगी जीव आयुष्य का बंधन नहीं करता है। जैसे-विशेष पात्र में डाले गये विविध Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 46 ) रस, बीज, पुष्प, फलों का मदिरा रूप परिणाम होता है उसी तरह योग और कषाय के निमित्त से कार्मणपुद्गलों का कर्म रूप परिणाम जानना चाहिए। अपूर्वगुणस्थान के प्रथम भाग में श्रेणी चढते समय मरण नहीं होता है । उपशान्त कषाय, क्षीण मोह और सयोग केवली में दो समय की स्थिति लेकर सातावेदनीय का ही बंध होता है । यह बंध योग के कारण होता है । इन गुणस्थानों में कषाय का अभाव है । अयोग केवली में योग भी नहीं है अतः बंध भी नहीं है । मिश्र काययोगी ( औदारिकमिश्र काययोगी वैक्रियमिश्र काययोगी, आहारकमिश्र काययोगी व कार्मण काययोगी ) में नरकादि चार आयु, नरकद्विक, आहारकद्धिक का बंध नहीं होता है । वैक्रियमिश्र काययोगी नारकी मनुष्य व तिर्यंच का आयु नहीं बांधता है । औदारिकमिश्र काययोगी तिर्यंच के नरक व देव आयु का व नरकद्विक का बंध नहीं होता है । असंयत आदि चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में अनंतानुबंधी चार और दर्शन मोहनीय तीन-इन सातों की सता का नाश करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है । सबसे पहले अनंतानुबंधीय कषाय चतुष्क का क्षय करता है । उसके बाद मिथ्यात्व प्रकृति का क्षय करता है, उसके पश्चात् मिश्र का और उसके पश्चात् सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का क्षय करता है । क्षपक श्रेणी में अपूर्वकरण गुणस्थान में मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृति की सत्ता का उल्लेख गोम्मटसार में मिलता है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में अप्रत्याख्यान कषाय चार और प्रत्याख्यान कषाय चार इन प्रकृति को क्षपक श्रेणीवाला क्षय करता है । इसके बाद नपुंसक वेद, स्त्रीवेद को क्रमश: क्षय करता है । इसके बाद हास्यादि छह नो कषाय और पुरुषवेद को क्रमशः क्षय करता है । क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया को क्रमशः क्षय करता है । में सूक्ष्म लोभ का उदय रहता है । इसके बाद संज्वलन सूक्ष्यसंपराय गुणस्थान अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादि छह और पुरुषवेद का क्रमशः उपशम होता है । २ गोम्मटसार के अनुसार-क्षपणा की तरह ही उपशम के विधान का भी कम है । किन्तु विशेष इतना है कि संज्वलन कषाय और पुरुषवेद के मध्य में मध्य के अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान दो-दो क्रोधादि का क्रम से उपशम होता है । पीछे पुरुषवेद का उपशम करने के अनन्तर जो नवीन बंधा हुआ उस सहित अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध के युगल का उपशम करता है । यद्यपि बन्ध और करण में कोई अन्तर नहीं है तथापि यहाँ जो पृथक्-पृथक् कथन किया है, इसका कारण यह बताया है कि जीव की जो 'कर्म-बंध क्रिया' है वह जीवकृत ही है अर्थात् जीव के द्वारा ही की हुई है, 'ईश्वरादिकृत' नहीं है । १. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा० ३३५ से ३३८ । टीका २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा० ३४३ | टीका Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 47 ) अथवा- 'बंध का अर्थ है-सामान्य रूप से कर्म को बांधना और करण का अर्थ है-कर्मों को निधत्तादि रूप से बांधना, जिससे विपाकादि रूप से उनका फल अवश्य भोगना पड़े। पंकप्रभा नरक से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी नहीं उद्वर्तते हैं। इसी प्रकार धूमप्रभा, तमप्रभा तथा तमतमाप्रभा नारकी के विषय में जानना चाहिए। क्योंकि तीर्थंकर तीसरौ नरक तक के निकल कर हो सकते हैं शेष नारकियों से नहीं। सम्यमिथ्यादृष्टि नारकी कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते हैं अतः इनका विरह हो सकता है। अस्तु-योग-आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन (कंपन) को योग कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमादि की विभिन्नता से योग के पन्द्रह भेद होते हैं। किसी जीव का योग दूसरे जीव की अपेक्षा जघन्य होता है और किसी जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट होता है। सभी नरकों के नरकावास में पृथ्वीकायिक यावत वनस्पतिकायिक जीव है। वे महाक्रिया, महास्रव, और महावेदना वाले हैं। ( जीवाभिगम-तीसरी प्रतिपत्ति ) तिर्यगलोक के ठीक मध्य में-जंबूद्वीप में रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूमि भाग पर मेरु पर्वत के विल्कूल मध्य में आठ रुचक-प्रदेश हैं। वे गोस्तन के आकार वाले हैं। चार ऊपर की ओर उठे हुए हैं और चार नीचे की ओर। इन्हीं रुचक प्रदेशों की अपेक्षा से सभी दिशा-विदिशाओं का ज्ञान होता है। परिहारविशुद्धि संयम को त्यागे बिना उपशम श्रेणी अथवा क्षपक श्रेणी पर आरोहण नहीं होता है ! अनाहारक में पांच गुणस्थान होते हैं। (१, २, ४, १३. १४ ) श्वेताम्बर आगमानुसार क्षायिक सम्यक्त्वी जीव-जघन्य एक भव, उत्कृष्ट तीसरे भव में मुक्त हो जाता है। दिगम्बर परम्परानुसार वैक्रियमिश्र काययोग निर्वृत्त्यपर्याप्त जीव समास में होता है। मोम्मटसार में अग्निकाय में चार शरीर की मान्यता मिलती है। गर्भज मनुष्य अथवा सामान्य मनुष्य में योग १३ (वैक्रिय-वैक्रियकायमिश्र बाद देकर ) गोम्मटसार के कर्ता ने माना है। अप्रमत्त संयत गुणस्थान में साता-असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा नहीं है। गोम्मटसार में मानुषणी में मनःपर्यवज्ञान नहीं माना है। कहा है मनःपम्यंयज्ञानोपयोगं xxx मनःपर्ययः स्त्रीवेदिषु नहि संक्लिष्टपरिणामित्वात् । -गोजी० गा० ७१८ । टीका ___अर्थात् संक्लिष्ट परिणाम होने से स्त्री वेदी में मनःपर्यवज्ञान नहीं होता है। आगे कहा है १. उत्त० गा० २९ । गा.१ २. गोजी० मा. ६८२। टीका ३. गोजी० गा. ७१८ । टीका Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "( मानुषिप्रमत्तसंयत) स्त्रीनपुसकोदये आहारकद्धिमनःपर्ययपरिहारविशुद्धयो नहि ।" -गोजी• गा. ७१८ । टीका सामग्री विशेष के द्वारा रत्नत्रय और अनन्तचतुष्टयस्वरूप से परिणमन करने के जो योग्य हो वह भव्य है। उससे विपरीत अभव्य है। अभव्य राशि युक्तानन्तप्रमाण है। भव्य के तीन भेद हैं—आसन्न भव्य, दूर भव्य और अभव्य के समान भव्य । गोम्मटसार में सयोगी और अयोगी केवली को न भव्य माना है और न अभव्य माना है। शरीर और अंगोपांग नाम कर्म से उत्पन्न शरीर, वचन और मन के योग्य नोकर्म वर्गणाओं के ग्रहण को आहार कहते हैं। कहा हैविग्रहगती प्रतरलोकपूरण सयोगे अयोगे सिद्धे च अनाहारः । —गोजी• गा. ७०३ । टीका विग्रह गति में प्रतर और लोकपूरण समुद्घात सहित सयोगी, अयोगी, और सिद्ध अनाहारक है। अनाहारक अवस्था में सिर्फ कार्मणकाययोग होता है या योगरहित होता है। पुद्गल द्रव्य में परमाणु और द्वयणुक आदि संख्यात, असंख्यात और अनंत परमाणुओं के स्कंधचलित होते हैं। अन्तिम महास्कंध में प्रदेशचल-अचल है। तेइस प्रकार की पुद्गलवर्गणाएं होती है १. अणुवर्गणा २. संख्याताणुवर्गणा ३. असंख्याताणुवर्गणा ४. अनंताणुवर्गणा ५. आहारवर्गणा ६. अग्राह्यवर्गणा ७. तैजसशरीरवर्गणा ८. अग्राह्यवर्गणा ९. भाषावर्गणा १०. अग्राह्यवर्गणा ११. मनोवर्गणा १२. अग्राह्यवर्गणा १३. कार्मणवर्गणा १४. ध्र ववर्गणा १५. सान्तर निरन्तरवर्गणा १६. शून्यवर्गणा १७. प्रत्येक शरीर वर्गणा १८. ध्र व शून्य वर्गणा १९ बादर निगोद वर्गणा २०. शून्यवर्गणा २१. सूक्ष्मनिगोद वर्गणा २२. नभोवर्गणा और २३. महास्कंधवर्गणा। योग और ध्यान निव्वाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽनियहि तइयं तणुकायकिरियस्स ।। -ध्याश० गा.८१ मोक्षगमन के प्रत्यासन्नकाल में केवली के मन और वचन योग का निरुद्ध हो जाता है किन्तु उच्छ वास-निःश्वास रूप काय की सूक्ष्म प्रवृत्ति (योग) वर्तमान रहती है। वह शुक्लध्यान का सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति नामक तीसरा प्रकार है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 49 ) कहा जाता है कि भरत क्षेत्र के कुणाला नगरी में गुणभद्र श्रावक ने ८४००००० पूर्व से कुछ नौ वर्ष न्यून पूर्व तक लगातार सामायिक की-ऐसा सर्वज्ञ देव कह रहे थे। उसने बहुत बड़ी निर्जरा की। यदि वह सामायिक न करता तो नरक तिर्यंच में भी पैदा हो सकता था। सामायिक द्वारा उसने दलिक कर्मों का बहुतायत से क्षय किया था। संयती के गुप्ति निरंतर रहती है। समिति के निरंतर का नियम नहीं है। गुप्ति यम है, समिति नियम है। गुप्ति निरोध रूप संवर है, समिति प्रवृत्ति रूप निर्जरा है। ध्यान से मनोयोग की साधना होती है व जप से वचनयोग को साधा जाता है। कायोत्सर्ग में काययोग को साधा जाता है । देवद्धिगणि भगवान महावीर के सताइसवें पट्टधर थे। एक पूर्व के ज्ञाता थे। भगवान के परिनिर्वाण के ९८० वर्ष बाद हुए। हरिणगमेषी देव का जीव देवद्धिगणि था। जिस देव ने भगवान महावीर के जीव का संक्रमण किया वह हरिणगमेषी देव। इस पाट तक शुद्ध प्ररूपणा मानी गयी है। नववें गुणस्थान में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों में से १, अथवा २, अथवा ३, अथवा ४, अथवा ५ प्रकृति का बंध होता है। आठवें में ९ प्रकृति, सातवें तथा छ8 में ९ प्रकृति का बंध होता है। पांचवें में १३, चौथे में १७, तीसरे में १७, दूसरे में २१ व पहले में २२ प्रकृति का बंध होता है ।' जन साहित्य में 'योग' शब्द का प्रयोग अध्यात्म योग, भावना योग, संवर योग, ध्यान योग, आदि अनेक रूपों में मिलता है। इन सभी योगों को जैन तत्त्व विद्या में समाविष्ट किया जा सकता है। इस दृष्टि से 'जैन योग' योग विद्या का बहुआयामी लक्ष्य लेकर चलता है। ___"योग" शब्द भी निष्पत्ति संस्कृत की 'युज्' धातु से होती है । इस धातु का प्रयोग भी कई अर्थों में होता है। प्रस्तुत संदर्भ में इसके दो अर्थ अधिक उपयुक्त हैं—समाधि और जोड़ना। जिस प्रवृत्ति में मन, बुद्धि और आत्मा को समाधान मिले वह योग है। इसका दुसरा अर्थ 'जोड़ना' बहुत व्यापक होने पर भी एक विशेष योजना का प्रतीक है। जिसे अभिव्यक्त करते हुए आचार्य हरिभद्र ने लिखा है-"मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो" धर्म की सारी प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को मोक्ष के साथ जोड़ती है, इसलिए वे 'याग' हैं। जैन, बौद्ध और वैदिक-सभी परम्पराओं में योग विद्या का प्रचलन है और उनके साहित्य में योग की विशद चर्चा है । पिछले कुछ दशकों में भारत तथा इतर राष्ट्रों में इस सम्बन्ध में जितनी शोध और प्रयोग हुए हैं, उससे इस क्षेत्र में नई-नई सम्भावनाएं बढ़ रही है और लोक-मानस में आकर्षण उत्पन्न हो रहा है। १. गोक० गा० २१७ । टीका Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 50 ) जैन साधना पद्धति में योग के तीन अंग माने गये हैं - सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग् चारित्र । बौद्ध साधना पद्धति प्रज्ञा ( ज्ञान ), शील ( यम-नियम ) और समाधि ( ध्यान धारणा ) को तथा पातंजल योगदर्शन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि को योग के अंग बताये हैं । जैन आगमों में साधु और श्रावक के तीन-तीन मनोरथों का उल्लेख है । प्रथम दो मनोरथ भिन्न-भिन्न है । तीसरा मनोरथ दोनों का एक है । उसका सम्बन्ध आजीवन अनशन से है । इसके लिए आगमों में 'अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना' शब्द का प्रयोग है । बोलचाल की भाषा में इसे संथारा कहा जाता है । प्रत्येक जागरूक साधु और श्रावक की यह भावना रहती है कि वह अपनी यात्रा की संपन्नता अनशन के साथ करें । भवस्थ केवली – सयोगी या अयोगी केवली के भाव मन (चित्त) का अभाव होने पर भी जीव का उपयोग रहता ही है । शुक्लध्यान - शुक्ललेश्या व लेश्यारहित होता है लेकिन योग- मनोयोग, वचनयोग, काययोग या योगरहित होता है । है — ध्यान, अतः ध्यान मोक्ष का हेतु है । तप का प्रधान अग वचन, शरीर और श्वासोच्छ् वास का । । धर्मध्यान करने वालों से कुछ व्यक्ति मन का निरोध कर फिर श्वासोच्छ् वास का निरोध करते हैं और कुछ व्यक्ति शरीर, वचन और निरोध कर फिर मन का निरोध कर पाते हैं आवश्यक सूत्र में 'ठाणेणं मोणेणं झाणेणं' इन शब्दों द्वारा तौसरा क्रम प्रतिपादित है इसका अर्थ है - पहले शरीर की चेष्टा का विसर्जन, फिर वाणी का और फिर मन का । इस क्रम में श्वासोच्छ् वास का निरोध कायनिरोध के अंतर्गभित है । किन्तु भवकाल में शुक्लध्यान का प्रतिपत्ति क्रम इस प्रकार रहता है— पहले मनोयोग का, तदन्तर वाक्योग का और अन्त में काययोग का निरोध होता है । पढमं जोगे जोगेसु वा मयं बिइअमेगजोगम्मि | तइयं च कायजोगे सुक्कमजोगम्मि य चउत्थं ॥ शुक्लध्यान के प्रथम प्रकार में एक ही योग या तीनों योग दूसरे प्रकार में तीनों में से कोई एक योग विद्यमान रहता है । एक काययोग ही विद्यमान रहता है । तथा चौथे प्रकार में कोई योग नहीं रहता । वह अयोगी को ही प्राप्त होता है । कहा है विवित्तं पेच्छ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे । विवेक है | -ध्याश० गा० ९२ शरीर और आत्मा को तथा सभी संयोगों को आत्मा से भिन्न मानना - यह - ध्याश० गा० ८३ विद्यमान रह सकते हैं, तीसरे प्रकार में केवल Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 51 ) शुक्लध्यान में शुभयोग व योग न भी हो । शुक्लध्यान के पहले दो प्रकारों में शुक्ललेश्या और तीसरे प्रकार में परम शुक्ललेश्या होती है । चतुर्थं प्रकार लेश्यातीत होता है । भवस्थ सयोगी और अयोगी केवली के चित्त का अभाव होने पर भी उपयोग रहता ही है । अनाहारक अयोगी जीवों के शरीर से जो औदारिक परमाणु निर्जीर्ण होते हैं उनका यह जघन्य व उत्कृष्टकाल कहना चाहिए । दिगम्बर मतानुसार सकषायी के शुक्लध्यान नहीं होता है अर्थात् अकषायी में शुक्लध्यान होता है । अभिनिष्क्रमण के समय भगवान महावीर जब श्रेष्ठ पालकी में आरोहण किया, उस समय उनके दो दिन का उपवास था, उनके अध्यवसाय शुभ थे, लेश्या विशुद्धमान थी । कहा है भी शुभ छ उ भत्ते अकवसाणेणं सोहणेण जिणो । लेस्साहि विसुज्तो आरुहई उत्तमं सीयं ॥ - आया० श्रु० २ । अ १५ । गा० १२१ अस्तु जब भगवान के अध्यवसाय शुभ थे तथा लेश्या विशुद्धमान थी - तब जोग थे | जैन सिद्धान्तदीपिका में कहा है "परिणामविशेषः करणम् ।" -प्र० ५।७ अर्थात् आत्मा के परिणाम विशेष को करण कहते हैं । यह करण की अन्य परिभाषा है । संयमी साधुओं के ध्यान आदि के द्वारा जो शुभ योग का निरोध होता है। यह अयोग संवर का ही एक अंश है ।" अयोग संवर शैलेशी अवस्था ( शैल - ईश ) मेरुउसकी तरह अडोल अवस्था चौदहवें गुणस्थान में होती है । यह ध्यान योगनिरोध - मनोवाक्काय के निरोध को भी ध्यान कहा जाता है । केवली के होता है । शुक्लध्यान के चार भेद हैं जिसमें सूश्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान में एक काययोग होता है तथा समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति ध्यान में योग नहीं होता है । विवित्सं पेच्छ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे । शरीर और आत्मा को तथा सभी संयोगों को आत्मा से भिन्न मानना यह विवेक है । १. जैन सिद्धांतदीपिका ५ । १२ - ध्याश० गा० ९२ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 52 ) योगरहित होने के कारण प्रथम समय सिद्ध की गति तिरछी नहीं होती है । तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि में तिर्यंचायु व मनुष्यायु का बंध संभव है, शेष देवायु-नरकायु और वैक्रियषटक् का बंध नहीं होता है। गोम्मटसार में कहा है कि द्वीन्द्रियादि असंज्ञी में सास्वादान समकित शरीर पर्याप्ति की पूर्णता के पूर्व होती है बाद में नहीं। मिश्रकाययोग के काल में लब्ध्यपर्याप्तक के सिवाय अन्य के आयुबंध नहीं होता है।' यह सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान की अपेक्षा कहा है । गोम्मटसार की मान्यता के अनुसार असंज्ञी जीव जब तक सास्वादान गुणस्थान में होते हैं तब उनके केवल औदारिकमिश्रकाययोग व कार्मणकाययोग होता है उस समय आयुध्य का बंधन नहीं करते हैं। कार्मणकाययोग में किसी भी प्रकार का आयु बध नहीं होता है। परन्तु औदारिकमिश्रकाययोग में देवायु व नरकायु का बंध नहीं होता है, मनुष्य व तिर्यंच का आयु बंध सकता है। आयु एक पर्याय में एक बार से आठ बार तक बंधती है। उदय के अन्त को उदय व्युच्छित्ति कहते हैं। गोम्मटसार में कहा है -- (अपुन्वम्मि) छच्चेव णोकषाया अणियट्टी भागभागेसु ॥२६९।। टीका-अपूर्वकरणे हास्यरत्यरतिशोक भयजुगुप्साः षट् -गोक० गा० २६९ । टीका अपूर्वकरण में हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह नोकषाय उदय से व्युच्छिन्न होती है। उदय और उदीरणा के स्वामीपने में कोई अन्तर नहीं है। प्रमत्त, सयोगी और अयोगी-इन तीन गुणस्थानों को छोड़कर अन्य गुणस्थानों में उदय के समान ही उदीरणा जानना । संक्लेश परिणामों के बिना इनकी उदीरणा नहीं होती है। बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीव के ही आतय नामकर्म का उदय होता है। उच्च गोत्र का उदय मनुष्य और सब प्रकार के देवों में होता है। विवक्षित भव के प्रथम समय में ही उस भव संबंधी गति, आनुपूर्वी और आयु का उदय एक साथ ही एक जीव के होता है। गोम्मटसार में कहा-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मिश्रमोहनीय व सम्यक्त्व मोहनीय का उदय नहीं होता है । मिश्रगुणस्थान में मिश्रमोहनीय का उदय होता है व चतुर्थ गुणस्थान में मिश्रमोहनीय व मिथ्यात्वमोहनीय का उदय नहीं होता है। दूसरे गुणस्थान में भी अनंतानुबंधीय कषाय चतुष्क का उदय होता है। १. मिश्रकाययोगकाले लब्ध्यपर्याप्तकान्यस्य आयुर्बधाभावात् नरकतिर्यगायुषोरपनयात् । -गोक० गा० ११७ । टीका Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 53 ) उपवाद और एकांतानुवृद्धि योगों को छोड़कर पृथ्वीकायिकों में कुछ कम बाईस हजार वर्ष तक परिणाम योगों के साथ प्रायः अवस्थान पाया जाता है। अप्कायिक, वायुकायिक वनस्पतिकायिकों के पर्याप्त व अपर्याप्त योग से पृथ्वीकायिकों का पर्याप्त व अपर्याप्तयोग असंख्यातगुणा होता है। एकेन्द्रियों से त्रसों का योग असंख्यातगुणा होता है। बादर पृथ्वीकायिकों में पर्याप्तभव बहुत और अपर्याप्त भव थोड़े होते हैं।' जो वह गणनकृति है वह अनेक प्रकार की हैयथा-१–एख संख्या नोकृति है। २-दो संख्या कृति और नोकृति रूप से अवक्तव्य है। ३–तीन को आदि लेकर संख्यात, असंख्यात व अनंत कृति है। १–नोकृति संकलना-जैसे १, २, ३, ४, ५, ६, ७ आदि । २-अवक्तव्य संकलना-२, ४, ६, ८, १०, १२, १४ आदि । ३–कृति-संकलना-३, ६, ९, १२ आदि ; ४, ८, १२, १६ आदि ; ५, १०, १५, २. आदि। लेश्या मार्गणा औदयिक है, क्योंकि कषायानुविद्ध योग को छोड़कर लेश्या का अभाव है अर्थात् कषायानुरजित योग प्रवृत्ति को लेश्या कस्ते हैं । सम्यक्त्व मार्गणा कथंचित् औदयिक है क्योंकि दर्शन मोहनीय के उदय से मिथ्यात्व को उत्पत्ति होती है। जो किया जाता है वह कृति है अथवा मूलकरण ही कृति है। विवक्षित शरीर के परमाणुओं की निर्जरा के बिना जो संचय होता है उसे संघातन कृति कहते हैं। उन्हीं विवक्षित शरीर के पुद्गल स्कंधों को संचय के बिना जो निर्जरा होती है वह परिशातन कृति है। तथा विवक्षित शरीर के पुदगल स्कंधों का आगमन और निर्जरा का एक साथ होना संघातन-परिशातनकृति है। अयोगी केवली के योगाभाव होने से बंध नहीं होता है अतः इनके दो शरीरों की परिशातनकृति होती है। __सम्यक्त्ववेदनीय को मोहनीयकर्म क्यों कहा जाता है। क्योंकि वह प्रशमादि परिणाम का कारण होने से दर्शन में मोह उत्पन्न नहीं करता है। वस्तुतः सम्यक्त्ववेदनीय मिथ्यात्वमोहनीय की प्रकृति है परन्तु उनके पुदगल विशुद्ध होने से क्षयोपशम सम्यक्त्व को प्रतिबंध नहीं करते हैं। वस्तुतः उससे देश भंगरूप अतिचार का संभव है। तथा वह औपशमिक तथा क्षायिक सम्यग्दर्शन में मोह उत्पन्न करता है --- उनको रोकता है अतः दर्शनमोहनीय कहा जाता है । इस कर्म के उदय में योग पन्द्रह मिल सकते हैं। १. षट्खंडागम ४ । २, ४ । ७ पुस्तक १०, पृ० ३३ २. षट्खंडागम ४ । १ । ६६ पुस्तक ९ पृ० ३१७ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 54 ) नामकर्म की एक प्रकृति आनुपूर्वी नाम है । इस प्रकृति में केवल कार्मणकाययोग मिलता है । हल और गोमूत्रिका के आकार अनुक्रमतः दो, तीन और चार समय प्रमाण विग्रहगति से दूसरे भव में उत्पत्ति स्थान में जाते हुए जीव की आकाश प्रदेश की श्रेणि के अनुसार नियत गमन की परिपाटी क्रम को आनुपूर्वी कहा जाता है । वह विपाक से वेदन करने योग्य नामकर्म की कारण में कार्य के उपचार से आनुपूर्वी नाम चार प्रकार का कहा है १ - नरयिकानुपूर्वीनाम, २ – तिर्यंचानुपूर्वीनाम, ३ – मनुष्यानुपूर्वीनाम और देवानुपूर्वीनाम | आगम साहित्य में अकषायसमुद्घात का भी उल्लेख मिलता है । आहारकसमुद्घात करने वाले जीव उत्कृष्ट चार हो सकते हैं लेकिन केवल समुद्घात वाले उत्कृष्ट शतपृथक्त्व हो सकते हैं ( दो सौ से नव सौ तक की संख्या को शतपृथक्त्व कहते हैं । ) केवलिसमुद्घात करने के एक समय पूर्व वेदनीयकर्म के प्रदेश से बहुप्रदेशी वाले व आयुष्यकर्म के प्रदेश सबसे थोड़े प्रदेश वाले होते हैं । नियनिगोद व इतरनिगोद की योनि सात-सात लाख है । आहारक मिश्र काययोग के समय आहारकमिश्रकाययोग नहीं होता है । सयोगकेवली के नाम और गोत्र कर्म की उदीरणा होती है । सूक्ष्म संपरायचारित्र में एक भी समुद्घात नहीं है । दिगम्बरमतानुसार पांच लोक है -ऊर्ध्वलोक, तिर्यग्लोक, नीचालोक, मनुष्यलोक व सामान्यलोक | आठ कर्मों के क्षीण हो जाने पर जो ऊर्ध्वगमनोपलम्बी क्रिया होती है वह जीव का स्वाभाविक गुण है क्योंकि वह कर्मोदय के बिना प्रवृत्त होती है । स्वस्थित प्रदेश को न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीवद्रव्य का अपने अवयवों द्वारा परिस्पन्द होता है वह अयोग है । क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है । अतः सक्रिय होते हुए भी सशरीरी जीव अयोगी सिद्ध होते हैं । क्योंकि उनके जीवप्रदेशों के तप्तापमान जल प्रदेशों के सदृश उद्वर्तन और परिवर्तन रूप क्रिया का अभाव है अतः अयोगियों को अबंधक कहा है । क्षायिक लब्धि से जीव अयोगी होता है । दिगम्बर ग्रन्थों में चार प्रकार के (औषधिदान, शास्त्रदान, अभयदान और आहारदान ) दानों में शास्त्रदान की बड़ी महिमा है । कहा है अत्ता दोसविक्को पुग्वापरदोसवज्जियं वयणं । अर्थात् जिसमें कोई दोष नहीं है वह आप्त है और जिसमें पूर्वा पर विरोधरूपी दोष न हो - वह वचन आगम है । आगम, सिद्धान्त - प्रवचन—ये एकार्थवाची है । आगम में निर्ग्रन्थों के प्रवचन करें सिद्धांत कहा है । षट्खण्डागमानुसार एकेन्द्रिय में चार समय की अन्तराल गति हो सकती हैं । उसमें प्रथम तीन समयों में कार्मणकाययोग उपलब्ध होता है । उनके मतानुसार छद्मस्थ का Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 55 ) अनाहारककाल तीन समय बन सकता है। चतुर्थ समय में औदारिकमिश्रकाययोग बनता है। __ कष् + आय-अर्थात् जिससे संसार की आय हो उसे कषाय कहते हैं। अपर्याप्तअवस्था ( मनुष्य वा तिर्यंच ) में विभंग ज्ञान नहीं होता है । मिश्रमोहनीय का उदय सम्यमिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होता है। सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का उदय असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान आदि चार गुणस्थानों में क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के ही होता है। सास्वादान सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नरकगति को नहीं जाता है-ऐसा गोम्मटसार में कहा है। अपूर्वकरण में हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह नोकषाय का उदय से व्युच्छिन्न होती है।' योगरहित जीव अयोगी केवली में उदय प्रकृतियों की उदीरणा नहीं होती है। अत: अयोगी केवली के उदीरणा नहीं है। गोम्मटसार की मान्यतानुसार मिथ्यावृष्टि गुणस्थान में मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति का उदय नहीं है, मिथ्यात्वमोहनीय का उदय है। गोम्मटसार में कहा है कि असंयत आदि चार गुणस्थानों में से किसी एक में तीन करणों के द्वारा अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का विसंयोजन हुआ। उसके पश्चात् दर्शन मोहनीय कर्म की क्षपणा तो कर सका और संक्लेश परिणाम के द्वारा मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से मिश्रगुणस्थानवर्ती हुआ। उसके अनतानुबंधी का उदय नहीं होता है। अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम भाग में श्रेणी चढ़ते समय मरण नहीं होता है। उपशातकषाय, क्षीणमोह और सयोगकेवली के एक समय की स्थिति लेकर साता वेदनीय कर्म का ही बंध होता है । यह बंध योग के कारण होता है। इन गुणस्थानों में कषाय का अभाव है। अयोगकेवली के योग भी नहीं है अत: बंध भी नहीं है। देवायु की उत्कृष्ट स्थिति अप्रमत्तगुणस्थान के अभिमुख प्रमत्तसंयत मुनि ही बांधता है। फल देने रूप परिणमन को तो उदय कहते हैं और असमय में ही अपक्व कर्म का पकना उदीरणा है। पूजा का अर्थ है-समर्पण । भक्ति व श्रद्धा के बिना भाव पूजा नहीं हो सकती है। आगमों में द्रव्य तीर्थङ्कर की पूजा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है परन्तु नागदेव-यक्षदेव आदि देवों की द्रव्य पूजा की ऐसा उल्लेख है । प्रशस्त योगों के बिना भाव पूजा नहीं हो सकती है। लोकांत में पर्याप्त बादर बायुकाय है परन्तु अपर्याप्त बादर वायुकाय नहीं है। जैसे उदर की पाचक शक्ति के अनुरूप आहार का ग्रहण होता है, उसी प्रकार तीव्रमंद या मध्यम जैसा कषाय भाव होता है उसके अनुरूप कर्मों में स्थितिबंध और अनुभागबंध होता है। यह आत्मा लोकाकाश के समान असंख्यातप्रदेशी होने से सप्रदेशी है । स्व और पर का भेद ज्ञान न होने पर जो जीव संकल्प-विकल्प करता है उसे अध्यवसान कहते हैं। यही बंध का कारण है। यह कषाय के उदयरूप होता है। कषाय के उदय से ही कर्मों में स्थितिबंध और अनुभागबंध होता है। कषाय के उदय के अभाव १. गोक० गा० २६८ । टीका Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 56 ) में केवल योग से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होते हैं। अतः बंध का प्रमुख कारण कषायोदयरूप अध्यवसान ही होता है । प्रथम और तीसरे गुणस्थान में बंध के मिथ्यात्व आदि पांच कारण होते हैं। दूसरे, चौथे, पांचवें में बंध के कारण चार होते हैं। छ8 में प्रमाद-कषाय-योग रहते हैं। सातवें से दसवें तक कषाय और योग दो ही कारण होते हैं। आगे तेरहवें तक केवल एक योग रहता है। अतः दसवें तक चारों बंध होते हैं । आगे केवल प्रकृतिबंध-प्रदेशबंध ही होते हैं। दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय न होने पर भी अनंतानुबंधी कषाय का उदय रहता। कहा है"कर्मणा बध्यते जन्तुः।" महाभारत __ अर्थात् प्राणी कर्म से बंधता है और कर्म की परम्परा अनादि है। "बुद्धिः कर्मानुसारिणी' अर्थात् प्राणियों की बुद्धि कर्म के अनुसार होती है। कर्म के दो भेद हैं-- द्रव्यकर्म और भावकर्म। द्रव्यकर्म के आठ मूल भेद हैं। भावकर्म चैतन्य के परिणामरूप क्रोधादि भाव है। कहा है पुग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्तो भावकम्मं तु ॥६॥ टीका-पिण्डगतशक्तिः कार्य कारणोपचारात् शक्तिजनिता-ज्ञानादिर्वा भावकम भवति । –गोक. अर्थात् पुद्गल के पिण्ड को द्रव्यकर्म कहते हैं और उसमें जो शक्ति है उसे भावकर्म कहते हैं। उस पुद्गल पिण्ड में रहने वाली फल देने की शक्ति भावकर्म है अथवा कर्म में कारण के उपचार से उस शक्ति से उत्पन्न अज्ञानादि भी भावकर्म है। समयसार में शुद्ध जीव के स्वरूप के वर्णन में लिखा है-गुणस्थान, मार्गणास्थान, योगस्थान आदि जीव के नहीं है। पूज्य होने से ज्ञान को पहले कहा है क्योंकि व्याकरण के सूत्र में कहा है कि अल्प अक्षर वाले से जो पूज्य होता है उसका पूर्व निपात होता है। उसके पश्चात् दर्शन कहा है। कार्मणकाययोगी जीव में तीन समुद्घात होते हैं-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात तथा केवलीसमुद्घात। कर्मप्रकृति तथा गोम्मटसार के अनुसार दूसरे गुणस्थान में अनंतानुबंधीय चतुष्क कषाय का उदय माना है। दूसरे गुणस्थान से पतित होकर प्रथम गुणस्थान में आता है, ऊपर के गुणस्थान में ऊर्वारोहण नहीं करता है। मारणान्तिकसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात, तैजससमुद्घात, आहारकसमुद्घात में कार्मणकाययोग नहीं होता है क्योंकि वे समुद्घात आहारक अवस्था में होते हैं। अंगारमर्दनाचार्य जो अभवि थे। इन्होंने अनेकों व्यक्तियों को सम्यक्त्वी बनाया व संयती बनाया। पर स्वयं सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सके । यद्यपि अभाव में योग १३ होते हैं। आहारककाययोग व आहारकमिश्रकाययोग अभवि में नहीं होता है । गोम्मटसार के टीकाकार ने कहा है Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 57 ) "स्त्रीनपुसकोदये आहारकढिमनःपर्ययपरिहारविशुद्धयो नहि ।" -गोजी० गा० ७२८ । टीका अर्थात् स्त्रीवेद तथा नपुसकवेद का उदय रहने से आहारकऋद्धि, मनःपर्ययज्ञान तथा परिहारविशुद्धसंयत नहीं होता है। कर्मप्रकृति तथा गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में प्रथम दो गुणस्थान में अन्तानुबंधीय चतुष्क का उदय माना है । कार्मणवर्गणा राशि का प्रमाण सिद्धराशि के अनन्तवें भाग है। द्रव्याथिकनय से परमाणु निरंश है। एक समय हीन मुहूर्त को भिन्न मुहूर्त कहते हैं। यह उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है । परमाणु एक प्रदेशी ही होता है । तत्काल पुरुष वेद का जो नवीन बंधा हुआ है उसके निषेक पुरुष वेद का उपशमन करने के काल में उपशम करने योग्य नहीं हुए थे। क्योंकि अचलावली में कर्मप्रकृति को अन्य रूप परिणमाना अशक्य होता है। इससे पुरुष वेद के निषेक मध्यम क्रोध युगल का उपशम करने के काल में उपशम किये जाते हैं। इसी प्रकार संज्वलन क्रोधादि के भी नवबंधक का स्वरूप जानना। अनन्तर संज्वलन क्रोध का उपशम करता है। उसके अनन्तर उस सज्वलन क्रोध के नवीन बंध सहित अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान मान युगल का उपशम करता है। उसके अनंतर संज्वलन मान का उपशम करता है। उसके अनन्तर संज्वलन मान के नवीन बंध सहित मध्यम अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान माया युगल का उपशमकरता है। उसके अनन्तर संज्वलन माया का उपशम करता है। उसके अनन्तर संज्वलन माया के नवीन बंध सहित मध्यम अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान लोभ को उपशमाता है । उसके अनन्तर बादर संज्वलन लोभ को उपशमाता है। यह विशेष केवल मोहनीय कर्म का ही जानना, क्योंकि मोहनीय के सिवाय अन्य कर्मों का उपशम नहीं होता है। किसी व्यक्ति ने गौतम स्वामी से संथारा ग्रहण किया। गौतम स्वामी ने धर्मोपदेश दिया। वे जहाँ तक रहे-शुभ योग की प्रवृत्ति थी। उनके जाने के बाद परिणाम अशुभयोग में परिणत हो गये। स्त्री में आसक्त हुआ-मरकर द्वीन्द्रिय जीव में उत्पन्न हुआ। क्योंकि अशुभ योग के साथ अशुभ लेश्या भी थी। टीकाकार के अनुसार बारह वर्ष तक की कुमारी अप्राप्त यौवना होती है। वाचिक क्रोध तो बुरा है ही, पर इससे भी अधिक बुरे हैं आत्म-प्रदेशों में व्याप्त क्रोध के अणु। वे कभी-कभी अशुभ योग की तीव्रता को निमन्त्रण देते हैं। पांच आस्रव द्वार में पांचवां आस्रव योग है। इसका सम्बध-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से है। चूकि प्रवृत्ति तेरहवें गुणस्थान तक चलती है अत: योग आस्रव भी तेरहवें गुणस्थान तक रहता है। जिस दिन सम्पूर्ण योग आस्रव समाप्त हो जाता है यानि व्यक्ति अयोग-अवस्थामें पहुँच जाता है, तभी कर्म का अन्तिम रूप से बंधन रुकता है। किसी कवि ने कहा है Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 58 ) "विकार हेतौ सति विक्रियन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः ।" अर्थात् विकार। कषाय का निमित्त पाकर भी जिनका मन विकृत नहीं होता, कषाय उत्तेजित नहीं होती, वे ही धीर पुरुष है। उत्तेजनात्मक मन-अशुभ योग आस्रव है। दुष्प्रवृत्ति-अशुभ योग से पापकर्म का बंधन होता है। संतोषी व्यक्ति सहज रूप से दुष्प्रवृत्तियों से बचता रहता है। एक दृष्टि से देखा जाए तो सब पापों का मूल असंतोष यानी लोभ है। अतः लोभ को पाप का बाप कहा जाता है। असंतोषी व्यक्ति की आकांक्षाएँ कभी पूरी नहीं हो सकती। अशुभ मन, वचन और काययोग की प्रवंचना से जो क्रिया लगती है-वह माया क्रिया है। वीतराग असत्प्रवृत्ति नहीं करते। क्योंकि असत् प्रवृत्ति के कारण-प्रमाद, कषाय और अशुभ योग का वहाँ सर्वथा अभाव है लेकिन योगों की शुभ प्रवृत्ति से पुण्य का बंधन होता रहता है। पुण्य भी बंधन है अतः त्याज्य है। पूर्व संचित कर्मों की स्थिति पूरी हो जाए, योगों का प्रकम्पन रुक जाए, वीतराग कर्म से सर्वथा अकर्म की स्थिति में चले जाएं, उसके बाद बंधन का रास्ता बन्द हो जाता है । अशुभ योग जन्य क्रिया आरंभिया क्रिया कहलाती है। जब तक मन, वचन और काय की असत् प्रवृत्ति ( अशुभ योग ) रहती है, तब तक यह क्रिया होती रहती है। छ? गुणस्थान के साधु भी अशुभ योग की प्रवृत्ति के कारण आरंभी है। छ8 गुणस्थान से आगे के सभी गुणस्थान अनारंभी है क्योंकि वहाँ अशुभ योग का सर्वथा अभाव है। अयोगी जीव के प्रदेश अचलित होते हैं। मुक्त जीव अपने स्थान में अचलित होते हैं । विग्रह गति में कार्मण काययोग है फिर भी जीव-प्रदेश चलित है । जो उपशम सम्यक्त्व से गिरकर जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता है तब तक उसे सासादन सम्यक्त्व जानना चाहिए । चारित्र मोहनीय की अपेक्षा अनंतानुबंधी का उदय होने से औदयिक भाव वाला है। अनिवृत्ति करण में भय नोकषाय का विच्छेद हो जाता है। वर्तमान काल की परिमाण एक समय है। सयोगी केवली-जिनमें नियम से योग की अपेक्षा ही अपर्याप्त आलाप होता है। केवली समुद्घात के समय जब औदारिकमिश्र काययोग व कार्मण काययोग होता है तब अपर्याप्त आलाप होता है, ऐसा गोम्मटसार में कहा है। आठवें गुणस्थान में दो समकित मिलती है-औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व। __ नववें गुणस्थान के पंचम भाग में भी एक लोभ होता है वह बादर रूप में लोभ है । उससे मोह कर्म का बंध होता है। दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ होता है परन्तु मोह कर्म का बंध नहीं होता है। सिन्दुर प्रकरण में सोमचंद्रसूरि ने कहा है कि जो समय को नियोजित करना जानता है वह धर्म की आराधना सम्यग् प्रकार कर सकता है । क्षयोपशम सम्यक्त्व में सम्यक्त्व मोहनीय का मंद विपाकोदय-प्रदेशोदय रहता है। चंकि दर्शन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 59 ) मोहनीय कर्म का क्षयोपशम सातवें गुणस्थान तक है । वेदकसम्यक्त्व में एक समय की स्थिति रूप सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का प्रदेशोदय रहता है उसके बाद जौव क्षायिक सम्यक्त्वी बन जाता है । अयोगी केवली में उदीरणा नहीं है । अनुयोगद्वार में अजीवोदय निष्पन्न के ३० बोल कहे हैं - उनमें पांच शरीर, ५ शरीर के प्रयोग में परिणत पुद्गल द्रव्य, ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस और ८ स्पर्श है । प्रयोग परिणत पुद्गल का परिणमन मन, वचन और काययोग के द्वारा होता है । अनुयोगद्वार के टीकाकार ने कहा है- "शरीर पर्याप्ति का निर्माण होने के बाद प्रत्येक जीव क्षण-क्षण शरीर वर्गणा के नए पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन करता रहता है । पांच शरीरों द्वारा गृहीत और प्रयोग में लिए गये पुद्गल प्रयोग- परिणत पुद्गल है । विद्वानों की यह परंपरागत धारणा रही है कि नख, केश, रोम आदि शरीर के परिणत पुद्गल द्रव्य है - यह अर्थ शास्त्र सम्मत नहीं है । पदस्थ ध्यान यानी शब्दों का ध्यान । केवली, अतिशयधारी के शब्द पर ध्यान करना, मंत्र पर ध्यान यानी शब्दों का ध्यान - पदस्थ ध्यान में आता है | हमारा सारा श्रुत ज्ञान शब्द पर आधृत है । अपने स्वभाव में रमण करना, स्वभाव को स्मृति, चिन्तन करना – ये सब अमूर्त आत्मा के ध्यान की प्रक्रियाएं है । दो प्रकार के तत्त्व है— हेतुगम्य और अहेतुगम्य । हेतुगम्य तत्त्व वह होता है, जो युक्ति के द्वारा बोधगम्य हो सके । अहेतुगम्य तत्त्व के संदर्भ में न कोई तर्क चलता है और न कोई युक्ति काम में आती है । गणाधिपति पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने कहा है- "तीनों योगों के व्यापार अलगअलग है । जहाँ वचनयोग अशुभ होता है, वहां मनोयोग और काययोग शुभ हो सकते हैं । काययोग शुभ है, वहां मनोयोग और वचनयोग अशुभ हो सकते हैं। तीनों योग एक साथ शुभ या अशुभ ही हों, यह आवश्यक नहीं है । कोई श्रावक साधु को वंदन करने के लिए जाता है । उस समय उसका मनोयोग शुभ हो सकता है और वचनयोग और काययोग अशुभ हो सकते हैं। कभी काया और वचनयोग शुभ हो सकते हैं, मनोयोग अशुभ हो सकता है । कभी-कभी तीनों योग शुभ हो सकते हैं । शुभयोग की प्रवृत्ति एकांत निर्जराधर्म है और अशुभयोग की प्रवृत्ति पाप है । इस प्रकार एक क्रिया करते समय तीनों योगों की प्रवृत्ति अलग-अलग हो सकती है । अस्तु तीनों योगों के व्यापार को अलगअलग मानने में कोई आपत्ति नहीं है । सिद्धांततः तीनों योगों का व्यापार अलग-अलग हो सकता है ।" " आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष प्राभृत में कहा है "सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि । तम्हा जहा बलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए || ' १. बिज्ञप्ति - वर्ष १, अंक १४, २७ जुलाई १९९५ कतिपय प्रयोग में Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 60 ) अर्थात् सुख से भावित ज्ञान दुःख उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है, अतः योगी को यथाशक्ति अपने आपको दुःख से भावित करना चाहिए। सक्ष्म सम्पराय चारित्र में मोहनीय कर्म की भी उदीरणा हो सकती है। यद्यपि इस गुणस्थान में बादर कषायों का उदय नहीं है। आचारांग में कहा है-"पत्तेयं पुण्णपावं" अर्थात् पुण्य और पाप हर व्यक्ति के अपने-अपने होते हैं। पुण्य और पाप के भोग में निमित्तों का योग भी रहता है, पर उपादान व्यक्ति स्वयं होता है । __ योग शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है। इन अर्थों में दो अर्थ योग अर्थात् मिलन और समाधि अधिक प्रसिद्ध है। वर्तमान युग में योग एक प्रकार की साधना पद्धति अर्थात् आसन प्रयोग के अर्थ में काफी प्रचलित है। जैन शास्त्रों में योग शब्द इन सबसे भिन्न अर्थ में आता है। शास्त्र प्रचलित अर्थ के अनुसार योग को परिभाषित करते हुए तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा गया है-"कायवाङ्मनोव्यापारो योगः।" शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति का नाम योग है। जैन सिद्धांत दीपिका व कालूशतक में इसी अर्थ में योग शब्द का प्रयोग हुआ है। ___ योग शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का होता है। उसके सावद्य और निरवद्यये दो भेद भी उपलब्ध है। पर मूलतः उसके तीन भेद हैं-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। योग एक प्रकार का स्पन्दन है, जो आत्मा और पुद्गलवर्गणा के संयोग से होता है। अध्यवसाय, परिणाम और लेश्या भी एक प्रकार से स्पन्दन ही है। पर वे अतिसूक्ष्म स्पन्दन है। इसलिए सामान्यतः पकड़ में नहीं आते। योग स्थूल स्पन्दन है । शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार वीर्यान्तराय कर्म का क्षय या क्षयोपशम तथा नामकर्म के उदय से मन, वचन और कायवर्गणा के संयोग से आत्मा की जो प्रवृत्ति होती है वह योग कहलाता है। पुदगलवर्गणा के संयोग से आत्मा में जो स्पन्दन होता है। वह मूलतः एक ही प्रकार का है पर विवक्षा या निमित्त भेद के आधार पर उसे तीन रूपों में विभक्त कर दिया गया है। मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति में जो पौद्गलिक शक्ति काम में आती है, वह योग नहीं किन्तु पर्याप्ति है । उस पौद्गलिक शक्ति में प्रयोग का नाम योग है। मन, वचन और काययोग-इन तीनों योग में काययोग प्रत्येक प्राणी में होता है। संसार भर के प्राणी दो वर्गों में बंटे हुए हैं। स्थावर प्राणियों में केवल काययोग होता है । दो इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर चार इन्द्रिय वाले जीवों तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में काययोग और वचनयोग होते हैं। संज्ञी मनुष्य और तिर्यंच जीवों में काययोग, वचनयोग और मनोयोग तीनों योग होते हैं। लेश्या का अर्थ है-तैजस शरीर के साथ काम करने वाली चेतना अथवा भावधारा। भाव और विचार ये दो अलग-अलग तत्त्व है। भाव अंतरंग तत्त्व है। उसके निर्माण में ग्रन्थितंत्र का सहयोग रहता है। विचार का सम्बन्ध कर्म से है। इसका Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 61 ) निर्माण नाड़ी तंत्र से होता है । कृष्ण आदि रंगों से प्रभावित भावधारा शुभ-अशुभ रूप में परिणत होती है । अस्तु भावधारा के निर्माण में रंगों का बहुत बड़ा हाथ रहता है । आहारक शरीर योगजन्यलब्धि है । यह चतुर्दश पूर्वधर मुनियों के ही हो सकती है । आहारकशरीर पूरा बनकर जो प्रवृत्ति करता है वह आहारककाययोग कहलाता है । आहारकशरीर अपना काम सम्पन्न कर पुनः औदारिकशरीर में प्रवेश करता है । जबतक उसका काम पूरा नहीं होता, तब तक औदारिककाययोग के साथ आहारककायमिश्र होता है । वह आहारकमिश्रकाययोग कहलाता है । तेजस शरीर का स्वतन्त्र रूप से कोई प्रयोग नहीं होता, अतः तेजस काययोग नहीं होता । उसका समावेश कार्मणकाययोग में हो जाता है । एक भव से दूसरे भव में जाते समय जब जीव अनाहारक रहता है उस समय होने वाले योग का नाम कार्मणकाययोग है । केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में होने वाला योग भी कार्मणकाययोग कहलाता है । इस प्रकार मन, वचन और काययोग के सब भेदों को मिलाने से योग के पन्द्रह भेद हो जाते हैं । (क) विशिष्ट शक्ति सम्पन्न योगी आहारकलब्धि का प्रयोग करता है 1 जबतक आहारक शरीर पूरा नहीं बन जाता, तबलक आहारककाययोग के साथ औदारिक का मिश्र होता है । (ख) केवली समुद्घात के समय दूसरे, छट्ट और सातवें समय में कामंणकाययोग के साथ औदारिकमिश्र होता है । (ग) वैकिलब्धि वाले मनुष्य और तिर्यच वैक्रिय रूप बनाते हैं, जबतक रूपनिर्माण का कार्य पूरा नहीं होता, तबतक वैकियकाययोग के साथ औदारिक का मिश्र होता है । देव, नारक, वैकिलब्धि सम्पन्न मनुष्य, तिर्यंच एवं वायुकाय के वैक्रिपशरीर होता है । वैक्रियशरीर की प्रवृत्ति काययोग है । वैक्रियमिश्रकाययोग दो प्रकार से हो सकता है (क) देवता और नारकी में उत्पन्न होने वाला जीव आहार ग्रहण कर लेता है, पर शरीर पर्याप्त को पूरा नहीं करता है, तबतक कार्मणकाययोग के साथ वैक्रिय का मिश्र होता है । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 62 ) (ख) औदारिकशरीर वाले मनुष्य और तिर्यंच वैक्रियलब्धि का प्रयोग कर वैक्रिय रूप बनाते हैं । उस लब्धि को समेटते समय जबतक औदारिकशरीर पूरा नहीं बनता है तबतक औदारिककाययोग के साथ वैक्रिय का मिश्र होता है । मन हमारी प्रवृत्ति का सूक्ष्म किन्तु प्रमुख कारण है । मन के द्वारा होने वाला आत्मा का प्रयत्न मनोयोग है। उसके चार भेद है । १ - सत्य के विषय में होने वाली मन की प्रवृत्ति सत्य मनोयोग है । २ - असत्य के विषय में होने वाली मन की प्रवृत्ति असत्य मनोयोग है । ३ - सत्य-असत्य के मिश्रण से होने वाली मन की प्रवृत्ति मिश्र मनोयोग है । ४ – मन की जो प्रवृत्ति सत्य भी नहीं है, असत्य भी नहीं है । उस प्रवृत्ति का नाम व्यवहार मनोयोग है । इसका सम्बन्ध मुख्यतः आदेशात्मक, उपदेशात्मक चिन्तन से है भाषा के द्वारा होने वाला आत्मा का प्रयत्न वचनयोग है । वचनयोग के चार प्रकार है । शरीर के द्वारा होने वाला आत्मा का प्रयत्न काययोग है । काययोग का सम्बन्ध शरीर के साथ है । शरीर पांच है— ओदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण । मनुष्य और तिर्यंच गति के जीव औदारिक शरीर वाले होते हैं । औदारिक शरीर स्थूल होते हैं । औदारिक शरीर वाले जीवों की हलन चलन रूप प्रवृत्ति औदारिक काययोग कहलाती है । काययोग का दूसरा भेद - औदारिक मिश्र काययोग है । औदारिक का मिश्र कार्मण, वैक्रिय और आहारक इन तीनों शरीरों के साथ होता है । वह चार प्रकार से हो सकता है । मनोयोग की तरह मृत्यु के समय पीछला शरीर छूट जाता है। उसके बाद मनुष्य और तिर्यंच गति उत्पत्ति स्थान में पहुँचकर आहार ग्रहण कर लेता है, पूरा नहीं होता है तब तक कार्मण काययोग के साथ मैं उत्पन्न होने वाला जीव अपने नये पर जब तक शरीर पर्याप्ति का बंध औदारिकमिश्र होता है । कर्म बंधन से बचने हेतु मन, वचन और काया के योगों को व उपायों पर नियंत्रण करना होगा । इस प्रकार के पुरुषार्थ से हम अशुभ कर्म को शुभ कर्म बना सकते हैं । कर्म के उदय में आने के पूर्व हम पुरुषार्थं द्वारा उसके परिणामों में परिवर्तन कर सकते हैं । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 63 ) अकषायी या वीतराग के जो बंध होता है, उसे ईर्यापथिक बंध कहा जाता है । ईर्यापथ का अर्थ है योग। योग अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्ति । कषाय रहित योग से जो बंध होता है, वह ईर्यायथिक बंध कहलाता है। यह ग्यारवें से तेरहवें गुणस्थान तक होता है। इन गुणस्थानों में आसक्ति या कषाय का अत्यन्त अभाव होने पर भी योगों की चंचलता के कारण बंधन होता है। यह बंध दो समय की स्थितिवाला होता है। सात समुद्घात में दूसरा समुद्घात कषाय समुद्घात है। इसमें कषाय की तीव्रता से आत्मप्रदेशों का अपने शरीर से तिगुने प्रमाण में बाहर निकालना कषाय समुद्घात है। इस समुद्घात में काययोग की नियमा है परन्तु मन-वचन योग की भजना है। ज्ञान त्रैकालिक है और दर्शन केवल वर्तमान है। आत्मा की जितनी प्रवृत्ति है, वह योग आत्मा से पहचानी जाती है। द्रव्य आत्मा में गुण और पर्याय है, पर वे विवक्षित नहीं है केवल शुद्ध आत्म-द्रव्य की विवक्षा अन्य पर्यायों की सत्ता होने पर भी उन्हें गोण कर देती है। आत्मा एक कालिक तत्त्व है। सयोगी केवली-तेरहवीं श्रेणी में मन, वाणो और शरीर की प्रवृत्ति चालू रहती है। चौदहवीं श्रेणी में पहुंचते ही प्रवृत्ति मात्र का निरोध हो जाता है। इस श्रेणी का नाम है-'अयोगी केवली।' नोकषाय रूप हास्य दो प्रकार का होता है-स्थित और अट्टहास । स्थित से कषाय का सहारा नहीं मिलता है, अतः वह हेय नहीं है। अट्टहास आगे चल कर कषाय में परिणत हो जाता है। स्त्रीबेद आदि वेद के साथ जब तक अशुभ योग जुड़े रहते हैं, वेद व्यक्त विकार के रूप में परिणत हो जाते हैं। सातवें गुणस्थान में अशुभ योग नहीं है, इस दृष्टि से वहां ब्यक्त विकार भी नहीं है। अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषाय का उपशम या क्षय नववें गुणस्थान में होता है, आठवें में नहीं होता है। लेश्या का अर्थ है-तैजस शरीर के साथ काम करने वाली चेतना अथवा भाव-धारा। नव गुणस्थान के प्रथम समय में मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का उदय रहता है। पुण्य का बंध सत्प्रवृत्ति से होता है । सत्प्रवृत्ति-शुभ योग है । पुण्य प्राप्ति के लिए धार्मिक प्रवृत्ति करना वर्जित है। पर पुण्य होगा तो धर्म के साथ ही होगा। जिस परिणाम से आत्मा में कर्मों का आश्रवण प्रवेश होता है, उसे आश्रव कहते हैं। शुभ योग से कर्मों की निर्जरा होती है, इस दृष्टि से वह मोक्ष का साधक है। आस्रव के Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 64 ) बीस भेदों का उल्लेख यत्र-तत्र उपलब्ध होता है। ये भेद विवक्षाकृत है। इन वर्गीकरण में पांच मूल भेद हैं। शेष पन्द्रह योग आस्रव के अवान्तर भेद है। उन सबका योग आस्रव में समाहार हो जाता है। योग का अर्थ है-प्रवृत्ति । शरीर, भाषा और मन की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति रूप परिणति का नाम योग आस्रव है। जब तक प्रवृत्ति है तब तक बंधन है। अशुभ योग से अशुभ कर्म का बध होता है और शुभ योग से शुभ कर्म का। योग का सर्वथा निरोध होने से अयोग संवर अथवा शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है । चूंकि अशुभ प्रवृत्ति का सम्पूर्ण निरोध व्रत संवर है, और शुभ प्रवृत्ति का सम्पूर्ण निरोध नहीं होता है, उसे अयोग संवर का अंश कहा जाता है। अयोग संवर की स्थिति में पहुँचने के तत्काल वाद जीव मुक्त हो जाता है । किसी एक आलम्बन पर मन को स्थापित करने अथवा मन, वचन और काय के निरोध को ध्यान कहा जाता है। ___ समिति का अर्थ है-संयत प्रवृत्ति, संयममय प्रवृत्ति । मन का सर्वथा निग्रह अथवा मन की असंयत प्रवृत्ति का निग्रह । मन ( योग ) बल बारहंगुलद्दिट्ठतिकालगोयराणंत?-वंजण-पज्जायाइणछदव्वाणि णिरंतरं चितिदे वि खेयाभावो मणबलो एसो मणबलो जेसिमत्थि ते मणबलिणो। एसो वि मणबलो लद्धी, विसिट्ठतवोबलेणुप्पज्जमाणत्तादो। कधमण्णहा बारहंगट्ठो मुहुत्तेणेक्केण बहूहि वासेहि बुद्धिगोयरभावण्णो चित्तखेय ण कुणेज्ज । -षट० खण्ड ० ४ । १ सू ३५ । पु० ९ । टीका बारह अंगों में निर्दिष्ट त्रिकाल विषयक अनंत अर्थ और व्यंजन पर्यायों से व्याप्त छह द्रव्यों का निरन्तर चिन्तन करने पर भी खेद को प्राप्त न होना मन बल है। यह मनबल जिनके हैं वे मनबली कहलाते हैं। यह मनबल भी लब्धि है, क्योंकि, वह विशिष्ट तप के प्रभाव से उत्पन्न होता है। अथवा बहुत वर्षों से बुद्धिगोचर होने वाला बारह अंगों का अर्थ एक मुहूर्त में खेदखिन्न किससे न करेगा। अर्थात करेगा ही।। पंचविहा परिण्णा पण्णत्ता, तंजहा --- उवहि परिणा, उवसम्मपरिण्णा, कषायपरिण्णा जोगपरिण्णा भत्तपाणपरिण्णा । -ठाण० स्था ५ । उ २ । सू १२३ पांच परिज्ञा होती है-यथा - उपधिपरिज्ञा, उपसर्गपरिज्ञा, कषायपरिज्ञा, योगपरिज्ञा और भक्तपान परिज्ञा । नोट-परिज्ञा अर्थात् परित्याग । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 65 ) चारित्र और योग __ सामायिक चारित्र, छेदोपस्थानीय चारित्र तथा परिहारविशुद्धिक चारित्र कल्प का स्वीकरण शुभ योग में-अप्रमत्त अवस्था में होता है। उस समय तेजो लेश्या प्रभृति पीछे की तीन विशुद्ध लेश्या होती है। पूर्व प्रतिपन्न सामायिकादि तीनों चारित्र को किसी ने पूर्व में प्राप्त किया है तो उसका दोनों योगों ( शुभ योग-अशुभ योग ) में रहना कथंचित् रहना हो सकता है। पर वह अत्यन्त संक्लिष्ट अशुभयोग में नहीं रहता है न अति संक्लिष्ट लेश्या होती है। -लेश्या कोश तथा मिथुनस्य-स्त्रीपुलक्षणस्य कर्म मैथुनम्-अब्रह्म, तत् मनोवाक्कायानां कृतकारितानुमतिभिरौदारिकवैक्रियशरीरविषयाभिष्टधा विविधोपाधितो बहुविधतरं वेति । -ठाण• स्था० १। सू ४८ । टीका __ स्त्री-पुरुष के संसर्ग से मैथुन क्रिया होती है। वह मन, वचन और काय (योग) की अपेक्षा से तीन प्रकार की तथा इन तीनों के कृत-कारित-अनुमोदित ( करता हूँ, कराता हूँ, किये हुए का अनुमोदन करना ) की अपेक्षा से नौ भेद हुए। फिर इन नौ भेदों के औदारिक तथा वैक्रिय शरीर के भेद की अपेक्षा मैथुन क्रिया के कुल अठारह भेद हुए। अथवा अन्य नामों से ( उपाधि से ) इसके अनेक भेद हैं या हो सकते हैं। नोट-'मैथुन पाप' अठारह पापस्थानों में एक पापस्थान है। मैथुन आश्रव के बीस भेदों के एक आस्रव भी है। यह अशुभ योग आस्रव का एक भेद है। योग और सयोगी-जिन में अपर्याप्त आलाप ___ जोग पडि जोगिजिणे होदि हु णियमा अपुण्णगत्तंतुः । -गोजी० गा० ७११ सयोगी-जिन में नियम से योग की अपेक्षा ही अपर्याप्त आलाप होता है परन्तु शेष नौ गुणस्थानों में एक पर्याप्त आलाप ही होता है ( १, २, ४, ६, १३ बाद)। मनुष्य में कृष्णापाक्षिक को छोड़ कर अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में पाये जाने वाले पैतीस बोलों में तीसरा और चौथा भंग बताया है। "बंधी, न बंधइ, न बंधिस्सई" यह चौथा भंग है। यह चौथा भंग चरम शरीरी जीव में ही घटित होता है। ____ अस्तु गुणस्थानों में से-'मिथ्यादृष्टि, असंयत, सासादन, प्रमत्तसंयत और सयोगी केवली गुणस्थान में प्रत्येक के सामान्य, पर्याप्त, अपर्याप्त-ये तीन आलाप होते हैं। शेष नौ गुणस्थानों में एक पर्याप्त आलाप ही नियम से होता है-- ऐसा गोम्मटसार, जीवकाण्ड में कहा है Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 66 ) भोधेमिच्छदुगेवि य अयदपमत्ते सजोगठाणम्मि । तिण्णेव य आलावा ससेसिक्को हवे णियमा ॥७०९।। अपर्यात आलाप के दो भेद है-लब्ध्यपर्याप्त और निवृत्त्यपर्याप्त। दोनों ही प्रकार का अपर्याप्त आलाप सामान्य मिथ्यादृष्टि में ही होता है। सासादन, असंयत व प्रमत्त संयत में नियम से निवृत्त्यपर्याप्त ही होता है। सयोगी जिनमें नियम से योग की अपेक्षा ही अपर्याप्त आलाप होता है। शेष नौ गुणस्थानों में एक पर्याप्त आलाप ही होता है ।' तियंच लब्ध्यपर्याप्तक में एक अपर्याप्त आलाप ही होता है । मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक में एक लब्धमपर्याप्त आलाप ही होता है। द्रव्य से पुरुष और भाव से स्त्री रूप प्रमत्त विरत में आहारक शरीर व आहारक अंगोंपांग का उदय नियम से नहीं होता है। अपर्याप्त अवस्था में मरण प्रथम गुणस्थान में हो सकता है अन्य गुणस्थानों में नहीं। योग की प्रवृत्ति निरन्तर होती रहती है। प्रवृत्ति के साथ कर्म-बंधन का अविनाभावी संबंध है। योग और क्रिया जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं णिव्वत्तेमाणे कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए, एवं पुढविकाइए वि, एवं जाव मणुस्से । ___ जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरं णिवत्त माणा कइ किरिया' गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि, एवं पुढविकाइया वि, एवं जाव मणुस्सा xxx। एवं मणजोगं, वयजोगं, कायजोगं, जस्स जं अत्थि तं भाणियव्वं, एए एगत्तपहुत्तणं छठवीसं दंडगा। -भग० १७ । उ १ । सू १४, १५ मनोयोग, वचनयोग, काययोग के विषय में जिसके जो हो उसके उस विषय में कहना तीन योग का एक वचन-बहुवचन सम्बन्धी पाठ कहना । नोट- मनोयोग-वचन-काययोग बनाता हुआ जीव जबतक दूसरे जीवों को परिताप उत्पन्न नहीं करता, तब तक उसे कायिकी, आधिकरणिकी प्राषिकी-ये तीन क्रियाएं लगती है। जब दूसरे जीवों को परिताप आदि उत्पन्न करता है तब पारितापनिकी सहित चार क्रियाएं लगती है और जब जीव का हिंसा करता है तब प्राणातिपातिकी सहित पाँच क्रिया लगती है। १. गोम्मटसार, जीवकाण्ड गा. ७०९ से ७११ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 67 ) मनोयोग में १६ दण्डक की पृच्छा करनी चाहिए। ( पाँचस्थावर तीन विकलेन्द्रिय । छोड़कर । ) वचनयोग में १९ दण्डक की पृच्छा करनी चाहिए - ( पांच स्थावर को छोड़कर ) । काययोग में २४ दण्डक की पृच्छा करनी चाहिए । प्रशस्त कायविनय के सात प्रकार में एक प्रकार " आउत्तं सव्विदियजोगजु जणयाआयुक्त सर्वेन्द्रिय योग युं जनता (सभी इन्द्रिय और योगों की सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करना) विनय है । इसके विपरीत अप्रशस्त काय विनय का एक भेद - अनायुक्त सर्वेन्द्रिय-योग'जनता ( असावधानी से सभी इन्द्रियों और योगों की प्रवृत्ति करना ) है । भावयोग की विशुद्धि - आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है । तन्निमित्तो भावयोगो बीर्यान्तरायज्ञानदर्शनावरणक्षय क्षयोपशम आत्मनः प्रसादश्चात्मभूत इत्याख्यामर्हति । - तत्त्व० अ २ । सू८ । वा १ । व्याख्या द्रव्ययोगनिमित्तिक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा आत्मा की विशुद्धि आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है । तत्र मनोवाक्कायवर्गणा लक्षणो द्रव्ययोगः चिन्तावालम्बनभूतः अन्तरभिनिविष्टत्वादाभ्यन्तर इति । - तत्त्व० अ २ । सू ८ । वा १ । व्याख्या मन, वचन और काय की वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप द्रव्ययोग अन्तः प्रविष्ट होने से आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है । केवली में शुक्ललेश्या होती है । जिनके अपर्याप्त नामकर्म का उदय है उनके एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही होता है । संज्ञी लब्ध्यपर्याप्त में एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप है । पृथ्वी आदि सपर्यंन्त लब्ध्यपर्याप्तकों में एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही होता है । पर्याप्त अवस्था में होनेवाले चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक, वैक्रियिक व आहारक काययोग में अपना-अपना पर्याप्त आलाप होता है । जैसे सत्यमनोयोग के सत्यमनपर्याप्त आलाप होता है । अवशेष चार मिश्र योगों में अपना-अपना एक अपर्याप्त आलाप होता है । जैसे औदारिकमिश्र के औदारिकमिश्र अपर्याप्त आलाप होता है । अस्तु पर्याप्त योग ग्यारह व अपर्याप्तयोग चार होते हैं—ऐसी गोम्मटसार की मान्यता है । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 68 ) सयोगी में अभव्य, भव्य विशेष, उपशमक व क्षपक की अपेक्षा क्रमशः चारों भंग पाये जाते हैं। अयोगी के पाप कर्म का बंध नहीं होता और भविष्य में भी नहीं होगाएक चौथा भंग ही पाया जाता है। -भग० श २६ ___ अस्तु सिद्ध पाहुड में आचार्य भिक्षु के प्रति कुछ भी नहीं है। आचार्य भिक्षु के समय काल में किसी व्यक्ति ने प्राकृत में चार गाथाएं उद्धत कर उसमें संकलित किया है व उसमें आचार्य भिक्षु को आठवां निह्वव कहकर नरकगामी बतलाया है। यह निराधार कहा है। पारंगत व्यक्ति इसका गहरा मंथन करे । सभी केवली के केवली समुद्घात नहीं होता है। केवली समुद्घात के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में योग निरोध होता है केवली समुद्घात करने के विषय में आचार्यों का मतभेद रहा है-यथा यो षाणमासाधिकायुष्यको, लभते केवलोद्गमम् । करोत्यसो समुद्घात मन्ये कुर्वन्ति वा न वा ।। -गुणस्थान क्रमारोह अर्थात् छहमास और छहमास से अधिक आयुष्यवाले को केवलज्ञान होने पर, वे अवश्य समुद्घात करते हैं और छह मास से न्यून आयुष्यवाले को केवलज्ञान होने पर, वे समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं । आवश्यक नियुक्ति से भी इसी कथन की पुष्टि होती है । यथा-- छम्मासाउ सेसे, उप्पण्णं जेसि केवलणाणं । ते णियमा समुग्घाया, सेसा समुग्धाय भइयव्वा ।। किन्तु आवश्यक चूर्णिकार का मंतन्य, इससे बिल्कूल विरुद्ध है-यथा--जो मनुष्य अन्तमुहूर्त से लगाकर, छह महिने जितना आयुष्य शेष रहने पर केवल ज्ञान प्राप्त करे तो समुद्घात से बाह्य है। अर्थात् वे समुद्घात नहीं करते हैं अथवा शेष (=छह महिने से अधिक आयुष्यवाले ) समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं । __ बाह्य-आभ्यन्तर द्रव्य-पर्यायों का ध्यान करता हुआ वितर्क की सामर्थ्य से युक्त हो अर्थ और व्यंजन तथा मन, वचन, काय की पृथक्-पृथक् संक्रांति करता है। फिर शक्ति की कमी से योग से योगान्तर और व्यंजन ये व्यंजनान्तर में संक्रमण करता है । __ भाव अवमोददिका ( अनोदरी) तप में अल्प शब्द ( वचनयोग ) भी उसका एक भेद है। अल्प शब्द बोलना, कषायवश होकर भाषण न करना तथा हृदय में स्थित कषाय को शान्त करना-भाव अनोदरी है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 69 ) उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार शान्तिसूरि ने कहा है __ कर्म द्रव्यलेश्या इति सामान्याऽभिधानेऽपि शरीरनामकर्म द्रव्यष्वेव कर्मद्रव्य लेश्या । कार्मणशरीरवत् पृथगेव कर्माष्टकात् कर्म वर्गणा निष्पन्नानि कर्म लेश्या द्रव्यानीति तत्त्वं पुनः। -उत्तरा० अ ३४ । टौका । पृ० ६५० अर्थात् द्रव्यलेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है। यह द्रव्यलेश्या कर्मरूप है तथापि वह आठ कर्मों से पृथक् है, जैसे कार्मण शरीर। यदि द्रव्यलेश्या को कर्मवर्गणा निष्पन्न न माना जाय तो वह कर्म स्थिति विधायक नहीं बन सकती। आभ्यन्तर परिग्रह के चौदह भेद है-मिथ्यात्व, नौ नोकषाय व चार कषाय । अस्तु मनोयोग में जितने अधिक संकल्प-विकल्प के द्वारा आवर्त होंगे वे उतने ही अधिक आत्मा के लिए अहितकर होंगे। एतदर्थ ध्यान और उपयोग व साधना के द्वारा विचारों को स्थिर करने का प्रयास किया जाता है। शुक्ललेश्यावाले व्यक्ति का चित्त प्रशान्त होता है । मन, वचन और काया पर पूर्ण नियन्त्रण करता है । कितनेक वाचार्यों का मंतव्य है कि औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र, कार्मण काय का योग-ये सात शरीर है तो उनकी छाया भी सप्तवर्णात्मिका होगी अतः लेश्या के सात भेद मानने चाहिए।' एवं काऊण जिणो, पवत्तणं दाणवन्त चरियाए । सयडामुह उज्जाणे, पसत्थझाणं समारूढो ।। झायन्तस्स भगवओ, एवं घाइक्खएणं कम्माणं । खरेगाऽलोगपगासं, केवल नाणं समुप्पन्नं ।। -पउच० अधि ४ । गा १६, १७ इस प्रकार दान धर्म का प्रवर्तन करके भगवान् शकटामुख उद्यान में गए और प्रशस्त ध्यान में लीन हुए। इस तरह ध्यान करते हुए भगवान् के चारों घाति कर्म का नाश होने पर लोक और अलोक को प्रकाशित करनेवाला केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। इस अवस्था में उनके तीव्र शुभ योग का परिणमन हुआ। अह अट्ठकम्मरहियस्स तस्स झाणोवओगजुत्तस्स । सयल जगुज्जोयगरं, केवलनाणं समुप्पन्न ।। -प्रउच० अधि २ । गा ३० १. उत्तरा० अ ३४ । टीका-जयसिंह सूरि। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 70 ) दीक्षा लेने के बाद में भगवान महावीर को ध्यानोपयोग में लीन आठ कर्मो का क्षय होने पर समग्र जगत् को प्रकाशित करनेवाला केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। १-शक्तिवान्, श्रद्धा में मजबूत, सत्यवादी, मर्यादावान्, विपुलज्ञान, कलहकारी न हो, धर्यवंत हो। दूसरों के गुणों को देख कर साधु को प्रफुल्लित होना चाहिए। २-कलके भरोसे पर कार्य न छोड़े। निरंतर जागरुक रहे । उत्तराध्ययन अ० ११ में कहा है-मान, क्रोध, प्रमाद, राग और आलस्य-इन पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती है। आठ स्थानों से यह आत्मा-शिक्षा के योग्य कहा जाता है -१-अधिक नहीं हंसने वाला, २-इन्द्रियों का दमन करने वाला, ३-ममं वचन न कहने वाला, ४-चारित्र धर्म का पालन करने वाला सदाचारी–सर्वतः चारित्र की विराधना न करने वाला, ५-देशतः चारित्र की विराधना न करने वाला अर्थात् व्रतों का निरतिचार पालन करने वाला, ६-जो अतिशय लोलुप नहीं है, ७–तथा जो क्रोध रहित-८-सत्यानुरागी ( सत्यनिष्ठ) है-वह शिक्षाशील है। चतुर्दश स्थानों में वर्तमान अविनीत कहा जाता है तथा वह निर्वाण प्राप्त नहीं करता है। १-निरंतर क्रोध करने वाला अर्थात् निमित्तवश या बिना किसी निमित्त के भी क्रोध करता है। २-और प्रबन्ध करता है। क्रोध को दीर्घकाल तक बनाये रखता है अथवा विकथा आदि में निरन्तर प्रवृत्त करता है। ३-मित्रता आदि होते हुए भी मित्रों को छोड़ देता है। मित्रता निभाता नहीं तथा मित्रों का उपकार नहीं मानता है। ४---जो शास्त्र ज्ञान पाकर अभिमान करता है। ५-जो आचार्यादि द्वारा समिति आदि में स्खलना रूप पाप हो जाने पर, उनका भी तिरस्कार करने वाला होता है अथवा अपने दोषों को दूसरों पर डालता है। ६-मित्रों पर भी कोप करता है । ७-अतिशय प्रिय मित्र की भी एकान्त में बुराई कहता है। ८-जो असंबद्ध वचन कहने वाला, पात्र-अपात्र का विचार न करते हुए शास्त्रों के गूढ रहस्यों को बतलानेवाला अथवा सर्वथा एकान्त पक्ष को लेकर बोलने वाला। ९-मित्र द्रोही, १०-अभिमानी, ११–रसादि में गृद्ध । १२-इन्द्रियों को वश में नहीं करने वाला। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 71 ) १३ -आहारादि का संविभाग न करने वाला। १४-सभी को अप्रीति उत्पन्न करने वाला, अविनीत कहलाता है। अनुवृत्ति से अयोगी वह हुआ केवलिजिन, इस तरह अयोगि केवलिजिन है। नोट--सयोमि केवलिजिन तथा अयोगि केवलिजिन क्रमशः तेरहवां तथा चौदहवां जीव-समास अर्थात् मुणस्थान जानना चाहिए। अर्हन्त आदि द्वारा कथित 'प्रवचन' अर्थात् आप्त, आगम और पदार्थ--ये तीनों कहे जाते हैं। प्रवचन-जिसका वचन प्रकृष्ट है-ऐसा आप्त, प्रकृष्ट का वचन-प्रवचन अर्थात् परामागम, अर्थात् प्रमाण के द्वारा कहा जाता है वह प्रवचन अर्थात् पदार्थ । गोम्मटसार की मंदप्रबोधिनी टीका के अनुसार सास्वादान सम्यक्त्व में अत्त्वश्रद्धान अव्यक्त होता है और मिथ्यात्व में व्यक्त होता है। कहा हैरामो य दोसो वि य कम्मबीयं, ___ कम्मं च मोहप्पभवं वयंती। कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥ राग और द्वेष कर्म के बीज है। कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म मरण का मूल है। जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है। जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥ जन्म और मृत्यु के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म-दीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। दुखं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हो जस्स न होइ तण्हा । सहा हया जस्स न होइ लोहो, ____ लोहो हओ जस्स न किंचणाइ ॥ जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर दिया। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश कर दिया। जिसके लोभ नहीं है उसने तृष्णा का नाश कर दिया। जिसके जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का नाश कर दिया। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 72 ) योगों का सर्वथा निरोध होने पर ही शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है और योग-निरोध चवदहवें गुणस्थान में ही होता है। अतः छद्मस्थ के लिए यह विधान कैसा हो सकता है ? अयोगी होने पर शैलेशी होता है, इसका क्रमिक वर्णन करते हुए दशवकालिक सूत्र में कहा है-"जया जोगे निरंभित्ता सेलेसी पडिवज्जई"। इससे यही सिद्ध है कि यह अवस्था अयोगी होने पर ही आती है। पादोपगमन सन्थारे में भी मनोयोग का तो निरोध होता ही नहीं। और फिर उसमें तो लघुनीत, बड़ी नीत के लिए अपवाद भी है। अतः काय योग का सर्वथा निरुद्ध नहीं होता इसलिए पादोपगमन सन्थारे में एजना आदि क्रियाएँ नहीं ही होती हों, यह नहीं है। योग की विद्यमानता ही ईर्यापथिक क्रिया का कारण होती है। और योग का आत्मा से सम्बन्ध है। अयोगी तो अपने आप किसी भी प्रकार का कम्पन करता नहीं है । अतः उसे दूसरे के द्वारा होने वाले कम्पन से ईर्यापथिक नहीं लग सकती। वीर्यान्तराय के क्षय एवं क्षयोपशय और नामकर्म के उदय से योगों की निष्पत्ति होती है। उनमें शुभ और अशुभ की विवक्षा करने पर मोह कर्म के क्षय एवं क्षयोपशम आदि और उदय का साहचर्य अवश्यंभावी है। . मन, वचन और काय-ये तीनों योग एक साथ शुभ या अशुभ होते हैं, उसी प्रकार एक शुभ और दो अशुभ, दो शुभ और एक अशुभ आदि भी हो सकते हैं। इसमें विरत-अविरत की चौपइ की नौवीं ढाल का स्पष्ट साक्ष्य है। मन, वचन, काययोग से अखण्ड ब्रह्मचर्य पालने से इन्द्र, नरेन्द्र आदि देवों में मनुष्य पूजनीय बनता है। कार्य-कारण रूप एक कालों में तीनों योगों की समुत्पत्ति का विरोध है। इस पुस्तक में संसार-समापन्नक जीवों के योगों के अल्पबहुत्व का भी विवेचन है। यद्यपि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में तीन योग होते हैं-औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग तथा कार्मण काययोग। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर अत्यन्त सूक्ष्म अर्थात् असंख्य शरीर इकट्ठे होने पर भी जो चक्षु आदि इन्द्रियों का विषय न हो उसे 'सूक्ष्म' कहते हैं। अपर्याप्त अवस्था में मरने वाले जीव तीन पर्याप्तियां पूर्ण करके चौथी ( श्वासोच्छ वास) पर्याप्ति अधुरी रहने पर ही मरते हैं, पहले नहीं। चूंकि प्रथम तीन पर्याप्तियों के पूर्ण किये बिना आयुष्य का भी बंधन नहीं होता है। क्योंकि आगामी भव की आयु बांध कर ही जीव मृत्यु प्राप्त करते हैं । योग-आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन ( कंपन ) को योग कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमादि की विचिन्नता से योग के पन्द्रह भेद होते हैं। किसी जीव का योग दूसरे जीव की अपेक्षा जघन्य (अल्प) होता है। और किसी जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट होता है। जीवों के चौदह भेदों सम्बन्धी प्रत्येक के जघन्य और उत्कृष्ट भेद होने से Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 73 ) अट्ठाईस भेद होते हैं । इनमें सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय का जघन्य योग सबसे अल्प है क्योंकि उनका शरीर सूक्ष्म और अपर्याप्त होने से ( अपूर्ण होने के कारण ) दूसरे सभी जीवों के योगों की अपेक्षा उसका योग सबसे अल्प होता है । और यह कार्मण शरीर द्वारा ओदारिक शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय में होता है । तत्पश्चात् समय-समय योगों की वृद्धि होती है और उत्कृष्ट योग तक बढता है । अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव का जघन्य योग, पूर्वोक्त योग की अपेक्षा असंख्यात गुण होता है । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए । यद्यपि पर्याप्त तेइन्द्रिय की उत्कृष्ट काया की अपेक्षा पर्याप्त बेइन्द्रियों की काया तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट काया, संख्यात योजन होने से संख्यात गुण ही होती है । तथापि यहाँ परिस्पन्दन ( कम्पन, इलन, चलन ) रूप योग की विवक्षा होने से तथा क्षयोपशम विशेष के सामर्थ्य से असंख्यात गुण होने का कथन विरुद्ध नहीं है । क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि अल्पकायवाले का परिस्पन्दन अल्प होता है और महाकाय वाले का परिस्पन्दन बहुत ही होता है, क्योंकि इससे विपरीतता भी देखी जाती है । जैसे—–अल्पकायवाले का परिस्पन्दन महान् भी होता है और महाकायवाले का परिस्पन्दन अल्प भी होता है । आहारक नारकी की अपेक्षा अनाहारक नारकी हीन योग वाला होता है । क्योंकि जो नारकी ऋजुगति से आकर आहारकपने उत्पन्न होता है वह निरन्तर आहारक होने के कारण पुद्गलों से उपचित (बढा हुआ ) होता है । अतः वह अधिक योगवाला होता है । जो नारकी विग्रहगति से आकर अनाहारकपने उत्पन्न होता है वह अनाहारक होने से पुद्गलों से अनुपचित होता है-अतः हीन योगवाला होता है । जो समान समय की विग्रह गति से आहारकपने उत्पन्न होते हैं अथवा ऋजु गति आकर आहारकपने उत्पन्न होते हैं वे दोनों एक दूसरे की अपेक्षा समान योग वाले होते हैं । जो ऋजुगति से आकर आहारक उत्पन्न हुआ है और दूसरा विग्रहगति से आकर अनाहारक उत्पन्न हुआ है- वह उसकी अपेक्षा उपचित होने से अत्यधिक विषम योगी होता है । आगम में हीनता और अधिकता का कथन कर दिया गया है । समान धर्मता रूप तुल्यता प्रसिद्ध होने के कारण उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया है । प्रकारान्तर से पन्द्रह प्रकार के योगों का कथन करके उसकी अल्पबहुत्व बताया गया है । यहाँ परिस्पन्दन योग की ही विवक्षा की गई है । जितने आकाश क्षेत्र में जीव रहा हुआ है उस क्षेत्र के अन्दर रहे हुए, जो पुद्गल द्रव्य है 'वे स्थित द्रव्य' कहाते हैं और उससे बाहर के क्षेत्र में रहे हुए पुद्गल द्रव्य 'अस्थित द्रव्य' कहते हैं । वहाँ से खींचकर जीव उनको ग्रहण करता है । इस विषय में किन्हीं आचार्यों का ऐसा कहना है कि गति रहित द्रव्य है वे स्थित द्रव्य कहाते हैं और जो गति सहित द्रव्य है वे 'अ स्थित द्रव्य' कहाते हैं । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 74 ) जीव जिन द्रव्यों को मनोयोगपने ग्रहण करता है वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं। वह उन द्रव्यों को द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से भी ग्रहण करता है। वह द्रव्य से अनंतप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है। क्षेत्र से असंख्य प्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के अट्ठाइसवें पद के प्रथम आहारोद्देशक के अनुसार यावत् यह नियम से छओं दिशाओं से आये हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है। नोट-मनोयोगवाला, मनोयोग के योग्य छओं दिशाओं से आये हुए पुद्गल द्रव्य को ग्रहण करता है। इस कथन का अभिप्रायः यह है कि उपयोगपूर्वक मनोयोगवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय होते हैं वे सनाडी के मध्य में होते है अतः उनके छओं दिशाओं का आहार संभव है। इसी प्रकार वचनयोगपने स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं । यावत् छः दिशाओं से आये हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है। जीव जिन द्रव्यों को काययोगपने ग्रहण करता है वह स्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी। द्रव्य से अनतप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्षेत्र से असंख्य प्रदेशावगढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के अट्ठाइसवें पद के प्रथम आहारोद्देशक के अनुसार यावत् निर्व्याघात से छओं दिशाओं से और व्याघात हो तो कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आये हुए पुद्गलों को ग्रहण करता है। जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों को ग्रहण करते हैं। ग्रहण करके औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण-इन पांच शरीर, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-इन पांच इन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वासोच्छ्वास रूप में परिणमाते हैं। इस कारण अजीव द्रव्य, जीव द्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं। । चूंकि जीव द्रव्य, अजीव द्रव्यों को ग्रहण करके उनको अपने शरीरादि, मनोयोग, वचनयोग, काययोगादि रूप में परिणमन करते हैं। यह उनका परिभोग है। जीव द्रव्य परिभोक्ता है और अजीव द्रव्य अचेलन होने से ग्रहण करने योग्य है। अतः वे भोग्य है । इस प्रकार जीव और अजीव द्रव्यों में भोक्तृ-भोग्य भाव है। द्रव्ययोग पुद्गल है। कहा है पोग्गलत्थिकाएणं पुच्छा। गोयमा ! पोग्गलत्थिकाएणं जीवाणं ओरालिय-वैउन्विय-आहारग-तैया-कम्मए सोइंदिय चक्विंदिय-पाणिदिय-जिभिदिय-फासिदिय-मणजोग-वयजोग-कायजोग-आणपाणूणं च गहणं पवत्तइ गहणलक्खणे णं पोग्गस्थिकाए। -भग० श. १३ । उ ४ । सू १८ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 75 ) पुद्गलास्थिकाय से जीवों के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय मनोयोग, बचनयोग, काययोग और श्वासोच्छवास का ग्रहण होता है । पुद्गलास्तिकाय का लक्षण ग्रहण रूप है । अठारह पापों का बंध ग्रामघातक की तरह करते हैं । कायिक और वायुकायिक जीवों में आयुष्यबंध सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग से ही होता है क्योंकि वहाँ से निकलकर उनकी उत्पत्ति मनुष्य में नहीं होने से सिद्धि-गमन का अभाव है अतः द्वितीय व चतुर्थ भंग नहीं होता है । चतुर्दशवे गुणस्थान में योग नहीं होने के कारण उदीरणा नहीं है । तेरहवें गुणस्थान में, केवल नाम और गोत्र कर्म की उदीरणा है । अनंतशेपपन्नक नारकी यावत् वैमानिक देव आयुष्यकमं को नहीं बांधते हैं | अभवसिद्धिक जीव अचरम ही होते हैं, चरम नहीं । अंतरालगति में परमशुक्ललेश्या हो सकती है परन्तु मनोयोग व वचनयोग नहीं होते हैं । यह निश्चित है कि लव सप्तमदेव सर्वार्थसिद्धिक अन्तत्तरोपपातिक देव होते हैं उनमें परमशुक्ललेश्या में स्थित मनुष्य (साधु) मर कर उत्पन्न होते हैं, चूं कि उनके अंतरालगति में मनोयोग, वचनयोग नहीं होते हैं परन्तु परमशुक्ललेश्या है | मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं । योग तीन हैं- मनोयोग, वचनयोग और काययोग | जीव और पुद्गल के संयोग से होने वाली क्रिया को योग कहते हैं। मनुष्य अयोगी भी होते हैं । जैन दर्शन को छोड़कर और किसी भी दर्शन ने मनुष्य देह में सर्वज्ञता स्वीकार नहीं की है । वे कहते हैं कि मनुष्य देह छुटने के बाद ईश्वर में सर्वज्ञता है जैन दर्शन कहता है कि ममुष्य देह में तेरहवें व चौदहवें गुणस्थान में भी सर्वज्ञता है । नौ बेयक और पांच अनुत्तरवासी देवों में पर्याप्त अवस्था में नव योग की मान्यता उपलब्ध होती है - चार मन के, चार वचन के व एक वैक्रिय काययोग | अबशेष देवों में पर्याप्त अवस्था में दस योग की मान्यता उपलब्ध होती है-चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय काययोग व वैक्रियमिश्र काययोग | योग के साथ होने वाली पौद्गलिक तथा आत्मिक हलचल एवं उसके साथ बदलने वाले वर्ण विशेष को लेश्या कहते हैं । आहारक, आहारकमिश्र काययोगवाले न्यून, औदारिक, औदारिकमिश्र काययोगवाले अधिक हैं | योग शरीर नाम कर्म का उदय है । मिथ्यात्वी अवस्था में तामली तापस ने साठ हजार वर्ष तक बेले- बेले तप किया। कहा जाता है उतना तप यदि सम्यक्त्व अवस्था में किया जाए तो सात जीव मोक्षगामी हो जाए । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 76 ) सावद्य योग अर्थात् पापकारी प्रवृत्तियां, अठारह पाप सावद्य योग है । निरवद्य योग अर्थात् पाप रहित आध्यात्मिक प्रवृत्तिया । द्रव्य लेश्या नाम कर्म का उदय है । भाव लेश्या मोहकर्म और नामकर्म का भी उदय है । सिद्ध अकर्त्ता है । वहाँ योग-जन्य क्रिया है ही नहीं । उपयोग जन्य क्रिया वहाँ सहज ही होती रहती है । सिद्ध सकंप भी होते हैं, निष्कंप भी अनंतर सिद्ध सकंप है क्योंकि उनके एक समय की ऋजुगति है इसके विपरीत परंपर सिद्ध निष्कंप है। चौदहवें गुणस्थान के जीव निष्कंप है— सकंप नहीं I क्योंकि उनके योग का अभाव एवं एजनादि क्रिया नहीं है । कार्मण | १ - एक योग किसमें – दिखाई देते हुए अनाज के दाने में । २ - - दो योग किसमें उड़ती हुई मक्षिका में- औदारिक व व्यवहार भाषा । ३ – तीन योग किसमें – तेजस्काय में – औदारिक, औदारिकमिश्र व कार्मण । ४ - चार योग किसमें ? द्वीन्द्रिय में औदारिक, औदारिकमिश्र, व्यवहार भाषा व ५ - पांच योग किसमें ? वायुकाय में औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र व कामंण । ६ - छह योग किसमें ? असंज्ञी में – औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, व्यवहार भाषा व कार्मण । ७ - सात योग किसमें ? केवल ज्ञानी में - सत्यमन, व्यवहारमन, सत्यभाषा, व्यवहार भाषा, औदारिक, औदारिकमिश्र व कार्मण । --- ८ - आठ योग किसमें ? तीसरे गुणस्थान की नियमा में चार मन और चार वचन के योग । वैक्रिय, - ९ - नौ योग किसमें ? परिहार विशुद्धि चारित्र में चार मन के, चार वचन के, एक ओदारिक । - १० - दस योग किसमें ? तीसरे गुणस्थान में चार मन के, चार वचन के, औदारिक व वैक्रिय । ११ - ग्यारह योग किसमें ? नारकी में - चार मन के, चार वचन के, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र व कार्मण । १२ - बारह योग किसमें ? छोड़कर | श्रावक में - आहारक, आहारकमिश्र व कामंण को Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 77 ) १३ –चौदह योग किसमें ? तिर्यंच में -आहारक, आहारकमिश्र को छोड़कर । १४-चौदह योग किसमें ? मनयोगी में कार्मण को छोड़कर । १५-पन्द्रह योग किसमें ? समुच्चय जीव में । कहा है - जोगमग्गणावि ओदइया, णामकम्मस्स उदीरणोदयजणिदत्तादो । -षट् खण्ड० सू ४ । १ । ६६ । पृ० ३१६ योग मार्गणा भी औदयिक है, क्योंकि वह नाम कर्म की उदीरणा व उदय से उत्पन्न होती है। भगवान महावीर का निर्वाण हस्तिपाल राजा की रथशाला में नहीं परन्तु पुरानी शुल्कशाला में हुआ था। तपोबल से कुलबालक मुनि इसलिए कहलाया कि वह नदी के किनारे के बदलने व मोड़ने में समर्थ हुआ। कोणिक की वेश्या ने उसे भ्रष्ट कर वैशाली के अभंग रहने का कारण तत्र स्थित मुनिसुव्रत स्वामी का स्तूप था जिसे तोड़ने पर वैशाली का पतन हुआ। यह कथा बौद्ध साहित्य से भी समर्थित है । वैशाली पति चेटक-हल्ल-विहल्ल का नाना था। प्रयोगपरिणत पुद्गल (पभोगपरिणद पोग्गल ) प्रयोगपरिणता:-जीवव्यापारेण तथाविधपरिणतिमुपनीताः । जीव की क्रियाओं द्वारा पुद्गल के अपने स्वरूप से अन्य स्वरूप में परिणत हो जाने को प्रयोगपरिणत पुद्गल कहते हैं। -स्था० स्था ३ । उ ३ । सू १८६ । टीका इरियावहकम्म ( ईयोपथकर्म ) जं तमीरियावहकम्मं णाम । २३ ईर्या योगः, सः पन्था मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म । जोगणिमित्तणेव णं वज्झइ तमीरियावहकम्मं ति भणिदं होदि । तं छदुमस्थवीयरायाणं सजोगिकेवलीणं वा तं सव्वमीरियावह कम्म णाम । २४ -षट् ० खण्ड ० ५। ४ । सू २४ । पु १३ । पृ० ४७, ४८ ईया का अर्थ योग है। वह जिस कामण शरीर का पथ, मार्ग हेतु है वह ईर्यापथकर्म कहलाता है। योग मात्र के कारण जो कर्म बंधता है वह ईर्यापथ कर्म है। वह छद्मस्थ वीतरागों के और सयोगि केवलियों के होता है वह सब ईर्या पथ कर्म है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 78 ) अस्तु केवल योग के निमित्त से आये हुए पुदगल स्कन्धों में काल निमित्तक अल्पत्व देखा जाता है अतः ईर्या-पथ कर्म अल्प है। भगवती सूत्र में यथाख्यात चारित्र में शुक्ल लेश्या मिलती है तथा स्नातक निर्ग्रन्थ में परम शुक्ल लेश्या का उल्लेख मिलता है। अस्तु स्नातक में जो एक परम शुक्ल लेश्या का कथन किया है। इसका आशय यह है कि शुक्ल लेश्या के तीसरे भेद के समय ही एक परम शुक्ल लेश्या होती है, दूसरे समय में तो उनमें शुक्ल लेश्या ही होती है किन्तु वह शुक्ल लेश्या भी दूसरे जीवों की शुक्ल लेश्या की अपेक्षा परम शुक्ल लेश्या होती है। पुलाक निग्रन्थ के विषय में व्याख्याकारों का यह मत है कि पुलाक निग्रन्थ उस समय पुलाक लब्धि को सक्रिय करते हैं, जबकि कोई प्रचण्ड धर्मद्वेषी जिन धर्म और संघ पर क्रूर बनकर भयंकर क्षति पहुँचाने को तत्पर हो और किसी प्रकार समझना एवं शान्त नहीं होना चाहता हो, तब उस उपद्रव से संघ की रक्षा के लिए वे इस शक्ति का उपयोग करके उस क्रूर की शान्ति नष्ट करते हैं। पुलाक लब्धि में इतनी शक्ति होती है कि वह शक्तिशाली महात्मा अपनी क्रूद्ध दृष्टि से लाखों मनुष्यों की सेना का भी निरोध कर सकते हैं। उनकी शक्ति के आगे शस्त्रबल व्यर्थ हो जाता है। कहा है उवसम सुहृमाहारे वैगुम्वियमिस्सणर अपज्जत्ते। सासणसम्मे मिस्से सांतरगा मग्गणाअट्ठ । सत्तदिणा च्छम्मासा वासपुधत्तं च वारसमुहुत्ता। पल्लासंखं तिण्हं वरमवरं एगसमो दु॥ - गोजी• गा• १४३, १४४ टीका-काल अन्तरंनामxxx आहारकतन्मिश्रकाययोगिनांवर्षपृथक्त्वं xxx वैक्रियिकमिश्रकाययोगिनां द्वादशमुहूर्ताः x x x। तासां जघन्येनान्तरं एक समय एवं ज्ञातव्य । आहारक और आहारकमिश्र काययोगवालों का उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है। वैक्रियमिश्र काययोगियों का अन्तर बारह मुहूर्त है। जघन्य अन्तर एक समय का होता है। अजीव द्रव्य, नैरयिकों के परिभोग में आते हैं परन्तु, नैरयिक, अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं। चूंकि नैरयिक, अजीव द्रव्यों को ग्रहण करते हैं, ग्रहण करके उन्हें वैक्रिय, तेजस और कार्मण शरीर, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शन्द्रिय, तीन योग और श्वासोच्छ वास रूप में परिणमन करते हैं। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 79 ) इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना, किन्तु जिसके जितने-जितने शरीर इन्द्रिय और योग हो, उनके उतने जानने चाहिए।' कहा हैनामकर्मण औदारिकादिदेहः योगोत्पादकत्वेन औदारिकादिदेहनिर्वतकत्वात् । -गोक० गा ७० । टीका नाम कर्म का नो कर्म-औदारिक आदि शरीर है क्योंकि वह योग का उत्पादक होने से औदारिक आदि शरीर को उत्पन्न करता है । जैन साहित्य में 'योग' शब्द का प्रयोग अध्यात्म योग, संवर योग, ध्यान योग आदि अनेक रूपों में मिलता है। इन सभी योगों को जैन तत्त्व विद्या में समाविष्ट किया जा सकता है। इस दृष्टि से 'जैनयोग' योग विद्या का बहुआयामी लक्ष्य लेकर चलता है । __ 'योग' शब्द की निष्पत्ति यज् धातु से होती है । इस धातु का प्रयोग कई अर्थों में होता है। प्रस्तुत संदर्भ में इसके दो अर्थ अधिक उपयुक्त होते हैं-समाधि और जोड़ना। जिस प्रवृत्ति से मन शुद्धि और आत्मा को समाधान मिले-वह योग है। इसका दूसरा अर्थ 'जोड़ना' बहुत व्यापक होने पर भी एक विशेष योजना का प्रतीक है। जिसे अभिव्यक्त करते हुए आचार्य हरिभद्र ने लिखा है ---'मोक्खेण जोयमाओ जोगो सम्वोवि धम्मवावारो' धर्म की सारी प्रवृत्तियां व्यक्ति को मोक्ष के साथ जोड़ती है, इसलिए वे योग है। जैन, बौद्ध और वैदिक सभी परम्पराओं में योग विद्या का प्रचलन है और उनके साहित्य में योग की विशद चर्चा है । जैन साधना पद्धति में योग के तीन अंग माने गये हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चारित्र। बौद्ध साधना पद्धति प्रज्ञा (ज्ञान ) शील ( यम-नियम ) और समाधि ध्यान-धारणा ) को और पातञ्जल योग दर्शन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि योग के अंम बताये हैं। कार्मण काययोगी जीन व आहारकमिश्र आदि योगी आयुष्य का बंध नहीं करते हैं और सब योगों में आयुष्य का बंधन हो सकता है । मिथ्यात्य, असंयम, कषाय और योगों के निमित्त से कर्म उत्पन्न होते हैं और कर्मों के निमित्त से जाति, जरा, मरण, वेदना उत्पन्न होती हैं। जो संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में स्थित जीवों को किसी एक निर्णय पर पहुँचाता है उसे निक्षेप कहते हैं या अप्रकृत अर्थ के निराकरण हुआ प्रकृत अर्थ का कथन १. भग० श. २५ । उ २ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 80 ) करने के लिए मुख्य वाचक के वाच्यार्थ की प्रमाणता का प्रतिपादन करता है उसे निक्षेप कहते हैं। मनुष्य के पास प्रवृत्ति के तीन साधन है-शरीर, वचन और मन । ये तीनों योग कहलाते हैं । योग का अर्थ है-प्रवृत्ति, चंचलता और सक्रियता। - श्रमणोपासक होने पर भी अभीचिकुमार, उदायन राजर्षि के प्रति वैर के अनुबंध से युक्त था। रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों के निकट असुर कुमारों के चौसठ लाख आवास कहे गये हैं। वह अभीचिकुमार बहुत वर्षों तक श्रमणोवासक पर्याय का पालन कर और अर्द्धमासिक संलेखना से तीस भक्त अनशनकर, छेदन करके, उस पापस्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना, मरण के समय काल धर्म को प्राप्तकर, रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों के निकट, असुरकुमार देवों के चौसठ लाख आवासों में से किसी आवास में 'आयाव' रूप असुरकुमार देवपने उत्पन्न हुआ। विवेचन-यद्यपि अभीचिकुमार, जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, श्रमणोपासक बन गया था, तथापि उदायन राजर्षि के प्रति उसका वैर-भाव शान्त नहीं हुआ। उसकी आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही वह कालधर्म को प्राप्त हो गया। इससे वह असुरकुमार देवों में उत्पन्न हुआ। भाषा-आत्मा नहीं है, अन्य ( आत्मा से भिन्न अर्थात् पुद्गल स्वरूप ) है। भाषा-रूपी है, अजीव है, अचित्त है। फिर भी भाषा जीवों के होती है, अजीवों के नहीं होती। बालते समय भाषा कहलाती है। परन्तु बोलने के पूर्व तथा पश्चात् भाषा नहीं कहलाती। बोलने के समय भाषा का भेदन होता है परन्तु बोलने से पूर्व और पश्चात् भाषा का भेदन नहीं होता है । भाषा का समय व्यतित हो जाने पर ( जिस समय शब्द भाषा-परिणाम को छोड़ देता है, उस समय ) भाषा का भेदन नहीं होता है, क्योंकि उस समय उत्कृष्ट प्रयत्न का अभाव है। भाषा की तरह मन भी आत्मा नहीं है, अन्य ( आत्मा से भिन्न अर्थात पुदगल स्वरूप ) है। मन अजीव है, रूपी है, अचित्त है। फिर भी मन जीवों के होता है, अजीवों के नहीं। मनन से पूर्व व पश्चात् मन नहीं होता है परन्तु मनन करने के समय मन कहलाता है। मनन के समय मन का भेदन होता है परन्तु मनन से पूर्व और पश्चात् मन का भेदन नहीं होता है। ग्रन्थों में कहा है समणीमवगयवेयं परिहार-पुलाय-अप्पमत्तं च । चोद्दसपुन्विं आहारयं च, ण य होइ संहरइ ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (81 ) अर्थात् श्रमणी ( साध्वी ), अपगतवेद ( वेदरहित ), परिहार विशुद्धि चारित्रवान, पुलाक, अप्रमत्तसंयत ( सातवें गुणस्थानवर्ती ) चौदह पूर्वधर और आहारक लब्धिवान इनका संहरण नहीं होता है। स्नातक का एक भेद अपरिस्रावी है जो सम्पूर्ण काययोग का निरोध कर लेने पर, स्नातक निष्क्रिय हो जाता है और कर्मप्रवाह सर्वथा रूक जाता है। गोम्मटसार में कहा है-असंयत सम्यग्दृष्टि सौधर्म-ईशान देवी पर्याप्त अवस्था में होती है । अपर्याप्त में असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान नहीं होता है। गोम्मटसार के अनुसार जीव की अपर्याप्त अवस्था में मनःपर्यवज्ञान व विभंगज्ञान नहीं होता है। केवली समुदघात के समय दो प्राण-काय-आयुष होते हैं तथा योग ३ होते हैं—मन के वचन के योग नहीं होते हैं। गोम्मटसार में कृष्णलेशी सम्यमिथ्यादृष्टि-देवगति के पर्याप्त अवस्था में नहीं है। तथा दिगम्बर परम्परा के अनुसार स्त्री वेदी जीव में मनः पर्यवज्ञान नहीं होता है क्योंकि संक्लिष्ट परिणाम का तदात्म्य स्त्री वेदी में होता है। परिहार विशुद्धि चारित्र में आहारक योग नहीं होता है। आहारक योग चतुर्दश पूर्वधर को होता है परन्तु यह एकान्त नियम नहीं है कि चतुर्दश पूर्वधर आहारक ऋद्धिवाला ही होता है। जीव-परिणति या अध्यवसाय विशेष से आत्मप्रदेश संकुचित-विस्तृत होकर कर्म प्रदेशों को झाड़ देते हैं उसे समुद्घात कहते हैं। जैसे कि-पक्षी अपने पंखों पर लगी हुई धूली या जलकी बूदे, उन्हें फैलाकर सिकोड़कर झाड़ देते हैं। केवली समुद्घात में मनोयोग व वचन योग की प्रवृत्ति नहीं चलती है। उससे निवृत्त होने के बाद मनोयोग-वचन योग की प्रवृत्ति अन्तर्मुहूर्त तक चलती है। उसके बाद जीव काययोग का निरोध कर अयोगी बन जाता है। बाहुबलजी का पौत्र व सोमप्रभ का पुत्र श्रेयांसकुमार था जिसने भगवान ऋषभ को प्रथम दान दिया था। ब्राह्मी की दीक्षा सुन्दरी के पूर्व हो गयी थी। आतप नाम कर्म का उदय केवल सूर्य के मंडल में मिलता है। चार वर्णों में तीन वर्षों की उत्पत्ति ऋषभ नरेश के समय हो गई थी-ब्राह्मण वर्ग की स्थापना भरत के शासन काल में हुई। करोड़ पूर्व से अधिक आयुवाले मनुष्य सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते है। युगलिये मरकर अपनी आयु से अधिक आयु वाले देव नहीं होते हैं । __ अ, इ, उ, ऋ और ल-ये पाँच ह्रस्व अक्षर है । इनका न द्रुत, न विलंवित, किन्तु मध्यम उच्चारण ग्रहण किया गया है। कहा है हस्सक्खराई मज्झणं जेण कालेणं पंच भण्णंति । अच्छइ सेलेसिगओ, तत्तियं मेत्तं तओ कालं ॥ --उव० टीकोद्धत गाथा शैलेश =मेरु, मेरुसी, स्थिर अडोल अवस्था-शैलेशी। अथवा शीलेश-सर्व संवर रूप चारित्र के प्रभु । शीलेश की योग निरोध रूप अवस्था शैलेशी। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 82 ) जहाँ गुण की वृद्धि से, असंख्यातगुणी निर्जरा, समय-समय पर अधिक होती हैवह गुणश्रेणी है। राजा ऋषभ ने भरत का विवाह बाहुवलि की बहिन सुन्दरी के साथ व भरत की बहिन ब्राह्मी का विवाह बाहुबलि के साथ किया । बाहुबलि के दीक्षित होने के बाद चक्रवर्ती भरत ने उनके पुत्र सोमप्रभ को तक्षशिला का शासन भार सौंपा। पैशून्य बड़ा पाप है। इसे पृष्ठ-मांस भोजी कहा है। इसे बचना जरुरी है। इससे अभ्याख्यान से भी बड़ा पाप माना है। तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में भी योग और लेश्या दोनों है। पर वे काययोगी होते हैं—मनोयोगी, वचनयोगी नहीं। लेश्या शुक्ल है । साम्परायिक क्रिया दसवें गुणस्थान तक है। उस क्रिया में अशुभ योग भी हो सकता है । दिगम्बर ग्रन्थों में दसवें, ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में अशुभ योग भी माना है । पीछे-पीछे मांस खाने वाले को पृष्ठ मांस भोजी कहा है। यह बहुत बड़ा तथ्य है । गतिमार्गणा में आयुप्राण अन्तर्भूत है क्योंकि गति और आयु में परस्पर अजहद्वृत्तिरूप प्रत्यासत्ति है क्योंकि गति के बिना आयु नहीं और आयु के बिना गति नहीं। वेदमार्गणा में मैथून संज्ञा अन्तर्भूत है। क्योंकि काम की तीव्रता के वश होकर स्त्री-पुरुष युगल अभिलाषा पूर्वक संभोग रूप जो कृत्य करते हैं वह वेदकर्म के उदय से उत्पन्न हुई पुरुष आदि की अभिलाषा का कार्य है। अत: मैथून संज्ञा और वेदकर्म में कार्यकारण भाव प्रत्यासत्ति है। गोम्मटसार में सास्वादान गुणस्थान में अनंतानुबंधी क्रोध, माया, मान, लोभ में से किसी एक कषाय का उदय होते हुए भी उसकी विवक्षा न होने से आगम में पारिणामिक भाव कहा है। __ जब भाषा में सत् प्रवृत्ति को पुण्य और असत् प्रवृत्ति को पाप कहते हैं । सैद्धान्तिक भाषा में शुभ कर्म पुद्गलों को पुण्य और अशुभ कर्म पुद्गलों को पाप कहते हैं। प्राचीन आचार्यों ने पुण्य को सोने की बेड़ी और पाप को लोहे की बेड़ी से उपमित किया है। जहां शुभ योग की प्रवृत्ति है वहाँ दो काम साथ-साथ में होते हैं-कर्मों का निर्जरण होता है और पुण्य का बंध भी होता है। इस सत्प्रवृत्ति से कर्म की निर्जरा होती है, किन्तु प्रासंगिक रूप में होने वाले कर्म बंधन को रोका नहीं जा सकता। बन्धन मुक्ति और बन्धन साथ-साथ चलते हैं। अस्तु जब तक प्राणी में अहिंसा, सत्य आदि की प्रवृत्ति भी है और कषाय भी है, तब तक वह कुछ तोड़ता है और कुछ बांधता है। किन्तु साधना को आगे बढाते-बढाते वह प्राणी एक दिन कषायों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। तब आत्म-प्रवृत्ति प्रधान रहती है अर्थात् केवल शुभ योग की प्रवृत्ति प्रधान रहती है। पुण्य का बंध नगण्य हो जाता है और आत्मा निरन्तर मुक्ति की ओर बढती जाती है। अन्तिम भूमिका में वह बंध भी अवरुद्ध हो जाता है-अयोगी हो जाता है और आत्मा सदा के लिए मुक्त हो जाती है । ___ अशुभ योग-असत् प्रवृत्ति जो पर-पीड़ा का निमित्त बनती है, वह पाप है। जैसे सत्प्रवृत्ति रूप धर्म के साहचर्य से पुण्य की उत्पत्ति होती है वैसे ही असत्प्रवृत्ति के साहचर्य Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 83 ) से पाप की उत्पत्ति होती है । पुण्य-पाप फल है । है । जैन दर्शन आत्मा को परिणामी नित्य मानता है । वाग् दो प्रकार की है - द्रव्यवागू और भाव - वाग् अर्थात् वचन - वोलने के लिए जिन पुद्गलों की सहायता ली जाती है-वह है द्रव्य वचन | उसके बाद पुद्गलों की सहायता से आत्मा की जो प्रवृत्ति होती है वह भाव बचन । अतः भाव वचन को हम वचोयोग भी कह सकते हैं । यद्यपि वचोयोग की प्रवृत्ति का निमित्त द्रव्य वचन है जो कि पौद्गलिक है । जैसा कि राजवात्तिककार ने भी नहीं किया है। पर आगे चलकर उन्होंने भाव वाग् को पुद्गलों का कार्य मात्र माना है । यह ठीक नहीं है । क्योंकि वचोयोग आत्मप्रवृत्ति है और वह पौद्गलिक नहीं हो सकती । कर्मक्षयोपशम जन्य आत्म-सामर्थ्य को पौद्गलिक नहीं मानना चाहिए । अपने प्रकटित सामर्थ्य के द्वारा आत्मा जिसको ग्रहण करता है वह द्रव्य वचन है । इससे उनका कहना ठीक है । वह सामथ्यं पौद्गलिक कैसे हो सकता है | ये दोनों धर्म और अधर्म के प्रासंगिक भगवती शतक इसीप्रकार भावमन और द्रव्यमन के विषय में जानना चाहिए । २५ | उद्देशक १ में भाषा और मन को योग कहा है । योग को आस्रव कहा गया है । आस्रव जीव है क्योंकि वह आत्मा की प्रवृत्ति है । योग भी जीव है और जीव पौदगलिक नहीं हो सकता । अतः भावमन भी पौद्गलिक नहीं है । अस्तु पारिणामिक भाव का मतलब है-वस्तु का अपने स्वभाव परिणत होना । अतः भावमन जो अपने रूप में परिणत होता है वह पारिणामिक भाव है । पर एक भावमन ही पारिणामिक नहीं है क्योंकि परिभाषा के अनुसार पर्याय मात्र पारिणामिकभाव है । द्रव्यमन भी पारिणामिक है । जैसा कि अनुयोगद्वार में जीव को जीवपरिणामी कहा है और अजीव को अजीवपरिणामी कहा है । तथा पण्णवण्णा पद १३ में भी इसका विवेचन है । अस्तु भावमन तो पौद्गलिक है ही नहीं और पर्याप्ति पौद्गलिक है । अतः उसका भावमन से कोई सम्बन्ध नहीं है । पर्याप्ति के द्वारा मन के योग्य पुद्गलों का आदानपरिणमन और उत्सर्ग होता है पर एक नहीं है । अतः मन और भाषा पर्याप्ति भिन्न है । २ - औदारिक मिश्र काययोग -जब औदारिकशरीर अन्तर्मुहूर्तकाल तक अपूर्ण अर्थात् अपर्याप्त होता है तब उसको औदारिकमिश्र कहते हैं । कार्मणकाययोग से आकृष्ट कार्मणवर्गणा से संयुक्त होने से औदारिकमिश्र कहते हैं जब जीव पूर्व शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करने के लिए विग्रहगति से गमन करता है तब उसके अधिक से अधिक दो समय (दिगम्बर परम्परानुसार तीन समय ) तक उसके कार्मणकाययोग होता है । उससे कार्मणवर्गणाओं का ग्रहण होता है । इस तरह कार्मण और औदारिकवर्गणा का मेल होने से अपर्याप्त अवस्था में औदारिक को ही औदारिकमिश्र कहा जाता है । अथवा परमागम - Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 84 ) में ऐसा रूढ है कि अपर्याप्त शरीर मिश्र होता है । इस कारण से औदारिककायमिश्र के साथ उसके लिए वर्तमान जो संप्रयोग अर्थात् आत्मा का कर्म और नोकर्म को ग्रहण करने की शक्ति के लिए प्रदेश परिस्पन्दनरूप योग है वह शरीर पर्याप्ति की पूर्णता न होने से औदारिकवर्गणा के स्कंधों को परिपूर्ण रूप से शरीर रूप परिणमाने से असमर्थ होने से औदारिकमिश्र काययोग होता है । वैक्रिय काययोग - वैक्रिय शरीर के लिए जो उस रूप परिणमन के योग्य शरीरवर्गणा के स्कन्धों को आकृष्ट करने की शक्ति से विशिष्ट आत्मप्रदेशों का कंपन है वह वैक्रिय काययोग है । अथवा कारण में कार्य के उपचार करने से वैक्रियकाय ही वैक्रियकाययोग है यह उपचार भी पूर्व की तरह निमित्त से लिए हुए हैं । वैक्रियकाय से हुआ योग वैक्रियकाययोग यह निमित्त का योग है । कर्म - नोकर्म रूप से परिणमन होना प्रयोजन है, मनुष्य और तिर्यंच में जिन जीवों का औदारिक शरीर ही वैक्रिय रूप होता है वे जीव पृथक् विक्रिया करते हैं । चक्रवर्ती के भी वैक्रिय काययोग होता है । असमर्थ होता है वैक्रियमिश्र काययोग – वह वैक्रिय शरीर ही अन्तर्मुहूर्त मात्र अपर्याप्त काल तक शरीर पर्याप्ति की पूर्णता न होने से वैक्रिय काययोग को उत्पन्न करने में तब तक औदारिकमिश्र काय की तरह उसे वैक्रियमिश्र जानना चाहिए । उस वैक्रियमिश्र काय के साथ जो संप्रयोग अर्थात् कर्म - नोकर्म को ग्रहण करने की शक्ति को प्राप्त अपर्याप्त काल मात्र आत्मा के प्रदेशों का चलन रूप योग वैक्रियमिश्र काययोग है । अर्थात् अपर्याप्त योग का नाम मिश्र काययोग है । आहारक काययोग- -प्रमत्त संयत के आहारक शरीर नाम कर्म के उदय से आहार वर्गणा के आये हुए पुद्गल स्कन्धों को आहारक शरीर रूप परिणमन करने को आहारक शरीर कहते हैं । अथवा श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम की मन्दता होने पर जब धर्म ध्यान के विरोधी शास्त्र के अर्थ में सन्देह होता है तब उस संशय को दूर करने के लिए ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत के आहारक शरीर प्रकट होता है । आहारक शरीर पर्याप्ति परिपूर्ण होने पर कदाचित् आहारक शरीर ऋद्धि से युक्त प्रमत्त संयत के आहारक काययोग के काल में अपनी आयु का क्षय होने पर मरण भी हो जाता है । अस्तु शरीर पर्याप्तिको पूर्णता होने पर आहार वर्गणाओं के द्वारा आहारक शरीर के योग्य पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करने की शक्ति से विशिष्ट आत्मा के प्रदेशों का चलन आहारक काययोग जानना चाहिए । आहारक मिश्र काययोग — वह आहारक शरीर ही जब अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अपर्याप्त काल में अपरिपूर्ण होता है अर्थात् आहार वर्गणा के पुद्गल स्कन्धों को आहारक शरीर के आकार रूप से परिणमाने में असमर्थ होता है तब तक उसे आहारकमिश्र कहते हैं । उससे पहले होनेवाली औदारिक शरीर वर्गणा से मिला होने से उनके साथ जो संप्रयोग अर्थात् अपरिपूर्ण शक्ति से युक्त आत्म प्रदेशों का चलन है उसे आहारकमिश्र योग कहते हैं । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 85 ) कार्मण काययोग-कर्म ही अर्थात् आठ कर्म के कर्मों का स्कन्ध ही, कार्मण अर्थात् कार्मण शरीर है। अथवा कर्मभव अर्थात् कार्मण शरीर नाम कर्म के उदय से जो उत्पन्न हुआ-वह कार्मण है। उस कार्मण स्कन्ध के साथ जो वर्तमान जो सम्प्रयोग अर्थात् आत्मा के कार्मण को आकर्षण करने की शक्ति से संयुक्त प्रदेशों का परिस्पन्द रूप योग है वह कार्मण काययोग है। यह अन्तकाल गति-विग्रह गति में और केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे, पांचवें समय में होता है । जीव प्ररूपणा के बीस भेद हैं उसमें एक पन्द्रह योगमार्गणा भी है। योगमार्गणा में कायबलप्राण अन्तर्भूत है, क्योंकि जीव के प्रदेशों के परिस्पन्द लक्षण वाले काययोग रूप कार्य में उसको बलाधान करने वाले कायबलप्राण स्वरूप कारण की सामान्य विशेषकृत प्रत्यासत्ति होने से कार्यकारणकृत प्रत्यासत्ति होती है। कायबल विशेष है, योग सामान्य है। इसप्रकार सामान्य विशेषभाव प्रत्यासत्ति में योग में कायबल का अंतर्भाव युक्त है। जब-जब आयुबन्ध करता है तब-तब उसके योग्य जघन्ययोग में करता है। उत्कृष्ट योग से आहारित और उत्कृष्ट वृद्धि से वधित होता हुआ बहुत बार उत्कृष्ट योग स्थानों को प्राप्त हुआ, जघन्य योग स्थानों को प्राप्त नहीं हुआ। बहुत बार बहुत संक्लेश रूप परिणामों से परिणत हुआ, विशुद्ध हुआ तो अपने योग्य विशुद्धि से विशुद्ध होता है। नीचे की स्थिति के निषकों का जघन्य पद करता है और ऊपर की स्थिति के निषकों का उत्कृष्ट पद करता है। इसप्रकार भ्रमण करके बादर त्रस पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ। वहाँ भ्रमण करते हुए पर्याप्त के भव बहुत धारण किये, अपर्याप्त के भव थोड़े धारण किये। पर्याप्त का काल बहुत हुआ, अपर्याप्त का काल थोड़ा हुआ। इसप्रकार भ्रमण करके अन्तिम भवग्रहण करते समय सातवीं पृथ्वी के नारकियों में उत्पन्न हुआ। उस भव को ग्रहण करने के प्रथम समय में उसके योग्य उत्कृष्ट योग से आहार ग्रहण किया। उत्कृष्ट योग की वृद्धि से बढ़ा। सबसे लघु अन्तमुहूर्त में मव पर्याप्तियों को पूर्ण किया। उस नारकी में तैतीस सागरकाल तक आवश्यक योग और आवश्यक संवलेश को प्राप्त हुआ। इस प्रकार भ्रमण करके थोड़ी आयु शेष रहने पर योग यव मध्य के ऊपर के भाग में अन्तमुहूर्त शेष तक स्थित रहकर जीवन व मध्य रचना की, अन्तिम गुण-हानि रूप योग स्थान में अन्तमुहूर्त काल तक रहकर आयु के अन्त से पहले तीसरे और दूसरे समय में उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त होकर अन्तिम समय में तथा अन्तिम से पहले समय में उत्कृष्ट योगस्थान को प्राप्त करके जब वह उस भव के अन्तिम समय में स्थित होता है तब उसके कार्मणशरीर का उत्कृष्ट संचय होता है। यद्यपि अनंत रहस्यों का खजाना है --योग विद्या। इस खजाने की चाबी जिसे उपलब्ध हो जाती है, उसे सबकुछ उपलब्ध हो सकता है। यही कारण है कि आज इस विषय पर विशेष अन्वेषण और विशेष प्रयोग हो रहे हैं तथा उनके विशेष परिणाम भी आ रहे हैं। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 86 ) जैन साहित्य में 'योग' शब्द का प्रयोग अध्यात्म योग, भावना योग, संवर योग, ध्यान योग आदि अनेक रूपों में मिलता है। इन सभी योगों को जैन तत्त्व विद्या में समाविष्ट किया जा सकता है। इस दृष्टि से 'जैन योग' योग विद्या का बहुआयामी लक्ष्य लेकर चलता है। ___ 'योग' शब्द भी निष्पत्ति संस्कृति की 'युज' धातु से होती है। इस धातु का प्रयोग भी कई अर्थों में होता है। प्रस्तुत संदर्भ में इसके दो अर्थ अधिक उपयुक्त है-समाधि और जोड़ना। जिस प्रवृत्ति से मन, बुद्धि और आत्मा को समाधान मिले, वह योग है। इसका दूसरा अर्थ 'जोड़ना' बहुत व्यापाक होने पर भी एक विशेष योजना का प्रतीक है। जिसे अभिव्यक्त करते हुए आचार्य हरिभद्र ने लिखा है-'मोक्खेण जोयणाओ जोगो सम्बो वि धम्मवावादो' धर्म की सारी प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को मोक्ष के साथ जोड़ती है, इसलिए वे योग है। जैन, बौद्ध और बौद्धिक-सभी परम्पराओं में योग विद्या का प्रचलन है और उनके साहित्य में योग की विशद चर्चा है। जैन साधना--पद्धति में योग के तीन अंश माने गये हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यगचारित्र । बौद्ध साधना पद्धति प्रज्ञा ( ज्ञान ), शील ( यम-नियम ) और समाधि (ध्यान-धारणा) को तथा पातंजल योगदर्शन में यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि को योग के अंग बताये हैं। सयोगी जीव एजन ( कंपन ), विशेष एजन ( विशेष कंपन) चलन ( एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना ), स्पंदन ( थोड़ा चलना), घट्टन ( सब दिशाओं में चलना), क्षुभित होता, उदीरण आदि क्रियाएँ करता है और उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण आदि पर्यायों को प्राप्त होता है। पूर्वोक्त क्रियाओं को करने वाला जीव सकसकर्म क्षयरूप अंत क्रिया नहीं कर सकता है। शैलेशी अवस्था में योग का निरोध हो जाता है इसीलिग एजनादि क्रिया नहीं होती। एजनादि क्रिया न होने से उसकी आरंभादि में प्रवृत्ति नहीं होती और इसीलिए हर प्राणियों के दुःखादि का कारण नहीं बनता है। इसीलिए योगनिरोध रूप शुक्लध्यान द्वारा अक्रिय आत्मा की सकल क्षयरूप अंत क्रिया होती है। उपशांत मोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली इन तीन गुणस्थानों में रहे हुए जीव के एक साता वेदनीय कर्म का बंध होता है क्योंकि वह सक्रिय है। साधारण अर्थात निगोंद के दो भेद है -नित्यनिगोद जो अव्यवहार राशि के जीवों का पिण्ड है तथा इतर निगोद जो व्यवहार राशि के जीवों का पिण्ड है। दोनो निगोद की सात-सात लाख योनियां है। उनमें तीन योग होते हैं-औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग तथा कार्मण काययोग । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 87 ) स्वर नाम कर्म के उदय के वश से भाषा वर्गणा के रूप में आये हुए पुद्गल स्कन्धों को सत्य, असत्य, उभय-अनुभय भाषा के रूप में परिणमाने की शक्ति की पूर्णता को भाषा पर्याप्ति कहते हैं। भाषा वर्गणा के पुद्गल वचन योग में सहायक बनते हैं। मनो वर्गणा के रूप में आये हुए पुद्गल स्कन्धों को अंगोपांग नाम कर्म के उदय की सहायता से द्रव्य मनोरूप से परिणमाने के लिए तथा उस द्रव्य मन की सहायता से नो इन्द्रियावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम विशेष से गुण-दोष का विचार, स्मरण, प्रणिधान लक्षण वाले भाव मन रूप से परिणमन करने की शक्ति की पूर्णता को मनः पर्याप्ति कहते हैं। मनो वर्गणा के पुद्गल भाव मनोयोग में सहायक बनते हैं। सयोगी केवली गुणस्थान में मनः पर्याप्ति भी है अतः उपचार से भाव मनोयोग मानना ही पड़ेगा। जन्म, जरा, मरण, भय, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, दुःख, संज्ञा, रोग आदि नाना प्रकार की वेदना जिसमें नहीं है वह समस्त कर्मों के सर्वथा विनाश से प्रकट हुई सिद्धगति है। उस गति में योग नहीं होता है, लेश्या नहीं होती है। ___उत्सर्पिणी काल के तृतीय काल के अन्त में तथा विदेह आदि क्षेत्र में तथा अवसर्पिणी काल के चतुर्थ काल के आदि में आत्मांगुल भी प्रमामांगुल रूप होता है।' औपमिक सम्यक्त्वी को आहारक व आहारकमिश्र काययोग नहीं होता है । कार्मण काययोगी जीव परभव का आयुष्य नहीं बांधता है। सयोगी जीव तीसरे, बारहवें व तेरहवें गुणस्थान में मरण को प्राप्त नहीं होता है। अप्रमत्त गुणस्थान में वेदनीय कर्म की उदीरणा नहीं है। योग-जीव द्रव्य की पर्याय है। द्रव्यों की पर्याय की जघन्य स्थिति क्षण मात्र होती है। उसको समय कहते हैं। गमन कहते हुए दो परमाणुओं के परस्पर में अतिक्रम करने में जितना काल लगता है उतना ही समय का प्रमाण है। आकाश के जितने क्षेत्र को एक परमाणु रोकता है उसे प्रदेश कहते हैं। सिद्ध द्रव्य कर्म और भाव कर्म से रहित होने से सदा शुभ होते हैं। एक जोया ( एक योगी ) गोजी० गा० २६१ बियजोगिणो तद्रूणा संसारी एक जोगा दु ।। टीका-ताभ्यां द्वित्रियोगराशिभ्यां हीन संसारी। एक योगि राशिर्भवति-काययोयिजीवराशिदित्यर्थः । संसारी जीव राशि में से दो योग और तीन योग वाले जीवों का परिमाण हीन कर देने पर जो शेष रहे उतना एक योगी अर्थात् काययोगी जीवों की राशि होती है । १. गोजी० मा० ८९, १५९ । टीका । २. गोजी. गा०७२८ । टीका । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 88 ) बियजोगिणो ( द्वि योगी ) गोजी. २६१ . बियजोगिणो तदूणा संसारी एक जोगा दु॥२६१॥ टीका-तहीनत्रसपर्याप्तराशिः द्वियोगिराशिप्रमाणं भवति-कायवाग्योगयुक्त जीवराशिदित्यर्थः। पर्याप्त त्रस राशि प्रमाण में से त्रियोगी जीवों के परिमाण को कम कर देने से जो शेष रहे उतने द्वियोगी अर्थात् काययोग और वचन योग से युक्त जीवों का परिमाण होता है। तिजोगिणो ( त्रियोगी ) गोजी० गा २६१ . त्रियोगी अर्थात् मन-वचन-काय तीनों योगों से युक्त जीव की राशि । देवेहि सादिरेया तिजोगिणो तेहिहीण तसपुण्णा । बियजोगिणो तदूणा संसारी एक जोगा दु ।। टीका-त्रियोगिराशिर्भवति-कायवाङ् मनोयोगत्रययुक्तजीवराशिदित्यर्थः । देवराशि का प्रमाण साधिक ज्योतिष्क देवराशि प्रमाण है। उस देवराशि में धनांगुल के दूसरे वर्गमूल से गुणित जगत्श्रेणी प्रमाण नारकी और असंख्यात पण्णट्ठी तथा प्रतरांगुल से भाजित जगत प्रतर प्रमाण संज्ञी पर्याप्त तिर्यंच और बादर के धन प्रमाण पर्याप्त मनुष्य-इन सबको मिलाने से जो परिमाण होता है उतने त्रियोगी जीव होते हैं । कहा है कतिविहाणं भते ! जोगनिव्वत्ती पण्णता? गोयमा ! तिविहा जोगनिव्वत्ती पण्णत्ता, तंजहा-मणजोग-निव्वत्ती, वइजोगनिव्वत्ती, कायजोगनिव्वत्ती। एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति विहो जोगो। -भग• श० १८ । उ ८ । सू ८९ तीन योगनिर्वृत्ति होती है-यथा मनोयोगनिर्वृत्ति, वचनयोगनिवृत्ति तथा काययोगनिर्वृत्ति । इसी प्रकार दण्डक के सभी जीवों के योगनिर्वृत्ति होती है। जिस दण्डक में जितने योग होते हैं उसमें उतने योगनिर्वृत्ति कहना। टीकाकारने निर्वृत्ति की व्याख्या इस प्रकार की है। तत्र क्रियतेऽनेनेति करणं-क्रियायाः साधकतमं कृतिर्वा करण-क्रिया मात्रं, नन्वस्मिन् व्याख्याने करणस्य निर्वृत्तश्च न भेदः स्यात्, निर्वृत्तरपि क्रियारूपत्वात्, नैवं, करणमारम्भक्रिया निर्वत्तिस्तु कार्यस्य निष्पत्तिरिति । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 89 ) निर्वर्तनं -निर्वृत्तिनिष्पत्तिर्जीवस्यैकेन्द्रियादितया निर्वृत्तिर्जीवनिर्वृत्तिः । अर्थात जिसके द्वारा किया जाय वह करण । क्रिया का साधन अथवा करना-वह करण। इस दूसरी व्युत्पत्ति के प्रमाण से करण और निर्वृत्ति एक हो गई ऐसा नहीं समझना चाहिए। क्योंकि करण आरम्भिक क्रिया रूप है तथा निवृत्ति क्रिया की समाप्ति रूप है। निर्वृत्ति-निर्वर्तन अर्थात् निष्पन्नता। यथा-जीव का एकेन्द्रियादि रूप से निवृत्ति होना जीव-निर्वृत्ति । योग-निवृत्ति का अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है-द्रव्य योग के द्रव्यों के ग्रहण की निष्पन्नता अथवा भावयोग के एक योग से दूसरे योग में परिणमन की निष्पन्नता योग-निर्वृत्ति । योग करण - आगम के मूल पाठ में योग करण की चर्चा नहीं है। भगवई श १९ । उ ९ । सू १०२-११० में २२ करणों की चर्चा है-यथा १-द्रव्य करण, २-क्षेत्र करण, ३-काल करण, ४-भव करण, ५-भाव करण, ६-शरीर करण, ७-इन्द्रिय करण, ८-भाषा करण, ९-मन करण, १०-कषाय करण, ११- समुद्घात करण, १२- संज्ञा करण, १३-लेश्या करण १४-दृष्टि करण, १५-वेद करण, १६-प्राणातिपात करण, १७---पुद्गल करण १८-वर्ण करण, १९ - गंध करण, २०-रस करण, २१-स्पर्श करण, २२-संस्थान करण द्रव्य तथा भाव के भेद से कर्म के दो प्रकार है। उसमें ज्ञानावरणादिरूप पुदगलद्रव्य का पिंड द्रव्यकर्म है और उस द्रव्यपिंड में फल देने की जो शक्ति-वह भावकर्म है। अथवा कार्य में कारण का व्यवहार होने से उस शक्ति से उत्पन्न हुए जो अज्ञानादि वा क्रोधादि रूप परिणाम वे ही भावकर्म है । जिस कर्म के उदय से सम्यक्त्वगुण का मूल से घात न हो परन्तु परिणामों में कुछ चलायमानपना तथा मलिनपना हो जाय उसे सम्यक्त्व प्रकृति कहते हैं। जो नो अर्थात् ईषत-थोड़ा कषाय हो-प्रबल नहीं हो उसे नोकषाय कहते हैं। उसका जो अनुभाव करावे वह नोकषाय वेदनीयकर्म कहा जाता है। जिसके उदय से ग्लानि अर्थात अपने दोष को ढकना और दूसरे के दोष को प्रगट करना हो वह जुगुप्साकर्म है। जिस कर्म के उदय से मरण के बाद और जन्म के पूर्व अर्थात् विग्रहगति में मरण से पहले के शरीर के आकार आत्मा के प्रदेश रहे अर्थात् पूर्व शरीर के आकार का नाश न हो उसे आनुपूर्वी नामकर्म कहते हैं-ऐसा गोम्मटसार में कहा है-यथा-जिस कर्म के उदय से नरकगति को प्राप्त होने के सम्मुख जीव के शरीर का आकार विग्रहगति में पूर्व शरीराकार रहे उसे नरकगतिआनुपूर्वी कहते हैं। जिसके उदय से पर को आतप करने वाला शरीर हो वह आतप नामकर्म है अर्थात् उसका उदय सूर्य के विम्ब में उत्पन्न हुए पृथ्वीकायिक जीवों के हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 90 ) करण-जोग रूप क्रिया का भी एक भेद है। भाषा करण, मन करण-योग रूप क्रिया है। शरीर करण-काय करण का भी एक भेद बन सकता है। अतः काय योग रूप क्रिया का भी ग्रहण हो जाता है। साधकतमं करणं ( अभिधा० पृ० २८६) केवलिनोद्धनिरुद्धजोगस्स- केवलिनोऽर्धनिरोधयोगस्य । ----ठाण० स्था० ४ । उ १ । सू २४७ । टीका में उद्धृत निर्वाण के समय तेरहवें गुणस्थान में काययोग का अर्ध-निरोध होता है। निव्वाणगमणकाले केवलिनोद्धनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽनियट्टि तइयं तणुकायकिरियस्स ।। तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव्व निप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई झाणं परमसुक्कं ।। - ठाण० स्था० ४ । उ १ । सू २४७ । टीका में उद्धृत निर्वाण के समय केवली के मन और वचनयोगों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्धनिरोध होता है। उस समय उनके शुक्लध्यान का तीसरा भेद 'सुहुमकिरिएअनियट्टी' होता है और सूक्ष्मकायिकी क्रिया उच्छ वासादि रूप में होती है । उस निर्वाणगामी जीव के शैलेत्व प्राप्त होने पर सम्पूर्ण योग निरोध होने पर भी शुक्लध्यान का चौथा भेद 'समुच्छिन्न-क्रियाऽप्रतिपाती' होता है, यद्यपि शैलेत्व की स्थिति मात्र पाँच ह्रस्व स्वराक्षर उच्चारण करने समय जितनी होती है । योग प्रवृत्ति का नियम वेगुम्विय आहारयकिरिया ण समं पमत्तविरदम्मि । जोगो वि एक्काले एक्केव य होदि णियमेण ।। -गोजी० गा० २४२ प्रमत्तविरत में वैक्रियकाययोगक्रिया और आहारकयोगक्रिया-ये दोनों एक साथ नहीं होती तथा योग भी एक काल में अर्थात् अपने योग्य अन्तमुहूर्त में नियम से एक ही होता है। दो या तीन योग एक जीव में एक साथ नहीं होते हैं । वीरसेनाचार्य ने षट्खण्डागम में कहा है त्रयाणां योगानां प्रवृत्तिरक्रमेण उतनेति ? नाक्रमेण, त्रिष्वक्रमेणकस्यात्मनो योगनिरोधात् । मनोवाक्कायप्रवृत्तयोऽक्रमेण क्वचिद् दृश्यन्त इति चेद् भवतु तासां तथा प्रवृत्तिर्दष्टत्वात्, न तत्प्रयत्नानामक्रमेण वृत्तिस्तथोपदेशाभावादिति । अथ स्यात्प्रयत्नो हि नाम Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 91 ) बुद्धिपूर्वकः, बुद्धिश्चमनोयोगपूर्विका, तथा सिद्धो मनोयोगः शेषयोगाविनाभावीति न, कार्यकारणयोरेककाले समुत्पत्तिविरोधात् । -षट् खं० १।१ । सू ४७ । टीका । पु १ । पृ० २७९-८० अर्थात् मन, वचन और काय की प्रवृत्ति क्वचिद् अक्रम से देखी जाती है। प्रयत्नपूर्वक योगी की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती है। प्रयत्न बुद्धि पूर्वक होता है। बुद्धि मनोयोग पूर्वक होती है। कार्यकारण रूप में एक काल में योगों की समुत्पत्ति का विरोध है। काया के योग से भाषा के पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं तथा वचन के योग से भाषा के पुद्गल छोड़े जाते हैं। ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम भाव तथा मोहनीय कर्म के उदय वचनयोग से असत्य भाषा व मिश्र भाषा बोलता है। ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम भाव में वचन के योग से सत्य भाषा व व्यवहार भाषा बोलता है। सयोगी में भंग २-अनादि अपर्यवसित, तथा अनादि सपर्यवसित । मनयोगी, वचनयोगी की कायस्थिति जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त की होती है। काययोगी की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् वनस्पतिकाल जितना होता है । अयोगी में भंग १-सादि अपर्यवसित । सयोगी व अयोगी का अंतरकाल नहीं है । मनोयोगी, वचनयोगी का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त का, उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् वनस्पतिकाल जितना होता है। काययोगो का अन्तरकाल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त जितना है। अस्तु भाषक की कायस्थिति जघन्य एक समय की व उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है । अभाषक के दो भेद है, यथा--सिद्ध अभाषक और संसारी अभाषक । सिद्ध अभाषक की कायस्थिति आदि अपर्यवसित, संसारी अभाषक की कास्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की उत्कृष्ट अनंतकाल यावत् वनस्पतिकाल । भाषक का अंतरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त का, उत्कृष्ट अनंतकाल यावत् वनस्पतिकाल जितना है। संसारी अभाषक का अन्तरकाल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का होता है। सिद्ध अभाषक का अन्तरकाल नहीं है। कार्यकारण रूप से एक समय में एक काल में योगों की समुत्पत्तिकादिरोध है । योगों के निरोध के समय क्रमशः मन, वचन व काययोग का निरोध होता है। मन वचन व काययोग की प्रवृत्ति को क्वचित् अक्रम से देखी जाती है ( लोकव्यवहार में )। वस्तुतः उन योगों की प्रयत्नरूप प्रवृत्ति अक्रम से नहीं होती है। अतः बुद्धिपूर्वक प्रयत्न होता है तथा बुद्धि मनोपूर्वक होती है तथा मनोयोग सिद्ध हो जाता है। शेष योगों का अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 92 ) प्रयोगगति, ततगति, बंधनछेदनगति, उपपातगति और विहायोगति के भेद से प्रयोगगति के मूल भेद औदारिककायप्रयोग आदि पन्द्रह भेद हैं, गति के पांच भेद हैं । उतर भेद १४३ है । विहायगति के फुसमाणगति आदि सतरह भेदों में लेश्यागति और लेश्यानुपात - गति भी है । कृष्णादि लेश्या के द्रव्य परस्पर विरोधी लेश्या में परिणमन होते हैं उसे लेश्यानुपात - गति कहते हैं । उस समय लेश्या के साथ योग भी होता है । जिस लेश्या के पुद्गल अंतकाल में ग्रहण करे उसी लेश्या में आकर उत्पन्न होने को श्यानुपातगति कहते हैं उस समय भी योग होता है । समुच्चय जीव में योग १५ होते हैं । जिसमें तेरह योग शाश्वत तथा दो योग ( आहारक काययोग व आहारकमिश्र काययोग ) अशाश्वत है । नारकी का एक दण्डक तथा देवों के तेरह दण्डकों में योग ११ होते हैं जिसमें दस शाश्वत होते हैं तथा एक कार्मण काययोग अशाश्वत है। पृथ्वीकायादि चार स्थावर में ( वायुकाय बाद) ३ योग शाश्वत है । वायुकाय में पांच योग शाश्वत होते हैं । तीन विकलेन्द्रिय में ४ योग होते हैं जिसमें तीन योग शाश्वत और कार्मण काययोग अशाश्वत होता है । तिर्यंच पंचेन्द्रिय में तेरह योग होते हैं जिसमें बारह योग शाश्वत और एक कार्मण काययोग अशाश्वत होता है । मनुष्य में योग १५ होते हैं जिसमें चार योग अशाश्वत ( औदारिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र व कार्मण काययोग ) बाकी ग्यारह योग शाश्वत होते हैं । जिनमें भांगे ८० - असंजोगी ८, दो संजोगी २४, तीन संजोगी ३२, चार संजोगी १६ - सर्व मिलकर भांगे १४३ होते हैं । वचनयोग भाषा का भी व्यवहार होता है । इस प्रकार है । भाषा की अपेक्षा अल्पबहुत्व १ - सबसे न्यून सत्य भाषा बोलने वाले २ – उससे मिश्र भाषा बोलने वाले असंख्यात गुणें । ३ – उससे असत्य भाषा बोलने वाले असंख्यात गुणे । ४ – उससे व्यवहार भाषा बोलने वाले असंख्यात गुणे तथा ५ – उससे अभाषक अनंतगुणे है । अभाषक में एकेन्द्रिय जीव, सिद्ध जीव आदि का समावेश है | भाषा की उत्पत्ति औदारिक, वैक्रिय तथा आहारक शरीर से होती है । वही अनशन श्रेष्ठ हैं जिससे मन अमंगल चिन्तन न करे, योगों के आवश्यक कार्य में क्षति न हो । पांच संवर में अप्रमाद, अकषाय और अयोग संवर प्रत्याख्यान जन्य नहीं Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 93 ) हैं, वे कर्मविलय से सहज निष्पन्न होने वाले है । प्राणातिपात आदि पन्द्रह आस्रव योग आस्रव है । इनके अशुभ योग आस्रवों के प्रत्याख्यान से विरति संवर निष्पन्न होता है । पन्द्रह आस्रव प्रवृत्ति रूप है अतः वे योग आस्रव के भेद है । अशुभ योग को रोकने से योग निरोध नहीं होता है । जब अशुभ योग की निवृत्ति के बाद शुभ योग की भी निवृत्ति हो- - तब अयोग संवर होता है । सम्यक्त्व, देश विरति, सर्व विरति की प्राप्ति के समय शुभयोग, विशुद्धमान लेश्या व अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं । मिश्र काययोगों में आयु का बंध नहीं होता है । आयुर्वन्ध मिश्रगुणस्थान मिश्र काय योग वर्जितेष्वप्रमत्तास्तेष्वेव । अर्थात् आयु का बंध मिश्रगुणस्थान और मिश्रकाययोगों को छोड़कर अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त ही होता है । नोट - मिश्र काययोग - आहारकमिश्र काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियमिश्र काययोग और कार्मण काययोग है । गोम्मटसार में कहा है कि सातवीं नारकी में अपर्याप्त अवस्था में मिश्रकाययोग होने से मनुष्यायु और तिचायु का बंध नहीं होता है । " - गोक० गा० ९२ । टीका अपर्याप्त के दो भेद है-लब्धि अपर्याप्तक और निर्वृत्ति अपर्याप्तक । आहारिकमिश्र काययोग नियम से निवृत्ति अपर्याप्तक अवस्था में है । जब-जब जीव आयु को बाँधता है, तत्प्रायोग्य जघन्य योग के द्वारा ही बांधता है । सूक्ष्म एकेन्द्रियों के योग से बादर एकेन्द्रियों का योग असंख्यातगुणा है । अभयदेवसूरि ने कहा है "शरीरेन्द्रिययोगेषु क्रिया । - भग० श० १७ । उ १ । सू ११ । टीका अर्थात् शरीर, इन्द्रिय और योग में क्रिया होती है। एजनादि यावत् चक्षुपद्मनिपात क्रियाओं को द्रव्य क्रिया कहते हैं । प्रयोग, उपाय, करणीय, समुदान, ऐर्यापथिकी, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व को भाव क्रिया कहते हैं । प्रयोग क्रिया को अक्रिया का एक भेद भी माना है १. गोक० ग्रा० १०५ । टीका Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 94 ) अकिरिया तिविहा पन्नत्ता, तं जहा - पगकिरिया, समुदाणकिरिया, अन्नाण किरिया । अक्रिया के तीन भेद है—प्रयोग क्रिया, समुदान क्रिया और अज्ञान क्रिया । द्रव्य की अपेक्षा जीव तथा अजीव की परिस्पन्दन रूप क्रिया द्रव्य क्रिया है। द्रव्य क्रिया दो प्रकार की होती है - प्रायोगिक व वैस्रसिकी । वह चाहे उपयोगपूर्वक हो या अनुपयोगपूर्वक हो अथवा आंख की पलक झपकने मात्र जितनी हो वे सर्व द्रव्य क्रिया है । जिस क्रिया से कर्म बंध होता हो वह भाव क्रिया है । - ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू १८७ हिंसा में मन, वचन व काययोग की प्रवृत्ति के बिना भी आत्मा के पाप कर्म का बंध होता है - यह कथन समुचित है । क्रिया है । प्रयोग और गति - इसी प्रकार प्रत्याख्यान के अभाव में मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का भी बंध होता है । अप्रतिहन- अप्रत्याख्यात अप्रत्याख्यान भी एक गति का एक भेद कति विहे णं भंते! गतिप्पवाए पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-पओगगती १ ततगती २ बंधणच्छेयगती ३ उववायगती ४ विहायगती ५ । १०८५ । - पण्ण० प० १६ गति प्रपात के पांच भेद है, यथा, १ प्रयोगगति, २ ततगति, ३ बंधन छेदन गति, ४ उपपातगति और ५ विहायोगति । प्रयोगगति के भेद - से कि तं पओगगती ? पओगगती पण्णरसविहा पण्णत्ता, तंजहा - सच्चमणप्पओगगती एवं जहा पओगो भणिओ तहा एसा वि भाणियव्वा जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगति । १०८६ - पण्ण० प १६ प्रयोगगति के पन्द्रह भेद है, यथा - १ सत्यमनप्रयोगगति, २ मृषामन प्रयोगगति, ३ सत्यमृषामन प्रयोगगति, ४ असत्यमृषामनप्रयोगगति, ५-८ – इसी प्रकार वचन प्रयोग के चार भेद है । ९ औदारिकशरीरकाय प्रयोगगति, १० औदारिक- शरीर मिश्रकाय प्रयोगगति, ११ वैक्रिय - शरीरकाय प्रयोगगति, १२ वैक्रियशरीरमिश्रकाय प्रयोगगति, १३ आहारक शरीरकाय प्रयोगगति, १४ आहारक- शरीर मिश्रकाय प्रयोगगति और १५ कार्मणशरीरकाय प्रयोगगति । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 95 ) जीव में कितनी प्रयोगगति जीवाणं भंते ! कतिविहा पओगगति पण्णत्ता ? गोयमा ! पण्णरसविहा पण्णत्ता, तंजहा-सच्चमणप्पओगगति जाव कम्मासरीरकायप्पओगगति । -पण्ण पद १६ । सू १०८७ जीव में पंद्रह प्रकार की प्रयोगगति-यथा-सत्यमनप्रयोगगति यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगति । नारकी यावत् वैमानिकदेव में कितनी प्रयोगगति-- णरइयाणं भंते ! कतिविहा पओगगति पण्णत्ता ? गोयमा ! एक्कारसविहा पण्णत्ता। तंजहा-सच्चमणप्पओगगति, एवं उवउज्जिऊण जस्स जइविहा तस्स ततिविहा भाणितव्वा जाव वेमाणियाणं । १०८८ -पण्ण पद १६ प्रयोगगति-प्रयोग-जीव व्यापार । प्रयोगरूपगति-प्रयोगगति । यहाँ देशान्तर प्राप्ति रूप गति समझनी चाहिए। क्योंकि जीव के द्वारा व्यावृत हुए सत्यमन आदि के पुद्गल अल्प अथवा अधिक देशान्तर तक गमन करते हैं । अस्तु नारकी के प्रयोगगति ग्यारह प्रकार की होती है—यथा-सत्यमनप्रयोगगति यावत् कार्मणकायप्रयोगगति । इसी प्रकार उपयोग-ध्यान देकर जिसके जितनी प्रकार को प्रयोगगति होती है उसके उतनी प्रयोगगति वैमानिकदेव तक कहनी चाहिए। नोट-असुरकुमार से स्तनितकुमार तक नारकी की तरह प्रयोगगति ग्यारह प्रकार की होती है । पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय तक (वायुकाय बाद) तीन प्रयोगगति, वायुकाय में पांच प्रयोगगति, द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय में चार प्रयोगगति, मनुष्य में पन्द्रह प्रयोगगति, तिर्यंच पंचेन्द्रिय में तेरह प्रयोगगति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी वैमानिक देवों में ग्यारह प्रयोगगति होती है। जीव दंडकों में प्रयोगगतिनारकी यावत् वैमानिक देवों में प्रयोगगति जीवाणं भंते ! किं सच्चमणप्पओगगति जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगति ? गोयमा ! जीवा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगगति वि, एवं तं व पुव्ववणिय भाणियव्वं, भंगा तहेव जाव वेमाणियाणं । १०८९ -पण्ण पद १६ सर्व जीव सत्यमनप्रयोगवाले यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगवाले हैं। इसके सम्बन्ध में जैसा पूर्व में कहा है वैसा ही जानना चाहिए। यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 96 ) चार भाषाओं में असत्य और सत्यमृषा भाषा सर्वथा वर्जनीय है तथा सत्य और असत्यामृषा, जो बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण है वह वर्जनीय है । सावद्य सक्रिय, कर्कश, कटुक, निष्ठुर, परुष, आस्नवकरी, छेदनकरी, भेदनकरी, परितापनकरी और भूतोपघातिनी सत्य भाषा भी साद्य है । कर्कश आदि विशेषणयुक्त सत्य भाषा भी सावद्य है । अस्तु निरवद्य सत्य भाषा व व्यवहार भाषा का प्रयोग करे । कहा है - तत्र ये असंसारसमापन्नस्सिद्धा, सिद्धाश्च देहमनोवृत्त्यभावतोऽक्रिया । × × × तत्र ये शैलेशीप्रतिपन्न कास्ते सूक्ष्मबादरकायवाङ्मनोयोग निरोधादक्रिया । - पण० पद २२ । सु १५७३ | टीका योग के निरोध होने पर जीव अक्रिय होता है । असंसार समापनक सिद्ध जीव देह, मन आदि वृत्ति के अभाव में अक्रिय होते हैं । शैलेशीत्व को प्राप्त संसारसमापनक जीव सूक्ष्म बादर काय - वचन मन योग का निरोध होने से अक्रिय होते हैं । नोट - अयोगी गुणस्थान — चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त जीव शैलेशी हो जाते हैं । अभयदेव सूरि ने अंतक्रिया को 'योगनिरोधाभिधान शुक्लध्यानेन' 'सकल कर्मक्षयरूपा ' कहा है । - भग० श ३ । उ ३ । सु ११ । टीका अस्तु श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के पुस्तकाध्यक्षों तथा जैन भवन के पुस्तकाध्यक्षों के हम बड़े आभारी हैं जिन्होंने हमारे सम्पादन के कार्य में प्रयुक्त अधिकांश पुस्तकें हमें देकर पूर्ण सहयोग दिया । गणाधिपति गुरुदेव आचार्य श्री तुलसी तथा आचार्य श्री महाप्रज्ञ की महान् दृष्टि हमारे पर रही है जिसे हम भूल नहीं सकते । गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी ने प्रस्तुत कोश पर आशीर्वाद लिखा- हम उनके प्रति कृतज्ञ है । कलकत्ता युनिवर्सिटी के भाषा विज्ञान के प्राध्यापक डा० सत्यरंजन बनर्जी को हम सदैव याद रखेंगे जिन्होंने हमारे अनुरोध पर योग कोश पर भूमिका लिखी । हम जैन दर्शन समिति के सभापति श्री गुलाबमल भण्डारी, मंत्री श्री पद्मकुमार रायजादा, स्व० जबरमलजी भण्डारी, स्व० मोहनलालजी बांठिया, श्री अभयसिंह सुराना, श्री हीरालाल सुराना, श्री नवरतनमल सुराना, श्री मांगीलाल लूणिया, श्री इन्द्रमल भण्डारी, श्री मोहनलालजी बैद, श्री केवलचंद नाहटा आदि सभी बन्धुओं को धन्यवाद देते हैं जिन्होंने हमारे विषय कोश निर्माण की कल्पना में हमें किसी न किसी रूप में सहयोग दिया । पात्र हैं जिन्होंने इस पुस्तक का मेहता प्रेस तथा उनके कर्मचारी भी धन्यवाद सुन्दर मुद्रण किया है । श्रीचन्द चोरड़िया, न्याय तीर्थ (द्वय ) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची विषय संकलन - सम्पादन में प्रयुक्त ग्रन्थों की संकेत - सूची मूल वर्गों के उपविभाजन का उदाहरण जैन वाङ्मय का दशमलव वर्गीकरण जीव परिणाम का वर्गीकरण आशीर्वचन भूमिका दो शब्द प्रकाशकीय प्रस्तावना १ से ४ सयोगी जीव • १ सयोगी जीव और ज्ञान • १२ मनोयोगी और ज्ञान • ३ वचनयोगी और ज्ञान •४ काययोगी और ज्ञान ४ अयोगी और ज्ञान •५ अयोगी और ज्ञान • ५ योग और उपयोग • ६ योग और केवल ज्ञान ७ योग और दर्शन ८ योग और जीव समास पृष्ठ 4 7 8 11 12 13 15 17 19 १ ९ आहारक - आहारक - मिश्रकाययोग और मनः पर्यवज्ञान १० योग और मनः पर्ववज्ञान • ११ शुभ योग भी विविध ज्ञान की समुत्पत्ति में कारण • १२ शुभ योग से अवधि ज्ञान • १३ शुभ योग से अवधि ज्ञान ४ १४ शुभ-अशुभ योगी देव का शुभ-अशुभ योगी देव-देवी को जानना - देखना ४ २१ अनुत्तरोपातिक देव और मनोद्रव्य पुद्गलों का ग्रहण ५ • ३ सयोगी जीव और बोधि ५ • ४ १ सयोगी जीव और काल की अपेक्षा सप्रदेश - अप्रदेश • २ अजोगी जहा अलेस्सा • ५ सयोगी जीव और ज्ञानावरणीयादि कर्म का बंध ६ सयोगी जीव और त्रिविध बंध २ २ ३ ३ ३ ४ ७ ७ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 98 ) विषय "७ सयोगी जीव और जन्म-मरण '८ योगस्थान की प्ररूपणा ८.१ प्ररूपणा अनुयोग .२ योगस्थान का प्रमाण ३ योग के अल्पबहुत्व के भेद '४ जीव समास के आश्रय से योग विभाग प्रतिच्छेद का स्वस्थान अल्पबहुत्व १० .५ जीव समास के आश्रय से सर्व परस्थान योगों का अल्पबहुत्व जघन्य योग स्थान की अपेक्षा उपपाद, एकांतानुवृद्धि तथा परिणाम योग स्थान का अल्पबहुत्व .६ अल्पबहुत्व-उत्कृष्ट '७ जीव समास के आश्रय से योग का परस्थान अल्पबहुत्व -९ योग और लेश्या .१० योग और गुणस्थान •४ कार्मणकाययोग और गुणस्थान .६ आहारककाययोग और गुणस्थान '७ आहारकमिश्रकाययोग और गुणस्थान '८ सयोगी गुणस्थान में दो जीव समास .९ आहारककाययोग और जीव समास .१० आहारकमिश्रकाययोग और जीव समास ११ मनोयोग-वचनयोग और गुणस्थान .१२ काययोग और गुणस्थान .१५ वैक्रियकाययोग और गुणस्थान .१७ योग और गुणस्थान की अपेक्षा पर्याप्त-अपर्याप्त '१८ सयोगी केवली के प्रथम समय में चार कर्मों का अवसान १९ सयोगी और जीव समास '२ योग और पर्याप्त-अपर्याप्त •४ कामंणकाययोग और जीव समास •५ वैक्रियकाययोग और जीव समास .६ वैक्रियमिश्रकाययोग और जीव समास ७ योग और जीव भेद १२ सयोगी और पर्याप्त-अपर्याप्त अवस्था .१ योग और पर्याप्त-अपर्याप्त अवस्था '२ सयोगी केवली के अपर्याप्त अवस्था भी होती है .१३ सयोगी जीव और द्रव्य •१४ सयोगी जीव और योग द्रव्य का ग्रहण »9xurU roorrrrrrrrrrrrrr m mrar mmm m mar r mr our or mr m m mr m "." - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 99 ) पृष्ठ سم الله له سه ४० ४१ ४१ विषय .१५ जीव और अधिकरण योग '२ सयोगी जीव और अधिकरणी या अधिकरण .१६ सयोगी जीव और योग प्राप्त करने की विधि ३७ जघन्य योग से उत्कृष्ट योग प्राप्त करने की विधि '१७ सयोगी जीव और उत्पत्ति १८ योग और कर्मबंध २ सयोगीनारकी तथा अध्यवसाय-योग-करण से आयुष्य बंध '१९ सयोगी जीव और कर्म का प्रारम्भ और अंत '२० सयोगी नारकी और कम वेदन का प्रारम्भ और समाप्ति '३ सयोगी जीव और ज्ञानावरणीयकर्म के वेदन का प्रारम्भ और समाप्त सयोगी जीव और दर्शनावरणीय वेदन का प्रारम्भ और समाप्त सयोगी जीव और वेदनीयकर्म का प्रारम्भ और समाप्त ४१ सयोगी जीव और मोहनीयकर्म का प्रारम्भ और समाप्त सयोगी जीव और आयुष्यकर्म का प्रारम्भ और समाप्त सयोगी जीव और नामकर्म का प्रारम्भ और समाप्त सयोगी जीव और गोत्रकर्म का प्रारम्भ और समाप्त सयोगी जीव और अंतरायकर्म का प्रारम्भ और समाप्त •४ सयोगी अनंतरोपपन्नक नारकी और पाप कर्म का योग '५ सयोगी परंपरोपपन्नक नारको और पाप कर्म का वेदन .२० सयोगी जीव और अणाहारिक २ कार्मण काययोगी और अनाहारक '५ कार्मण काययोगी अनाहारक होते हैं '५ सयोगी जीव और आहारादि .६ अयोगी जीव अनाहारक होते हैं '२१ सयोगी जीव और आत्मा की अभिन्नता •२२ सयोगी जीव की संख्या '१ औदारिक काययोग की संख्या •२ औदारिकमिश्र काययोग की संख्या '३ कार्मण काययोग की संख्या .२२ योग की संख्या ४५ आहारककाययोग की संख्या आहारकमिश्रकाययोग की संख्या .२३ अयोगी जीव कौन होते हैं '२४ एक काल में एक योग ·२ वैक्रिय योग क्रिया तथा आहारक योग क्रिया युगपत् नहीं होती है ४६ م ل ४२ به س س > * * * * ४५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ا م و و م م م »»»»xxxxxxxxxxxxxx س س س ا ( 100 ) विषय पृष्ठ •२४ औदारिक व औदारिकमिश्र काययोग किसके होता है ४७ •२५ जीव सयोगी भी होते हैं व अयोगी भी ४७ '२ सयोगी जीव के भेद '२६ सयोगी जीव का योग की अपेक्षा उत्पत्ति मरण .१ योग की अपेक्षा दंडक में उत्पत्ति-मरण के नियम .२८ सयोगी जीव और आरम्भ, परारंभ, उभयारम्भ व अनारम्भ "२९ सयोगी जीव और कषाय '२९ सयोगी नारकी में कषायोपयोग के विकल्प २ सयोगी ( काय योगी) पृथ्वीकायिक में कषायोपयोग के विकल्प '३ सयोगी ( काययोगी) अप्कायिक में कषायोपयोग के विकल्प । '४ सयोगी (काययोगी) अग्निकायिक में कषायोपयोग के विकल्प "५ सयोगी ( काययोगी) वायुकायिक में कषायोपयोग के विकल्प .६ सयोगी ( काययोगी) वनस्पतिकायिक में कषायोपयोग के विकल्प '७ सयोगी द्वीन्द्रिय (काय योगी-वचन योगी) के कषायोपयोग के विकल्प ५२ .५ सयोगी त्रीन्द्रिय में कषायोपयोग के विकल्प .९ सयोगी चतुरिन्द्रिय में कषायोपयोग के विकल्प १० सयोगी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में कषायोपयोग के विकल्प .११ सयोगी मनुष्य में कषायोपयोग के विकल्प .१२ सयोगी भवनपति देव में कषायोपयोग के विकल्प .१३ सयोगी वाणव्यन्तर देव में कषायोपयोग के विकल्प .१४ सयोगी ज्योतिषी देव में कषायोपयोग के विकल्प १५ सयोगी वैमानिक देव में कषायोपयोग के विकल्प •३० सयोगी और समुदघात .१ सयोगी केवलौ और समुद्घात '२ केवली समुद्घात के बाद योग की प्रवृत्ति '३ योग निरोध और सिद्धि .०६ मनोयोगी और वचनयोगी का समुद्घात क्षेत्र '७ काययोगी का समुद्घात क्षेत्र ..६ औदारिककाययोगी का समुद्घात क्षेत्र '०७ वैक्रियकाययोगी का समुद्घात क्षेत्र .०८ वैक्रियमिश्रकाययोगी का समुद्घात क्षेत्र ..९ आहारककाययोगी का समुद्घात क्षेत्र १० आहारकमिश्रकाययोगी का समुद्घात क्षेत्र .११ कार्मणकाययोगी का समुद्घात क्षेत्र •३१ सयोगी जीवों का विभाग لم له له سه س ه » xx9 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ( 101 ) विषय .१ सयोगी औधिक जीवों का विमाग '२ सयोगी नारकी जीवों का विभाग ३ सयोगी भवनवासियों का विभाग '४ सयोगी एकेन्द्रिय का विभाग सयोगी पृथ्वीकायिक का विभाग सयोगी अप्कायिक का विभाग सयोगी तेउकायिक का विभाग सयोगी वायुकायिक का विभाग सयोगी बनस्पतिकायिक का विभाग "५ सयोगी द्वीन्द्रिय का विभाग .६ सयोगी त्रीन्द्रिय का विभाग '७ सयोगी चतुरिन्द्रिय का विभाग '८ सयोगी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का विभाग ९ सयोमी मनुष्य का विभाग ( एकक भंग) '२ सयोगी मनुष्य के विभाग ( युग्म भंग) '३ सयोगी मनुष्य के विभाग (त्रिक भंग) "४ सयोगी मनुष्य के विभाग (चतुः संयोगी) .१० वाणव्यंतर देवों में विभाग से प्रयोग .११ ज्योतिषौ देवों में विभाग से प्रयोग .१२ वैमानिक देवों में विभाग से प्रयोग •३२ सयोगी जीव और नियमा भजना .१ मनोयोगी और वचनयोमी जीव की नियमा भजना '२ काययोगी जीव की नियमा भजना "३ औदारिक काययोगी जीव की नियमा भजना .४ औदारिकमिश्र काययोगी जीव की नियमा भजना "५ वैक्रिय काययोगो जीव की नियमा भजना ९ कार्मण काययोमी जीव की नियमा भजना "६ वैक्रियमिश्र काययोगी जीच की नियमा भजना '७ आहारक काययोगी जीव की नियमा भजना ८ आहारकमिश्र काययोगी जीव की नियमा भजना '३३ सयोगी जीव और समवसरण •३ सयोगी नारकी और समवसरण .४ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देव और समवसरण '५ सयोगी पृथ्वीकायिक जीव और समवसरण .६ से १२ सयोगी अप्कायिक पावत् चतुरिन्द्रिय जीव और समवसरण ९४ cxc ९ २५ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 102 ) विषय .१३ सयोगी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव और समवसरण .१४ सयोगी मनुष्य और समवसरण १५ अयोगी मनुष्य और समवसरण '१६ सयोगी वाणव्यंतर देव और समवसरण .१७ सयोगी ज्योतिषी देव और समवसरण '१८ सयोगी वैमानिक देव और समवसरण -१९ क्रियावादी सयोगी जीव का आयुष्यबंध-समवसरण की अपेक्षा से .२० अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी सयोगी जीव और आयुष्यबंध समवसरण की अपेक्षा से '२१ अयोगी क्रियावादी जीव का समवसरण की अपेक्षा से आयुष्यबंध •२२ सयोगी नारकी और अक्रियावादी की अपेक्षा आयुष्यबंध २३ सयोगी नारकी और अज्ञानवादी की अपेक्षा आयुष्यबंध '२४ सयोगी नारकी और विनयवादी की अपेक्षा आयुष्यबंध '२५ सयोगी नारकी और क्रियावादी की अपेक्षा आयुष्यबंध २६ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार और क्रियावादी की अपेक्षा आयुष्यबंध '२७ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार और अक्रियावादी की अपेक्षा आयुष्यबंध •२८ सयोगी पृथ्वीकायिक और समवसरण की अपेक्षा आयुष्यबंध .२९ सयोगी अपकायिक जीव और समवसरण की अपेक्षा आयुष्यबंध '३० सयोगी वनस्पतिकायिक जीव और समवसरण की अपेक्षा आयुष्यबंध ९९ '३१ सयोगी अग्निकायिक जीव और समवसरण में आयुष्यबंध '३२ सयोगी वायुकायिक जीव और समवसरण में आयुष्यबंध '३३ सयोगी द्वीन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय और समवसरण में आयुष्यबंध १०० '३४ सयोगी क्रियावादी पंचेन्द्रियतिथंच और आयुष्यबंध '३५ सयोगी अक्रियावादी पंचेन्द्रियतिथंच और आयुष्यबंध १०० '३६ सयोगी अज्ञानवादी पंचेन्द्रियतिर्यंच और आयुष्यबंध १०० ३७ सयोगी विनयवादी पंचेन्द्रियतिर्यंच और आयुष्यबंध '३८ सयोगी मनुष्य क्रियावादी और आयुष्यबंध '३९ सयोगी मनुष्य अक्रियावादी और आयुष्यबंध १०१ •४० सयोगी मनुष्य विनयवादी और आयुष्यबंध •४१ सयोगी मनुष्य अज्ञानवादी और आयुष्यबंध •४२ अयोगी क्रियावादी मनुष्य और आयुष्यबंध १०१ .४३ सयोगी क्रियावादी वाणव्यंतर यावत् वैमानिकदेव और आयुष्यबंध १०१ .४४ सयोगी अक्रियावादी वाणव्यंतर यावत् वैमानिकदेव और आयुष्यबंध १०१ ० ० ० ० ० ० १०१ ० Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 103 ) पृष्ठ .२ १०२ १०३ विषय •४५ सयोगी जीव का समवसरण और भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक •४६ अयोगी क्रियावादी और भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक "४७ सयोगी नारकी और समवसरण की अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक •४८ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार और समवसरण की अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक •४९ सयोगी अक्रियावादी पृथ्वीकायिक और भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक सयोगी अज्ञानवादी पृथ्वीकायिक और भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक •५० सयोगी अक्रियावादी अपकायिक यावत् वनस्पतिकायिक व भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक १०३ सयोगी अज्ञानवादी अपकायिक यावत् वनस्पतिकायिक व भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक '५१ सयोगी द्वीन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय अक्रियावादी और भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक १०३ सयोगी द्वीन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय अज्ञानवादी और भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक १०३ •५२ सयोगी तिर्यंचपंचेन्द्रिय और समवसरण की अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक १०३ .५३ सयोगी मनुष्य और समवसरण की अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक १०३ .५४ सयोगी वाणव्यंतरदेव यावत् वैमानिकदेव और समवसरण की अपेक्षा - भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक १०४ .५५ सयोगी अनन्तरोपपन्नक नारकी यावत् वैमानिकदेव और समवसरण १०४ •५६ सयोगी अनन्तरोपपन्नक नारकी और समवसरण की अपेक्षा आयुष्यबंध •५७ सयोगी अनंतरोपपन्नक नारकी और समवसरण की अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक १०५ सयोगी अनंतरोपपन्नक असुरकुमार यावत् वैमानिकदेव और समवसरण की अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक १०५ •५८ सयोगी परंपरोपन्नक नारकी यावत् वैमानिक क्रियावादी आदि सयोगी परंपरोपपन्नक यावत् वैमानिक क्रियावादी आदि और आयुष्यबंध १०५ सयोगी परंपरोपपन्नक यावत् वैमानिक क्रियावादी और भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक १०५ .५९ अनंतरावगाढ़ सयोगी नारकी आदि दंडक और समवसरण •६० परंपरावगाढ़ सयोगी नारकी आदि दंडक और समवसरण १०४ xxxxr Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 104 ) पृष्ठ ०६ - १०६ १०६ ० ~ १०६ ० ~ १०७ १०७ १०७ १०७ ० ~ १०८ ० - ० ~ १०९ . ~ विषय .६१ अनंतराहारक सयोगी नारकी आदि दंडक और समवसरण •६२ परंपराहारक सयोगी नारकी आदि दंडक और समवसरण .६३ अनंतरपर्याप्तक सयोगी नारकी आदि दंडक और समवसरण .६४ परम्परपर्याप्तक सयोगी नारकी आदि दंडक और समवसरण '६५ चरम सयोगी नारकी आदि दंडक और समवसरण .६६ अचरम सयोगी नारकी आदि दंडक और समवसरण .३४ सयोगी जीव और अल्पबहुत्व '२ जीव समास के आश्रय से योग का अल्पबहुत्व .१ सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के अल्पतम योग •०२ बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातमुगुण .०३ द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण .०४ श्रीन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण .०५ चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्याततुण .०६ असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण .०७ संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण .०८ सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण '०९ बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण '१० सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण ११ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण '१२ सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण १३ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण १४ द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण .१५ त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण '१६ चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण .१७ असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण .१८ संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योम असंख्यातगुण १९ द्वीन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण २० त्रीन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण .२१ चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण “२२ असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुणा '२३ संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण '२४ द्वीन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योम असंख्यातगुण '२५ त्रीन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण "२६ चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातमुण .२७ असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण ११० ~ w ११० w - W १११ ~ ११२ ११२ ११२ ११२ ११४ ११४ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 105 ) पृष्ठ ११५ १२. १२३ १२३ १२३ १२३ १२३ १२६ १२७ १२८ १२८ विषय •२८ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण •२९ उपयुक्त असंख्यातगुण प्रमाण '३० सयोगी जीवों का अल्पबहुत्व '३१ सयोगी जीव और अल्पबहुत्व '३२ सयोगी जीवों का अल्पबहुत्व •३४ सयोगी और अल्पबहुत्व '३६ काययोग का अल्पबहुत्व -३७ पन्द्रह योगों का अल्पबहुत्व '०१ पंचमनोयोगी तथा पंचवचन योगी का अल्पबहुत्व •०२ काययोगी का अल्पबहुत्व .०३ औदारिक काययोगी का अल्पबहुत्व •०४ औदारिकमिश्र काययोगी का अल्पबहुत्व .०५ वैक्रियकाययोगी का अल्पबहुत्व •०६ वैक्रियमिश्र-काययोगी का अल्पबहुत्व '०७ आहारक-काययोगी का अल्पबहुत्व .०८ आहारकमिश्र-काययोगी का अल्पबहत्त्व .०९ कार्मण काययोगी का अल्पबहुत्व •१० सयोगी जीवों का अल्पबहुत्व .११ योग स्थान का अल्पबहुत्व .११ करण-कृति की अपेक्षा यौगिक जीवों का परस्थान अल्पबहुत्व '३५ सयोगी जीवों का लोक-क्षेत्र में अवस्थान .०१ पंच मनोयोगी तथा पंच वचनयोगी का अवस्थान .०२ काययोगी का अवस्थान •०३ औदारिक काययोगी का अवस्थान '०४ औदारिकमिश्र काययोगी का अवस्थान •०५ वैक्रियकाययोगी का अवस्थान .०६ वैक्रियमिश्र-काययोगी का अवस्थान .०७ आहारककाययोगी तथा आहारकमिश्र-काययोगी का अवस्थान .०८ कार्मण काययोगी का अवस्थान •३६ सयोगी जीवों की क्षेत्र-स्पर्शना .०१ पंचमनोयोगी तथा पंचवचनयोगी की क्षेत्र स्पर्शना •०२ काययोगी की क्षेत्र स्पर्शना .०३ औदारिक-काययोगी की क्षेत्र स्पर्शना •०४ औदारिकमिश्र काययोगी की क्षेत्र स्पर्शना .०५ वैक्रियकाययोगी की क्षेत्र स्पर्शना १३० ० ० १४२ १४४ १४५ १४६ १४६ १४७ ० ० KK 4 4.. GG १५८ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १६१ १६२ १६४ १६६ or or ur 9 9 १७२ 9 १७३ १७३ ( 106 ) विषय •०६ वैक्रियमिश्र काययोगी की क्षेत्र स्पर्शना '०७ आहारक काययोगी तथा आहारकमिश्र काययोगी की क्षेत्र-स्पर्शना .०८ कार्मण काययोगी की क्षेत्र-स्पर्शना '३७ सयोगी जीव का क्षेत्र-स्पर्श '०१ मनोयोगी और वचनयोगी का क्षेत्र-स्पर्श '०२ काययोगी का क्षेत्र स्पर्श '०४ औदारिकमिश्र काययोगी का क्षेत्र स्पर्श .०३ औदारिक काययोगी का क्षेत्र स्पर्श .०५ वैक्रिय काययोगी का क्षेत्र स्पर्श .०६ वैक्रियमिश्र काययोगी का क्षेत्र स्पर्श .०७ आहारक काययोगी का क्षेत्र स्पर्श -०८ आहारकमिश्र काययोगी का क्षेत्र स्पर्श '०९ कार्मण काययोगी का क्षेत्र स्पर्श •३८ सयोगी जीव कितने क्षेत्र में '०१ मनोयोगी और वचनयोगी कितने क्षेत्र में '०२ काययोगी कितने क्षेत्र में '०४ औदारिकमिश्र काययोगी कितने क्षेत्र में .०३ औदारिककाय योगी कितने क्षेत्र में .०५ वैक्रिय काययोगी कितने क्षेत्र में •०६ बैक्रियमिश्रकाययोगी कितने क्षेत्र में .०७ आहारक-काययोगी कितने क्षेत्र में .०८ आहारकमिश्रकाययोगी कितने क्षेत्र में -०९ कार्मणकाययोगी कितने क्षेत्र में •३९ सयोगी जीवों की कालस्थिति '०१ पंच मनोयोगी-पंच वचनयोगी की कालस्थिति .०२ काययोगीजीवों की कालस्थति .०३ औदारिककाययोगी जीवो की काल स्थिति •०४ औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों की कालस्थिति .०५ वैक्रियकाययोगी जीवों की कालस्थिति .०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी जीवों की कालरथिति '०७ आहारककाययोगी जीवों की काल स्थिति .०८ आहारकमिश्रकाययोगी जीवों की कालस्थिति .०९ कार्मणकाययोगी जीवों की कालस्थिति योग की स्थिति १७४ १७४ १७५ 9 १७७ १७८ १७९ १७९ १८० १८० १८७ १८९ १९० १९९ २०३ २०५ २०७ २१० Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ( 107 ) योग की कालस्थिति औदारिककाययोग की कालस्थिति औदारि मिश्रकाययोग की कालस्थति कार्मणका योग की कालस्थिति ४० सयोगिजीव की सयोगीत्व की अपेक्षा स्थिति • ० १ मनोयोगी और वचनयोगी की काल स्थिति ०२ काययोगी की कालस्थिति ०३ औदारिककाययोगी की कालस्थिति ०४ औदारिकमिश्रकाययोगी की कालस्थिति *०५ वैक्रियकाययोगी की कालस्थिति ९०६ कार्मणकाययोगी की कालस्थिति *०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी की कालस्थिति ०७ आहारककाययोगी की कालस्थिति *०८ आहारकमिश्रकाययोगी की कालस्थिति ४१ योगी और कालप्ररूपणा ०१ मनोयोगी और वचनयोगी की कालस्थिति .०२ काययोगी की कालस्थिति ०३ औदारिककाययोगी और कालस्थिति ०४ औदारिक मिश्रकाययोगी और कालस्थिति ०५ वैक्रियकाययोगी और कालस्थिति ०७ आहारककाययोगी और कालस्थिति ९०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी और कालस्थिति *०८ आहारकमिश्रकाययोगी और कालस्थिति ०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी और कालस्थिति .०८ आहारकमिश्रकाययोगी और कालस्थिति १. ९ कार्मणकाययोगी और कालस्थिति काययोग की स्थिति •३ औदारिककाययोग की स्थिति ४ औदारिकमिश्रकाययोग की स्थिति ९ कार्मणकाययोग की स्थिति काययोग की स्थिति पृष्ठ २११ २११ २११ २११ २११ २११ २११ २११ २११ २११ २११ २१२ २१३ २१४ २१५ २१५ २१६ २१७ -२१८ २१८ २१८ २१९ -२१९ २१९ २१९ २२० २२१ १० अयोगी जीव में • ११ कालानुगमती से संचित योगो जीवों की कालस्थिति २२२ • १२ करणकृति अनुगम में कालानुगम से संचित जीव की कृतिरूपस्थिति २२३. योग की स्थिति २२६ २२१ २२१ २२१ २२१ २२१ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 108 ) पृष्ठ २२६ २२६ २२६ or uru २२८ २२९ २२९ २३० س س س س س विषय '४२ सयोगी जीव का सयोगी की अपेक्षा अन्तरकाल '०१ पंचमनोयोगी तथा पंच वचन योगी में काल का अंतर -०२ काययोगी में काल का अंतर .०३ औदारिककाय योगी में काल का अंतर •०४ औदारिकमिश्र काययोगी का काल का अंतर •.५ वैक्रियकाययोगी का काल का अन्तर '०९ कार्मणकाययोगी का काल का अन्तर '०१ मनोयोगी और वचनयोगी का अन्तरकाल .०२ काययोगी का अन्तरकाल .०३ औदारिककाययोगी का अन्तरकाल •०४ औदारिकमिश्रकाययोगी का अन्तरकाल .०५ वैक्रियकाययोगी का अन्तरकाल .०९ कार्मणकाययोगी का अन्तरकाल -०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी का काल का अन्तर '०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी का अन्तरकाल .०७ आहारककाययोगी का काल का अन्तर '०८ आहारकमिश्रकाययोगी का काल का अन्तर .०७ आहारककाययोगी का अन्तरकाल '०८ आहारकमिश्रकाययोगी का अन्तरकाल योग का अन्तरकाल १० अंतरानुगम से संचित योगी जीवों का अन्तरकाल •४३ सयोगीजीव और भाव '०१ पंच मनोयोगी तथा पंच वचनयोगी का भाव '.२ काययोगी का भाव ..३ औदारिक काययोगी का भाव ••४ औदारिकमिश्र काययोगी का भाव .०५ वैक्रिय काययोगी का भाव ..६ वैक्रियमिश्र काययोगी का भाव •०७ आहारक काययोगी का भाव ..८ आहारकमिश्र काययोगी का भाक .०९ कामंण काययोगी का भाव .१० सयोगी और भाव '११ भावानुगम से संचित योगी जीवों के भाव .४४ सयोगी जीव का भागाभाग ..१ मनोयोगी और वचनयोगी का भागाभाग २३० २३१ २३१ २३२ س س س س س س س س س س س س २३७ २३८ २३८ २३८ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 109 ) विषय • ०५ वैक्रिय काययोगी का भागाभाग • ०६ वैक्रियमिश्र काययोगी का भागाभाग ०७ आहारक काययोगी का भागाभाग *०८ आहारकमिश्र काययोगी का भागाभाग ०२ काययोगी का भागाभाग ०३ औदारिक काययोगी का भागाभाग ०४ औदारिकमिश्र काययोगी का भागाभाग • ०९ कार्मण काययोगी का भागाभाग • ४५ सयोगी जीवों के भागाभाग रूप द्रव्य प्रमाण • ४ ६ सयोगी जीवों का द्रव्य ( संख्या ) प्रमाण ०१ पाँच मनोयोगी तथा तीन वचनयोगियों का द्रव्य प्रमाण - • ०२ वचनयोगी तथा असत्यमृषा ( अनुभय ) वचनयोगियों का द्रव्य प्रमाण १०१ मनोयोगी और वचनयोगी का द्रव्य प्रमाण ९०२ वचनयोगी और असत्यमृषा वचनयोगी का द्रव्य प्रमाण .०३ काययोगी तथा औदारिक काययोगी का द्रव्य प्रमाण ०४ औदारिकमिश्रकाययोगी का द्रव्य प्रमाण *०८ कार्मणका योगी का द्रव्य प्रमाण • ०२ काययोगी का द्रव्य प्रमाण - ०३ औदारिक काययोगी तथा औदारिकमिश्र काययोगी का द्रव्य प्रमाण ०९ कार्मण काययोगी का द्रव्य प्रमाण काययोगी जीव की संख्या कार्मण काययोगी की संख्या औदारिकमिश्र काययोग की संख्या औदारिक काययोग की संख्या *०५ वैक्रियकाययोगी का द्रव्य प्रमाण ०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी का द्रव्य प्रमाण ०५ वैक्रिय काययोगी का द्रव्य प्रमाण • ०६ वैक्रियमिश्र काययोगी का द्रव्य प्रमाण ९०७ आहारक तथा आहारकमिव काययोगी का द्रव्य प्रमाण १०७ आहारक काययोगी का द्रव्य प्रमाण ०८ आहारकमिश्र काययोगी का द्रव्य प्रमाण *४७ योग और कर्म बंधन *४८ योगी और बंधकस्व पृष्ठ २३८ २३८ २३८ २३८ २३९ २३९ २४० २४० २४० २४५ २४५ २४८ २५२ २५२ २५४ २५५ २५७ २५८ २५८ २५८ २६० २६० २६० २६० २६० २६२ २६३ २६३ २६४ २६५ २६५ २६६ २७० Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २७१ २७२ २७२ २७२ २७२ २७२ २७३ २७३ २७४ २७९ سر U ( 110 ) विषय •४८.१ आयुषकर्म के बंधन के समय जघन्य योग होता है '४९ योग और कृत-नोकृति, अवक्तव्यकृति .२ प्रथम-अप्रथम अपेक्षा योगीजीव और कृति औदारिक काययोगी औदारिकमिश्र काययोगी कार्मण काययोगी '३ चरम-अचरमानुगम की अपेक्षा योगी जीव और कृति ४ संचयानुगम में द्रव्यानुगम की अपेक्षा योगी-जीव और कृति .५ संचयानुगम-सत्परुपणा की अपेक्षा योगी जीव और कृति । '६ करणानुगम से संचित योगी जीवों में करणकृति •७ करणकृति अनुगम में स्पर्शानुगम में क्षेत्रानुगम से कृतियुक्त संचित जीव '८ अंतरानुगम से करण कृति की अपेक्षा योग '०९ भावानुगम से करण कृति की अपेक्षा योग .१० करणानुगम में संचित योगी जीवों की संघातनादि कृति युक्त कितने क्षेत्र में अवस्थिति .११ करणानुगम में संचित योगी जीवों की संघातनकृति आदि कृति करते हुए कितनी संख्या •४९ उपपातयोग-परिणामयोग-एकान्तानुवृद्धियोग •५० समय व संख्या की अपेक्षा सयोगी जीव की उत्पत्ति-मरण अवस्थिति१ नरक पृथ्वियों में ३ देवावासों में •५१ सयोगी जीव और अल्पकर्मतर-बहुकर्मतर .५२ सयोगी जीव और अल्पऋद्धि-महाऋद्धि .५३ सयोगी क्षुद्रयुग्म जीव '५३.१ सयोगी क्षुद्रयुग्म नारकी का उपपात - .५ ३.५ कृष्णलेशी क्षुद्रकृत युग्म प्रमाण राशि का योग रूप व्यापार से उपपात तथा परभव के आयुष्य का बंधन .५३.६ क्षुद्रव्योज राशि प्रमाण कृष्ण लेशीवाले नारकी का उपपात व परभव का आयुष्य बंध .५३.७ कृष्णलेशी क्षुद्रद्वापर राशि प्रमाण नारकी व उपपात क - परभव के आयुष्य का बंध .५३.८ कृष्णलेशी क्षुद्रकल्योज राशि प्रमाण नारकी का उपपात तथा परभव के आयुष्य का बंधन .. २८१ २८२ २८६ २८६ २९३ २९९ २९९ २९९ ३०० ३०१ ३०२ ३०२ .३०२ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ M ३०२ r ३०३ ३०३ ३०३ ३०३ ३०३ ३०४ ३०४ ( 111 ) विषय. .५३.९ नीललेशी नारकी का उपपात तथा परभव के आयुष्य का बंध आत्मप्रयोग ( जोग रुप व्यापार ) से होता है .५३.१० कापोतलेशी क्षुद्र कृत युग्म नारकी का उपपात-आत्म प्रयोग से तथा अध्यवसाय-योग-करण से आयुष्य बंध .५३ ११ क्षुद्रकृत युग्म राशि नारकी के योग से परभव का आयुष्य बंध त्र्योज युग्म राशि नारकी के योग से परभव का आयुष्य बंध द्वापर युग्म राशि नारकी के योग से परभव का आयुष्य बंध काल्योज युग्म राशि नारकी के योग से परभव का आयुष्य बंध •५३.१२ कृष्णलेशी भवसिद्धिक क्षुद्रकृत युग्म नारकी के योग से परभव का आयुष्य बंध कृष्णलेशी भवसिद्धक व्योज नारकी के योग से परभव का आयुष्य बंध कृष्णलेशी भवसिद्धिक द्वापर युग्म नारकी के योग से परभव का आयुष्य बंध कृष्णलेशी भवसिद्धिक कल्योज नारकी के योग से परभव का आयुष्य बंध .५३.१ ३ क्षुद्रयुग्मराशिप्रमाणनीललेशी भवसिद्धिक नारकी का योग आदि से परभव का आयुष्य बंध योजयुग्मराशिप्रमाणनीललेशी भवसिद्धिक नारकी का योग आदि से परभव का आयुष्य बंध द्वापरयुग्मराशिप्रमाणनीललेशी भवसिद्धिक नारकी का योग आदि से परभव का आयुष्य बंध कल्योजयुग्मराशिप्रमाणनीललेशी भवसिद्धिक नारकी का योग आदि से परभव का आयुष्य बंध ..३.१३ क्षुद्रयुग्म आदि कापोत लेशी भवसिद्धिक नारकी के योग आदि से परभव का आयुष्य बंध "५३.१४ अभवसिद्धिक कृतयुग्म आदि चार युग्म के आयुष्य बंधन योग आदि से .५३.१५ सम्यग्दृष्टि कृतयुग्म आरि चार युग्म और सयोगी-आयुष्य बंध मिथ्यादृष्टि कृतयुग्म आदि चार युग्म और सयोगी-आयुष्य बंध। "५३.१६ कृष्णपाक्षिक कृतयुग्म आदि के आयुष्य बंध योग आदि से शुक्लपाक्षिक कृतयुग्म आदि के आयुष्य बंध योग आदि से •५३.१७ सयोगी क्षुद्रयुग्म नारकी का उद्वर्तन ___.५४ सयोगी महायुग्म जीव .५४.१ सयोगी महायुग्म एकेन्द्रिय जीव ३०४ ३०४ ३०५ ३०५ س ३०६ ३०७ لله Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 112 ) पृष्ठ ३०७ ३१० ३११ س س ३१५ ३२० ३२१ ३२१ ३२२ विषय सयोगी महायुग्म एकेन्द्रिय जीव .५४.२ सयोगी महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव •५४ ३ सयोगी महायुग्म क्रीन्द्रिय जीव •५४.४ सयोगी महायुग्म चतुरिन्द्रिय जीव .५४.५ सयोगी महायुम्म असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव '५४ ६ सयोगी महायुग्म संजी पंचेन्द्रिय __.५५ सयोगी राशियुग्म जीव .५५.१ योग और कृतयुग्म-राशि .५५ २ सयोगी राशि युग्म जीव .५६ सयोगी जीव और पापकर्म आदि का करना .५६१ सयोगी जीव और पापकर्म आदि का करना “५७ सयोगी जीव और पाप कर्मों का समर्जन-समाचरण .५७१ सयोगी नारकी आदि के दंडक के जीव और पाप कर्मों का समर्जन-समाचरण .५७२ सयोगी जीव और ज्ञानावरणीय कर्म आदि अष्ट कर्म का समर्जन-समाचरण '५७ ३ सयोगी अनंतरोपन्नक नारकी और पापकर्म का समर्जन-समाचरण "३ सयोगी अनंतरोपन्नक नारकी और ज्ञानावरणीय कर्म का बंध सयोगी अनंतरोपन्नक नारकी और दर्शनावरणीय से अंतराय कर्म का बंध '५७ ४ सयोगी परंपरोपपन्नक नारकी और पापकर्म का समजन-समाचरण सयोगी परंपरोपपन्नक नारकी और ज्ञानावरणीय से अंतरायकर्म का समर्जन-समाचरण .५८ सयोगी जीव और कर्म प्रकृति का सत्ता-बंधन-उदय •५९ जीव दंडक और समपद .६० प्रयोग कर्म "१ योग और समवदानकम .२ योग और ईर्यापथकर्म '३ अनाहारक जीवों के प्रयोगकर्म काल .६१ सयोगी जीव और कर्म-बंधन .१ सयोगी जीव और कर्म बंधन '२ सयोगी नारकी और कर्म-बंधन '३ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देव और कर्म-बंधन •४ सयोगी पृथ्वीकायिक, सयोगी अपकायिक, सयोगी अग्नि कायिक और कर्म-बंधन ३२३ ३२३ ३२३ ३२३ ३२४ ३२४ ३२५ ३२६ ३२८ ३२८ AY MAY ३३० س ० س ० ३३१ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ३३१ ( 113 ) विषय .५ सयोगी वायुकायिक, सयोगी वनस्पतिकायिक और कर्म-बंधन । .६ सयोगी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व सयोगी चतुरिन्द्रिय और कर्म-बंधन '७ सयोगी तिर्यंच पंचेन्द्रिय योनिक जीव और कर्म बंधन ८ सयोगी मनुष्य और कर्म-बंधन ९ सयोगी वाणव्यंतरदेव और कर्म-बंधन १० सयोगी ज्योतिषौदेव और कम-बंधन ११ सयोगी वैमानिक देव और कर्म-बंधन १२ सयोगी जीव और ज्ञानावरणीय कर्म का बंध १३ सयोगी जीव और दर्शनावरणीय कर्म का बंध १४ सयोगी जीव और वेदनीयकर्म का बंध सयोगी नारकी जीव यावत् वैमानिकदेव के वेदनीय कम-बंधन .१५ सयोगी जीव और मोहनीय कर्म का बंध १६ सयोगी जीव और आयुष्य कम का बंध १७ सयोगी नारकी और आयुष्य कर्म का बंध सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमारदेव और आयुष्य कर्म का बंध सयोगी पृथ्वीकायिक जीव और आयुष्य बंध १८ सयोगी जीव और अपकायिक जीवों के आयुष्य बंध सयोगी जीव और वनस्पतिकायिक जीवों के आयुष्य बंध सयोगी जीव और अग्निकायिक व वायुकायिक जीवों के आयुष्य बंध .१९ सयोगी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जीव, तियंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य और आयुष्य बंध .२० सयोगी औधिक जीव दंडक और नाम कार्म का बंधन •२१ सयोगी औधिक जीव दंडक और गोत्रकर्म-अंतरायकर्म का बंधन २२ सयोगी अनन्तरोपपन्नक नारकी और कर्म-बंध २३ सयोगी अनंतरोपपत्रक पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीव और पापकर्म का बंध .२४ सयोगी अनंतरोपपन्नक द्वीन्द्रिय जीव आदि तथा पाप कर्म का बंध २५ सयोगी अनंतरोपपन्नक पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीव तथा पापकर्म बंध '२६ सयोगी अनंतरोपपन्नक मनुष्य तथा पापकर्म का बंध '२७ सयोगी अनंतरोपपन्नक वाणव्यंतर-ज्योतिषी-वैमानिक देव तथा पापकर्म का बंध 0 M or Mmm r r m mr mr m mr m m mmmmm rrrrrr m arrrrrr m mm» m r r r m mr Mr m س ३३४ ३३४ ३३४ اس ال ३३५ r mr mm س س س س س سه ३३७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 114 ) mm ३३८ विषय २८ सयोगी अनन्तरोपपन्नक जीव दंडक और ज्ञानावरणीय आदि । सात कर्म-बंधक (आयुष्य छोड़कर ) ३३७ '२९ सयोगी अनंतरोपपन्नक जीव दंडक और आयुष्य कर्म का बंधन '३० सयोगी परंपरोपपन्नक नारकी आदि दंडक और पापकर्म का वंध ३३ सयोगी परंपरोपपन्नक नारकी आदि दंडक और ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्मबंध •३१ सयोगी अनंतरावगाढ़ नारकी आदि दंडक और पापकर्म का बंध ३३९ सयोगी अनंतरावगाढ़ नारकी आदि दंडक और ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का बंध •३२ सयोगी परंपरावगाढ़ नारकी आदि और पापकर्म का बंध सयोगी परंपरावगाढ़ नारकी आदि और ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का बंध •३ ३ सयोगी अनन्तराहारक नारकी आदि दंडक और पापकर्म का बंध ३४० सयोगी अनन्तराहारक नारकी आदि दंडक और ज्ञानावरणीय कर्म यावत् अंतराय कर्म का बंध ३४० '३४ सयोगी परंपराहारक नारकी आदि और पापकर्म का बंध सयोगी परंपराहारक नारकी आदि ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का बंध ३४० '३५ सयोगी अनन्तर पर्याप्तक नारकी आदि दंडक और पापकर्म का बंध ३४० सयोगी अनन्तर पर्याप्तक नारकी आदि दंडक ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का बंध ३४० •३६ सयोगी परम्परपर्याप्तक नारकी आदि और पापकर्म का बंध सयोगी परम्परपर्याप्तक नारकी आदि और ज्ञानावरणीय यावत अंतराय कर्म-बंध '३७ सयोगी चरम नारकी आदि तथा पापकर्म का बंध ३४१ सयोगी चरम नारकी आदि तथा ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का बंध ३४१ '३८ सयोगी अचरम नारकी आदि और पापकर्म का बंध सयोगी अचरम मनुष्य और पापकर्म-बंध सयोगी अचरम वाणव्यंतरदेव तथा पापकर्म का बंध सयोगी अचरम ज्योतिषी देव तथा पापकर्म-बंध सयोगी अचरम वैमानिक देव तथा पापकर्म-बंध ३४२ '३९ सयोगी अचरम नारकी यावत् वैमानिकदेव ( मनुष्य बाद देकर ) तथा ज्ञानावरणीय कर्म का बंध ३४३ m m m WWWW mr m ar Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 115 ) الله الله الله الله ३४५ الله < اسد الله विषय पृष्ठ सयोगी अचरम नारकी यावत् वैमानिकदेव तथा दर्शनावरणीय कर्म का बंध ३४३ सयोगी अचरम नारकी यावत् वैमानिकदेव तथा वेदनीय कर्म का बंध ३४३ सयोगी अचरम मनुष्य तथा ज्ञानावरणीय कर्म-बंध ३४३ सयोगी अचरम मनुष्य तथा दर्शनावरणीय कर्म-बंध ३४३ सयोगी अचरम मनुष्य तथा वेदनीय कर्म-बंध ३४३ सयोगी अचरम नारकी आदि और मोहनीय कर्म का बंध ३४४ ४१ सयोगी अचरम नारकी व आयुष्य कर्म-बंधन ३४४ सयोगी भवनपतिदेव व आयुष्य बंध ३४४ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार भवनपतिदेव व आयुष्य बंध ३४४ सयोगी-काययोगी अचरम पृथ्वीकायिक और आयुष्य बंध ३४४ सयोगी-काययोगी अचरम अप्कायिक और आयुष्य बंध ३४५ सयोगी-काययोगी अचरम वनस्पतिकायिक और आयुष्य बंध सयोगी अचरम अग्निकायिक और आयुष्य बंध सयोगी अचरम वायुकायिक और आयुष्य बंध ३४५ सयोगी अचरम द्वीन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय और आयुष्य बंध ३४५ सयोगी अचरम तिर्यंच पंचेन्द्रिय और आयुष्य बंध ३४५ सयोगी अचरम मनुष्य और आयुष्य बंध सयोगी अचरम वाणव्यंतरदेव व आयुष्य बंध ३४६ सयोगी अचरम ज्योतिषी व वैमानिकदेव और आयुष्य बंध ३४६ '४२ सयोगी अचरम नारकी तथा नामकर्म बंध ३४६ .४३ सयोगी अचरम नारकी तथा गोत्रकर्म बंध ३४६ .४४ सयोगी अचरम नारकी तथा अंतरायकर्म बंध ३४६ सयोगी अचरम असुरकुमार यावत् वैमानिकदेव और नामकर्म-गोत्रअंतराय कर्म का बंध ३४६ •४५ कार्मणकाययोगी जीव आयुष्य नहीं बांधता है ३४६ •४६ आहारकमिश्रकाययोगी जौव आयुष्य नहीं बांधता योग और कर्म बंध ३४७ औदारिकमिश्रकाययोगी जीव और कर्म-बंध ३४७ वैक्रियमिश्रकाययोगी जीव आयुष्य नहीं बांधता •४७ योग और बंध ०४८ वेदनीयकर्म का बंधन तथा योग-लेश्या '४९ योग और लेश्या •५० योगस्थान और प्रकृति बंध और प्रदेश बंध الله ३४५ الله لله س له سه الله س له لم لله بسم الله ان الله لله Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 116 ) विषय पृष्ठ ३५० . ३५२ ३५३ '५१ योग और बंधक-अबंधक परिशिष्ट अध्ययन, गाथा, सूत्र आदि की संकेत सूची संकलन-सम्पादन-अनुसंधान में प्रमुख ग्रन्थों की सूची लेश्या कोश पर विद्वानों की सम्मति क्रिया-कोश पर प्राप्त समीक्षा मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास पर अभिमत वर्धमान जीवनकोश, प्रथम खण्ड पर प्राप्त समीक्षा वर्धमान जीवनकोश, द्वितीय खण्ड पर प्राप्त समीक्षा वर्धमान जीवनकोश, तृतीय खण्ड पर प्राप्त समीक्षा 'योगकोश' प्रथम खण्ड पर प्राप्त समीक्षा "योगकोश पर प्राप्त समीक्षा" ३५४ ३५७ ३५७ ३५८ ३५९ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४:०५ योग-कोश .१ से ४ सयोगी जीव १ सयोगी जीव और ज्ञान १.१ सजोगी णं भंते! जीवा कि णाणी अण्णाणी? जहा सकाइया। ( सकायिक पाठ-सकाइया णं भंते ! जीवा कि णाणी अण्णाणी? गोयमा ! पंच णाणाणि तिणि अण्णाणाइ भयणाए। प्र३८ ) एवं मणजोगी, वइजोगी कायजोगी वि। - भग० श ८ । उ २ । प्र ९४ सयोगी जीव में पांच ज्ञान तथा तीन अज्ञान की भजना होती है। .१.२ मनोयोगी और ज्ञान .१.३ वचन योगी और ज्ञान .१४ काय योगो और ज्ञान १४ अयोगी और ज्ञान इसी प्रकार मनोयोगी जीव में पाँच ज्ञान तथा तीन अज्ञान की भजना है। इसी प्रकार वचन योगी जीव में पांच ज्ञान तथा तीन अज्ञान की भजना है । इसी प्रकार काय योगी जीव में पांच ज्ञान तथा तीन अज्ञान की भजना है। जिस सयोगी जीव के भव की अपेक्षा केवल काय योग होता है उसके मति-श्रुत अज्ञान होता है लेकिन ज्ञान नहीं होता है। जिस सयोगी जीव के भव की अपेक्षा काय योग व वचन योग होता है उसके भी मति श्रुत ज्ञान तथा मति-श्रुत अज्ञान की भजना है। जिस सयोगी जीव के तीनों योग होते हैं उन सयोगी जीव के पांच ज्ञान-तीन अज्ञान की भजना होती है। सयोगी मिथ्या दृष्टि तथा सम्यग-मिथ्या दृष्टि में मति अज्ञान-श्रुत अज्ञान की नियमा है तथा विभंग अज्ञान की भजना है। सयोगी सास्वादान सम्यग् दृष्टि, अव्रत सम्यग् दृष्टि तथा संयतासंयत में मति ज्ञान-श्रुत ज्ञान की नियमा है तथा अवधि ज्ञान की भजना है। सयोगी प्रमत्त संयत से अक्षीण मोहतक मति ज्ञान-श्रुत-ज्ञान की नियमा है तथा अवधि ज्ञान-मनः पर्यव ज्ञान की भजना है। सयोगी केवली व अयोगी केवली में केवल ज्ञान की नियमा है। सिद्ध अयोगी होते हैं - केवल ज्ञान की नियमा है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) - १.५ अयोगी और ज्ञान सजोगी णं भंते! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ? जहा सकाइया, एवं मण जोगी, वइजोगी, कायजोगी वि । अजोगी जहा सिद्धा । भग० श८ । उ२ । सू १७६ अयोगी जीव में नियम से एक केवल ज्ञान होता है । सिद्ध की तरह । नोट - पृथ्वीकायिक से वनस्पतिकायिक जीवों में केवल काय योग होता है । उनमें नियमतः मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान होता हैं । - १.५ योग और उपयोग योगे अयोगे सिद्धय केवलज्ञानदर्शनाख्यो द्वौ । सयोगी अयोगी और सिद्धों में केवल ज्ञान और केवल दर्शन दो उपयोग होते हैं । • १.६ योग और केवल ज्ञान - गोजी० । गा ७०५ । टीका केवल ज्ञान सयोगी में भी होता है, अयोगी में भी होता है । केवलज्ञानं सयोगायोगयोः सिद्ध े च । केवल ज्ञान सयोगी-अयोगी गुणस्थान में व सिद्धों में होता है । . २ सयोगायोगयोदेकं केवलज्ञानमेव - गोजी ० गा ६८८ । टीका सयोगी - अयोगी गुणस्थान में एक केवल ज्ञान होता हैं । • १.७ योग और दर्शन - गोजी० गा ७०३ । टीका सयोगायोगयोः सिद्ध चैकं केवलदर्शनम् । योगी - अयोगी और सिद्धों में एक केवल दर्शन होता है । - गोजी० गा ७०३ । टीका • १.८ योग और जीव समास केवलदर्शनं सयोगायोग गुणस्थानयोः तत्र जीवसमासौ केवलज्ञानोक्तौ द्वौ । — गोजी० मा ६९१ । टीका केवल दर्शन सयोगी - अयोगी गुणस्थानों में होता है । उसमें दो जीवसमास होते हैं जो केवल ज्ञान में होते हैं । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.९ आहारक-आहारक-मिश्रकाययोग और मनः पर्यव ज्ञान मणपज्जवपरिहारो पढमुवसम्मत्त दोण्णि आहारा। एदेसु एक्कपगदे पत्थित्तियसेसयं णाणे। -गोजी० गा ७२९ टीका मनःपर्ययज्ञानं परिहारविशुद्धिसंयमः प्रथमोपशम सम्यक्त्वं आहारकद्विकं च इत्येतेषु मध्ये एकस्मिन् प्रकृते प्रस्तुते अधिकृते सति अवशेष उद्धरितं नास्ति-न संभवतीति जानीहि । मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम, प्रथमोपशम सम्यक्त्व, आहारक, अहारकमिश्रकाययोग - इनमें से एक प्राप्त होने पर उसके साथ शेष सब नहीं होते हैं। सबसे न्यून ज्ञान सूक्ष्म निगोद के अपर्याप्त के प्रथम समय में होता है। .१.१० योग और मनःपर्यवज्ञान इदियणोइदियजोगादि पेक्खित्त उजुमदोहोदि । हिरवेक्खिय विउलमदीओहि वा होदि णियमेण ॥ -गोजी० गा ४४६ टीका-ऋजुमतिमनःपर्यव स्पर्शनादीन्द्रियाणि नोइन्द्रियं मनोवचनकाययोगांश्च स्वपरसम्बन्धिनोऽपैक्ष्यैवोत्पद्यते। विपुलमति मनः पर्ययस्तु अवधिज्ञानमिव ताननपेक्ष्यवोत्पद्यते नियमेन । ऋजु मतिमनः पर्यय अपने और अन्य जीवों के स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ, मन और मन-वचन-काय योगों की अपेक्षा से ही उत्पन्न होता है। और विपुल मति मनः पर्यव अर्थात् अवधि ज्ञान की तरह उनकी अपेक्षा के बिना ही उत्पन्न होता है । .१.११ शुभ योग ( परिणाम ) भी विविध ज्ञानं की समुत्पत्तिमें कारण शुभ योग, ( परिणाम ) शुभ अध्यवसाय, लेश्या-विशुद्धि से जातिस्मरण ज्ञान की समुत्पत्तिः (क) तएणं तव मेहा! लेस्साहि विसुज्झमाणीहि अज्झवसाणेणं सोहणणं सुभेण परिणामेणं तयावरणिज्जाणं कम्माण खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुत्वे जाइसरणे समुप्पज्जित्था। (ख) तएणं तस्स मेहस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमट्ट सोच्चा निसम्म सुभेहिं परिणामेहि पसत्थेहिं अज्झवसाणेहि लेस्साहि विसुज्झ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) माणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणंईहापोहमग्गणवेसणं करेमाणस्स सन्निपुग्वे जाइसरणे समुप्पन्ने । णाय ० श्रु १ । अ १ । अ १ । मू ३२,३३ लेश्या की उत्तरोत्तर विशुद्धता के साथ शुभ योग ( परिणाम ) भी जाति स्मरण ज्ञान की उत्पत्ति में एक आवश्यक अंग है। .१.१२ शुभ योग ( परिणाम ) से अवधि ज्ञान आणंदस्स समणोवासगस्स्स अन्नया कदाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ओहिनाण समुप्पन्ने। -उवा ० अ १ । सू १२ शुभ योग के साथ लेश्या को उत्तरोत्तर विशुद्धि होनी अवधि ज्ञान की प्राप्ति में एक आवश्यक अंग है। नोट-जहाँ लेश्या की उत्तरोत्तर विशुद्धि है वहाँ शुभ अध्यवसाय के साथ शुभ योग का होना आवश्यक है । .१.१३ शुभ योग ( परिणाम ) से अवधि ज्ञान __तस्स णं ( असोच्चा केवलीस्सणं ) भंते ! छट्टछट्ठणं x x x अनया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहि विसुज्झमाणीहिं-विसुज्झ माणोहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जइ । -भग० श ९ । उ ३१ । सू २१ ___ शुभ योग तथा शुभ अध्यवसाय व लेश्या का उत्तरोत्तर विशुद्ध होना विभंग अज्ञान की प्राप्ति में एक आवश्यक अंग है । .१.१४ शुभ-अशुभ योगो देव का शुभ-अशुभ योगी देव-देवी को जानना-देखना अवधि ज्ञानी शुभ योगी देव सम्यग्दृष्टि उपयुक्त-अनुपयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेशी देव, देवी या अन्यतर को जानता है, देखता है। विभंग अज्ञानी शुभ योगी देव मिथ्या दृष्टि उपयुक्त-अनुपयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेशी देव-देवी या अन्यतर को नहीं जानता हैं, नहीं देखता है । •२ सयोगी जीव और मनो-द्रव्य-योग के पुद्गलों का ग्रहण Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२.१ अनुत्तरौपातिक देव और मनोद्रव्य पुद्गलों का ग्रहण (भगवं महावीरे x x x मे गोयमा ।) इओ चुया दो वि तुल्ला एगट्ठा अविसेसमणागत्ता भविस्सामो।x xx जहा णं वयं एयम? जाणामो पासामो तहा अणुतरोववाइयावि देवा एयमट्ठ जाणंति पासंति। से केण?ण जाव पासंति ? गोयमा ! अणुत्तरोववाइयाणं अणंताओ मणोदव्वं वग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमण्णागयाओ। -भ० श १४ । उ ७ । सू १, २ श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने कहा-हे गौतम ! इस भव में मृत्यु के पश्चात् इस शरीर के छ ट जाने पर अपन दोनों तुल्य और एकार्थ विशेषता रहित और किसी प्रकार के भेदभाव रहित हो जावेंगे । हे भगवन् ? जिस प्रकार अपन दोनों पूर्वोक्त भाव से जानते देखते हैं तो क्या अनुत्तरौपातिक देव भी इस अर्थ को इसी प्रकार जानते-देखते हैं । हां गौतम ! क्योंकि अनुत्तरोपपातिक देवों को अवधि ज्ञान की लब्धि से मनोद्रव्य की अनंत वर्गणाएं ज्ञेय रूप से उपलब्ध है, प्राप्त है, अभिसमन्वागत हुई है। नोट-अनुत्तरपौपातिक देव विशिष्ट अवधि ज्ञान के द्वारा मनो द्रव्य ( मनो द्रव्य योग ) वर्गणाओं को जानते-देखते हैं। अयोगी अवस्था में अपन दोनों को निर्वाण गमनका निश्चय करते हैं। '३ सयोगो जीव और बोधि १ सम्यग दर्शन में अनुरक्त, निदान रहित, ( शुभ योग, प्रशस्त अध्यवसाय ) तथा शुक्ल लेश्या में अवगाढ़ होकर जो जीव मरते हैं वे परभव में सुलभ बोधि होते हैं । .२ इसके विपरीत मिथ्या दर्शन में रत, निदान सहित (अशुभ योग, अप्रशस्त अध्यवसाय,) कृष्ण लेश्या में अवगाढ़ होकर जो जीव मरते हैं वे परभव में दुर्लभ बोधि होते हैं। -उत्त० स ३६ । गा २५७, २५८ नोट-जहाँ तेजो-पद्म तथा शुक्ल लेश्या है वहाँ प्रशस्त अध्यवसाय तथा शुभ योग अवश्य होंगे जहाँ कृष्ण लेश्या-नील-कापोत लेश्या है वहाँ प्रशस्त अध्यवसाय हो सकते हैं तथा अशुभ योग अवश्य होंगे। मनुष्य तिर्यंच पंचेन्द्रिय सम्यग दर्शनी जीव शुक्ल लेशी यदि होता तो किसी एक देवलोक का वह वैमानिक देव का छ8 से सर्वार्थ सिद्ध देव का Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) आयुष्य बांधता है । मिथ्य दर्शनी जीव कृष्ण लेशी अशुभ योगी होता तो वह नरकादि चारों गतियों का अशुभ आयुष्य बांधता है । यह ध्यान रहें अशुभ लेश्या अशुभ योग होते हुए भी अध्यवसाय प्रशस्त हो सकते हैं । - ( भग० श २४ ) ४.१ सयोगी जीव और काल की अपेक्षा सप्रदेश- अप्रदेश ·४·१ सजोगी जहा ओहिओ, मणजोगी वयजोगी कायजोगी जीवाइओ तियभंगो, नवरं कायजोगी एगिंदिया, तेसु अभंगयं । ( ओघ पाठ - नियमा सपएसे । प्र १ ) - जीवे णं भंते ! कालादेसेणं किं सपए से अपएसे ? गोयमा ! ४.२ अजोगी जहा अलेस्सा (६३) ( असेहि जीव - सिद्ध हि तियभंगो ) - भग० श ६ । उ ४ । प्र ५, ६३ यहाँ काल की अपेक्षा से जीव सप्रदेश है या अप्रदेश - ऐसी पृच्छा है । काल की अपेक्षा से सप्रदेशी व अप्रदेशी का अर्थ टीकाकार ने एक समयकी स्थिति वाले को अप्रदेशी और द्वयादि समय की स्थिति वाले को सप्रदेशी कहा है । इस सम्बन्ध में उन्होंने एक गाथा भी उद्धृत की है । "जो जस्स पढयसमए वट्टइ भावस्ससो उ अपएसो । अण्णम्मि वट्टमाणो काला सेण सपएसो ॥" सयोगी जीव ( एक वचन ) काल की अपेक्षा से योगी नारकी काल की अपेक्षा से कदाचित् सप्रदेशी होता है, इसी प्रकार यावत् सयोगी वैमानिक देव तक समझना । सयोगी जीव ( एक वचन ) काल की अपेक्षा से सयोगी जीव अनादि काल से सयोगी जीव है । सयोगी समय की अपेक्षा से अप्रदेशी कहलाता है। इसी चाहिए | नियमतः सप्रदेशी होता है | कदाचित् अप्रदेशी होता है । सप्रदेशी होता है । क्योंकि नारकी उत्पन्न होने के प्रथम प्रकार वैमानिक देव तक जानना सयोगी जीव ( बहुवचन ) सर्व सयोगी जीव अनादि काल से विवेचन करने पर काल की अपेक्षा से सप्रदेशी - अप्रदेशी के निम्नलिखित छः भंग होते हैं— काल की अपेक्षा से सयोगी जीव है । नियमतः सप्रदेशी होते हैं क्योंकि दंडक में जीवों का बहुवचन से (१) सर्व सप्रदेशी, अथवा ( २ ) सर्व अप्रदेशी, अथवा (३) एक सप्रदेशी, एक अप्रदेशी, अथवा (४) एक सप्रदेशी, अनेक अप्रदेशी, अथवा (५) अनेक सप्रदेशी. एक अप्रदेशी, अथवा (६) अनेक अप्रदेशी, अनेक सप्रदेशी । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) सयोगी नारकियों यावत् स्तनितकुमारों में तीन भंग होते हैं, यथा- प्रथम, अथवा पंचम, अथवा षष्ठम । सयोगी पृथ्वी कायिकों यावत् वनस्पति कायिकों में छट्टा विकल्प होता है । योगी द्वीन्द्रियों यावत् वैमानिक देवों में प्रथम, अथवा पंचम, अथवा षष्ठम विकल्प होता है । मनोयोगी, वचन योगी और काययोगी में जीवादि तीन भंग (प्रथम, पंचम, षष्ठम ) कहने चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि केन्द्रिय जीव केवल काययोग वाले ही होते हैं । उनमें अभंग कहना चाहिए । अर्थात् उनमें छट्टा विकल्प होता है । अयोगी जीवों का कथन अलेशी जीवों के समान कहना चाहिए । अयोगी ( योग रहित ) जीव और सिद्धों के तीन भंग कहने चाहिए । और अयोगी मनुष्यों में छह भंग भंग कहने चाहिए | एक अयोगी जीव ( मनुष्य ) कदाचित् सप्रदेशी है और कदाचित् अप्रदेशी है । इसी प्रकार एक सिद्ध के विषय में जानना । - ५ सयोगी जीव और ज्ञानावरणीय आदि कार्मका बंध बंधइ ॥ नाणावर णिज्जं णं भंते ! कम्मं कि मणजोगी बंधइ ? जोगी बंधइ ? कायजोगी बंधइ ? अजोगी बंधइ ? गोया ! हेट्ठिल्ला तिष्णि भयणाए, अजोगी न बंधइ ? एवं वेदणिज्जवज्जाओ सत्तवि ? वेदणिज्ज हेट्ठिल्ला बंधति, अजोगी न - भग० श ६ | उ ४ । सू ४७ मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी ज्ञानवरणीय आदि सात कर्म का बंधन भजना से करते हैं लेकिन अजोगी जीव कर्म बंधन नहीं करता है । नोट - बेदनीय कर्म का बंधन तीनों योग वाले नियमतः करते हैं । • ६ सयोगी जीव और विविध बंध - कइविणं भंते ! बंधे पन्नत्ते ? गोयमा तिविहे बंधे पन्नत्ते, तंजहा जीवप्पओगबंधे अनंतरबंध, परंपरबंधे । xxx दंसणमोहणिज्जस्स णं भंते कम्मस्स कइविहेबंधे पन्नत्ते । एवं चेव, निरंतरं जावबेमाणियाणं, x x । एवं एएणं xxx एएस सव्वेसि पयाणं तिविहे बंधे पन्नत्ते सव्र्व्वे एएचउच्चीसं दंडगाभाणियव्वा, नवरं जाणियव्वं जस्सजइ अस्थि । - भग० ग २० उ ७ । सू १,८ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोयोगी, वचन योगी तथा काय योगी का बंध तीन प्रकार का होता है, जैसेजीव प्रयोग बंध, अनंतर बंध व परंपर बंध। मनोयोगी, वचन योगी, काय योगी नारकी का बंध तीन प्रकार का होता है यथा--जीवप्रयोग बंध, अनंतरबंध व परंपर बंध। इसी प्रकार यावत् वैभानिक दंडक तक तीन प्रकार का बंध कहनातथा जिसके जितने योग हो उसके उतने पद कहने। विवेचन :-जीव के प्रयोग से अर्थात् मन, वचन, काया के व्यापार से कर्म पुद्गलों का आत्माओं के साथ संबंध होना जीव प्रयोग बंध कहलाता है। इस बध में योग का निमित्त है। •७ सयोगी जीव और जन्म मरण योग और साधारण वनस्पति का जन्म-मरण एकस्य साधारण जीवस्य कर्मादान शक्ति लक्षणयोगेन गृहीत पुद्गल गलपिण्डोपकारोऽनन्तानन्त साधारण जीवानां तस्य चानुग्रहणं भवति । पुनरपि अनन्तानन्त साधारण जीवानां योग शक्तिभिः गृहीतपुद्गल पिण्डोपकारः एकस्य अनन्तानन्त साधारण जोवानां चानुग्रहणं समासेन सपिन्डितत्वेन भवति । - गोजी० गा। १९३ । टीका एक साधारण जीव के कर्मों को ग्रहण करने की शक्ति रूप योग के द्वारा गृहीत पुदगलपिण्ड अनन्तानन्त साधारण जीवों का भी उपकारी होता है उस जीव का उपकारी होता है। इस तरह अनन्तानन्त साधारण जीवों की योगशक्ति के द्वारा गृहीत पुइगल पिण्ड एक साथ संयुक्त रूप से एक जीव का भी उपकारी होता है और अनन्तानन्त साधारण जीवों का भी उपकारी होता है । 'म योग स्थान की प्ररूपणा'८१ प्ररूपणा अनुयोग टीका-तत्थ परूवणं वत्तइस्सामो। तं जहा—सत्तण्णं लद्धिअपज्जत्तजीव समाणमस्थि उववादजोगट्ठाणाणि एयंतावड्डि एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणिपरिणामजोगट्टाणाणि च । सत्तण्णं णिवत्तिअपज्जत्तजीवसमासाणमत्थि उववादजोगट्ठाणाणि एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि च। सत्तण्णं णिव्वत्तिपज्जत्तयाणमत्थि परिणामजोगट्टाणाणि चेव । परूवणा समत्ता। -षट्० ४।२।४ सू १७३।पु० १०।पृष्ठ ४०३ प्ररूपणा अनुयोग द्वार का कथन इस प्रकार है-सात लब्ध्य पर्याप्त जीवसमासों के उपपादयोगस्थान, एकान्तानुवृद्धियोगस्थान और परिणामयोगस्थान होते हैं। सात Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वृत्त्यपर्याप्त जीवसमासों के उपपादयोगस्थान और एकान्तानुवृद्धियोगस्थान होते हैं। सात निर्वृत्तिपर्याप्त जीवसमासों के परिणामयोगस्थान ही होते हैं । .८२ योग स्थान का प्रमाण टोका-संपहि पमाणं वुच्चदे। तं जहा—एदेसि वृत्तसव्वजीवसमासाणं उपवादजोगट्ठाणाणं एयंताणुवड्डिजोगट्टाणाणं परिणामजोगट्ठाणाणं च पमाणं सेडीए असंखेज्जदिभागो। पमाणपरूवणा गदा। -षट्० खण्ड ४ । २ । ४ सू १७३ । पु० १० । पृष्ठ ४०४ योगस्थान का प्रमाण-ये जो जीवसमासों के उपपाद योगस्थान, एकान्तानुवृद्धियोगस्थान तथा परिणामयोग स्थान कहे गये हैं उनका प्रमाण जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग रूप है। ८.३ योग के अल्पबहुत्व के भेद _____टोका- अप्पाबहुगं ( दुविहं ) जोगट्ठाणप्पाबहुगं जोगविभागपरिच्छेदप्पाबहुगं चेदि। योग स्थानों का अल्पबहुत्व ____टीका-तत्थ जोगट्ठाणप्पाबहुगं वत्तइस्सामो। तं जहा-सव्वत्थोवाणिसत्तणं लद्धिअपज्जताणमुववादजोगट्ठाणाणि। तेसिमेगंताणुवड्डिजोगट्टाणाणि असंखेज्जगुणाणि। परिणामजोगट्टाणाणि असंखेज्जगुणाणि। सत्तण्णंणिव्वत्तिअपज्जत्तजीवसमासाणं सव्वत्थोवाणि उववादजोगट्ठाणाणि। एगंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । सत्तण्णंणिव्वत्तिपज्जत्ताणं णत्थि अप्पाबहुगं, परिणामजोगट्ठाणाणि मोत्तूण तत्थ अण्णेसि जोगट्ठाणाणमभावादो। सव्वत्थ गुणगारोपलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। एवं जोगट्ठाणप्पाबहुगं समत्तं । ___-षट् खं ४ । २ । ४ सू १७३ । पु १० । पृष्ठ ४०४ योग का अल्पबहुत्व दो प्रकार का है- योगस्थान अल्पबहुत्व और योगविभागप्रतिच्छेद-अल्पबहुत्व। योगस्थान का अल्पबहुत्व-सात लब्ध्यपर्याप्तों के उपपादयोगस्थान सबसे स्तोक हैं। उनसे उनके एकान्तानुवृद्धिः योगस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे परिणामयोगस्थान असंख्यात गुणे हैं। सात निवृत्त्यपर्याप्त जीवसमासों के उपपादयोगस्थान सबसे स्तोक हैं । उनसे एकान्तानुवृद्धियोगस्थान असंख्यातगुणे हैं। सात निर्वृत्तिपर्याप्तों के अल्पबहुत्व नहीं होता है, क्योंकि इनमें परिणाम योगस्थान को छोड़कर अन्य योगस्थान नहीं होता है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) '८.४ जीव समास के आश्रय से योग विभाग प्रतिच्छेद का स्वस्थान अल्पबहुत्व चोद्दसजीवसमासाणं जोगाविभागपडिच्छेदप्पाबहुगं तिविहं सत्थाणं परत्थाणं सव्वपरत्थाणमिदि। तत्थ ताव सत्थाणं वत्तइस्सामो। तं जहा - सव्वत्थोवा सुहमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्टाणस्स अविभागपडिच्छेदा । तस्सेव उक्कस्सुववादजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। तदो तस्सेव जहण्णएगताणुवड्डिजोगस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुपरि तस्सेव उक्कस्सएगताणुवड्डिजोगस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। तस्सेव जहण्णपरिणामजोगट्ठागस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। तस्सुवरि तस्सेव उक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। एवं सेसाणं पि लद्धिअपज्जत्तजीवसमासाणं सत्थाणप्पाबहुगं भाणिदव्वं ।। सव्वत्थोवा सुहुमेइंदियंणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णउववादजोगट्टाणस्स अविभागपडिछेदा। तस्सेव उक्कस्सउववादजोगट्टाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। तदो तस्सेव जहण्णएगंताणुवड्डिजोगस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। तदो तस्सेव उक्कस्सएयंताणुवड्डिजोगस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। एवं सेसाणं छण्णं णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं सत्थाणप्पाबहुगं भागिदव्वं । सव्वत्थोवा सुहुमेइंदिय णिन्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा। तस्सेव उक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखज्जगुणा। एवं सेसाणं पि छण्णं णिव्वत्तिपज्जत्ताणं सत्थाणप्पाबहुगं वत्तव्वं। -षट् खण्ड ४ । २ । ४ सू १७३ । पु १० पृष्ठ ४०४ । ५ चौदह जीवसमासों का योग विभाग प्रतिच्छेद अल्पबहुत्व तीन प्रकार का होता है-स्वस्थान, परस्थान और सर्वपरस्थान । स्वस्थान अल्पबहुत्व-सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्य पर्याप्त के जघन्य उपपाद योगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं। उनसे उसी के उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यात गुणे हैं। उनसे उसी के जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उससे आगे उसी के उत्कृष्ट एकान्तनुवृद्धि योगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसी के जघन्य परिणाम योगस्थान सम्बन्थी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यात गुणे हैं। उससे आगे उसी के उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यात्गुणे हैं। इसी प्रकार शेष लब्ध्यपर्याप्त जीवसमासों के भी स्वस्थान अल्पबहुत्व जानना चाहिये। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त जीव के जघन्य उपपादयोग स्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं। उनसे उसके ही उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसके ही जधन्य एकान्तानुवृद्धियोग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यात गुणे हैं। उनसे उसके ही उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार शेष छः निर्वृत्त्यपर्याप्तों के स्वस्थान का अल्पबहुत्व का कथन करना चाहिए। सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त के जघन्य परिणामयोग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं। उनसे उसके ही उत्कृष्ट परिणामयोगस्थान सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यात गुणे हैं। इसी प्रकार शेष छः निर्वृत्तिपर्याप्त जीवों के भी स्वस्थान अल्पबहुत्व का कथन करना चाहिए। जीव समास के आश्रय से सर्व परस्थान योगों का अल्प बहुत्व८.५ जघन्य योग स्थान की अपेक्षा उपपाद, एकांतानुवृद्धि तथा परिणाम योग स्थान का अल्प बहुत्व टोका-एत्तो सव्वपरत्थाणप्पाबहुगं तिविहं-जहण्णयमुक्कस्सयं जहण्णुकस्सयं चेदि। तत्थजहण्णप्पाबहुगं भणिस्सामो। तं जहा-सव्वत्थोवं सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहष्णुवादजोगट्ठाणं । सुहुमेइदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववाद जोगट्ठाणअसंखेज्जगुणं । बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं। बादरेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्टाणं असंखेज्जगुणं । बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । बेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंज्जगुणं । तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । तेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । चरिदियलद्धि अपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । चरिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसखेज्जगुणं । असण्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । असग्णिपंचिदियणिव्वत्ति अपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं। सण्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । सण्णिपंचिवियणिव्वत्ति अपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । सुहुमेइंदियलद्धि अपज्जत्तयस्स जहण्णमेगंताणुवड्डिजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं। सुहुमेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णमेगंताणुवड्डिजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । बादरेइ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) दियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्ण मेगंताणुवड्डिजोगट्ठाणं असंखेज्जगुणं । बादरेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णमेगंताणुवड्डिजोगट्टाणमसंखेज्जगुणं । सुहुमेइ दियलद्धि अपज्जतयस्स जहण्णपरिणाम जोगट्ठाणमसं खेज्जगुणं । बादरेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणमसं खेज्जगुणं । सुमेइ दियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । बादरेइ दियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणमसं खेज्जगुणं । बेइ दियलद्धि अपज्जत्तयस्स जहण्णताणुव डिजो गद्वाणमसं खेज्जगुणं । तेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णमेगंताणुवडजोगट्ठाणमसंखेज्जगुणं । चउरदियलद्धि अपज्जयस्स जहण्णमेगंताणुढिजोगद्वाणमसंखेज्जगुणं । असष्णिपचदियल द्विअपज्जत्तयस्स जहण्णमेगंताणुवडजोगट्ठाणम सं खेज्जगुणं । सष्णिपंचिदियलद्धि अपज्जत्तयस्स जहण्णमेगंताणुर्वाड्डिजोगट्टाणमसंखेज्जगुणं । बेइ दियल द्विअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । तीइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओपरिणामजोगो असंखेज्जगुणो । चरदियल द्विअपज्जत्तस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । असणिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहणओ परिणामजोगो असं खेज्जगुणो । सण्णिपचदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । बेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एगंताणुवडजोगो असंखेज्ज्जगुणो । ती इंदियणिव्वत्ति अपज्जत्तयस्स जहणओ एगंतावडजोगो असंखेज्जगुणो । चउरिदियणिव्यत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एगंतावडजोगो असंखेज्जगुणो । असणिपंचिदियणिव्यत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एतावजिगो असंखेज्ज गुणो । ( सणिपंचिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहणओ एताणुवडजोगो असंखेज्जगुणो । ) बेइं दियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । ते इंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । चउरदियव्वित्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । असणिपंचिदियनिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । सष्णिपचदियणिव्यत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । एवं जहणवीणालावो समत्तो । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ सू० १७३ । पु० १० पृष्ठ ४०८ । ४११ सर्व परस्थान अल्पबहुत्व तीन प्रकार का होता है— जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट । यहाँ पर जघन्य अल्पबहुत्व का कथन किया जाता हैं । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग स्थान सबसे स्तोक है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योगस्थान असंख्यात गुना है। उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग स्थान असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योगस्थान असंख्यातगुना है। उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का जवन्य उपपाद योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योगस्थन असंख्यातगुणा है। उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योगस्थान असंख्यात गुणा है। उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग स्थान असंख्यातगुणा है। उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योगस्थान असंख्यात गुणा हैं। उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का जघन्य उपपाद योगस्थान असंख्यातगुणा हैं। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणा हैं। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्त्य पर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का एकान्तानुवृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जघन्य परिणाम योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य परिणाम योगस्थान असंख्यातगुणा है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त का जघन्य परिणाम योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्त का जघन्य परिणाम योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुबृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणा है। उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणा है। - उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यातगुणा है। उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धपर्याप्त परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे संनी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यातगुणा है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उससे द्वीन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है। उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है। उससे संजी पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यातगुणा है। उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यातगुणा है। उससे चतुरिन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यातगुणा है । उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिण निवृत्तिपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यातगुणा है। उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यातगुणा है। ८.६ अल्प बहुत्व-उत्कृष्ट उपपादयोग, एकान्तानुवृद्धि योग तथा परिणाम योग की अपेक्षा टीका—एत्तो उक्कस्सवीणालावं । तं जहा-सव्वथोवो सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो। सुहुमेइ दियणिवत्ति अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइ दियलद्धि अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइ दियणिवत्ति अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। बेइदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। बेइदियगिवत्ति अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। तेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। तेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्ज्जगुणो। चरिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखे. ज्जगुणो। चरिदियणिन्वत्ति अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपाँचदियलद्धिअपज्जत्तयस्त उकस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। असणिपंचिदियणिव्वत्तिअपज्जतयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सुहुमेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एगताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। सुहमेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एगंताणुवडिजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेई दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवडिजोगो Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) असंखेज्जगुणो । बादरेइ 'दियणिव्वत्ति अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डजोगो असंखेज्जगुणो । सुमेइ दियलद्धि अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइ दियलद्धि अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । सुहुमेइ दियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइ दियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । बेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कसओ एयंताणुवड्ढिजोगो असंखेज्जगुणो । तीइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंत वडजोगो असंखेज्जगुणो । चरदियलद्धिअपज्जत्तयस्त उक्कस्सओ एयंतावड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिदियलद्धि अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुव डिजोगो असंखेज्जगुणो । सणिपंचिदियल द्विअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्ढिजोगो असंखेज्जगुणो । बेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेगुणो | तेइ दिणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओपरिणामजोगो असंखेज्जगुणो । चरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । असणिपंचिदियल द्विअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असखेज्जगुणो । सष्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । बेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । तेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । चरिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो । असणिपंचिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुतड्डिजोगो असंखेज्जगुणो सणिचिदिय णिव्यत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्ढिजोगो असंखेज्जगुणो । बोइ दियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । तीइ दियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । चरिदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । सण्णिपंचिदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । एवमुक्कसवीणालावो समत्तो । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ सू १७३ । पु १० । पृष्ठ ४११ । १४ उत्कृष्ट वीणालाप की प्ररूपणा - सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि - अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग सबसे कम है । इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्त का उत्कृट उपपाद योग असंख्यात - गुणा है । इससे बादर एकेन्द्रिय लब्धि- अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यातगुणा है । इससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्त का उत्कुष्ट उपपाद योग असंख्यातगुणा है । इससे Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) 1 द्वीन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यातगुणा है । इससे द्वीन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यातगुणा है । इससे त्रीन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यातगुणा है । इससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यातगुणा है । इससे चतुरिन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यातगुणा है । इससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यातगुणा है । इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि- अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गुणा है । इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निवृत्ति अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यातगुणा है । इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यातगुणा है । इससे संज्ञी पंचे न्द्रय निवृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यातगुणा है । इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात - गुणा है। इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है। इससे बादर एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात - गुणा है । इससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है। इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है । इससे बादर एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का परिणाम योग असंख्यातगुणा है । इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यातगुणा है । इससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यातगुणा है । इससे द्वीन्द्रिय लब्धि - अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है । इससे त्रीन्द्रियनिवृत्ति पर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यातगुणा है । इससे चतुरिन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है । इससे असंज्ञी पचेन्द्रिय-लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है । इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धिअपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है । इससे द्वीन्द्रिय लब्धि - अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यातगुणा है । इससे त्रीन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यातगुणा है । इससे चतुरिन्द्रिय लब्धि- अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यातगुणा है । इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है । इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात - गुणा है । इससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंच्यातगुणा है । इससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्ति- अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्मातगुणा है । इससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है । इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है । इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है । इससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्ति-पर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यातगुणा है । इससे त्रीन्द्रिय लब्धिपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यातगुणा है । इससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यातगुणा है । इससे असंज्ञी पंचेन्दिय निर्वृत्ति पर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यातगुणा है । इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निवृत्ति - पर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यातगुणा है । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) ८७ जीव समास के आश्रय से योग का परस्थान अल्प- बहुत्व - उपपाद योगस्थान, एकान्तानुवृद्धि योगस्थान, परिणाम योगस्थान का अविभाग प्रतिच्छेद – ४० अल्प-बहुत्व एतो परत्थाणप्पा बहुगं वत्तइस्सामो - किं परत्थाणं ? बादर-सुहुम-बि-तिचरिदिय असण-सण्णिपंचिदियाणं मज्भे एक्केक्कस्स लद्धिअपज्जत णिव्वत्तिअपज्जत णिव्यत्तिपज्जत भेदभिण्णस्स उववाद- एयंताणु वढि परिणामजोगट्ठाणाणं जहष्णुक्कस्भेदभिण्णाणं जमप्पा बहुगं तं परत्थाणं णाम । सव्वत्थोवा सुमणिगोदलद्धि अपज्जत्तयस्स जहण्ण उववाद जोगट्ठाणस्स अविभागपरिच्छेदा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्ण उववादजोगट्ठा णस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सउववाद जो गट्टाणस्स अविभागपरिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सउववाद जोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असं खेज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्ण एगंताणुवड्डिजोगट्ठाणस्स अविभागपडिछेदा असं खेज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णएगंताणुवडि agree अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्एयंताणुव डिजोगट्टाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएयंताणुवड्डिजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेना असंखेज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव उक्कस्सपरिणामजोगद्वाणस्स अविभागपडिच्छेदा असं खेज्जगुणा । तस्सुंवरि णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणाम जोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असखेज्जगुणा । तस्सुवरि तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सपरिणामजोगद्वाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । एवं चेव बादरेइं दियस्स वि परत्थाणप्पाबहुगं वत्तव्वं । टीका - सव्वत्थोवा बोइंदियलद्धि अपज्जत्तस्स जहण्णुववादजोगट्टाणस्स अविभागपडिच्छेदा । ( तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सुववादजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असं खेज्जगुणा । ) तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णुववादजोगणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । ( तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सुववादजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असं खेज्जगुणा । ) तस्सेव लद्धि Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) अपज्जत्तयस्स जहण्णएयंताणुवड्ढिजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएयंताणुर्वाड्डजोगट्टाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा। तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणाम जोगट्टाणस्स अविभागपच्छेिदा असं खेज्जगुणा । तस्सेव लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सपरिणामजोग ट्राणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णएयंतावडजोगट्टाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस क्एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणस्स अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा । तस्सेव व्वित्तिज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणस्य अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा तस्सेव णिव्यत्तिपज्जत्तयस्स उस्सपरिणामजोगट्ठाणस्स अविभागपडिवछेदा असंखेज्जगुणा । एवं चैव तोइंदियादीणं पि परत्थाणअप्पबहुगं जाणिवण भाणिदव्वं । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ सू १७३ । पु० १० । पृष्ठ ४०६ । ८ बादर, सूक्ष्म, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मध्य में प्रत्येक लब्ध्यपर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त तथा निर्वृत्तिपर्याप्त भेद से भेद को प्राप्त जीव के जघन्य और उत्कृष्ट भेद से उपपाद, एकान्तानुवृद्धि तथा परिणाम योग स्थानों का जो अल्पबहुत्व होता है वह परस्थान अल्पबहुत्व कहलाता है । सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त जीव के जघन्य उपपाद योगस्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद सबसे स्तोक है । उनसे उसके ही निवृत्त्य पर्याप्त जीव के जघन्य उपपाद योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे उसीके लब्ध्यपर्याप्त के उत्कृष्ट उपपादयोग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे उसके ही निवृत्त्य पर्याप्त के उत्कृष्ट उपपाद योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे उसी लब्ध्यपर्याप्त के जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे उसी निर्वृत्यपर्याप्त के जघन्य एकान्तावृद्धि योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे उसी लब्ध्यपर्याप्त के उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे उसी निर्वृत्त्यपर्याप्त के उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि इसके आगे योगस्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे उसी लब्ध्यपर्याप्त के जघन्य परिणाम योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे उसीके उत्कृष्ट परिणाम योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे निर्वृत्तिपर्याप्त के जघन्य परिणाम योगस्थान सम्बन्धि अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसके आगे. निवृत्तिपर्याप्त के उत्कृष्ट परिणाम योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यात - गुण हैं । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय जीव के भी परस्थान अल्प- बहुत्व जानना चाहिए । द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त के जघन्य उपपाद योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं । [ उनसे उसी लब्ध्यपर्याप्त के उत्कृष्ट उपपाद योग स्थान सम्बन्धी - Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । ] उनसे उसी निर्वृत्त्यपर्याप्त के जघन्य उपपाद योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । [ उनसे उसी निर्वृत्त्यपर्याप्त के उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं ।] उनसे उसी लब्ध्यपर्याप्त के जवन्य एकान्तानुवृद्धि योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इनसे उसी लब्ध्यपर्याप्त के उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इनसे उसी लब्ध्यपर्याप्त के जघन्य परिणाम योगस्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यात गुणे हैं । इनसे उसी लब्ध्यपर्याप्त के उत्कृष्ट परिणाम योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इनसे उसी निर्वृत्त्यपर्याप्त के जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुण हैं | इनसे उसी निर्वृत्यपर्याप्त के उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुण हैं | इनसे उसी निर्वृत्तिपर्याप्त के जघन्य परिणाम योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इनसे उसी निर्वृत्तिपर्याप्त के उत्कृष्ट परिणाम योग स्थान सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय आदि जीवों के भी परस्थान अल्पबहुत्व जानना चाहिए । तं जहा - सच्चत्थोवो सुहुमेइ दिर्याणिव्वत्ति टीका - संपहि जहष्णुक्कस्सप्पा बहुगं वत्तइस्सामो । सुहुमेइ दिय लद्धि अपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो । अपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । सुहुमेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववाजोगो असंखेज्जगुणो सुहुमेइ दियणिव्बत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइ दियलद्धि अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बेइ दियल द्विअपज्जत्तयस्स जहणओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बेई दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । तेइ दियलद्धिअवज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स असंखेज्जगुणो । तेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो | तेइ दियलद्विअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । चउरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । तेइ दियनिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । चरिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । चरिदियलद्धि Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। चरिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिदियणिन्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिचिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिचिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सुहुमेइंदिमलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिचिदियणिवत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो। सुहुमेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्त जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असखेज्जगुणो। सुहुमेइ वियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। सुहुमेइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवटिजोगो असखेज्जगुणो। तदो सेडीए असंखेज्जदि भागमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि अंतरिदूण सुहुमेइदिय लद्धिअपज्जत्त. यस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। सुहुमेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तदोसेडीए असंखेज्जदिभागमंतरं होदूण सुहुमेइदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइ दियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। सुहमेइदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। बादरेइ दियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तदो सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्तं अंतरं होदूण बेइदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णएयंताणुवट्टिजोगो असंखेज्जगुणो। तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवडिजोगो असंखेज्जगुणो। चरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवडिलोगो Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। चरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवटिजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। तदो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तजोगट्ठाणाणि अंतरिदूण बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। चरिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। असणिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। सणिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। बेइं दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तेइ दियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। चरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। असणिपचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तदो सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तजोगट्ठाणाणि अंतरिदूण बेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असखेज्जगुणो। तेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्रिजोगो असंखेज्जगुणो। चरिदियशिवत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवडिजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवड्डिजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ एयंताणुवटिजोगो असंखेज्जगुणो। बेईदियणिवत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवढिजोगो असंखेज्जगुणो। तेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्ढिजोगो असंखेज्जगुणो। चरिदिणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवड्ढिजोगो असंखेज्जगुणो। असणिपंचिदियणिवत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवढिजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ एयंताणुवढिजोगो असंखेज्जगुणो। तदो सेडीए असंखेज्जविभागमेत्तजोगट्टाणाणि अंतरं होण बेइदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तेइ दिय Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। चरिदियणिन्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओपरिणामजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिदियसणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। बेइदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। तेइंदियणिव्वत्तिपज्जत यस्त उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। चरिदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। असण्णिपंचिदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगी असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखज्जगुणो। गुणगारो सव्वत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो होतो वि अप्पणो इच्छिदजोगादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ विरलेदूण विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिमेत्तो होदि। एसो गुणगारो चदुण्णं पि वीणापदाणं वत्तव्यो। एवं जहण्णुक्कस्सा वीणा समत्ता। -षट्० खण्ड ४ । २ । ४ सू० १७३ । पु० १० पृष्ठ ४१४ । २० अब जघन्योत्कृष्ट अल्प-बहुत्व का कथन किया जाता है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धिअपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग सबसे कम है। इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्ति अपर्याप्त का जघन्य उपपादयोग असंख्यात गुणा है। इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे बादर एकेन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का जघन्य उपवाद योग असंख्यात गुणा है। इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे बादर एकेन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे द्वीन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असख्यात गुणा है। इससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे द्वीन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपयोग असंख्यात गुणा है। त्रीन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे त्रीन्द्रिय निवत्ति-अपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे त्रीन्द्रिय लब्धि. अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे चतुरिन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग असंख्यातगुणा है। इससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्यात का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे चतुरिन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग असंख्यात गुणा है। इससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गणा है। इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग असंख्यात Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) । गुणा है । इससे असंज्ञी पंचेन्द्रय लब्धि- अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गुण है । इससे संज्ञी पचेन्द्रिय लब्धि- अपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग असंख्यात गुणा है । इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति- अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गुणा है । इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति - अपर्याप्त का जघन्य उपपाद योग असंख्यात गुणा है । इससे संज्ञ पंचेन्द्रिय लब्धि - अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपाद योग असंख्यात गुणा है । इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि- अपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यात गुणा है । निर्वृत्ति-अपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है लब्धि - अपर्याप्त का जघन्य एकान्तावृद्धि योग असंख्यात गुणा है । निर्वृत्ति- अपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । लब्ध- अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । निर्वृत्ति- अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । एकेन्द्रिय निर्वृत्ति- अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । । इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय इससे बादर एकेन्द्रिय इससे बादर एकेन्द्रिय इसके सूक्ष्म एकेन्द्रिय इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय इससे आगे श्रेणी के असंख्यातवें भाग मात्र योग स्थानों का अन्तर करके सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है । इससे बादर एकेन्द्रिय लब्धि - अपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है । इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि - अपर्याप्त उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है । इससे बादर एकेन्द्रिय लब्धि- अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है । इससे बादर इससे बादर इससे आगे श्रेणी के असंख्यातवें भाग मात्र अन्तर होकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यातगुणा है । बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्ति पर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है । इससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्ति पर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है । इससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्ति पर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है । इससे आगे श्रेणी के असंख्यातवें भाग मात्र अन्तर होकर द्वीन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । इससे त्रीन्द्रिय लब्धि - अपर्याप्त का जघन्य ऐकान्तानेवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । इससे चतुरिन्द्रिय लब्धि - अपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । कान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि - अपर्याप्त का उत्कृष्ट । । इससे द्वीन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त का उत्कृष्ट इससे त्रीन्द्रिय लब्धि - अपर्याप्त का उत्कृष्ट इससे चतुरिन्द्रिय लब्धि- अपर्याप्त का उत्कृष्ट इसमें संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि- अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) इससे आगे श्रेणी के असंख्यातवें भाग मात्र योग स्थानों का अन्तर करके द्वीन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे त्रीन्द्रिय लब्धिअपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे चतुरिन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे द्वीन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे त्रीन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे चतुरिन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे संक्षी पंचेन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा हैं । इससे आगे श्रेणी के असंख्यातवें भाग मात्र योग स्थानों का अन्तर करके द्वीन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है। इससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है। इससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है। इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है। इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है। इससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है। इससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है। इससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है । इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है। इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति-अपर्याप्त का उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग असंख्यात गुणा है। इससे आगे श्रेणी के असंख्यात. भाग मात्र योग स्थानों का अन्तर होकर द्वीन्द्रिय निर्वत्ति-पर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे त्रीन्द्रिय निवृत्ति-पर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्ति-पर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति-पर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति पर्याप्त का जघन्य परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे द्वीन्द्रिय निवृत्ति-पर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्ति-पर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे चतुरिन्द्रिय निवृत्ति-पर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे असंही पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति-पर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है। इससे संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति-पर्याप्त का उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यात गुणा है । ____ गुणकार सर्वत्र पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग होते हुए भी अपने इच्छित योग से नीचे की नाना गुण हानि शलाकाओं को विरलित कर उनके दुगुणा अन्योन्य अभ्यस्त राशि रूप होता है । यह गुणाकार चारों ही वीणापदों के कहना चाहिए । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) .९ योग और लेश्या १ कषायोदयानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्वा लेश्या कषायाणमुदयेन अनुरञ्जिताकमप्यतिशयान्तरमुपनीतायोगप्रवृत्तिर्वा लेश्या। गोजी० । गा ४८९ टीका कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन व काय की प्रवृत्ति लेश्या है। अथवा कषायों के उदय से अनुरंजित अर्थात् किसी भी अतिशयान्तर को प्राप्त योग प्रवृत्ति लेश्या है । २ यन्मतेन तु योगपरिणामो लेश्या, तदभिप्रायेण योगत्रयजनक कर्मोदयप्रभवाः । -चतुर्थ कर्म• गा ६६ टीका जिनके मत में लेश्या योगपरिणाम रूप है उसके अनुसार जो कर्म तीनों योगों के जनक हैं वह उन कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाली है। लेश्या और योग में अविनाभावी सम्बन्ध है। जहाँ योग है वहाँ लेश्या है। जो जीव सलेशी है वह सयोगी है तथा जो अयोगी है वह अलेशी है । '३ अयोगे योगाभावात् लेश्या नास्ति । -गोजी० गा ७०४ । टीका अयोगी में योग का अभाव होने से लेश्या नहीं है। .४ णवरि य सुक्का लेस्सा सजोगिचरिमोत्ति होदिणियमेण गयजोगम्मि वि सिद्ध लेस्सा णस्थित्ति णिद्दिट्ट। -गोजी० गा ६९३ टीका-अयोगिजिने सिद्ध च लेश्या न सन्तीति । शुक्ल लेश्या सयोगी गुणस्थान पर्यन्त होती है। अयोगी केवली में लेश्या नहीं होती है। '५ शेषस्थानेयु सुरगतौ x x x पंचेन्द्रियवसकाय योगत्रय x x x शेषमार्गणास्थानकेषु षडपि लेश्या -चतुर्थ कर्म० गा ३७ । टीका मनो योगी, वचन योगी तथा काय योगी में कृष्णादि छओं लेश्या होती है । '६ सुक्काजाव सजोगी, निरुद्धलेसो अजोगित्ति। -जिनवल्लभीय षडशीति गा ७३ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) छ सु सव्वा तिउतिगं, इगिसुक्का अजोगि अलेस्सा। -चतुर्थ कर्म • गा ५० । पूर्वार्ध सयोगी केवली में तेरहवाँ गुण स्थान है। इस गुणस्थान तक शुक्ल लेश्या होती है । अयोगी गुणस्थान में अलेशी होता है । “१० योग और गुणस्थान .१ उक्तपञ्चदशयोगेषु मध्ये मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतेषु त्रयोदश त्रयोदश भवन्ति आहारकतन्मिश्रयोः प्रमत्तादन्यत्राभावात् । मिश्रगुणस्थाने तेष्वपर्याप्तयोगत्रयं नेति दश । उपरि क्षीणकषायान्तेषु सप्तसु तत्रापि वैक्रियिकयोगाभावात् नव । प्रमत्तसंयते एकादश आहारकतन्मिश्रयोगयोरन पतितत्वात् । सयोगे सत्यानुभयमनोवाग्योगाः औदारिक तन्मिश्र कार्मणकाय योगाश्चेति सप्त । अयोगिजिने योगोनेति शून्यम् । -गोजी० गा० ७०४ । टीका पन्द्रह योगों में से-मिथ्या दृष्टि, सासादन और असयंत गुणस्थानों में तेरह-तेरह योग होते हैं। क्योंकि आहारक, आहारक मिश्र योग प्रमत्त गुणस्थान से अन्यत्र नहीं होते हैं। मिश्र गुण स्थान में उनमें से तीन अपर्याप्त योग न होने से दस योग होते हैं। ___ ऊपर क्षीणकषायपर्यंत ( सातवें से बारहवें गुण स्थान तक ) सात गुण स्थानों में वैक्रियिक काय योग न होने से नौ योग होते हैं। प्रमत्त संयत में आहारक-आहारक मिश्र के होने से ग्यारह योग होते हैं । सयोग केवली में सत्य, अनुभय वचन योग और मनोयोग तथा औदारिक, औदारि. मिश्र तथा कार्मण काययोग इस तरह सात योग होते हैं। अयोगी केवली में योग नहीं है। .२ मिच्छे सासणसम्मे पुवेदयदे कवाडजोगिम्मि। णरतिरिये वि य दोणि विहाँतित्ति जिणेहि णिहिट्ठ। -गोजी० गा ६८१ टीका-मिथ्यादृष्टौ सासादने पुवेदोदयासंयते कपाटसमुदघातसयोगे, चैतेषु अपर्याप्त-चतुर्गुणस्थानेषु स औदारिकमिश्र योगः स्यादित्यर्थः । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) मिथ्या दृष्टि में, सासादन में, पुरुष वेद के उदय सहित असंयत में और कपाट समुद्घात सहित सयोगी केवली में इन चार अपर्याप्त अवस्था सहित गुणस्थानों में औदारिक मिश्रकाय योग होता है। .३ सोलेसों संपत्तो निरुद्धणिस्सेसआसओ जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि । -गोजी० गा ६५ टीका—मनोवाक्काय योगरहितत्वादयोगः न विद्यते योगो यस्यासौअयोगः सचासौ केवली च अयोगकेवली इति । मनो योग, वचन योग, और काय योग से रहित होने से अयोग है। इस तरह से जिनके योग नहीं है तथा केवली भी है वे अयोग-केवली (चौदहबां गुण स्थान है ) है । •४ कार्मण काय योग और गुण स्थान ओरालियमिस्सं वा चउगुणठाणेसु होदि कम्मइयं । चदुगदिविग्गहकाले जोगिस्स य पदरलोगपूरणगे॥ -गोजी० गा ६८४ टोका-औदारिकमिश्रवच्चतुर्गुणस्थानेषु कार्मणकाययोगः स्यात् स चतुर्गतिविग्रहकाले सयोगस्य प्रतरलोक पूरणकाले च भवति तेन तत्र गुणास्थानानि जीवसमासाश्च तद्वत् चत्वारि अष्टौ भवन्ति । __ औदारिक मिश्र काय योग की तरह कार्मण काय योग चार गुण स्थानों में होता है। वह चार गति सम्बन्धी विग्रह गति काल में और सयोगी केवली के प्रतर और लोक पूरण समुद्घात के काल में होता है। इससे उसमें गुण स्थान और जीव समास उसी की तरह क्रम से चार और आठ होते हैं। .५ सयोगजिने भावेन्द्रियं न, द्रव्येन्द्रियापेक्षया षट्पर्याप्तयः वागुच्छ्वास निश्वासायुः कायप्राणश्चत्वारि भवन्ति। शेषेन्द्रियमनः प्राणाषट् न सन्ति । तत्रापि वाग्योगे विश्रान्तेत्रयः। पुनः उच्छ्वासनिश्वासे विश्रान्ते द्वौ। अयोगे आयुः प्राण एकः। -गोजी० गा ७०१ । टीका सयोग केवली में भावेन्द्रिय नहीं है। उनके द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा छह पर्याप्तियां हैं और चार प्राण होते हैं। और वचन बल, उच्छ वासनिश्वास बल, आयु और काय बल-ये चार प्राण होते हैं। शेष इन्द्रिय और मन ये छह प्राण नहीं है। उन चार Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) प्राणों में से भी वचन योग के रुक जाने पर तीन रहते हैं। पुनः उच्छ वास निश्वास का निरोध होने पर दो रहते हैं। अयोगकेवली के एक आयु प्राण होता है । '६ आहारक काय योग और गुण स्थान '७ आहारक मिश्रकाय योग और गुण स्थान आहारो पज्जत्ते इदरे खलु होदि तस्स मिस्सोदु । अंतोमुहुत्तकाले छट्टगुणे होदि आहारो॥ -गोजी० ग ६८३ टीका-आहारककाययोगः संजिपर्याप्तषष्ठगुणस्थाने जघन्योत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्त्तकाले एव भवति । तन्मिश्रयोगः इतरस्मिन् संज्ञ यपर्याप्तषष्ठगुणस्थाने खलु जघन्योत्कृष्टेन तावत्काले एव भवति । आहारक काययोग संज्ञीपर्याप्त छ8 गुण स्थान में जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तमुहूर्त काल में ही होता है। आहारक काय योग संज्ञी अपर्याप्त अवस्था में छठे गुण स्थान में जघन्य-उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्तकाल में ही होता है। अतः इन दोनों में एक छट्ठा ही गुणस्थान होता है । '८ सयोगी गुण स्थान में दो जीव समास अयोगी गुण स्थान में एक जीव समास xx x सयोगे च संज्ञीपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ। x x x अयोगे च संज्ञीपर्याप्त एवैकः। -गोजी० गा ६९९ टीका सयोगी में संज्ञीपर्याप्त और अपर्याप्त दो जीव समास होते हैं। अयोगी केवली में एक संजीपर्याप्त ही होता है। ९ आहारक काययोग और जीव समास १० आहारक मिश्रकाय योग और जीव समास टीका-आहारककाययोगः संज्ञिपर्याप्तः x x x तम्मिश्रयोग संजय पर्याप्तः xxx जीव समासः स एव एकैकः। गोजी० गा६५३। टीका Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) आहारक काम योग में जीव समास वही संज्ञीपर्याप्त और आहारकमिश्र काय योग में संज्ञो अपर्याप्त एक-एक ही होता है । . ११ मनो योग- वचन योग और गुण स्थान मज्झिम चउमणवयणे सण्णिप्पहुडतु जाव सेसाणं जोगित्ति च अणुभयवयणं तु टीका - मध्यमेषु असत्योभयमनोवचनयोगेषु चतुर्षु संज्ञिमिथ्यादृष्ट्या - दीनि क्षीणकषायान्तानि द्वादश । तु पुनः सत्यानुभयमनोयोगयोः सत्यवचनयोगे च संज्ञिपर्याप्तमिथ्यादृष्ट्यादीनि सयोगान्तानि त्रयोदश गुणस्थानि भवन्ति । xxx अनुभय वचनयोगे तु गुणस्थानि विकलत्रयमिथ्यादृष्ट्यादीनि त्रयोदश । - १२ काय योग और गुण स्थान मध्यम अर्थात् असत्य और उभय मनो योग और वचन योग- इन चार में संज्ञी मिथ्या दृष्टि से लेकर क्षीण कषाय पर्यन्त बारह गुण स्थान होते हैं । तथा सत्य और अनुभव मनो योग और सत्य वचन योग में संज्ञीपर्याप्त मिथ्या दृष्टि से लेकर सयोगी केवली पर्यन्त तेरह गुण स्थान होते हैं । अनुभय वचन योग में विकलत्रय मिथ्या दृष्टि से तेरह गुण स्थान होते हैं । खीणोति ॥ वियलादो । - गोजी ० गा ६७९ ओरालं पज्जत्ते थावरकायादि जाव जोगित्ति । तम्मिस्समपज्जते चदुगुणठाणेसु नियमेण ॥ पर्याप्त मिथ्या टीका - औदारिककाययोगः एकेन्द्रियस्थावर काय दृष्ट्यादिसयोगान्त त्रयोदशगुणस्थानेषु भवति । तन्मित्रयोगः अपर्याप्त चतु गुण स्थानेष्वेव नियमेन । - १३ मज्झिमच उमणवयणे सण्णिध्वहुड तु जाव खीणोत्ति । सेसणं जोगिन्ति च अणुभयवयणं तु वियलादो ॥ दारिक काय योग एकेन्द्रिय स्थावर काय पर्याप्त मिथ्या दृष्टि से सयोगी केवली पर्यन्त तेरह गुण स्थानों में होता है । - गोजी० गा ६८० दारिक मिश्र का योग नियम से अपर्याप्त अबस्था में चार गुण स्थानों (१, २, ४, १३ ) में होता है । - गोजी ० गा ६७९ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) टीका - मध्यमेषु असत्योभयमनोवचनयोगेषु चतुषु संज्ञीमिथ्यादृष्ट्या - दीनि क्षीणकषायान्तानि द्वादशः । तु पुनः सत्यानुभयमनोयोगयोः सत्यवचनयोगे च संज्ञी पर्याप्तमिथ्यादृष्ट्यादीनि सयोगान्तानि त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति । जीवसमासः संज्ञीपर्याप्त एवैकः । अनुभयवचनयोगे तु गुणस्थानानि विकलत्रयमिथ्यादृष्ट्यादीनि त्रयोदश । जीवसमासाः द्वित्रिचतुरिन्द्रियसंज्ञयसंज्ञीपर्याप्ताः पञ्च । - १४ केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो । णव केवललद्ध गम सुजणियपरम प्यववएसो ॥ असहायणाणदंसणसहियो इति केवली हुजोगेण । जुत्तोति सजोगिजिणो अणाइणिहणादिसे उत्तो ॥ — गोजी० मा ६३, ६४ टीका - अनेन सयोग भट्टारकस्य भव्यलोकोपकारकत्वलक्षणपरार्थ संपत् प्रणीता xxx । योगेन सह युक्त इति सयोगः असहायज्ञानदर्शनसहित इति केवली सयोगश्चासौ केवली च सयोग - केवली । घातिकर्मनिर्मूलको जिनः, सयोगकेवली चासो जिनश्च सयोगकेवलिजिनः इत्यनादिनिधनार्षागमे उक्तः प्रतिपादितः । सयोग केवली भगवान के भव्य जीवों का उपकार करने रूप परार्थ सम्पदा कही है । योग से युक्त होने से सयोग और असहाय ज्ञान-दर्शन से सहित होने से केवली, इस तरह सयोग और केवली होने से सयोग – केवली है और घाति कर्मों को निर्मूल करने से जिन है । इस तरह अनादि निधन आगम में उन्हें सयोग केवली जिन कहा है । सयोगी केवली तेरहवां गुण स्थान है । • १५ वैक्रियकाययोग और गुणस्थान वैक्रियमिश्र काययोग और गुण स्थान वेगुव्वं पज्जत्तेइदरे खलुहोदितस्स मिस्संतु । सुरणिरय चउट्ठाणे मिस्से हि मिस्सजोगोदु ॥ गोजी • गा ६५२ पर्याप्त देवनारक मिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्गुण ater-affesकाययोगः स्थानेषु भवति खलु स्फुटम् । तु पुनः तन्मिश्र योगः मिश्रः मिश्रगुणस्थाने तु नहीति कारणात् देवनारक मिथ्यादृष्टिसासादनासं यतेष्वेव भवति । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) वैक्रिय काय योग पर्याप्त देव नारकियों के मिथ्यादृष्टि आदि चार गुण स्थानों में होता है । वैक्रियमिश्र काय योग मिश्र गुणस्थान में नहीं होता, अतः देवनारकियों के मिथ्यादृष्टि सासादन और असंयत गुणस्थान में ही होता है । • १६ उवसंत खीणमोहो सजोग केवलिजिणो अजोगी य । चोद्दस जीवसमासा कमेण सिद्धाय णादव्वा ॥ — गोजी० गा १० टीका-घातिकर्माणि जयति स्येति जिनः, केवलज्ञानमस्यास्तीति केवली, स चासौ, जिनश्च केवलिजिनः । योगेन स वर्तते इति सयोगः, स चासौ केवलिजिनश्च सयोगकेवलिजिनः । योगः अस्यास्तीति योगी, न योगी अयोगी, अयोगी केवलिजिनः इत्यनुवर्तनात् अयोगी चासौकेवलिजिनश्च अयोगिकेवलिजिनः । जिसने घातिकर्मों को जीत लिया है वह जिन है और जिसके केवल ज्ञान है वह केवली है । जो केवली वही जिन होने से केवली जिन है । जो योग सहित है । जो सयोग होने के साथ केवली जिन है वह सयोग केवली जिन है । वह सयोग जिसके योग हैं वह योगी है । जो योगी नहीं है वह अयोगी है । • १७ योग और गुण स्थान की अपेक्षा पर्याप्त अपर्याप्त एक्कारसजोगाणं पुण्णगदाणं सपुण्ण मिस्सचउक्कस्स पुणो सगएकक अपुण्ण आलाओ ॥ आलाओ । टीका-पर्याप्तिगतानां चतुर्मनश्चतुर्वागौदारिकर्वक्रियिकाहार कैकादशयोगानां स्वस्वपूर्णालापो भवति यथा सत्यमनोयोगस्य सत्यमनः पर्याप्तालापः । मिश्रयोगचतुष्कस्य पुनः स्वस्वैकायर्याप्तालापो भवति । यथा - औदारिक मिश्रस्यः औदारिकापर्याप्तालापः । - गोजी० गा ७२३ पर्याप्त अवस्था में होने वाले चार मनो योग, चार वचन योग, औदारिक, वैक्रियिक, जैसे आहारक काययोग- इन ग्यारह योगों में अपना-अपना पर्याप्त आलाप होता है । सत्य मनो योग के सत्यमन पर्याप्त आलाप होता है । चार मिश्रयोगों में अपना-अपना एक अपर्याप्त आलाप होता है । जैसे औदारिक मिश्र के औदारिक अपर्याप्त आलाप होता है । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१८ सयोगि केवली के प्रथम समय में चार कर्मों का अवसान पढमसमयजिणस्स णं चत्तारिकम्मंसा खीणा भवंति, तंजहा- णाणावरणिज्ज, सणावरणिज्ज, मोहणिज्ज, अंतराइयं । - ठाण० स्था ४ । उ १ । सू १४२ टीका-'पढमे' त्यादि सूत्रत्रयं व्यक्तं, परं प्रथमः समयो यस्य स तथा स चासौ जिनश्च–सयोगिकेवली प्रथमसमयजिनस्तस्य कर्मणः-सामान्यस्यांशाः ज्ञानावरणीयादयो भेदाइति । प्रथम समय के सयोगी केवली के चार सत्कर्म क्षीण होते हैं१. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३. मोहनीय ४. आन्तरायिक .१९ सयोगी और जीव समास .१ ( केवलज्ञानं ) सयोगायोगयोः सिद्धच । तत्र जीवसमासौ संजिपर्याप्तसयोगापर्याप्तौ द्वौ। --गोजी० ६८८ । टीका केवल ज्ञान-सयोगी-अयोगी और सिद्धों में होता है। उसमें संज्ञी पर्याप्त तथा समुद्घातगत सयोगी की अपेक्षा संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीव समास होते हैं। .२ योग और पर्जाप्त-अपर्याप्त सयोगिनि उभये। अयोगिनि पर्याप्ता एव । -गोजी• गा ७०३ । टीका सयोगी में पर्याप्त-अपर्याप्त दोनों होते हैं। अयोगी में पर्याप्त ही होते हैं । मोट- सयोगी केवली में केवल समुद्घात की अपेक्षा अपर्याप्त भी होते हैं। कहा है सयोगे पर्याप्तः । समुद्घाते तुभयः । अयोगे पर्याप्त एव । सयोगी केवली में पर्याप्त है किन्तु समुद्घात में दोनों है। अयोगी में पर्याप्त है। .३ मध्यमेषु असत्योभयमनो वचनयोगेषु x x x सत्यानुभय मनोयोगयोः सत्जवचनयोगे x x x जीवसमासः संजिपर्याप्त एवैकः । अनुभय वचन योगे xxx जीवसमासाः द्वित्रिचतुरिन्द्रिय संज्ञ यसंजी पर्याप्ताः पञ्च । -गोजी• गा ६७९ । टोका Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) मध्यम अर्थात् असत्य और उभय मनोयोग और वचन योग तथा सत्य और अनुभय मनोयोग और सत्य वचन योग के जीव समास एक संज्ञी पर्याप्त ही ( जीव का एक भेद चौदहवां ) होता है। अनुभय वचन योग में विकलत्रय जीव समास से दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय संजीअसंज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त रूप पाँच होते हैं ( जीव के भेद छट्ठा, आंठवाँ, दसवाँ, बारहवाँ चौदहवाँ होता है।) •४ कार्मण काययोग और जीव समास कामणकाययोगःxx x जीव समासश्चxx x अष्टौ भवति । –गोजी• गा ६८४ । टीका कार्मणकाय योग में जीव समास आठ होते हैं। सात भेद अपर्याप्त के व एक चौदहवां भेद एवं आठ जीव के भेद होते हैं । .५ वैक्रिय काय योग और जीव समास '६ वैक्रियमिश्र काय योग और जोव समास वैक्रियिककाययोगxxx मिश्रकाययोग x x x जीवसमासः तयोः क्रमेण संज्ञियाप्तः तन्निनिर्वृत्त्यपर्याप्तः एकैकः । जीव समास-उनमें से-बैक्रियिक काययोग में संज्ञी पर्याप्त और वैक्रियमिश्र काय योग में संज्ञी अपर्याप्त होता है। •७ योग और जीव भेद काययोग और जीव भेद जीवसमासाः औदारिकयोगे पर्याप्ताः सप्त। तेन मिश्रयोगे अपर्याप्ताः सप्त । सयोगस्य चैकः एवमष्टौ। –गोजी० गा६८१। टीका ___ औदारिक काय योग में सात पर्याप्त जीव समास ( जीव के भेद ) होते हैं। अतः औदारिक मिश्र काय योग में सात अपर्याप्त जीव समास होते हैं और सयोग केवली में एक जीव समास ( चौदहवां भेद ) होता है। इस तरह माठ जीव समास होते हैं। .१२ सयोगी और पर्याप्त-अपर्याप्त अवस्था .१ योग और पर्याप्त-अपर्याप्त अवस्था गुणजीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा गई दिया काया। जोगा वेदकसाया णाणजमा सणा लेस्सा ॥ -गोजी• गा ७२५ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) टोका-सयोगकेवलिनः चत्वारः वाक्कायायुरुच्छ वासनिश्वासाख्याः। तस्यैव पुनः मिश्रकायायुषो, अयोगस्यआयु मैकः x x x। योगाः पर्याप्ता एकादश, अपर्याप्तश्चत्वारः। सयोग-केवली के चार प्राण वचन, काय, आयु, उच्छास-निश्वास, उसी के पुनः मिश्रकाय और आयु । अयोगी के एक आयु प्राण है। पर्याप्त में योग ग्यारह व अपर्याप्त में चार योग है। •२ सयोगी केवली के अपर्याप्त अवस्था भी होती है पज्जत्तसरोरस्स य पज्जत्तुदयस्स कायजोगस्स। जोगिस्स अपुण्णत्तं अपुण्णजोगो ति णिट्टि। ___-गोजी० गा १२६ टीका-परिपूर्णपरऔदारिकशरीरस्य पर्याप्तनामकर्मोदययुतस्य काय योगयुक्तस्य सयोगिकेवलिभट्टारकस्य आरोहणावरोहण कपाटद्वये समुद्भूतेकथितमपूर्णत्वं अपूर्णकाययोग इति। ततः कारणादौदारिक मिश्रकाययोगाक्रान्तः सयोगिकेवलिभट्टारकः कपाट युगलकाले अपर्याप्ततां भजनीति प्रवचने निर्दिष्टं कथितं । सयोगि केवलि भट्टारक का परम औदारिक शरीर परिपूर्ण है, उनके पर्याप्त नाम कर्म का उदय भी है और वे काय योग से युक्त है। फिर भी वे जब कपाट समुद्घात करते हैं, एक समुद्घात का विस्तार करते हुए और एक का संकोच करते हुए, तब इन दोनों में अपूर्ण काय योग होने से अपूर्णपना कहा है। अतः औदारिक मिश्र काय योग से युक्त सयोगि केवली के दोनों कपाटों के काल में अपर्याप्तपना होता है। नोट-सयोगि केवली के समुद्घात काल में-कपाट युगल काल में, प्रतर युगल काल में और लोक पूरण में इन पांच समय में अपर्याप्तपना मंदप्रबोधिनी टीका में कहा है । अपूर्ण योग ही अर्थात् औदारिकमिश्र काय तथा कार्मण काय योग का सद्भाव ही उनके उपचार से अपर्याप्तपने का कारण है । मुख्य रूप से वे अपर्याप्त नहीं है । .१३ सयोगो जीव और द्रव्य जीवेण मंते। जाइ दवाई ( मणजोगत्ताए गेण्हइ ताई किं ठियाई गेण्हइ, अठियाई गेण्हइ । )xxx मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं णवरंणियमं छद्दिसि, एवं वइजोगत्ताए चि। कायजोगत्ताए वि जहा औरालियसरीरस्स। -भग० श । २५ । उ २ । सू १५ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) जीव जिन द्रव्यों को मनो योग रूप में ग्रहण करता है वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं ( कार्मण शरीर की तरह ) पर नियम से छहों दिशाओं से आये हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है । इसी प्रकार वचन योग के विषय में कहना चाहिए । जीव जिन द्रव्यों को काय योग रूप से ग्रहण करता है वह स्थित द्रव्यों को भी, अस्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है । ( औदारिक शरीर की तरह ) वह उन द्रव्य को भी द्रव्य से भी, क्षेत्र से, काल से व भाव से भी ग्रहण करता है । वह द्रव्य से अनंत प्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्षेत्र से असंख्य प्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है xxx । निर्व्याघात से छओं दिशाओं से और व्याघात हो तो कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आये हुए पुद्गलों को ग्रहण करता है । ( देखो पण्ण० प० २८ ) । नोट - जितने क्षेत्र में जीव रहा हुआ है उस क्षेत्र के अन्दर रहे हुए जो पुद्गल द्रव्य है, वे स्थित द्रव्य कहलाते हैं और उससे बाहर के क्षेत्र में रहे हुए पुद्गल द्रव्य अस्थित द्रव्य कहलाते हैं । वहाँ से खींचकर जीव उनको ग्रहण करता है । इस विषय में किन्हीं आचार्यों की यह मान्यता है कि जो गति रहित द्रव्य है वे स्थित द्रव्य कहलाते हैं और जो गति सहित द्रव्य है वे 'अस्थित द्रव्य' कहलाते हैं । • १४ सयोगी जीव और योग द्रव्य का ग्रहण रइया अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, णो अजीवदव्वाणं रइयाप ० हव्वमा गच्छन्ति । से केणट्टेण० ? गोयमा ! णेरइया अजीवदव्वे परियाइयंति, अजीवदव्वे परियाइइत्ता xxx मणजोगं, वइजोगं, कायजोगं च णिव्वत्तयंति x x x णवरं सरीरइ दिय जोगा भाणियव्वा जस्स जे अत्थि । - भग० श २५ । उ २ । सू ५ अजीव द्रव्य नारकियों के परिभोग में आते हैं । परन्तु नैरयिक अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते । नारकी अजीव द्रव्यों को ग्रहण करते हैं, ग्रहण करके मनो योग, वचन योग, काय योग में परिणत करते हैं । इसी प्रकार असुर कुमार से वैमानिक दंडओं तक जानना चाहिए किन्तु जिसके जितने योग हो उसके उतने जानने चाहिए । • १५ जीव और अधिकरण योग - १ जीवा णं भंते ! अधिकरणे कि आयप्पयोगणिव्वत्तिए परप्पयोगणिव्यत्तिए तदुभयप्पओगणिव्वत्तिए ? Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) गोयमा ! आयप्पओगणिव्वत्तिए वि, परप्पओगणिव्यत्तिए वि तदुभय प्पयोगणिव्वत्तिए। से केण?णं मंते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा ! अविरति पहुच्च से तेण?णं जाव तदुभयप्पयोगणिव्वत्तिए । एवं जाव माणियाणं । -भग० श १६ । उ१ । सू ९ जीवों का अधिकरण आत्म-प्रयोग से भी होता है। पर-प्रयोग से भी होता है या तदुभय प्रयोग से होता है । अविरति की अपेक्षा यावत् तदुभय प्रयोग से भी होता है । इसी प्रकार नारकी यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए । नोट-शरीर, इन्द्रिय, योग आदि आंतरिक अधिकरण है। हल, कुदाली आदि शस्त्र तथा धन-धान्य आदि परिग्रह रूप वस्तुए बाह्य अधिकरण है। हिंसादि पाप कार्यों में प्रवृत्ति करने वाले मन योग के व्यापार से उत्पन्न अधिकरण आत्म प्रयोग निर्वतित कहलाता है। दूसरों को हिंसादि पाप कार्यों में प्रवृत्ति कराने से उत्पन्न हुआ वचनादि योग अधिकरण पर प्रयोग निर्वतित कहलाता है। आत्मा द्वारा और दूसरे को प्रवृत्ति कराने वाला उत्पन्न हुआ अधिकरण 'तदुभय प्रयोग निर्वर्तित कहलाता है। स्थावरादि जीवों में वचनादि का व्यापार नहीं होता है तथापि उनमें अविरति भाव की अपेक्षा से पर प्रयोग निर्वतितादि अधिकरण कहा गया है। •२ सयोगी जीव और अधिकरणी या अधिकरण •३ जीवेणं भंते ! मणजोगं निव्वत्तेमाकि अधिकरणी ? अधिकरणं । ___ एवं जहेव सोइंदियं तहेव गिरवसेसं । वइजोगो एवं चेव, गवरंएगिदियवज्जाणं । एवं कायजोगो वि, गवरंसव्व जीवाणं जाव वेमाणिए। भग० श १६ । उ १ । सू १७ मनो योग से बांधता हुआ जीव अधिकरणी भी है, और अधिकरण भी। अविरति की अपेक्षा अधिकरणी भी है, अधिकरण भी है। श्रोत्रेन्द्रिय के समान कहना। १६ दंडक की पृच्छा करनी चाहिए। वचन योग के विषय में भी इसी प्रकार जानने परन्तु वचन योग में एकेन्द्रियों का कथन नहीं कहना चाहिए। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय योग के विषय में इसी प्रकार जानना चाहिए। काय योग सभी जीवों के होता। इसी प्रकार वैमानिक तक कहना चाहिए। .१६ सयोगी जीव और योग प्राप्त करने की विधि जघन्य योग से उत्कृष्ट योग प्राप्त करने की विधि सो जोगो किविधो त्ति भणिदे एगो तिरिक्खाउयं जहण्णजोग-जहण्णबंधगद्धाहि बंधिय कदलीघादं काढूण समऊणुक्कस्सबंधगडाए जहण्णजोगेण णिरयाउयं बंधिय पुणो एगसमयं जत्तियमेत्ताणि जोगट्टाणाणि चडिदु सक्कदि तत्तियमेत्ताणं जोगट्ठाणाणं चरिमजोगट्ठाणमेत्तं गहिदं । एवं उक्कस्सबंधगद्धाए एगो समओ तप्पाओग्गमसंखेज्जगुणं जोगं पत्तो। जहा एसो एगसमओ तप्पाओग्ग मसंखेज्जगुणं जोगं गोवो एवं सेसेगेसमया वि तप्पाओग्गमसंखेज्जगुण जोगस्स दब्वा जावुक्कस्सणिरयाउअबंधगद्धाए सवे समया तप्पाओग्गमसंखेज्जगुणं जोगट्ठाणं पत्ता त्ति। एवमणेण विहिणा संखेज्जवारमुक्कस्सबंधगद्धा उवरि उवरि चढाविय णोदे उक्कस्सजोगं पावदि। ___ एवं णोदे एस्थ चरिमवियप्पो वुच्चदे। तं जहा—जलचरेसु जहण्णजोगजहण्णबंधगद्धाहि तिरिक्खाउयं बंधिय कदलीघादं काऊण उक्कस्सजोग-उक्कस्सबंधगद्धाहि णिरयाउअंबंधाविदे चरिमवियप्पो होदि । एवं तिरिक्खजलचरआउयदव्वमस्सिदूण णिरयाउअमप्पणोजहण्ण-दव्वप्पहुडि जावुक्कस्सदव्वेत्ति ताव परमाणुत्तरादिकमेण णिरंतरं गंतूण उक्कस्सं जादं । -षट्० खं ४, २, ४ । सू १२२ । पु १० । पृ० ३८०-८१ वह ( वर्धमान ) योग किस प्रकार का है ? इसके उत्तर में कहा गया है – कोई एक जीव जघन्य योग और जघन्य बन्धक काल के द्वारा तिर्यंच आयुष्य को बांधकर कदलीघात के द्वारा एक समय कम उत्कृष्ट बन्धककाल में जघन्य योग से नारकायु को बाँध कर पुन: एक समय में जितने मात्र योगस्थान चढ़ सकता है उतने मात्र योग स्थानों को अन्तिम योग स्थान के रूप में यहाँ पर प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार उत्कृष्ट बन्धक काल का एक समय तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योग को प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार यह एक समय तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणित योग को प्राप्त कराया गया है उसी प्रकार शेष एक-एक समय को भी तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योग को प्राप्त कराना चाहिए। यह क्रिया तब तक करनी चाहिए जब तक उत्कृष्ट नारकायु सम्बन्धी बन्धक काल के सब समय तत्प्रायोग्य असंख्यातगुने योग को प्राप्त नहीं हो जाते । इस प्रकार संख्यात बार ऊपर चढ़कर ले जाने पर उत्कृष्ट योग को बन्धक काल प्राप्त होता है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) इस प्रकार ले जाने पर यहाँ पर अन्तिम विकल्प कहा जाता है- जलचरों में जघन्य योग और जघन्य बन्धक काल से तिर्यच आयु को बाँधकर कदलीघात कर उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बन्धक काल से नारकायु को बंधाने पर अन्तिम विकल्प होता है। इसी प्रकार तिर्यंच जलचर के आयु द्रव्य का आश्रय लेकर नारकायु अपने जघन्य द्रव्य को लेकर उत्कृष्ट द्रव्य तक एक परमाणु अधिक आदि के क्रम से निरन्तर जाते हुए उत्कृष्ट बन जाता है। .१७ सयोगी नोव और उत्पत्ति सयोगीनारको को आत्म प्रयोग ( योग रूप व्यापार से ) से उत्पत्ति (रइया) आयप्पओगेणं उववज्जंति णो परप्पओगेणं उववति । -भग• श २५ उ ७ । सू७ नारकी आत्म प्रयोग से उत्पन्न होते हैं पर प्रयोग से नहीं। सयोगी असुर कुमार यावत् वैमानिक देव की आत्म प्रयोग से उत्पत्ति ( असुर कुमारा।) जहा परइया तहेव गिरवसेसं जाव णो परप्पओगेणं उववज्जति । एवं एगिदियावज्जा जाव वेमाणिया। एगिदिया एवं चेव । गवरं चउसमइओ विग्गाहो, सेसंतं चेव । -भग. श २५ । उ८ । सू ८ असुर कुकार यावत् वैमानिकदेव आत्म प्रयोग से उत्पन्न होते हैं, पर प्रयोग से नहीं। १८ योग और कर्मबंध .१ णाणावरणिन्जं कि मणजोगी बंधइ, वयजोगी बंधइ, कायजोगी बंधइ, अजोगी बंधइ ? गोयमा! हेटिल्ला तिण्णि भयणाए, अजोगी ण बंध; एवं बेयणिज्जवज्जाओ, वेयणिज्ज हेटुिल्ला बंधंति, अजोगी ण बंधइ। -भग• श ६ । उ ३ । प्र ४७ मनी योगी, वचन योगी और काय-योगी ये तीनों ज्ञानावरणीय कर्म कदाचित् नहीं बाँधते हैं। अयोगी नहीं बाँधते हैं। इसी प्रकार वेदनीय कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्म प्रकृतियों के विषय में जानना चाहिए। ___ वैदनीय कर्म को मनोयोगी, वचन योगी और काय योगी बाँधते हैं। अयोगी नहीं बांधते हैं। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •२ सयोगीनारको तथा अध्यवसाय-योग-करण से आयुष्य बंध (पेरइया) अज्झवसाण जोगणिन्वत्तिएणं करणोवाएणं एवं खलु ते जीवा परभवियाउयं पकरेंति । -भग० श २५ । उ८ । सू ३ नारकी जीन अपने अध्यवसाय रूप और जोग आदि के व्यापार से करणोपाय ( कर्म बंध के हेतु ) द्वारा परयव भी आयुष्य बांधते हैं। सयोगी असुर कुमार यावत् वैमानिक देव के दंडक तथा अध्यवआय-योग करण के आयुष्यबंध । ( असुरकुमारा। ) जहाणेरइया तहेव णिरवसेसं जाव णो परप्पओगेण उववज्जति । एवं x x x जाव बेभाणिया भग. श २५ । उ ८ सू ८ असुर कुमार से वैमानिक देव तक अपने अध्यवसाय और जोग आदि के व्यापार से करणोपाय से परभवका आयुष्य बांधते हैं । '३ अबन्धोऽयोगी -जैनसिदी. प्र८ । सू२४ अयोगी के कयंबंध नहीं होता है। •१९ सयोगी जीव और कर्म का प्रारम्भ और अंत "१ सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्म० ? एवं चेव, एवं सम्वट्ठाणेसु वि जाव अणागारोवउत्ता। एए सम्वे वि पया एयाए वत्तव्वयाए भाणियन्वा । -भग. श २९ । उ १। सू ३ सयोगी जीव मन योगी-वचन योगी-काय योगी जीवों में १-कितने ही सयोगी जीव एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं। २-या एक साथ साथ प्रारम्भ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं । यो ३-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं ४ या भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं। क्योंकि सयोगी जीव चार प्रकार के कहे हैं, यथा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) ११ - कोई सयोगी जीव समान आयु वाले हैं और समान उत्पन्न होते हैं । २ - कई सयोगी जीव समान आयु वाले हैं किन्तु विषम ( भिन्न-भिन्न समय में ) उत्पन्न होते हैं । ३ – कई सयोगी जीव विषम आयु वाले हैं और सब एक साथ उत्पन्न होते हैं और कितनेक सयोगी जीव विषम आयु वाले हैं और विषम उत्पन्न होते हैं । १ - जो समान आयु वाले और समान उत्पन्न होते हैं के पाप कर्म का भोग एक साथ प्रारम्भ करते हैं, और एक साथ समाप्त करते हैं । २ - जो समान आयु वाले और विषम उत्पन्न होते हैं वे पाप कर्म का योग एक साथ प्रारम्भ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं । ३ -जो विषम आयु वाले और समान उत्पन्न होते हैं वे पाप कर्म का योग भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं । ४ - जो विषम आयु वाले और विषम उत्पन्न होते हैं वे पाप कार्य का योग भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं । • २० सयोगी नारकी और कर्म वेदन का प्रारम्भ और समाप्ति रइया नं भंते ? पावं कम्म कि समायं पट्ठविसु समायं निट्ठविसु पुच्छा। गोमा ! अत्थेगइया समायं पट्टवसु एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणियवं नाव अणागारोवउत्ता । एवं जाव बेमाणियाणं जस्स जं अस्थि तं एएणं चेव कमेण भाणियब्बं । - भग० श २९ । उ १ सू ४ सयोगी-मनो योगी क यावत् वैमानिक तक जिस प्रकार औधिक जीवों की वक्तव्यत्ता कहीं उसी प्रकार वचन योगी व काय योगी नारकी की वक्तव्यत्ता कहनी चाहिए। जानना । जिसके जो जो योग हो वह वह योग कहना | नोट -- पाप कर्म को भोगने का प्रारम्भ और समाप्ति के लिए सम काल और विषम काल की अपेक्षा चौभंगी कहीं है । वह चौभंगी सम आयु और विषम आयु और सम उत्पत्ति और विषम उत्पत्ति वाले जीवों की अपेक्षा घटित होती है । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) ३ सयोगी जीव और ज्ञानावरणीयकर्म के वेदन का प्रारम्भ और समाप्त दर्शनावरणीय वेदनीयकर्म मोहनीयकर्म आयुष्यकर्म नामकर्म गोत्रकर्म अंतरायकर्म जहा पावेण दंडओ, एएणं कमेणं अठ्ठसु वि कम्मप्पगडीसु अट्ठदंडगा भाणियव्वा जीवाइया माणियपज्जवसाणा। एसो णवदंडगसंगहिओ पढमो उद्देसो भाणियव्वो। -भग० श २९ । उ १ । सू ४ जिस प्रकार पापकर्म का दंडक कहा उसी प्रकार उसी क्रम से आठों कर्म प्रकृतियों के आठ दंडक जीवादि से लेकर वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। नव दंडक सहित प्रथम उद्देशक कहना । ४ सयोगी अनंतरोपपन्नक नारकी और पाप कर्म का योग । सलेस्सा णं भंते ! अणंतरोववण्णगा रइया पावं ? एवं चेव, एवं जाव अणागारोवउत्ता। एवं असुरकुमाराणंवि । एवं जाव वेमाणियाणं, णवरं जं जस्स अत्थि तं तस्स भाणियव्वं । एवं गाणावरणिज्जेण वि दंडओ। एवं णिरवसेसं जाव अंतराइएणं । -भग० श २९ । उ २ । सू८ सयोगी अनंतरोपपन्नक नारकी प्रथम व द्वितीय भंग से कर्म का वेदन करते हैं। इसी प्रकार मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी का कहना। सयोगी अनंतरोपपन्नकनारकी दो प्रकार के हैं-यथा १-कितनेकही नारकी समान आयु वाले और समान उत्पत्ति वाले होते हैं तथा २-कितनेक ही समान आयुवाले और विषम उत्पत्ति वाले होते हैं। प्रथम भंग वाले एक साथ पाप कर्म का वेदन प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं। दूसरे भंग वाले पाप कर्म का भोगना एक साथ प्रारम्भ करते हैं और भिन्न समय में समाप्त करते हैं। इसी प्रकार असुरकुमार यावत् वैमानिक देव तक कहना । जिसके जितने योग हो उतने कहने । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोट-आयु उदय के प्रथम समयवर्ती जीव को अनंरोपपन्नक कहते हैं। उनके आयु का उदय समकाल में ही होता है। मरण समय की विषमता के कारण विषमोप पन्नक कहलाते हैं। इसी प्रकार आठ कर्म प्रकृति के आठ दंडक कहने । '५ सयोगी परंपरोपपन्नक नारकी और पाप कर्म का वेदन एवं एएण गमएण जच्चेव बंधिसए उद्देसगपरिवाडी सच्चेव इहवि भाणियव्वा जाव अचरिमोत्ति। अणंतरउद्देसगाणं चउण्ह वि एक्को वत्तव्वया। सेसाणं सत्तण्हं एक्का। - भग० श २९ । उ ३ से ११ वंधीशतक में उद्देशक की तरह जो परिपाटी कही है वह इस पाठ के सम्पूर्ण उद्देशकों की परिपाटी यावत् अचरमोद्देशक पर्यन्त कहना चाहिए। अनंतर सम्बन्धी चार उद्देशकों की एक वक्तव्यत्ता और शेष सात उद्देशकों की एक वक्तव्यत्ता कहनी। नारकी यावत् वैमानिक तक कहना। •२० सयोगी जीव और अणाहारिक १ विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुग्घहो अजोगीय । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा । -गोजी. गा० ६६६ विग्रह गति में आये चारों गतियों के जीव, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करने वाले सयोगी जिन व अयोगी जिन व सिद्ध अणाहारिक होते हैं। नोट-विग्रह गति में चारों गतियों के जीव तथा समुद्घात करने वाले केवली प्रतर और लोकपूरण अवस्था में केवल कार्मण काययोग होता है। •२ कार्मण काय योगी और अनाहारक कम्मइयकायजोगी होदि अणाहारयाणपरिमाणं ॥ गोजी० गा० ६७१ पूर्वाचं टोका-अनाहारककालः कार्मणकाये उत्कृष्टः त्रिसमयः। जघन्य एक समयः।xxx। कार्मणकाययोगिजीवराशिः अनाहारकपरिमाणं भवति । अनाहारक काल-कार्मण काय योग में उत्कृष्ट तीन समय का है और जघन्य एक समय का है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •३ थावर कायप्पहुडी सजोगिचरिमोत्ति होदि आहारी। कम्मइय अणाहारी अजोगिसिद्ध वि णायन्वो -गोजी० गा. ६९८ आहारक में सयोगकेवलि पर्यन्त गुणस्थान होते हैं। कार्मण योग के समय (मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयत और सयोग केवली के कार्मण काय योग के समय ) तथा अयोगी और सिद्ध अणाहारिक होते हैं । .५ कार्मण काय योगी अनाहारक होते हैं। कम्मइय अणाहारी अजोगिसिद्धवि णायव्वो। -गोजी. गा० ६९८ । उत्तरार्ध टोका-मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतसयोगानां कार्मणयोगावसरे अयोगि सिद्धयोश्च अनाहारो ज्ञातव्यः । तत्र जीव समासाः सप्त । अयोगस्य चैकः । मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयत और सयोगी कार्मण योग के समय अनाहारक होते हैं। अयोगी अनाहारक होते हैं। उसमें जीव समास अपर्याप्त सम्बन्धी सात होते हैं। अयोगी के एक पर्याप्त होता है। कार्मणकाययोगिजीवराशिः अनाहारकपरिमाणं भवति । -गोजी० ६७१ । टीका योग मार्गणा में कार्मण काय योगियों का जितना प्रमाण कहा है उतना ही अनाहारकों का प्रमाण है। .५ सयोगो जीव और आहारादि सजोगीसु जोवेगिदियवज्जो तियभंगो। मणजोगी वइजोगी य जहा सम्मामिच्छट्ठिी ( सम्मामिच्छदिट्ठी णं भंते ! कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! आहारए, णो अणाहारए-सू १८८९) णवरं वइजोगो विलिदियाण वि। कायजोगीसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। अजोगी जीव-मणूस-सिद्धा अणाहारगा। –पण्ण० प २८ । उ २ । सू १९०० । पृ० ४०५ टीका-सामान्यतः सयोगिसूत्रमेकवचने तथैव, बहुवचने जीवएकेन्द्रियपदानि वर्जयित्वा शेषेषु स्थानेषु भगत्रिकं, जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च पुनः प्रत्येकमाहारका अपि अनाहारका अपीति भङ्गः, उभयेषामपि सदैव तेषु स्थानेषु Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् 'मणजोगी वइजोगी जहा सम्मामिच्छद्दिट्ठी यत्ति मनोयोगिनो वाग्यो गिनश्च यथा प्राक् सम्यग्मिथ्यादृष्टय उक्तास्तथा वक्तव्याः, एकवचने बहुवचने चाहारका एव वक्तव्या न त्वनाहारका इति भावः, नवरं 'वजोगो विगलिदियाणवि त्ति नवरमिति सम्यग्मिथ्यादृष्टि सूत्रादयं विशेषः, सम्यग्मिथ्यादृष्टित्वं विकलेन्द्रियाणां नास्तीति तत्सूत्रं तव नोक्तं वाग्योगः पुनवकलेन्द्रियामप्यस्तीति तत्सूत्रमपि वाग्योगे वक्तव्यं तच्चैवम् – 'मणजोगी णं भंते! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! आहारए नो अनाहारए, एवं एगिदियविलदियवज्जं जाव वैमाणिए, एवं पुहुत्तेणवि, वइजोगी णं भंते । किं आहारए अणाहारए ? गोयमा ! आहारए णो अणाहारए, एवं एगिदियवज्जं जाव वैमाणिए, एवं पुहुत्तेणवि' त्ति, काययोगिसूत्रमप्येकवचने बहुवचने च सामान्यतः सयोगिसूत्रमिव, अयोगिनो मनुष्याः सिद्धाश्व, तेनात्र वीणि पदानि, तद्यथा - जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदं च विष्वपि स्थानेष्वेकवचने बहुवचने चानाहारकत्वमेव । सयोगी जीव ( एक वचन ) कदाचित् आहारक होते हैं, कदाचित् अनाहारक होते हैं । इसी प्रकार दंडक के सभी जीवों के विषय में जानना । योगी जीव ( बहु वचन ) औधिक तथा एकेन्द्रिय जीव में एक भंग होता है । यथा - आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं । क्योंकि ये दोनों प्रकार के जीव सदैव अनेकों रहते हैं । इसके सिवाय अन्यों में तीन अंग होते हैं ( एकेन्द्रियों को छोड़ कर ) यथा - ( १ ) अनेक आहारक, अनेक अनाहारक होते हैं । (२) अनेक आहारक, एक अनाहारक । (३) सर्व आहारक होते हैं । मनोयोगी तथा वचन योगी एक वचन बहुवचन की अपेक्षा सम्यग् मिथ्या दृष्टि की तरह आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं होते हैं । वचन योग बेइन्द्रिय, इन्द्रिय, चतुदिन्द्रिय के होता है लेकिन सम्यग् मिथ्या दृष्टि गुण स्थान नहीं है । वे भी वचन योग में सब आहारक होते हैं - अनाहारक नहीं होते हैं । मनो योग एकेन्द्रिय तथा विकेन्द्रियों में नहीं होता है । काय योगी में एकेन्द्रियों को छोड़ कर तीन भंग होते हैं । अयोगी - मनुष्य-सिद्ध तीन पद अनाहारक होते हैं, आहारक नहीं होते हैं । ·६ अयोगी जीव अनाहारक होते हैं केवलि समुहय अरुह अजोइ सिद्ध ते ण लेंति आहारु विग्गह- गइ-गय । परमप्पय ॥ वियारिय । - वीरजि० संधि १२ | कडे ४ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) अयोगी जीव आहार नहीं लेते हैं अतः वे अनाहारक है । •२१ सयोगी जीव और आत्मा को अभिन्नता अण्णउत्थियाणं भंते! एवं आइक्खं तिजाव परुर्वेति –एवं खलु xxx एवं मणजोए, वइजोए, कायजोए xxx वट्टमाणस्स अण्णे जीवे, अण्णे जीवाय xxx। गोयमा ! जणं ते अण्णउत्थिया एवं आइक्खंति जाव मिच्छ ते एवं आहेसु' अहं पुण गोयमा। एवं खलु आइक्खामि जाव परुवेमि-'एवं खलु xxx एवं मणजोए, वइजोए, कायजोए x x x वट्टमाणस्स एवं सच्चेव जीवाया। -भग० १७ । उ २ । सू ९ अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं यावत् परूपित करते हैं कि xxx मनो योगवचन योग-काय योग में x x x आदि में वर्तमान प्राणी या जीव अन्य है, और जीवात्मा अन्य है। यह कथन उनका मिथ्या है। मनो योग यावत् काय योग में वर्तमान प्राणी जीव है और वही जीवात्मा है। •२२ सयोगी जीव की संख्या .१ औदारिक काय योग की संख्या .२ औदारिक मिश्र काय योग की संख्या .३ कार्मण काय योग की संख्या कम्मोरालियमिस्सय ओरालद्धासु संचिद अणंता। कम्मोरालियमिस्सय ओरालियजोगिणो जीवा। -गोजी० गा० २६४ कामंण काय योग, औदरिक मिश्र काय योग तथा औदारिक काय योग के आगे कहे गये कालों में संचित हुए कार्मण काय योगी, औदारिक मिश्र काय योगी और औदारिक काय योग जीव प्रत्येक अनंतानंत जानना चाहिए । •२२ योग की संख्या आहारक काय योग की संख्या आहारकामिश्रकाय योग की संख्या आहारकायजोगाचउवणं होंति एक्कसमयम्मि। आहारमिस्सजोना सत्तावीसादु उक्कस्सा ॥२७०॥ -गोजी० गा० २७० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) आहारक काय योग के धारक एक समय में एक साथ उत्कृष्टतः चौप्पन्न होते हैं तथा आहारक मिश्र काय योगी एक समय में एक साथ उत्कृष्टतः सत्ताईस होते हैं । विशेष-उत्कृष्ट रूप से एक समय में उक्त संख्या प्रमाण जीव होते हैं, इससे कम हो सकते हैं किन्तु अधिक नहीं हो सकते। अर्थात् वह सब उत्कृष्ट रूप से एक समय में जानना चाहिए। .२३ अयोगी जीव कौन होते हैं जेसि ण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपावसंजणया। ते होंति अजोगिजिणा अणोवमाणंतबलकलिया ॥ ---- गोजी. गा२४३ जिन आत्माओं के पुण्य-पाप रूप प्रशस्त और अप्रशस्त कर्मबंध के कारण मनवचन-काय की क्रिया शुभ और अशुभ नहीं है वे आत्मा चरम गुणस्थानवर्ती अयोगी केबली है। विशेष—योग के आधार से जो बल होता है वह प्रतिनियत विषय वाला ही होता है। परमात्मा का बल केवल ज्ञान आदि की तरह आत्मा का स्वभाव होने से अप्रतिनियत विषय वाला होता है। •२४ एक काल में एक योग .१ जोगो वि एक्ककाले एक्केव य होदिणियमेण । -गोजी० गा. २४२ । उत्तरार्ध टीका तथा योगोऽपि एक्ककाले स्वयोग्यान्तमुहूर्ते एक एव नियमेन भवति द्वौ त्यो वा योगा एकजीवे युगपन्न सम्भवति। तथा सति एक योगकाले अन्ययोगरूपगमनादि क्रियाणां संभवो नामातिक्रान्त योग संस्कार जनितो न विरुध्यते। तथा योग भी एक काल में अर्थात् अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त में नियम से एक ही होता है। दो या तीन योग एक जीव में एक साथ नहीं होते। ऐसा होने पर एक योग के काल में अन्य योग का कार्य रूप गमनादि क्रिया के होने में कोई विरोध नहीं है क्योंकि जो योग चला गया उसके संस्कार से एक योग के काल में अन्य योग की क्रिया होती है। .२ वैक्रिय योग क्रिया तथा आहारक योग क्रिया युगपत् नहीं होती है। वेगुन्विय आहारकिरिया ण समपमत्तविरदम्मि। लोगो वि एक्ककाले एक्केव य होदिणियमेण ॥ -गोजी. गा. २४२ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७) टीका प्रमत्तविरते वैऋियिकयोगक्रिया आहारकयोगक्रिया च द्वो युगपन्न संभवतः । तद्यथा – कदाचिदाहारक योगमवलम्व्य प्रमत्तसंयतस्य गमनादि - किया प्रवर्ततेतदा विक्रियद्धबलेन विक्रियिकयोगमवलम्ब्य वैक्रियिकक्रिया न घटते आहारकधविक्रिययस्तस्य युगपद्वृत्तिविरोधात् । अनेक गणधरादीनां इतरधि युगपद्वृत्तिसंभवः सूचितः । x x x । कुलालदंडप्रयोगाभावेऽपि तत्संस्कारबलेन चक्रभ्रमणवत् संस्कारक्षये बाणपतनवत्क्रिया निवृत्तिदर्शनादेव संस्कारवशेन युगपदनेक क्रियावृत्तिप्रसङ्ग सति प्रमत्तविरते वैऋियिकाहारकशरीरक्रिययोः युगपत्प्रवृत्तिप्रतिषेधः आचार्येण प्ररुपितोजातः । प्रमत्तविरत में वैक्रियिक योग क्रिया और आहारक योग किया- ये दोनों एक साथ नहीं होती । जब आहारक योग का अवलम्बन लेकर प्रमत्तसंयत के गमनादि क्रिया होती है तब विक्रिया ऋद्धि के बल से वैक्रियिक योग का अवलम्बन लेकर वैक्रियिक क्रिया नहीं होती । क्योंकि उसके आहारक ऋद्धि और विक्रियाऋद्धि दोनों के एक साथ होने में विरोध है । इससे गणधर आदि के अन्य ऋद्धियों का एक साथ रहना सूचित किया है । तथा योग भी एक काल में अर्थात् अपने योग्य अन्तर्मुहूर्त में नियम से एक ही होता है । दो या तीन योग एक जीव में एक साथ नहीं होते हैं । ऐसा होने पर एक योग के काल में अन्य योग के कार्य रूप गमन आदि क्रिया के होने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि जो योग चला गया उसके संस्कार से एक योग के काल में अन्य योग की क्रिया होती है । जैसे कुम्हार दंड के प्रयोग से चाक को घुमाता है । पीछे दंड का प्रयोग नहीं करने पर भी चाक घूमता रहता है । या धनुष से छूटने पर बाण जब तक उस में है, तब तक जाता है । पीछे संस्कार नष्ट हो जाने पर गिर जाता है । इस प्रकार संस्कार के वश एक साथ अनेक योगों की क्रिया के होने का प्रसंग उपस्थित होने पर प्रमत्तविरत में वैक्रियिक और आहारक शरीर को क्रियाओं के साथ होने का निषेध आचार्य ने किया है । अर्थात् ये दोनों क्रिया प्रमत्तविरत के संस्कार वश भी एक साथ नहीं होती । संस्कार के बल से पूर्व संस्कार रहता - २४ औदारिक व औदारिक मिश्र काय योग किसके होता है । तौ योगौ द्वावपि नरतिरश्चोरेवेति सर्वज्ञ रुक्तम् । - गोजी० गा० ६८१ । टीका दारिक व औदारिक मिश्र काय योग- ये दोनों भी योग मनुष्य और तिर्यंचों में ही होते हैं - ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है । - २५ जीव सयोगी भी होते हैं व अयोगी भी - १ ( जीवा ) पञ्चदशयोगाः अयोगाश्च संति । पन्द्रह योग वाले जीव है और योग रहित जीव है । - गोजी० गा० ७२८ । टीका Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) •२ सयोगी जीव के भेद दो भेद सजोगी णं भंते ! सजोगीत्ति पुच्छा ? गोयमा ! सजोगी दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सज्जवसिए। —पण्ण. प. १८ । द्वा।८ । सू ९ सयोगी जीव के सयोगीत्व की अपेक्षा दो प्रकार होते हैं-(१) अनादि-अपर्यव सित सयोगी अभव्यत्व की अपेक्षा तथा (२) अनादि सपर्यवसित ( भव्यत्व की अपेक्षा)। तीन भेद योग की अपेक्षा सयोगी जीव के तीन भेद होते हैं – यथा मनोयोगी वचन योगी तथा काय योगी। मनोयोगी तथा वचन योग की स्थिति जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतमुहर्त की तथा काययोगी की स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त व उत्कृष्ट अनंत काल की है। •२६ सयोगी जीव का योग को अपेक्षा उत्पत्ति मरणः.१ योग की अपेक्षा दंडक में उत्पत्ति-मरण के नियम यह निश्चित है कि अशुभ योगी नारकी सातों नारकी में उत्पन्न होता है, अशुभ योगी रूप में से ही मरण को प्राप्त होता हैं। उस अशुभ योगी के तीन लेश्या होती हैकृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या । इसी प्रकार असुरकुमार यावत् स्तनित देवों के सम्बन्ध में कहना। लेकिन शुभ योग का भी कथन करना । कि उनमें कृष्ण, नील, कापोत-तेजी लेश्या होती है। यह निश्चित है अशुभ योगी पृथ्वीकायिक जीव अशुभ योगी पृथ्वी काय में उत्पन्न होता है और अशुभ योग रूप में मरण को प्राप्त होता है। प्रशस्त अध्यवसायी-शुभयोगी पृथ्वीकायिक जीव तेजो लेश्या के साथ तेजो लेशी पृथ्वी कायिक में उत्पन्न होता है और अशुभ योग रूप में मरण को प्राप्त होता है लेकिन तेजो लेश्या में उत्पन्न हो सकता है लेकिन मरण को प्राप्त नहीं होता है। इसी प्रकार अप्काय व वनस्पतिकायिक के जीव के सम्बन्ध में जानना चाहिए। अशुभ योगी अग्निकायिक जीव अशुभ योगी अग्निकाय में उत्पन्न होते हैं और अशुभ योय रूप में मरण को प्राप्त होते हैं। अशुभ योगी वायुकायिक जीव अशुभ योगी बायुकाय मैं उत्पन्न होते हैं और अशुभ योग रूप में मरण को प्राप्त होते हैं। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ) इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय के संबंध मे जानना । अशुभयोगी तिर्यंचपंचेन्द्रिय अशुभयोगी तिर्यंचपंचेन्द्रिय के रूप में उत्पन्न होते हैं तथा शुभयोगी तिर्यंचपंचेन्द्रिय शुभयोगी तिर्यंचपंचेन्द्रिय में उत्पन्न होते हैं। कदाचित् जिस योग में उत्पन्न होते हैं, कदाचित् उसी योग में मरण को प्राप्त होते हैं। मरण के समम शुभ योग भी हो सकता है, अशुभयोग भी। अशुभयोगी वाणव्यंतर देव अशुभयोगी वाणव्यंतर देव रूप में उत्पन्न होता है लेकिन शुभयोग का भी कथन करना चाहिए चूंकि उनमें तेजोलेश्या भी होती है। अशुभयोगी ज्योतिषीदेव शुभयोगी ज्योतिषीदेव में तथा शुभयोगी वैमानिकदेव शुभयोगी वैभानिक देवरूप में उत्पन्न होते हैं। इन देवों का शुभयोग रूप में च्यवन होता है। देखें लेश्या कोश पृ० १५४ । •२८ सयोगी जीव और आरम्भ, परारंभ, उभयारम्भ व अनारम्भ ___जोवाणं भंते ! कि आयारंभा, परारंभा, तदुभयारंभा, अनारंभा ? गोयमा ! अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभावि। नो अणारंभा; अत्थेगइया जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा नो तदुभयारंभा, अणारंभा। से केण?णं भंते। एवं वुच्चइ-अत्थेगइया जीवा आयारंभावि एवं पडिउच्चारेयव्वं ? गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णता, तंजहा-- संसारसमावण्णगा य असंसार समावनगा य। तत्थणं जे ते असंसारसमावन्नगा तेणं सिद्धा, सिद्धा णं नो आयारंभा जाव अणारंमा; तत्थणंजेते संसारसमावन्नगा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–संजयाय असंजयाय ; तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पण्णता, तंजहा पमत्तसंजया य अपमत्तसंजया य। तत्थणं जे ते अप्पमत्तसंजया ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा जाव अणारंभा, तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुह जोगं पड़च्च नो आयारंभा, नो परारंभा जाव अणारंभा, असुभं जोगं पडुच्च आयारंभावि जाव नो अमारंभा, तत्थणं जेते असंजया ते अविरतिं पडुच्च आयारंभावि जाव नो अणारंभा। से तेण?णं गोयमा! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया जीवा जाव अणारंभा।xxx। मणुस्सा जहा जीवा। -भग० श १ । उ १ । सू ४८/५१ जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार है--संसारसमापनक और असंसारसमापन्नक । जो संसारसमापन्नक है, वे दो प्रकार के कहे गये हैं—यथा संयत और असंवत। इनमें जो संयत है वे दो प्रकार के कहे गये हैं-यथा-प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत है। जो प्रमत्तसंयत है वे शुभयोग की अपेक्षा आरंभी, परारंभी और तदुभयारंभी नहीं है किन्तु Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) अनारंभी है और अशुभयोग की अपेक्षा आरंभी भी है, परारंभी भी है और तदुभयारंभी भी है किन्तु अनारंभी नहीं है । नोट - अप्रमत्तसंयत के अशुभयोग नहीं है, शुभयोग है अतः वे आरंभी, परारंभी और तदुभयारंभी नहीं है, किन्तु अनारंभी है । मनुष्य के विषय में औधिक जीव की तरह कहना । - २९ सयोगी जीव और कषाय - २९ सयोगी नारकी में कषायोपयोग के विकल्प ( इमीसेणं भंते! रयणप्पायाए पुढवीए तीसाए निरयावास सय सहस्से सु एगमेगंस नेरइयावासंसि नेरइयाणं ) । मणजोए वट्टमाणा कोहोवउत्ता माणोवउत्ता, मायोवउत्ता लोभोवउत्ता । गोयमा ! सत्तावीसं भंगा। एवं वइजोए, एवं कायजोए । xxx एवं सत्तवि पुढवीओ नेयव्वाओ x x x - भग० श १ । उ । ५ । सू १८७ इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले और मनयोग में वर्तनेवाले नारकी जीव क्या क्रोधोपयुक्त है, मानोपयुक्त है, मोयोपयुक्त है या लोभोपयुक्त है । सत्ताईस भंग कहना चाहिए । इसी प्रकार वचनयोगी व काययोगी में भी कहना चाहिए । नोट - उनमें एकवचन तथा बहुवचन की अपेक्षा से क्रोधोपयोग आदि के निम्नलिखित २७ विकल्प होते हैं (१) सर्व क्रोधोपयोग वाले (२) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक मानोपयोगवाला (३) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मानोपयोगवाले (४) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक मायोपयोगवाला (५) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मायोपयोगवाले (६) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक लोभोपयोगवाला (७) बहु क्रोधोपयोग वाले, बहु लोभोपयोगवाले (८) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक मानोपयोग वाला, एक मायोपयोगवाला (९) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक मानोपयोगवाला, बहु मायोपयोगवाले (१०) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मनोपयोगवाले, एक मायोपयोगवाला (११) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मानोपयोगवाले, बहु मायोपयोगवाले, (१२) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक एक मानोपयोगवाला, एक लोभोपयोगवाला (१३) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक मानोपयोगवाला, बहु लोभोपयोगवाले (१४) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मानोपयोगवाले, एक लोभो - योगवाला (१५) बहु क्रोधोपयोग वाले, बहु मानोपयोगवाले, बहु लोभोपयोगवाले (१६) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक मायोपयोगवाला, एक लोभोपयोगवाला (१७) बहु क्रोधोपयोगवाला, एक मायोपयोगवाला, बहु लोभोपयोगवाले (१८) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मायोपयोगवाले, Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) एक लोभोपयोगवाला (१९) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मायोपयोगवाले, बहु लोभोपयोगवाले (२०) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक मानोपयोगवाला, एक मायोपयोगवाला, एक लोभोपयोगवाला (२१) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक मानोपयोगवाला, एक मायोपयोगबाला, बहु लोभोपयोगवाले (२२) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक मायोपयोगवाला, बहु मानोपयोगवाले, एक लोभोपयोगवाला (२३) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक मायोपयोगवाला, बहु मायोपयोगवाला, एक लोभोपयोगवाला (२४) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मानोपयोगवाले, एक मायोपयोगवाला, एक लोभोपयोगवाला (२५) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मानोपयोगवाले, एक मायोपयोगवाले, बहु लोभोपयोगवाले (२६) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मानोपयोगवाले, बहु मायोपयोगवाले, एक लोभोपयोगवाला तथा (२७) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मानोपयोगवाले, बहु मायोपयोगवाले, बहु लोभोपयोगवाले । ___ इसी प्रकार सातों पृथ्वी के नरकावासों में एक-एक नरकावास में बसे हुए मनोयोगी, वचनयोगी तथा काययोगी नारकियों में क्रोधोपयोग आदि के २७ विकल्प कहने । जिस-जिस योग का प्रतिपादन करना बह-वह योग कहना तथा नरकावासों में योग की भिन्नता लेश्या की तरह होती है। •२९.२ सयोगी ( काय योगी ) पृथ्वीकायिक में कषायोपयोग के विकल्प ___ असंखेज्जेसुणं भंते ! पुढविक्काइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि x x x ( सव्वेसु वि ठाणेसु) वट्टमाणा पुढविक्काइया कि कोहोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोवउत्ता, लोभोवउत्ता! गोयमा! कोहोवउत्ता वि माणोवउत्तावि, मायोवउत्तावि, लोभोवउत्तावि, एवं पुढविक्काइयाणं सन्वेसु वि, ठाणेसु अभंगणं नवरं तेयलेस्साए असीइभंगा। एवं आउक्काइया वि, तेउक्काइयवाउक्काइयाणं सम्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं । वणस्सइकाइया जहा पुढविक्काइया। -भग० श १ । उ ५ । सू १९२ पृथ्वीकाविक के असंख्यात लाख आवासों में एक-एक आवास में वासित काययोगी पृथ्वीकायिक में कषायोपयोग के विकल्प नहीं कहते । •२९.३ सयोगी ( काययोगी) अप्कायिक में कषायोपयोग के विकल्प अकायिक के असंख्यात लाख आवासों में एक-एक आवास में वासित काययोगी अप्कायिक में कषायोपयोग के विकल्प नहीं कहते ( देखो पाठ २९.२)। २९.४ सयोगी ( काययोगी) अग्निकायिक में कषायोपयोग के विकल्प ___ अग्निकायिक के असंख्यात लाख आवासों में एक-एक आवास में वासित काययोगी भग्निकायिक में विकल्प नहीं कहने ( देखो पाठ •२९२)। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) २९.५ सयोगी ( काययोगी ) वायुकायिक में कषायोपयोग के विकल्प वायुकायिक के असंख्यात लाख आवासों में एक-एक आवास में वासित काययोगी वायुकायिक में कषायोपयोग के विकल्प नहीं कहने ( देखो पाठ २९२ )। •२९.६ सयोगी ( काययोगी ) बनस्पतिकायिक में कषायोपयोग के विकल्प वनस्पतिकायिक के असंख्यात लाख आवासों में एक-एक आवास में वासित काययोगी वनस्पतिकायिक में कषायोपयोग के विकल्प नहीं कहने । वे क्रोधोपयोग वाले भी है, मानो. पयोग वाले भी है, मायोपयोग वाले भी है, लोभोपयोग वाले भी है (देखो पाठ २९.२)। •२९.७ सयोगी द्वीन्द्रिय ( काय योगी-वचन योगी ) के कषापयोगी के विकल्प बेइंदिय तेइंदियचरिदियाणं जेहिं ठाणहि नेरइयाणं असीइभंगा तेहिं ठाणेहिं असीईचेव, नवरं अम्भहिया सम्मत्ते । आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे य, एएहि असोइ भंगा, जेहिं ठाणेहि नेरइयाणं सत्तावीसं भंगा तेसु ठाणेसु सव्वेसु अभंगयं । -भग० श १ । उ ५ । सू १९३ द्वीन्द्रिय के असंख्यात लाख आवासों में एक-एक आवास में वासित काययोगी तथा वचनयोगी द्वीन्द्रिय में कषायोपयोग के विकल्प नहीं कहने । •२९८ सयोगी वीन्द्रिय में कषायोपयोग के विकल्प त्रीन्द्रिय के असंख्यात लाख आवासों में एक-एक आवास में बसे हुए काययोगी, वचनयोगी त्रीन्द्रिय में कषायोपयोग के विकल्प नहीं कहने। वे क्रोधोपयोग वाले, भी है, मानोपयोग वाले भी है, मायोपयोग वाले भी है, लोभोपयोग वाले भी है ( देखो पाठ २९७)। '२९.९ सयोगी चतुरिन्द्रिय में कषायोपयोग के विकल्प चतुरिन्द्रिय के असंख्यात लाख आवासों में एक-एक आवास में वासित काययोगी, वचनयोगी चतुरिन्द्रिय में कषायोपयोग के विकल्प नहीं कहने ( देखो पाठ २९७)। •२९.१० सयोगी तिर्यच पंचेन्द्रिय में कषायोपयोग के विकल्प पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहानेरइया तहा भाणियन्वा, नवरं मेहि सत्तावीसं भंगातेहिं अभंगयं कायव्वं जत्थ असीई तत्थ असीइ चेव। -भग० श १ । उ ५ । सू १९४ तिर्यंच पंचेन्द्रिय के असंख्यात लाख आवासों में एक-एक आवास मे वासित काययोगी, वचनयोगी व मनोयोगी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में कषायोपयोग के विकल्प नहीं कहने । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) •२९ ११ सयोगी मनुष्य में कषायोपयोग के विकल्प मणुस्साणं वि जेहि ठाणेहि नेरइयाणं असीइभंगा तेहि ठा!ह मणुस्साण वि असीइभंगा भाणियव्वा, जेसु ठाणेसु सत्तावीसा तेसुअभंगयं, नवरं मणुस्साणं अहियं जहनियाठिई ( ठिइए ) आहारए असीइभंगा। -भग० श १ । उ ५ । सू १९५ मनुष्य के एक-एक आवास में वासित मनोयोगी, वचन योगी व काय योगी मनुष्य में कषायोपयोग के विकल्प नहीं कहने । •२९.१२ सयोगी भवनपति देव में कषायोपयोग के विकल्प चउसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकुमारावासंसिअसुरकुमाराणं केवइया ठिइट्टाणा पन्नत्ता, गोयमा! असखेज्जा ठिइट्टाणा पन्नत्ता, जइण्णिया ठिइजहा नेरइया तहा, नवरं-पडिलोमा भंगा भाणियन्वा । सन्वेवि तावहोज्ज लोभोवउत्ता। अहवा लोभोवउत्ताय, मायोवउत्तय, अहवा लोभोवउत्ता य, मायोवउत्ता य। एएणं गमेणं नेयव्वं जाव थपियकुमारणं नवरं नाणत्तं जाणियव्वं । -भग० श १ । उ ५ । सू १९० असुर कुमार के चौसठ लाख आवासों में एक-एक असुर कुमारावास में वासित मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी असुरकुमार में लोभोपयोग, मायोपयोग, मानोपयोग व क्रोधोपयोग के सत्ताईस विकल्प कहने । नारकियों में क्रोध के बिना छोड़े विकल्प होते हैं परन्तु देवों में लोभ को बिना छोड़े विकल्प बनते हैं। अतः प्रतिलोम अंश होते हैं-ऐसा कहा गया है। इसी प्रकार नागकुमार से स्तनितकुमार तक कहना। परन्तु आवासों की भिन्नता जाननी । २९ १३ सयोगी वाणव्यंतर देव में कषायोपयोग के विकल्प वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहाभवणवाणी नवरं नाणत्तं जाणियव्वं जं जस्स जाव अनुत्तरा। -भग० शे १ । उ ५ सू १९६ वाणव्यंतर के असंख्यात लाख आवासों में एक-एक आवास में वासित मनोयोगी, बचनयोगी, काययोगी वाणव्यंतर में भवनवासी देवों की तरह क्रोधोपयोग, मायोपयोग, मानोपयोग व क्रोधोपयोग के सत्ताईस विकल्प कहते । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) २९.१४ सयोगी ज्योतिषी देव में कषायोपयोग के विकल्प __ ज्योतिषीदेव के असंख्यात लाख विमाणवासों में वासित मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी ज्योतिषीदेव में भवनवासी देवों की तरह लोभोपयोग, मायोपयोग, मानोपयोग व क्रोधोपयोग के सत्ताईस विकल्प कहने ( देखो पाठ २९.१३)। •२९.१५ सयोगी वैमानिक देव में कषायोपयोग के विकल्प वैमानिक देवों के भिन्न-भिन्न भेदों में भिन्न-भिन्न संख्यात विमानावासों के अनुसार एक-एक विमानावास में वासित मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी वैमानिक देबों में भवनवासी देवों की तरह लोभोपयोग, मायोपयोग, मानोपयोग व क्रोधोपयोग के विकल्प कहने ( देखो पाठ २९.१३ )। देवों में पाये जाने वाले सत्ताईस भंग इस प्रकार हैअसंयोगी १ भंग १-सभी लोभी द्विक संयोगी ६ भंग १ लोभी बहुत, मायी एक २ लोभी बहुत, मायी बहुत ३ लोभी बहुत, मायी एक ४ लोभी बहुत, मायी बहुत ५ लोभी बहुत, क्रोधी एक ६ लोभी बहुत, क्रोधी बहुत । त्रिक संयोगी १२ भंग १. लोभी वहुत, मायी एक, मानी एक २. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत ३. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक ४. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी बहुत ५. लोभी बहुत, मायी एक, क्रोधी एक ६. लोभी बहुत, मायी एक, क्रोधी बहुत ७. लोभी बहुत, मायी बहुत, क्रोधी एक ६. लोभी बहुत, मायी बहुत, क्रोधी बहुत ९. लोभी बहुत, मानी एक, क्रोधी एक .१०. लोभी बहुत, मानी एक, क्रोधी बहुत ११. लोभी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी एक १२. लोभी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी बहुत चतुः संयोगी आठ भंग १. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक, क्रोधी एक २. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक, क्रोधी बहुत Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) ३. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी एक ४. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी बहुत ५. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधी एक ६. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधी बहुत ७. लोभी बहुत, मायी बहुत मानी बहुत, क्रोधी एक ८. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी क्रोधी बहुत बहुत, नोट – सत्ताईस भंगों में 'लोभ' को बहुवचनांत ही रखना चाहिए । - यद्यपि अकेले कार्मण काययोग में अस्सी भंग संभव है तथापि यहाँ पर उसकी विवक्षा नहीं की है । किन्तु सामान्य काययोग की विवक्षा की गई है । नारकियों में जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे गये हैं, उन स्थानों में यहाँ अभंगक कहना चाहिए | क्योंकि क्रोधादि उपयुक्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच एक ही साथ बहुत पाये जाते हैं । इसी प्रकार विकलेन्द्रियों के संबंध में अभंग अर्थात् ( नारकी के जीवों में जहां सत्ताईस भंग कहे हैं वहां ) भंगों का अभाव कहना चाहिए। अभंगक कहने का कारण यह है कि विकलेन्द्रिय जीवों में क्रोधादि उपयुक्त जीव एक साथ बहुत पाये जाते हैं एक-एक कषाय में उपयुक्त बहुत से पृथ्वीकायिक होते हैं अतः अभंगक समझना चाहिए | ( नारकी के सत्ताईसभंग की जगह • ३० सयोगी और समुद्घात १ सयोगी केवली और समुद्घात ( केवली समुग्धायं ) कतिसमइए णं भंते ! आउज्जीकरणे पण्णत्ते ? गोमा ! असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए आउज्जीकरणे पण्णत्ते ? २१७१ कतिसमइए णं भंते ! केवलिसमुग्धाए पण्णत्ते गोयमा ! अट्ठसमइए पण्णत्ते । तंजहा पढम समए दंडं करेति, बिइए समए कवाडं करेति, ततिए समए मंथं करेति, चउत्थे समए लोगं पूरेइ, पंचमे समए लोयं पडिसाहरति, छट्ट समए मंथ पडसाहरति सत्तमे समए कवाडं परिसाहरति, अट्टमे समए दंडं पडिसाहरति, दंड पडिसाहरेत्ता ततो पच्छा सरीरत्थे भवति । २१७२ भंते! तहासमुग्धायगते कि मणजोगं जु जति वइजोगं जु' जतिकायजोगं जुजति ? गोयमा ! णो मणजोगं जुंजइ णो वहजोग जुजइ, कायजोगं जति ! Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायजोगेणं भंते ! जुजमाणे किं ओरालियसरीरकायजोग जुजति ओरालियमोसासरीरकायजोगंजु जति ? कि वेउव्वियसरीरजोगं जुजति वेउविमीसासरीर कायजोगं जुजति ? कि आहारगसरीरकायजोगं जुजइ आहारगमीसासरीरकायजोगं जुजति ? कि कम्मगसरीर कायजोगं जुजइ ? गोयमा ! ओरालियसरीरकायजोगपि जुजति ओरालिमीसासरीरकायजोगं पि जुजइ, णो वेउब्वियसरीरकायजोगं जुजति णो वेउव्वियामीसासरीर कायजोगं जुनति, णो आहारगसरीरकायजोगं जुजति णो आहारगमीसासरीरकायजोगं जुजति, कम्मगसरीरकायजोगं पि जुजति, पढमऽअट्ठमेसु समएसु ओरालियसरीरकाय जोगं जुजति, बितियं-छट्ठ-सतमेसु समएसु ओरालियमीसगसरीरकायजोगं गुजति, ततिय-चउत्थपंचमेसु समएसु कम्मगसरीरकायजोग जुजति । २१७३ – पण्ण• पद ३६, ओव० सू० १७४/१७६ __ केवलि समुद्घात का स्वरूप-आवर्जीकरण असंख्यात समय के अन्तमुहूर्त का होता है। उदीरणावलिका में कर्म के प्रक्षेप की क्रिया को आवर्जीकरण कहते हैं। केवलि समुद्घात आठ समय की होती है। पहले समय में ऊँचे और नीचे लोकांतगामी अपने जीव प्रदेशों से, ज्ञानायोग से अपने शरीर जीतने मोटे भी दंडाकार बनाते हैं। दूसरे समय में दंडवत् बने हुए आत्मप्रदेशों से किवाड़ की तरह आजु-बाजू पूर्वापर दिशा में फैलाते हैं। तीसरे समय में कपारवत् बने हुए आत्मप्रदेशों से दक्षिण-उत्तर दिशा में फैलाते हैं जिससे मथानी जैसा आकार हो जाता है। चौथे समय में लोक शिखर सहित मन्थान के आन्तरों को पूरते हैं। पांचवें समय में मथान के आन्तरों के पूरक लोक ( आ:मप्रदेशों ) से संहृत करते हैं अर्थात् मंथानवत् हो जाते हैं। छ8 समय में मंथानवत् ( दक्षिणोत्तर दिशावर्ती ) आत्मप्रदेशों को संहृत करके कपाटवत् स्थित हो जाते हैं। सातवें समय में कपाटवत (पूर्व-पश्चिमवर्ती ) आत्मप्रदेशों को संहृत करके, दंडस्थ करते हैं और आठवें समय में दंडवत् ( ऊपर-नीचे वर्ती ) आत्मप्रदेशों को सहृत करते हैं। इसके बाद शरीरस्थ हो जाते हैं। समुद्घात को प्राप्त केवली के मनोयोग की क्रिया नहीं होती है, वचनयोग की क्रिया नहीं होती है, किन्तु काययोग की क्रिया होती है। काययोग की क्रिया करते हुए औदारिक शरीर काययोग भी होता है, औदारिकमिश्र काययोग भी होता है। वैक्रिय शरीर काययोग, वैक्रियमिश्र काययोग, आहारक शरीर काययोग, आहारक मिश्र काययोग नहीं होता है। कार्मण शरीर काययोग होता है। पहले और आठवें समय में औदारिक शरीर काययोग होता है। दूसरे, छ8 और सातवें समय में औदारिकमिश्र शरीर काययोग होता है और तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मणशरीर काययोग होता है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) •२ केवली समुद्घात के बाद योग की प्रवृत्ति से गं भंते । तहासमुग्धायगते सिज्झति बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वाइ सव्वदुक्खांणं अंतं करेति ? गोयमा! णो इण? सम8, से णं तओ पडिमियत्तति, ततोपडिनियतित्ता ततो पच्छा मणजोगं पि जुजति, वइजोगं पि जुजति, कायजोगं पि जुजति । २१७४ __मणजोग जुजमाणे कि सच्चमण जोगं जुजति मोसमण जोगं जुजति सच्चामोसमणजोगं जुजति असच्चामोसमणजोगं जुजति ? गोयमा! सच्च मणजोगं जुजति, णो मोसमणजोगं जुजति णो संच्चामोसमणजोगं जुजति, असच्चामोसमण जोगं पि जुजइ। वयजोगं जुजमाणे कि सच्चवइजोगं जुजति मोसवइ जोगं जुजति सच्चामोसवइजोगं जुजति असच्चामोसवइजोगं जुजति ? गोयमा! सच्चवइजोगं जुजइ, णो मोसवइजोगं जुजइ णो सच्चामोसवइ जोगं जुजइ, असच्चामोसवइजोगं पि जुजइ। कायजोगं जुजमाणे आगच्छेज्ज वा गच्छेज्ज वा चिट्ठज्ज वा णिसीएज्ज वा तुयज्ज वा उल्लंघेज्ज वा पलंघेज्जं वा पाडिहारियं पीढ फलग-सेज्जा संथारंगं पच्चप्पिणेज्जा। २१७४ -पण्ण० पद ३६ -ओव० सू० १७७ से १८० भन्ते ! क्या कोई समुद्घात गत ( समुद्घात में स्थित रहते हुए ही। ) सिद्ध होते हैं ? बुद्ध होते हैं ? मुक्त होते हैं ? परिनिर्वृत्त होते हैं ? सब दुःखों का अंत करते हैं ? हे गौतम यह बात नहीं है। समुद्घात से प्रतिनिर्वृत्त होते हैं। यहाँ अर्थात् इस मनुष्य लोकगत शरीर में स्थित होते हैं । फिर मनोयोगी भी होता है, वचनयोगी भी होता है और काययोग भी होता है। मनोयोग में संलग्न होते हुए सस्य मनोयोग की क्रिया करते हैं। असत्य मनोयोग की और सत्यमृषा मनोयोग की क्रिया नहीं करते हैं। असत्य-अमृषा मनोयोग की भी क्रिया करते हैं। वचनयोग की क्रिया में प्रवृत्ति होते हुए सत्य वचनयोग की प्रवृत्ति करते हैं। मृषावचनयोग की और सत्य-मृषावचनयोम की प्रवृत्ति नहीं करते हैं। असत्य-अमृषा वचनयोग की भी प्रवृत्ति करते हैं। टिप्पण-मनःपर्यवज्ञानी या अनुत्तर विमानवाद्यी देवों के द्वारा मन से पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देने के लिए केवली भगवान् मनोयोग की प्रवृत्ति कहते हैं और जीवाषि Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) पदार्थों की प्ररूपणा करते हुए सत्य वचनयोग की प्रवृत्ति करते हैं और आमन्त्रणादि में असत्य-अमृषा वचनयोग की प्रवृत्ति करते हैं । ऐसा टीकाकार ने कहा है। काययोग की प्रवृत्ति करते हुए आते हैं, ठहरते हैं, बैठते हैं, सोते हैं, लांघते हैं, विशेष लांघते हैं, उत्क्षेपण ( उछालना), अवक्षेपण ( नीचे डालना) और तिर्यक्षेपण (आजु-बाजु या आगे पीछे रखना)। अथवा ऊँची, नीची और तिरछी गति करते हैं और लौटाने योग्य पटिये, शय्या और संस्तारक लौटाते हैं। टिप्पण-केवलि समुद्घात के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में योग निरोध होता है। .३ योग निरोध और सिद्धि से णं भंते ! तहासजोगी सिझति जाव अंतं करेति ? गोयमा ! णो इण? सम?। से णं पुवामेव सण्णिस्स पंचेदियस्स पज्जत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहोणं पढम मणजोगं णिरुंभइ, ततो अणंतरं च णं बेइंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं दोच्चं वइजोगं णिरुंभति, तसो अणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहोणं तच्चं कायजोगं णिरुंभति। _ से णं एतेणं उवाएणं पढमं मणजोगं णिरंभइ, मणजोगं णिरुंभित्ता वइजोगं णिरुंभति, वइजोगणिरुभित्ता कायजोगं णिरुंभति, कायजोगं णिरुभित्ता जोगणिरोहकरेति, जोगणिरोहकरेत्ता अजोगय पाउणति, अजोगयं पाडणित्ता ईसीहस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसी पडिवज्जइ xxx। एगसमएणं अविग्गहेणं उड्ड गंता सागारोवउत्ते सिज्झति बुज्झति० । २१७ -पण्ण पद ३६ - ओव० सू १८१ से १८२ भंते । क्या सयोगी ( मन, वचन और काय से सक्रिय ) सिद्ध होते हैं ?.... यावत् सर्व दुःखों का अंत करते हैं। ऐसा आशय ठीक नहीं है। वे सबसे पहले पर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय के जघन्य मनोयोग के नीचे स्तर से असंख्यात गुणहीन मनोयोग का निरोध करते हैं। अर्थात् योगनिरोध का आरंभ करने वाले केवली सबसे पहले पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के अल्पतम मानसिक योग के असंख्यातवें भाग जितने मनोयोग रहता है, शेष सबका निरोध कर देते हैं। ___ इसके बाद पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव के जघन्य वचनयोग के नीचले स्तर से भी असंख्यात गुणहीन दूसरे वचनयोग का निरोध करते हैं। अर्थात् उस जीव का निम्नतम स्तरीय वाचिक प्रवृत्ति असंख्यातवें भाग जितनी वाचिक प्रवृत्ति रहती है, शेष सबका निरोध करते हैं । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) इसके पश्चात् अपर्याप्त सूक्ष्मपनक ( फूलन ) जीव के जघन्य योग के नीचले स्तर से असंख्यात गुणहीन तीसरे काययोग का निरोध करते हैं। ___ इस उपाय से पहले मनोयोग की प्रवृत्ति को रोक करके वचनयोग की प्रवृत्ति को रोकते हैं। वचनयोग की प्रवृत्ति को रोककर काययोग की प्रवृत्ति का निरोध करते हैं काययोग की प्रवृत्ति को रोककर, योगनिरोध ( मन-वचन-काय से संबंधित होने वाली आत्मा की प्रवृत्ति को रोक) करते हैं। टिप्पण- 'एएणं उवाएणं' शब्दों से यह अर्थ झलकता है कि-केवली तथा कथित (पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और अपर्याप्तपनक । ) जीवों की निम्नस्तरीय योग प्रवृत्ति के असंख्यातवें भाग जितनी रही हुई योग प्रवृत्ति को समय-समय में कमशः रोकते हुए, पूर्णतः योग निरोध करते हैं। पज्जत्तमेत्त सनिस्स, जत्तियाई जइन्न जोगिस्स। होंति मनोदव्वाइ', तव्वाचारो य जम्मत्तो। तदसंखगुण विहीणं, समए समए निरुंभमाणो सो। मणसो सव्वनिरोह, करेअसंखेज्ज समएहि ॥ एवमन्यदपि सूत्रद्वयं नेयम् ।..... -टोकायां उद्धृतगाथे अर्थात् जघन्ययोगी अर्थात संज्ञी की जितनी मनोद्रव्य की और मनोयोग की प्रवृत्ति की मात्रा होती है, उससे भी असंख्यात गुणहीन मात्रा में मन का समय-समय पर निरोध करते हुए, केवली असंख्यात समय में मनका पूर्णतः निरोध करते हैं । इसी प्रकार मेष दो सूत्रों के विषय में भी यही समझना चाहिए। ___ काययोग के निरोध के बाद तो योगनिरोध हो ही जाता है। फिर अलग से योगनिरोध का कथन क्यों किया गया है ? -चूकि वीर्य के द्वारा योगों की प्रवृत्ति होती है। उस योग प्रवृत्ति के मूल करण वीर्य का निरोध जहाँ तक नहीं होता है वहाँ तक पूर्णतः योगनिरोध नहीं माना जाता। उस करणवीर्य का निरोध भी अकरण वीर्य से हो जाता है। अर्थात् काययोग के निरोध के बाद केवली करणवीर्य से हटकर, अकरणवीर्य में पूर्णतः स्थित हो जाते हैं। संभवतः यही दर्शाने के लिए योगनिरोध और अयोगता का कथन अलग से हुआ है। योगनिरोध करके अयोगी अवस्था से प्राप्त होते हैं। अयोगी अवस्था ( मन, वचन और काय की क्रिया से रहित अवस्था को प्राप्त करके, ईषत्स्पृष्ट पांच ह्रस्व अक्षरों के Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चारण करने जितने काल भी असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त के काल से शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं। टिप्पण-अयोगी अवस्था के अलग से कथन में यह भी रहस्य हो सकता है कि जो आत्मपरिणति योगनिरोध के लिए प्रवृत्त हुई थी उसका भी, कार्य पूरा हो जाने के कारण शमन हो गया। एक समय में ऊँचे जाकर, साकारोपयोग में सिद्ध होते हैं। .४ टीका-'कइ सभइए ण' मित्यादि सुगम, आवर्जीकरणानन्तरं चाव्यवधानेन केवलिसमुद्घातमारभते, स च कतिसामयिक इत्याशङ्कायां तत्समयनिरुपणार्थमाह -'कइ समइए ण' मित्यादि सुगम, तत्र यस्मिन् समये यत्करोति तद्दर्शयति-तं जहा–पढमे समए' इत्यादि, इदमपि सुगम, प्रागेव व्याख्यातत्वात्, नवरमेवं भावार्थो-यथाऽऽद्य श्चतुभिः समयः क्रमेणात्मप्रदेशानां विस्तारणं तथैव प्रतिलोमं क्रमेण संहरणमिति, उक्तं चैतदन्यत्रापि-उड्डे अहो य लोगंतिगामिणं सो सदेहविक्खंभं । पढमे समयंमि दंडं करेइ बिइयंमि य कवाडं ॥१॥ तइयसमयंमि मंथं चउत्थए लोगपूरणं कुणइ। पडिलोमं साहरण काउं तो होइ देहत्थो ॥२॥ अस्मिश्च समुदघाते क्रियमाणे सति यो योगो व्याप्रियते तमभिधित्सुराह-से गं भंते !' इत्यादि, तन मनोयोगं वाग्योग वा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावात्, आहं च धम्मसार मूलटीकायां हरिभद्रसूरिः-"मनोवचसी तदा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावात्" काययोगं पुनयुञ्जान औदारिककाययोगमौदारिकमिश्रकाययोगं कार्मणकाययोग वा युनक्ति, न शेषं लब्ध्युपजीवनाभावेन शेषस्य काययोगस्यासंभवात्, तत्र प्रथमे अष्टमे च समये केवलमौदारिकमेव शरीरं व्याप्रियते इत्यौदारिककाययोगः, द्वितीये षष्ठे सप्तमे च समये कार्मणशरीरस्यापि व्याप्रियमाणत्वात् औदारिकमिश्रकाययोगः, तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु तु समयेषु केवलमेव कार्मणशरीरव्यापार भागिति कार्मणकाययोगः, आह च भाष्यकृत्-न किर समुग्घातगतो मणवइजोगप्पयोयणं कुणइ। ओरालियजोगं पुण जुजइ पढमट्ठमे समए ॥१॥ उभयव्वावाराओ तम्मीसं बीयछट्टसत्तमए । तियचउत्थपंचमे कम्मगं तु तम्मत्तचेट्ठाओ॥२॥ से गं भंते !' इत्यावि, स भदन्त ! केवली लथा दण्डकपाटादिक्रमेण समुद्घातं गतः सन् सिद्धचति-निष्ठितार्थो भवति ? स च 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वे' तिवचनात् सेत्स्यन्नपि व्यवहारत उच्चतेतत आह-बुध्यते-अवगच्छति Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञानेन यथाऽहं निश्चयतो निष्ठितार्थो भविष्यामि निःशेषकर्माशापगमतः तत आह–मुच्यतेऽशेषकशिरिति गम्यते, मुच्यमानश्च कर्माणुवेदनापरितापरहितो भवति तत आह–परिनिर्वाति–सामस्त्येन शीतीभवति, समस्तमेतदेकेन पर्यायेण स्पष्टयति-सर्वदुःखानामन्तं करोतीति, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थोनायमर्थः सङ्गतो यः समुद्घातं गतः सर्वदुःखानामन्तं करोतीति, योगनिरोधस्याद्याप्यकृतत्वात्, सयोगस्य च वक्ष्यमाणयुक्त्या सिद्धयभावादिति भावः, ततः कि करोतीत्यत आह-से ण' मित्यादि, सः—अधिकृतसमुद्घातगतः णमिति वाक्यालङ्कारे तत: समुद्घातात् प्रतिनिधत्तंते, प्रतिनिवर्त्य च तत:-प्रतिनिवर्तनात् पश्चादनन्तरं मनोयोगमपि वाग्योगमपि काययोगमपि युनक्ति.-व्यापारयति, यतः स भगवान् भवधारणीयकर्मसु नामगोत्रवेदनोयेष्वचिन्त्यमाहत्म्यसमुद्घातवशतः प्रभूतेष्वायुषा सह समीकृतेष्वप्यन्तर्मुहूतभाविपरमपदत्वतस्तस्मिन् काले यद्यनुत्तरोपपातिकादिना देवेन मनसा पृच्छयते तहि व्याकरणादिना मनः पुद्गलान् गृहीत्वा मनोयोगं युनक्ति, तमपि सत्यमसत्यामृषारूपं वा, मनुष्यादिना पृष्टः सन्नपृष्टो वा कार्यवशतो वाक्पुद्गलात् गृहीत्वा वाग्योगं तमपि सत्यमसत्यामृषा वा, न शेषान् वाग्मनसोर्योगान्, क्षीणरागादित्वात्, आगमनादौ चौदारिकादिकाययोगं, तथाहि-भगवान् कार्यवशतः कुतश्चित् स्थानात् विवक्षिते स्थाने आगच्छेत्, यदिवा क्वापि गच्छेत्, अथवा तिष्ठेत्-उद्धवस्थानेन वाऽवतिष्ठेत् निषोदेद्वा तथाविधश्रमापगमाय त्वग्वर्त्तनं वा कुर्यात्, अथवा विवक्षिते स्थाने तथाविधसम्पातिमसत्त्वाकुलां भूमिमवलोक्य तत्परिहाराय जन्तुरक्षानिमित्तमुल्लङ्घन प्रलङ्घनं वा कुर्यात्, तत्र सहजात् पादविक्षेपान्मनागधिकतरः पादविक्षेप: उल्लङ्घन स एवातिविकटः प्रलङ्घनं, यदिवा प्रातिहारिकं पीठफलकशय्यासंस्तारकं प्रत्यर्पयेत्, यस्मादानीतं तस्मै समर्पयेत्, इह भगवता आयश्यामेन प्रातिहारिकपोठफलकादीनां प्रत्यर्पणमेवोक्तं ततोऽवसीयते नियमादन्तमुहूर्तावशेषायुष्क एवावर्जीकरणादिकमारभते, नप्रभूतावशेषायुष्कः, अन्यथा ग्रहणस्यापि सम्भवात्तदप्युपादीयते, एतेन यदाहुरेके-'जघन्यतोऽन्तमुहूर्ते शेषे समुद्घातमारभते उत्कर्षतः षट्सु मासेणु शेषेष्वि' ति तदपास्तं द्रष्टव्यं, षट्सु मासेषु कदाचिदपान्तराले वर्षाकालसम्भवात् तन्निमित्तं पीठफलकादीनामादानमप्युपपद्यत, न च तत्सूत्रसम्मतमिति तत्प्ररूपणमुत्सूत्रमवसेयं, एतच्चोत्सूत्रंआवश्यकेऽपि समुद्घातानन्तरमव्यवधानेन शैलेश्यभिधानात्, ( यतः ) तत्सूत्रं 'दंडकवाडे मंथंतरे य साहारणा सरीरत्थे। भासाजोगनिरोहे सेलेसी सिझणा चेव ॥१॥ यदि पुनरुत्कर्षतः Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) षण्मासरूपमपान्तरालं भवेत्ततस्तदप्यभिधीयते, न चोक्तं, तस्मादेव अयुक्तमेतदिति, तथा चाह भाष्यकार:-"कम्मलयाए समओ भिन्नमहत्तावसेसओ कालो। अन्नेजहन्नमेयं छम्मासुक्कोसमिच्छति ॥१॥ तत्तोऽनंतरसेलेसीवयणओ जं च पाहिहारीणं। पच्चप्पणमेव सुए इहरा गहणंपि होज्जाहि ॥२॥ अव कम्मलघुतानिमित्तं समुद्घातस्य समयः अवसरो भिन्नमुहूर्तावशेषकालः, शेषं सुगम, तदेवमन्तमुहर्तकालं यथायोगं योगत्रयव्यापारभाक् केवली भूत्वा तदनन्तरमत्यन्ताप्रकम्पं लेश्यातीतं परमनिर्जराकारणं ध्यानं प्रतिपत्सुरवश्यं योगनिरोधायोपक्रमते, योगे सति यथोक्तरूपस्य ध्यानस्यासम्भवात्, तथाहियोगपरिणामो लेश्या, तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात्, ततो यावद्योगस्तावदश्यंभाविनी लेश्येति न लेश्यातीतध्यान सम्भवः, अपिच-यावद्योगस्तावत्कर्मबन्धोऽपि,' जोगा पर्याडपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणई' इति वचनात्, केवलं स कम्मबन्धः केवलयोगनिमित्तत्वात् समयवयावस्थायी, तथाहि-प्रथमसमये कर्म बध्यते, द्वितीय समये वेद्यते, तृतीये तु समये तत्कर्माकर्मो भवति, तत्र यद्यपि समयद्वयरूपस्थितिकानि कर्माणि त्रियन्ते, पूर्वाणि पूर्वाणि कर्माणि प्रलयमुपगच्छन्ति, तथापि समये समये सन्तत्या कर्मादाने प्रवर्त्तमाने सति न मोक्षः स्याद्, अथ चावश्यं मोक्षं गन्तव्यं तस्मात् कुरुते योगनिरोधमिति, उक्त च- स ततो योग.नरोधं करोति लेश्यानिरोधमभिकांक्षन । समयस्थिति च बन्धं योगनिमित्तं स निरुरुत्सुः ॥१॥ समये समये कर्मादाने सति सन्ततेनं मोक्षः स्यात् । यद्यपि हि विमुच्यन्ते स्थितिक्षयात् पूर्वकर्माणि ॥२॥ नाकर्मणो हि वीर्य योगद्रव्येण भवति जीवस्य । तस्यावस्थानेन तु सिद्धः समयस्थितेबन्धः ॥३॥" अत्र बन्धस्य समयमात्रस्थितिकता बन्धसमयमतिरिच्य वेदितव्या भाष्यमप्येनं पूर्वोक्तं सकलमपि प्रमेयं पुष्णाति, तथा च तद्वतो ग्रन्थःविणिवित्तसमुग्घाओ तिण्णिवि जोगे जिणो पजिज्जा। सच्चमसच्चामोसंच सो मणं तह वईजोगं ॥१॥ ओरालियकायजोगं गमणाई पाडिहारियाणं वा। पच्चप्पणं करेज्जा जोगनिरोहं तओ कुणइ ॥२॥ किन्न सजोगी सिज्झइ ? स बंधहेउत्ति जं सजोगोऽयं । न समेइ परमसुक्कं स निज्जराकारणं परमं ॥३॥" । . से णं भंते ! तहा सजोगी सिज्झई' इत्यादि, सुगम, योगनिरोधं कुर्वन प्रथमं मनोयोग निरुणद्धि, तच्च पर्याप्तमात्रसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य प्रथमसमये यावन्ति मनोद्रव्याणि यावन्मात्रश्च तद्व्यापारः तस्मादसंख्ययगुणहीनं मनोयोग प्रतिसमयं निरन्धानोऽसंख्येयैः समयैः साकल्येन निरुणद्धि, उक्तं च-"पज्जत्तमेत्तसण्णिस्स जत्तियाई जहण्णजोगिस्स। होति मणोदव्वाइं तब्वावारो य Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) जम्मतो ॥१॥ तदसंखगुणविहीणं समये समये निरंभमाणो सो । मणसो सव्वमिरोहं करे असंखेज्जसमएहि ||२||" एतदेवाह - ' से णं भंते !' इत्यादि, सः अधिकृत केवली योगनिरोधं चिकीर्षन् पूर्वमेव संज्ञिनः पर्याप्तस्य जघन्ययोगिनः सत्कस्य मनोयोगस्येति गम्यतेऽधस्तात् असंख्येयगुणपरि होनं समये समये निरुन्धानोsसंख्येयैः समयः साकल्येनेति गम्यते प्रथमं मनोयोगं निरुणद्धि, 'ततोऽनन्तरं च ण' मित्यादि, तस्मात् मनोयोगनिरोधादनन्तरं चशब्दो वाक्यसमुच्चये णमिति वाक्यालङ्कारे द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तस्य जघन्ययोगिनः सत्कस्य वाग्योगस्येति गम्यतेऽधस्तात् वाग्योगं असंख्येयगुणपरिहीनं समये समये निरुन्धानोऽसंख्येयः समयैः साकल्येनेति गम्यते द्वितीयं वाग्योगं निरुणद्धि, आह च भाष्यकृत् — पज्जत्तमितबदिय जहण्णवइजोगपज्जवा जे उ । तदसंखगुणविहीणं समये समये निरंतो ॥१॥ सव्ववइजोगरोहं संखाईएहि कुणइ समहि" "ततोऽणंतरंच ण' मित्यादि, ततो वाग्योगादनन्तरं च णं प्राग्वत् सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य अपर्याप्तस्य प्रथमसमयोत्पन्नस्येति भावार्थ: जघन्ययोगिनः सर्वात्पवीर्यस्य पनकजीवस्य यः काययोगस्तस्याधस्ताद संख्येयगुणहोणं काययोगं समये समये निरुन्धन् असंख्येयः समयः समस्तमपीति गम्यते तृतीयं काययोगं निरुणद्धि, तं च काययोगं निरुन्धानः सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति ध्यानमधिरोहति, तत्सामर्थ्याच्च वदनोदरादिविवरपूरणेन संकुचितदेहविभागवत्तप्रदेशो भवति, तथा चाह भाष्यकृत् - "तत्तो य सुहुमपणगस्स पढमसमयोववण्णस्स । जो किर जहण्णजोगी तदसंखेज्जगुण ही णमेक्केक्के । समएहि रंभमाणो देहति भागं च मुळेचं तो ॥१॥ भइ स काययोगं संखाईएहि चेव समएहि" काययोगनिरोधकालान्तरे चरमे अन्तर्मुहूर्त्ते वेदनीयादित्रयस्य प्रत्येकं स्थितिः सर्वापवर्त्तनया अपवर्त्यायोग्यवस्थासमाना क्रियते गुणश्रेणित्रमविरचितप्रदेशा, तद्यथा - प्रथमस्थितौस्तोकाः प्रदेशाः द्वितीयस्यां स्थितौ ततोऽसंख्येयगुणाः, तृतीयस्यां ततोऽप्यसंख्येयगुणाः, एवं तावद्वाच्यं यावच्चरमा स्थितिः, स्थापना, एताः प्रथमसमयगृहीतदलिक निर्वत्तता गुणश्रेणयः, एवं प्रतिसमयगृहीतदलिक निर्वत्तिताः कर्मत्रयस्य प्रत्येक मसंख्येया द्रष्टव्याः, अन्तर्मुहूर्त्त समयानामसंख्यातत्वात्, आयुषस्तु स्थितिर्यथाबद्धं वावतिष्ठते, सा च गुणश्रेणिक्रमविपरीतक्रमदलिकरचना, स्थापना चेयम् - अयं च सर्वोऽपि मनोयोगादिनिरोधो मन्दमतिसुखावबोधार्थमाचार्येण स्थूरदृष्ट्या प्रतिपादितः, यदि पुनः सूक्ष्मदृष्ट्या तत्स्वरूपजिज्ञासा भवति तदा पश्चसंग्रहटीका निभालनीया, तस्यामतिनिपुणं प्रपञ्चेन तस्याभिधानात् इह च ग्रन्थगौरवभयान्नास्माभिरभिहितः । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ 'से ण' मित्यादि, सोऽधिकृतः केवली णमिति पूर्ववत् एतेनानन्तरोदितेनोपावेन-उपायप्रकारेण, शेषं सुगम यावयोगतां पाउणइ' ति प्राप्नोति, अयोगताप्राप्त्यभिमुखो भवति इति भावाथः, अयोगतां च प्राप्य-अयोगताप्राप्त्यभिमुखो भूत्वाईसिं' ति स्तोकं कालं शेलेशी प्रतिपद्यते इति सम्बन्धः, कियता कालेन विशिष्टां इत्यत आह-हस्वपञ्चाक्षरोच्चारणाद्धया, किमुक्तं भवति ?- नाति तं नातिविलम्बितं किन्तु मध्यमेन प्रकारेण यावता कालेन इजणनम इत्येवंरूपाणि पञ्चाक्षराणि उच्चार्य्यन्ते तावता कालेन विशिष्टामिति, एतावान् कालः किसमयप्रमाण इति निरूपणार्थमाह-असख्येयसामयिका असख्येयसमयप्रमाणां, यच्चासंख्येयसमयप्रमाण तच्च जघन्यतोऽप्मन्तमुहूतप्रमाणं तत एषाऽप्यन्तमुहूत्तप्रमाणति ख्यापनायाह-'आन्तमुहूत्तिकी शैलेशी' मिति, शील चारित्र तच्चेह निश्चयतः सर्वसंवररूप तद् ग्राह्य, तस्येव सर्वोत्तमत्वात, तस्येशः शीलेशः तस्य याऽवस्था सा शैलेशी तां प्रतिपद्यते, तदानीं च ध्यान ध्यायति व्यवच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति, उक्त च-सील व समाहाणं निच्छय ओ सव्वसवरो सो य। तस्सेसो सोलेसो सेलेसी होइ तदवत्था ॥१॥ हस्सक्खराइं मझण जेण कालेण पच भण्णति। अच्छइ सेलेसिगतो तत्तियमित्त तओ काल ॥२॥ तणुरोहारभाओ झायइ सुहमकिरियानिट्टि सो। वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई सेलेसिकालंमि ॥३॥" न केवल शैलेशी प्रतिपद्यते पूर्वरचितगुणश्रेणोकं च वेदनीयादिक कर्म अनुभवितुमिति शेषः, प्रतिपद्यते च तत्पूर्व काययोगनिरोधगते चरमेऽन्तमुहर्ते रचिता गुणश्रेणयः-प्रागनिद्दिष्टस्वरूपा यस्य तत्तथा, ततः किं करोतीत्यत आह 'तीसे सेलेसिअद्धाए' इत्यादि, तस्यां शैलेश्यद्धायां वर्तमानोऽसंख्ययाभिगुणश्रेणीभिः पूर्वनिर्वतितामिः प्रापिता ये कर्मत्रयस्य पृथक प्रतिसमयमसंख्ययाः कर्मस्कन्धास्तान क्षिपयन्' बिपाकतः प्रदेशतो वा वेदनेन निजरयन् चरमे समय वेदनीयमायुर्नामगोत्रमित्येतान् चतुरः कर्माशात' कर्मभेदान् युगपत क्षपयति, युगपच्च क्षपयित्वा ततोऽनन्तरसमये औदारिकतंजसकार्मणरूपाणि वीणि शरीराणि 'सव्वाहि विप्पजहणाहिं' इति सविप्रहानः, सूत्र स्त्रीत्व प्राकृतत्वात , विप्रजहाति, किमुक्तं भवति ?- यथा प्राक् देशतस्त्यक्तवान तथा न त्यजति, किन्तु सर्व प्रकारैः परित्यजतीति, उक्तं च "ओरालियाइ चयइ सव्वाहि विप्पजहणाहिं जं भणियं। निस्सेस तहा न जहा देसच्चारण सो पुवि ॥४॥" परित्यज्य च तस्मिन्नेव समय कोशबन्धविमोक्ष, लक्षणसहकारिसमुत्थस्वभावविशेषादेरण्डउफलमिव भगवानपि कर्मसम्बन्धविमोक्षलक्षणसहकारिसमुत्थस्वभावविशेषाद्वद्धर्व लोकान्ते गत्वेति सम्बन्धः उक्तं च Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) "एरण्डफलं च जहा बंधच्छेदेरियं दुयं जाति। तह कम्मबंधणछेदणेरितो जाति सिद्धोवि ॥१॥" कथं गच्छतोत्यत आह–'अविग्रहेण' विग्रहस्याभावोऽविग्रहः तेन एकेन समयेनास्पृशन्, समयान्तरप्रदेशान्तरास्पर्शनेनेत्यर्थः, ऋजुणि च प्रतिपन्नः, एतदुक्तं भवति-यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत एव प्रदेशानज़मृजुश्रेण्याऽवगाहमानो विवक्षिताच्च समयावन्यत् समयान्तरमस्पृशन् गत्वा, तथा चोक्तमावश्यकचूर्णी -“जत्तिए जीवोऽवगाढो तावइयाए ओगाहणाए उड्डे उज्जुगं गच्छति न वंक, बिइयं च समयं न फुसइ" इति भाष्यकारोऽप्याहरिउसेढि पडिवन्नो समयपएसंतरं अफुसमाणो। एगसमएण सिज्झइ मह सागारोवउत्तो सो॥१॥" इत्थमूवं गत्वा किमित्याह – साकारोपयुक्तः सन् सिद्ध यति-निष्ठितार्थों भवति, सर्वा हि लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्य उपजायते नानाकारोपयुक्तस्य, सिद्धिरप्येषा सर्वलब्ध्युत्तमा लब्धिरिति साकारोपयोगोपयुक्तस्योपजायते: आह च-"सव्वामओ लद्धीओ जं सागारोवओगलाभाओ। तेणेह सिद्धिलद्धी उप्पज्जइ तदुबउत्तस्स ॥१॥" "५ तोयमिव नालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा। परिहाउ कमेण जहा तह जोणिमणोजलं जाण ॥ -ध्याश• गा ७५ टोका-'तोयमिव' उदकमिव 'नालिकायाः' घटिकायाः, तथा तप्तं च तदायसभाजनं-लोहभाजनं च तप्तायसभाजनं तदुदरस्थं, वा विकल्पार्थः, परिहीयते क्रमेण यथा, एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः-'तथा' तेनैव प्रकारेण योगिमन एवाविकलत्वाज्जलं योगिमनोजलं 'जानीहि' अवबुद्ध यस्व, तथाऽप्रमावानलतप्तजीव भाजनस्थं मनोजलं परिहीयत इति भावना, अलमतिविस्तरेणेति गाथार्थः ॥७॥ _ 'अपनयति ततोऽपिचिनवद्य' इति वचनाद् एवं तावत् केवली मनोयोगं निरुणद्धोत्युक्तम्, अधुना शेषयोगनियोगविधिमभिधातुकाम आह एवं चिय वयजोगं निरंभइ कमेण कायजोगपि । तो सेलेसोग्य थिरो सेलेसी केवली होइ । .-ध्याश• गा ७६ टोका-एवमेव' एभिरेव विषादिदृष्टान्तः, कि ?-बाग्योगं निरुणद्धि, तथा क्रमेण काययोगमपि निरुणीति वर्तते, ततः शैलेश इव' मेरुरिव स्थिरः Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) सन् शैलेशी केवली भवतीति गाथार्थः ॥ ७६ ॥ इह च भावार्थो नमस्कार नियुक्तौ प्रतिपादित एव, तथापि स्थानाशून्यार्थ स एव लेशतः प्रतिपाद्यते, तत्र योगानामिदं स्वरूपम् - औदारिकादिशरीरयुक्तस्याऽऽत्मनो वीर्यपरिणति विशेषः काययोगः, तथौदारिकवे क्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्याज्जीवव्यापारो वायोगः, तथौदारिकर्वक्रियाहारकशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसाचिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोग इति, स चामीषां निरोधं कुर्वन् कालतोऽन्तर्मुहूर्त भाविनि परमपदे भवोपग्राहि कर्मसु च वेदनीयादिषु समुद्घाततो निसर्गेण वा समस्थितिषु सत्स्वेतस्मिन् काले करोति × × × । आवर्जीकरण करने के बाद जल्दी ही केवली समुद्घात का आरम्भ करते हैं । केवली समुद्घात के आठ समयों में – जिस प्रकार आदि के चार समयों में अनुक्रमतः आत्म प्रदेशों का विस्तार करते हैं उसी प्रकार प्रतिलोम क्रम से संहरण करते हैं । प्रथम समय में ऊध्वं और अधो लोकान्त तक स्वदेव प्रमाण विस्तार वाला दंड करते हैं, दूसरे समय में कपाट करते हैं, तीसरे समय में मंथन करते हैं और चतुर्थ समय में लोक व्याप्त करते हैं । इसके बाद प्रतिलोम क्रम से संहरण कर शरीर में स्थित होते हैं । अस्तु केवली समुद्घात ' में मनोयोग तथा वचन योग का व्यापार नहीं होता है क्योंकि उनके व्यापार का कोई अर्थ नहीं है । इस सम्बन्ध में धर्मसार की मूल टीका में हरिभद्रसूरि ने कहा है-" उस समय में प्रयोजन न होने से मन और वचन योग का व्यापार नहीं करता है । काययोग का व्यापार करता हुआ — औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र "काययोग और कार्मण काययोग का व्यापार करता है - अवशेष काययोग का व्यापार नहीं करता है । क्योंकि लब्धि का उपयोग न होने से बाकी काययोग असंभव है । उनमें प्रथम और आठवें समय में औदारिक शरीर का व्यापार है । अतः केवल औदारिक काययोग होता है । तीसरे, चौथे व पांचवें समय में केवल कार्मण काययोग है क्योंकि केवल कार्मण शरीर का व्यापार वाला है, दूसरे, छट्ट े व सातवें समय में कार्मण शरीर का भी व्यापार है अतः औदारिक मिश्र काययोग है । इस सम्बन्ध में भाष्यकार ने कहा है" वस्तुतः केवली समुद्घात गत जीव मन और वचन योग का व्यापार नहीं करता है परन्तु प्रथम और आठवें समय में औदारिक काययोग का व्यापार करता है । औदारिक और कार्मण- दोनों का व्यापार होने से औदारिक मिश्र काययोग - दूसरे, छट्ट े व सातवें समय में होता है । तीसरे, चौथे और पांचवें समय में मात्र कार्मण शरीर भी चेष्टा होने से कार्मण काययोग होता है । केवली समुद्घात गत जीव सवं दुःखों का अंत नहीं करता है परन्तु केवली समुद्घात से निवृत्त होकर - मनयोग, वचनयोग व काययोग का व्यापार करता है क्योंकि उन भगवान के नाम, गोत्र और वेदनीय रूप भवधारणीय कर्म बहुत ( घने ) होते हैं । उस समय उसके अचिन्त्य प्रभाव वाले समुद्घात के वश से आयुष्य के समान करने के बाद अन्तर्मुहूर्त में परमपद -- मोक्ष प्राप्त योग्य होने के —— उस समय जो अनुत्तरौपातिक आदि देव Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन से पूछते हैं तो उत्तर देने के लिए मन के पुद्गलों को ग्रहण कर मनोयोग का व्यापार करते हैं वे भी सत्य या असत्य-मृषा रूप मन का व्यापार करते हैं। मनुष्यादि के पूछने पर कार्यवश से वचनयोय के पुद्गलों को ग्रहण कर वचनयोग का व्यापार करते हैं और सत्य या असत्य मृषा रूप वचन का व्यापार करते हैं बाकी के मन और वचन के योग की क्रिया नहीं करते हैं क्योंकि उनके रागादि क्षीण हो गया है। गमनागमन में औदारिक काययोग का व्यापार करते हैं। इस प्रकार भगवन् कार्यनिमित्त विवक्षित स्थान से विवक्षित स्थान आते हैं। अथवा किसी स्थान पर जाते हैं, खड़े रहते हैं या बैठते हैं । उस प्रकार का श्रम दूर करने के लिए आलोटना अथवा विवक्षित स्थान में उस प्रकार के आकर पड़े हुए जीवों से व्याप्त भूमि को देख कर उनका त्याग करने के लिए प्राणियों की रक्षा के लिए उल्लंघन अथवा प्रलंघन करते हैं। उनमें स्वाभाविक पाद विक्षेप, गमन करते कांइक अधिक गमन करना-उल्लंघन, मोटे पैर भरना-प्रलंघन अथवा पास में रहे हए पीठ-आसन, फलक-पाटिया, आसन-वसति और संस्तारक वापस देवे अर्थात जिनके पास से लाये, उन्हें वापस सौंपें। यहाँ आर्यश्यामासूरि ने पास रहे हुए आसन, फलक आदि वापस सौंपने का कहा है। इससे जाना जाता है कि केवली समुद्धात से निवृत्त होने बाद उनका आयुष्य अन्तर्मुहूर्त का बाकी रहता है उस समय में आवर्जीकरणादि करते हैं परन्तु अधिक आयुष्य बाकी रहने पर नहीं करते हैं। यदि ऐसा न हो तो उनके ग्रहण करने का भी संभव होने से उन्हें ग्रहण भी करना पड़ता है। इस कथन को कोई आचार्य कहते हैंजघन्य से अंतमुहूर्त बाकी होता है और उत्कृष्टतः छः मास अवशेष रहे उस समय समुद्घात करते हैं। उसका निरास जानना चाहिए। क्योंकि छः मास के बीच में वर्षा काल भी संभव होने से -उस निमित्त से आसन, फलकांदि ग्रहण भी संभव है। परन्तु वह सूत्र से सम्मत नहीं है अतः वह प्ररूपणा उत्सूत्र जाननी चाहिए। तथा आवश्यक सूत्र में भी समूदधात करने के बाद तुरन्त शैलेशी कथन से यह उत्सूत्र प्ररूपणा जाननी चाहिए। वह सूत्र इस प्रकार है ---"दंड, कपाट, मंथन, आंतरा, पूर्ति, संहरण, शरीरस्थ, वचनयोग निरोध, शैलेशी और सिद्ध अनुक्रमतः जानना चाहिए। जो उत्कृष्ट से छः मास का अन्तर पड़ता है तो भी कहा जाता है परन्तु कथन नहीं किया है अतः वह अयुक्त है। इस प्रकार भाष्यकार ने कहा है-कर्म को न्यून करने के निमित्त ( समुद्घात ) शेष अन्तर्मुहूर्त का काल जानना चाहिए। अन्य आचार्यों ने इससे जघन्य काल कहा है और छः मास का उत्कृष्ट काल कहा है ( वह अयुक्त है । ) क्योंकि बाद में तुरन्त शैलेशी का कथन होने से और पास में हुए पीठ, फलकादि को वापस करने का सूत्र कहा है। अन्यथा उसे ग्रहण करने का भी कहा है। यहाँ इस प्रमाण से अन्तर्मुहूर्त तक यथा संभव तीन योग के व्यापार वाले केवली होकर, उसके बाद अत्यन्त स्थिरता रूप, लेश्या रहित और परम निर्जरा का कारण ध्यान को स्वीकार करने की इच्छा वाले. योग-निरोध करने के लिए प्रारम्भ करते हैं। क्योंकि योग होने के समय उक्त स्वरूप वाले ध्यान का होना असम्भव है। इस दृष्टि से योग परिणाम-लेश्या है क्योंकि योग के अन्वय और व्यतिरेक के अनुसार है। इस कारण जहाँ तक योग है वहाँ तक लेश्या है। इस कारण लेश्या रहित ध्यान संभव नहीं है। तथा जहाँ तक योग है वहाँ तक कमंबंध भी है क्योंकि योग से प्रकृति और प्रदेश बंध होता Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तथा स्थिति और अनुभागबंध कषाय से होता है ऐसा शास्त्र का वचन है। केवल वह कर्मबंध मात्र योग निमित्तक होने से दो समय का है। वह इस प्रकार है-प्रथम समय कर्म बंधता है और दूसरे समय में वेदन होता है और तीसरे समय में कर्म अकर्मरूप होता है। उनमें जो कोई दो समय की स्थितिवाला कर्म करता है और पूर्व-पूर्व का कर्म नष्ट होता जाता है। तो भी समय-समय में निरन्तर कर्म का ग्रहण होता है तो मोक्ष नहीं होता और अवश्य मोक्ष जायेंगे। अतः वे योग निरोध करते हैं। वे लेश्या का निरोध करने की इच्छा करते हैं और योग निमित्त समस्थिति बंध को रोकने की इच्छा करते हुए योग निरोध करते हैं। समय-समय में कर्म-ग्रहण करने से तो कर्म प्रवाह लिए हुए मोक्ष नहीं होता है कि स्थिति के क्षय के पूर्व कर्म का छटकारा होता है। और कर्म रहित का योग द्रव्य से वीर्य नहीं होता है परन्तु योग के अवस्थान से समय स्थिति का बंध होता है। बंध का समय मात्र की स्थिति बंध के समय को छोड़ कर जाननी चाहिए । भाष्य भी इस पूर्वोक्त सर्व प्रमेय अर्थ को पुष्ट करते हैं। उस प्रकार उसका यह ग्रन्थ है"समुद्घात से निवृत्त होकर जिन तीन योग का व्यापार करते हैं। सत्य, असत्यमृषा मनोयोग, वचनयोग, और गमनादि में औदारिक काययोग का व्यापार करते हैं। उसी प्रकार पार्श्ववर्ती पीठ, फलकावि का प्रत्यर्पण-वापस देने की क्रिया कहते हैं और उसके बाद योग निरोध कहते हैं। सयोगी कैसे सिद्ध नहीं होते हैं क्योंकि बंध का हेतु योग है, उस योग से सयोगी परम निर्जरा का कारण परम शुक्ल ध्यान को प्राप्त नहीं होता है। चूकि योग निरोध करते हुए सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करते हैं और उस पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के प्रथम समय जितने मनोद्रव्य और जितना उसका व्यापार होता है उससे असंख्यात गुण न्यून मनोयोग का प्रतिसमय निरोध करता हुआ असंख्यात समय से सर्वथा निरोध करता है। कहा है कि-"जघन्य योग वाला पर्याप्त मात्र संज्ञी के जितने मनोद्रव्य होते हैं और जितना उसका व्यापार होता है उससे असंख्यात गुण हीन समयसमय में रोकता हुआ असंख्यात समय में मन को सर्वथा निरोध करता है। प्रस्तुत केवली योग का निरोध करने की इच्छा करते हुए सर्वप्रथम जघन्य योग वाले संजी पर्याप्त के (मनोयोग का यहाँ अध्याहार है ) अर्थात् उसके मनोयोग के नीचे असंख्यात गुण-हीन समय-समय में रोकता हुआ असंख्यात समय में सर्वथा प्रथम मनोयोग का निरोध करता है। मनोयोग को रोकने के बाद जघन्य योग वाले बेइन्द्रिय पर्याप्त के वचन योग के नीचे के ( यहाँ वचनयोग पद अर्थात् जान लेना ) वचनयोग को असंख्यात गुण हीन समय-समय में रोकता हुआ सर्वथा द्वितीय वचनयोग का निरोध करता है। इस सम्बन्ध में भाष्यकार ने कहा है-"पर्याप्त मात्र द्वीन्द्रिय के जघन्य वचन योग के जो पर्याप्त है उससे असंख्यात गुण-हीन वचनयोग को समय-समय में रोकता हुआ असंख्यात समय में सर्व वचनयोग निरोध करता है । - इसके बाद-प्रथम समय में उत्पन्न हुआ अपर्याप्त सूक्ष्म पनक ( निगोद ) जीव का जघन्य योग वाला -जो सबसे अल्प वीर्य वाला सूक्ष्मपनक जीव का जो काययोग है उसके Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीचे असंख्यात गुण हीन काययोग को समय-समय रोकता हुआ असंख्यात समय में समस्त रूप में तीसरे काययोग का निरोध करता है। वह काययोग का निरोध करता हुआ सूक्ष्म क्रिय अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान को प्राप्त होता है। वह ध्यान के सामर्थ्य से मुख और उदरादि के रिक्त भाग को पूरने ( भरने) के लिए शरीर के तीसरे भाग के आत्म प्रदेशों को संकुचित करता है अर्थात् शरीर दो तृतीयांश भाग में आत्म-प्रदेश घन रूप होते हैं। जैसे कि सात हस्त प्रमाम शरीर होते हैं तो उसका तीसरा भाग दो हाथ और आठ अंगुल संकुचित होता है और चार हस्त और सोलह अंगुल प्रमाण आत्मप्रदेश धन रूप होते हैं। इसी प्रकार भाष्यकार ने कहा है- "उसके बाद प्रथम समय में उत्पन्न हुए सूक्ष्मपनक का जो जघन्य काययोग है उससे असंख्यात गुण हीन काययोग को एक-एक समय में रोकता हुआ और शरीर के तीसरे भाग का त्याग करता हुआ असंख्यात समय में काययोग का निरोध करता है। काययोग के निरोध काल में अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में वेदनीय आदि तीन कर्म में प्रत्येक कर्म की स्थिति सर्व अपवर्तना करण से घटाकर ? गुणश्रेणि के क्रम से कर्यप्रदेशों की रचनावली अयोगी अवस्थान काल प्रमाण करता है। __ अस्तु मयोयोगादि का निरोध मंद बुद्धि वाले को सुख पूर्वक बोध देने के लिए आचार्य ने स्थूल दृष्टि से वर्णन किया है यावत् अयोगी रूप को प्राप्त करता है अर्थात् अयोगी रूप प्राप्ति के सम्मुख होता है। अयोगी रूप की प्राप्ति के सम्मुख होकर ईसिंईषत्-थोड़े काल में शैलेशी को प्राप्त करता है। पांच ह्रस्व अक्षर के उच्चारण के काल प्रमाण-शैलेशी की अवस्था है। इसकी स्थिति असख्यात समय प्रमाण है-ऐसा सूत्रकार ने कहा है। अन्तमुहूर्त प्रमाण शैलेशी को प्राप्त करता है। उस समय व्यवच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान ऊपर आरुढ होता है। कहा है-"शील-समाधि और वह सर्व संवर रूप जाननी चाहिए। उसका जो स्वामी उसकी अवस्था-शैलेशी है। (१) शैलेशी को प्राप्त हुआ जितने काल में पांच ह्रस्वअक्षर ( इ-ब-प-न-म अथवा अ-इ-उ, ऋ-ल) का मध्यम प्रकार से उच्चारण हो उतना काल । (२) काययोग के निरोध के प्रारम्भ से सूक्ष्म क्रिय अनिवृत्ति ध्यान हो और शैलेशी काल में व्यवच्छिन्न क्रिय बप्रतिपाती ध्यान होता है। (३) केवल मलेशी को प्राप्त करता है-ऐसा नहीं परन्तु पूर्व में रचित गुण श्रेणि वाले कर्म से अनुभव के लिए प्राप्त करता है। अर्थात् पूर्व में काययोग के निरोध के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में पूर्व में जिनका स्वरूप कहा है-ऐसी गुण श्रेणि जिसकी रचित हुई है ऐसे कर्म का अनुभव प्राप्त करता है । अस्तु वह शैलेशी काल में रहता हुआ पूर्व में रचित असंख्याती गुण श्रेणी को प्राप्त हुआ तीन कर्म के अलग-अलग प्रति समय असंख्यात कर्म स्कन्धों को 'क्षपयन्' विपाक से व प्रदेश से वेदने योग्य कर्म की निर्जरा करता हुआ अन्तिम समय में वेदनीय, आयुष्य-नाम और गोत्र-ये चार कर्म के भेदों से एक साथ क्षय करता है। एक साथ क्षय करके Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) उसके बाद के समय में औदारिक, तेजस और कार्मण रूप तीन शरीर का सर्व प्रकार से त्याग करने योग्य त्याग करता है अर्थात् सर्व प्रकार से त्याग करता है । शरीर का देश से त्याग करता था वैसा त्याग नहीं करता है, परन्तु सर्व करता है । कहा है- औदारिकादि शरीर को सर्व प्रकार से त्याग ( वैक्रियमिश्र काययोग में किसी भी प्रकार का समुद्घात नहीं होता है । होता है । ) जैसे बंधन के विच्छेद से प्रेरित हुआ एरंड फल जाता है वैसे ही कर्म बंध के विच्छेद से प्रेरित हुआ सिद्ध भी होता है । आवश्यक चूर्ण में कहा है- जितने आकाश प्रदेशों में जीव स्थित है उतनी अवगाहना से ऊपर ऋजु गति से जाता है । साकार उपयोगवाला एक समय में सिद्ध होता है । तथा न मरण वे सिद्ध औदारिकादि शरीर रहित है । त्याग होता है । चूंकि रागादि की उत्पत्ति में परिणामी कारण आत्मा है और सहकारी कारण रागादि मोहनीय कर्म है सिद्धों के रागादि मोहनीय कर्म नहीं है उसको पूर्व ही ध्यानाग्नि से भम्मसात् किया है । धर्म संग्रहणी में कहा है-क्षीण हुए उस रागादि सहकारी कारण के अभाव से वापस उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि रागादि रहित को संक्लेश नहीं होता है । कहा है - जैसे बीज अत्यन्त दग्ध होने से अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है वैसे ही कर्म रूपी बीज के दग्ध होने से अकुर उत्पन्न नहीं होता है । वे सिद्ध जाति, जन्म, जरा, वृद्धावस्था, मरण और बंधन ज्ञानावरणीयादि कर्मों से मुक्त है । .०६ मनोयोगी और वचनयोगी का समुद्घात क्षेत्र जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी सत्थाणेण समुग्धादेण केवड़िखेत्ते ? वेयण क्योंकि सिद्धों के प्रथम समय में उनका - षट० खं २ । ६ । सू ५२ । पु ७ । पृष्ठ ० ३४० टीका - एत्थ सत्थाणे दो वि सत्याणाणि अत्थि, समुग्धादे वेयणकसायवेव्विय तेजाहार मारणंतियसमुग्धादा अस्थि, उट्ठाविदउत्तरसरीराणं मारणंतियगदाणं पि मण वचि - जोगसंभवस्स विरोहाभावादो । उववादो णत्थि, तत्य कायजोग मोत्तणण्णजोगाभावादो । जिस प्रकार पूर्व प्रकार से त्याग छोड़ता है । - कसाय लोगस्स अस खेज्जदिभागे । टीका- एदस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा - सत्याणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- बेउव्वियसमुग्धादगदा एदे दस वि तिष्हं लोगाणमसंखेज्ज दिभागे, - षट० खं २ । ६ । सू ५३ | ७ | पृष्ठ० ३४० Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे ; तेजाहारसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जस्स संखेज्जविभागे ; मारणंतिय समुग्धादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, णर-तिरियलोहितो असंखेज्जगुणे अच्छंति । उववादं णत्थि, मणजोग-वचिजोगाणं विवक्खादो। योग मार्मणानुसार पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीव स्वस्थान और समुद्घात की अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं। ___ यहाँ स्वस्थान में दोनों स्वस्थान और समुद्घात में वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियिक समुद्घात, तैजस समुद्घात, आहारक समुद्घात एवं मारणान्तिक समुद्घात है, क्योंकि, उत्तर शरीर को उत्पन्न करने वाले, मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त जीवों के भी मनोयोग वचनयोग के होने में कोई विरोध नहीं है। मनोयोगी व वचनयोगी जीवों में उपपाद पद नहीं है क्योंकि, उनमें काययोग को छोड़ कर अन्य योगों का अभाव है। पांचों मनोयोगी व पांचों वचनयोगी जीव उक्त पदों से लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अस्तु-स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियिक समुद्घात को प्राप्त ये दश ही जीव तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। तैजस समुद्घात व आहारक समुद्घात को प्राप्त उक्त जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाई द्वीप के संख्यातवें भाग में रहते हैं। मारप्पान्तिक समुद्घात को प्राप्त उक्त जीव तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में तथा मनुष्य तथा तिर्यग्लोक की अपेक्षा असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । उपपाद पद नहीं है। क्योंकि मनोयोग व वचनयोग की यहाँ विवक्षा है। ७ काययोगी का समुद्घात क्षेत्र औदारिकमिश्र काययोगी का समुद्घात क्षेत्र कायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगी सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवड़िखेते? -षट० खं २ । ६ । सू ५४ । पु ७ । पृष्ठ० ३४१ टीका-सुगममेदं। सव्वलोए। -षट० खं २। ६ । सू ५५ । पु ७ । पृष्ठ० ३४१ टीका-एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा-सस्थाणवेयण-कसायमारणंतिय-उववादेहि सव्वलोगे। कुदो? आणंतियादो। विहारवदिसत्थाण Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ > वेडब्बियपदेहि कायजोणिगो तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जविभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? जगपदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ततसरा सिस्स गहणादो । तेजाहारपदेहि कायजोगिणो चटुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जस्स संखेज्जदिभागे । दंड-कवाड - पदर लोग पूरणंहि कायजोगिणो ओघभंगो । काययोगी और औदारिकमिश्र काययोगी जीव स्वस्थान समुद्घात व उपपाद पद से कितने क्षेत्र में रहते हैं । काययोगी और औदारिकमिश्र काययोगी जीव उक्त पदों से सर्वलोक में रहते हैं । स्वस्थान, वेदना समुद्घातः कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद से पदों से काययोगी व औदारिकमिश्र काययोगी सर्वलोक में रहते हैं, क्योंकि वे अनंत हैं । विहार व स्वस्थान और वैक्रियिक समुद्घात पदों से काययोगी जीव तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि जगप्रतर के असंख्यातवें भाग मात्र सराशि का यहाँ ग्रहण है। तेजस समुद्घात और आहारक समुद्घात पदों से काययोगी जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप के संख्यातवें भाग में रहते हैं। दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात की अपेक्षा काययोगियों के क्षेत्र का निरूपण ओध के समान है । .०६ औवारिक काययोगी का समुद्घात क्षेत्र ओरालियकायजोगी सत्याणेण समुग्धादेण केवडिखेत्ते ? टीका सुगमं । -- षट० खं २ । ६ । सू ५६ । पु ७ । पृष्ठ • ३४२ सव्वलोए । षट • खं २ । ६ । सू ५७ । ७ । पृष्ठ० ३४२ टीका - एदस्सत्थो वुच्चदे सत्याण - वेयण- कसाय- मारणंतियेहि सव्वलोगे । कुदो ? सव्वत्थावद्वाणाविरोहिजो वाणमोरालियकायजोगीणं मारणंतियादो । विहारपदेण तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो ? तसणालि मोत्तणण्णत्थ विहाराभावादो । उब्विय-तेजा - वंडस मुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसं खेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । णवरि तेजासमुग्धादगदा माणुसखेत्तस्स संखेज्जदि-भागे । कवाड - पदर लोगवूरणाहारपदाणि णत्थि, ओरालियकायजोगेण तेसि - विराहादो । - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ , उववादं णत्थि। षट० खं २ । ६ । सू ५८ । पु ७ । पृष्ठ० ३४३ टोका–ओरालियकायजोगेण सह एदस्स विराहादो। औदारिक काययोगी जीव स्वस्थान व समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में रहते हैं । अस्तु स्वस्थान, वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात और मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा उक्त जीव सर्वलोक में रहते हैं, क्योंकि सर्वत्र अवस्थान के अविरोधी औदारिक काययोगी जीवों के मारणान्तिक समुद्घात होता है। विहार पद की अपेक्षा तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुण क्षेत्र में रहते हैं ? क्योंकि सराशि को छोड़कर उक्त जीवों का अन्यत्र विहार नहीं है । वैक्रियिक समुद्घात, तैजस समुद्घात और दण्ड समुद्घात को प्राप्त उक्त जीव चारों लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। विशेष इतना है कि तेजस समुद्घात को प्राप्त उस जीब मानुष क्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं । कपाट समुद्घात, प्रतर समुद्घात, लोकपुरण समुद्घात और आहारक समुद्घात पद नहीं है, क्योंकि औदारिक काययोग के साथ उनका विरोध है । •०७ वैक्रिय काययोगी का समुद्घात क्षेत्र बेउव्वियकायजोगी सत्थाणेण समुग्धादेण केवडिखेत्ते? -षट० खं २ । ६ सू ५९ । पु ७ । पृष्ठ० ३४३ टीका–सुगम। लोगस्स असंखेज्जदिभागे। -षट० खं० २। ६ । सू ६० । पु ७ पृष्ठ ० ३४३ टीका-एदस्सत्थो वुच्चदे-सत्थाणसत्थाण-विहारवविसत्थाण-वेयणकसाय-वेउब्वियपदेहि बेउम्बियकायजोगिणो तिण्हं लोगाणमसंखेज्जविभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाईज्जादो असंखेज्जगुणे। कुदो? पहाणीकयजोइसियरासित्तादो। मारणंतियसमुग्धादेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, गर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे। एत्थ ओवट्टणं जाणिय कायव्वं । उववादो पत्थि। -षट० खं २ । ६ सू ६१ । पु ७ । पृष्ठ० ३४३ । ४ टीका-बेउब्बियकायजोगेण उववादस्स विरोहादो। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) वैक्रिय काययोगी जीव स्वस्थान व समुद्घात से लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अस्तु स्वस्थान-स्वस्थान, विहार वत्स्वस्थान, वेदना समुद्घात, कषाय समुदघात और वैक्रियिक समुद्घात पद से वैक्रिय काययोगी जीव तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि यहाँ ज्योतिषी राशि की प्रधानता है। मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोक की अपेक्षा असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहाँ अपवर्तन करके जानना चाहिए । वैक्रियिक काययोगियों के उपपाद नहीं होता है क्योंकि वैक्रियिक काययोग के साथ उपपाद पद का विरोध है। .०८ वैक्रियमिश्र काययोगी का समुद्घात क्षेत्र वेउन्विमिस्सकायजोगी सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? -षट० खं २ । ६ । सू ६२ । पु ७ । पृष्ठ० ३४४ टीका-सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे। -षट० खं २ । ६ । सू ६३ । पु ७ । पृष्ठ० ३४४ टोका-एदस्स अत्थो-तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे। कुदो ? देवरासिस्स संखेज्जदिभागमेत्तवेउव्वियमिस्सकायजोगिदव्वुवलंभादो। . समुग्धाद-उववादा पत्थि। -षट० खं २ । ६ । सू ६४ । पु ७ । पृष्ठ• ३४४ । ४५ टीका-बेउव्वियमिस्सेण सह एदेसि विरोहादो। होदु मारणंतिय-उववादेहि सह विरोहो, ण वेयण-कसायसमुग्धादेहि। तम्हा वेउवियमिस्सम्मि समुग्धादो पत्थि त्ति ण घडदे ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-सत्थाणखेत्तादो वाचयदुवारेण लोगस्स असंखेज्जदिभागेण वेयण-कसाय-वेउव्विय-विहारवदि-सत्थाणतेजाहारखेत्ताणि अपुधभूदत्तादो तत्थेव लीणाणि त्ति एदाणि एत्थ खुद्दाबंधे ण परिग्गहिदाणि। तदो मारणंतियमेक्कं चेव केवलिसमुग्घादेण सहिदं एत्थ समुग्धादणिद्दे सेण घेप्पदि। सो च समुग्घादो एत्थ णत्थि, तेणेसो ण दोसो त्ति । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) अधवा वेयण-कसाय- वेउब्विय-तेजाहाराणं पि एत्थ खुद्दाबंधे अस्थि समुग्धादववएसो, किंतु ण ते पहाणं, मारणंतियखेत्तादो तेसिमहियखेत्ताभावादो । तदो पहाणं मारणं तियपदं जत्थ अस्थि, तत्थ समुग्धादो वि अत्थि । जत्थ तं णत्थि, ण तत्थ समुग्धादोत्ति वुच्चदे । तदो दोहि पयारेहि 'समुग्धादो गत्थि' त्तिण विरुज्भदे । वैक्रियिकमिश्र काययोगी जीव स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । अस्तु वै क्रियिकमिश्र काययोगी जीव स्वस्थान से तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग में, अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे और तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं, क्योंकि देवराशि के संख्यातवें भाग मात्र वैक्रियिकमिश्र काययोगी द्रव्य पाया जाता है । समुद्घात व उपपाद पद नहीं है, क्योंकि वैक्रियिकमिश्र काययोग के साथ इनका विरोध है । प्रश्न उठता है कि वैक्रियिकमिश्र काययोग की मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों के साथ भले ही विरोध हो, किन्तु वेदना समुद्घात और कषाय समुद्घात के साथ कोई विरोध नहीं है । अतः वैक्रियिकमिश्र काययोग में समुद्घात नहीं है यह वचन घटित नहीं होता है । अभिन्न होने से उसी समाधान — उक्त शंका का यहाँ परिहार कहा जाता है । स्वस्थान क्षेत्र से कथन की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग से वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियिक समुद्घात, विहार वत्समुद्घात, तेजस समुद्घात और आहारक समुद्घात के क्षेत्र में लीन है । अतएव ये यहाँ क्षुद्रकबंध में नहीं ग्रहण किये गये हैं । इसी कारण केवलिसमुद्घात सहित एक मारणान्तिक समुद्घात ही यहाँ समुद्घात निर्देश से ग्रहण किया जाता है । और वह समुद्धात यहाँ है नहीं, इसलिए यह कोई दोष नहीं है । अथवा वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियिक समुद्घात, तेजस समुद्घात और आहारक समुदघात का भी यहाँ 'क्षुद्रकबंध' में समुद्घात संज्ञा प्राप्त है । क्योंकि वे प्रधान नहीं है । क्योंकि मारणान्तिक क्षेत्र की अपेक्षा उनके अधिक क्षेत्र का अभाव है । अतः जहाँ प्रधान मारणान्तिक पद है वहाँ समुद्घात भी है । किन्तु वह नहीं है वहाँ समुद्घात भी नहीं है, ऐसा कहा जाता है | इस प्रकार दोनों प्रकारों से 'समुद्घात' नहीं है । यह वचन विरोध से प्राप्त नहीं होता है । -०९ आहारक काययोगी का समुद्घात क्षेत्र आहारकायजोगी वेउब्विय कायजोगिभंगो । - षट० खं २ । ६ । सू ६५ | पु७ । पृष्ठ० ३४५ टीका - एसो दव्वट्टियणिद्द सो । पज्जवट्ठियणयं पडुच्च भण्णमाणे अत्थि तदो विसेसो । तं जहा - सत्याण - विहारवदिसत्थाणपरिणदा चदुण्हं लोगाणम Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखेज्जदिभागे, माणुस खेत्तस्स संखेज्जदिभागे। मारणंतियसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जविभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे त्ति। ___ आहारक काययोगियों के क्षेत्र का निरूपण वैक्रियिक काययोगियों के क्षेत्र के समान हैं। अस्तु- यह द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा निर्देश है। पर्यायाथिक नय की अपेक्षा निरूपण करने पर वैक्रियिक काययोगियों के क्षेत्र में यहाँ विशेषता है। वह इस प्रकार है-स्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र के परिणत आहारक काययोगी जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और मानुष क्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं। मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त उक्त जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। •१० आहारकमिश्र काययोगी का समुद्घात क्षेत्र आहारमिस्सकायजोगी वेउन्विमिस्सभंगो। -षट० खं २ । ६ । सू ६६ । पु ७ । पृष्ठ० ३४६ टीका - एसो वि दवट्ठियणिद्दे सो, लोगस्स असंखेन्जदिभागत्तणेण दोण्हं खेत्ताणं समाणत्तं पेक्खिय पवुत्तीदो। पज्जवट्ठियणयं पडुच्च भेदो अस्थि । तंजहा आहारमिस्सकायजोगी चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे त्ति। आहारिकमिश्र काययोगियों का क्षेत्र वैक्रियिकमिश्र काययोगियों के समान है। अस्तु यह भी द्रव्याथिक नय की अपेक्षा निर्देश है। क्योंकि, लोक के असंख्यातवें भागत्व से दोनों क्षेत्रों की समानता की अपेक्षा कर इसकी प्रवृत्ति हुई है। पर्यायर्थिक नय की अपेक्षा भेद है। वह इस प्रकार है-आहारकमिश्र काययोगी जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और मानुष क्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं। ११ कार्मण काययोगी का समुद्घात क्षेत्र कम्मइयकायजोगी केवडिखेते? -षट• खं २।६ । सू ६७ । पु ७ । पृष्ठ० ३४६ टोका-सुगम। सव्वलोगे। -षट० खं २ । ६ । सू६८ । पु७ । पृष्ठ० ३४६ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) टीका - एवं सामासिसुत्तं ण होदि, वत्तत्थं मोत्तूणेदेण सुइदत्थाभावादो । कथं कम्मइयकायजोगिरासी सव्वलोए ? ण, तस्स अणंतस्स सव्वजीवरासिस्स असंखेज्जदिभागत्तणण तदविरोहादो । कार्मण काययोगी जीव सर्वलोक में रहते हैं । क्योंकि कार्मण काययोगी राशि के समान सर्वराशि के असंख्यातवें भाग होने से उसमें कोई विरोध नहीं है अतः कार्मण काययोगी जीव राशि सर्वलोक में रहती है । • ३१ सयोगी जीवों का विभाग - १ सयोगी औधिक जीवों का विभाग जीवा णं भंते! कि सच्च मणप्पओगी जाव कि कम्मासरीरकाप्पयओगी ? गोयमा ! जीवा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगी वि जाव वेउब्वियमीसासरीरकाओगी वि कम्मासरीरकायप्पओगी वि, अहवेगे य आहारगसरीरकायओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगमीसारीर कायप्पयोगी ३ अहवेगे य आहारगमी सासरीरकायप्पओगिणोय ४ चभंगो, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीर कायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४, एएजीवाणं अट्ठ भंगा । - पण्ण० प १६ । सू १०७७ | पृष्ठ० २६२ टीका- 'जीवाणं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, निर्वचनसूत्रे सर्वेऽपि तावद् भवेयुः सत्यमनः प्रयोगिण इत्यादिरेको भङ्गः, किमुक्तं भवति ? - सदैव जीवा बहव एव सत्यमनः प्रयोगिणोऽप्यसत्य मनः प्रयोगिणोऽपि यावद् वैक्रियमिश्रशरीरकाय प्रयोगिणोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगिणोऽपि लभ्यन्ते, तत्र सदैव वैक्रियमिश्रशरीरकाय प्रयोगिणो नारकादीनां सदैवोपपातोत्तर वेत्रियारम्भसम्भवात्, सदैव कार्मणशरीरकायप्रयोगिणः सर्वदेव वनस्पत्यादीनां विग्रहेणावान्तरगतौ लभ्यमानत्वात्, आहारकशरीरी व कदाचित्सर्वथा न लभ्यते, षण्मासान् यावदुत्कर्षतोऽन्तरसम्भवात् यदापि लभ्यते तदापि जघन्यपदे एको द्वौ वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वं, उक्तं च "आहारगाइ लोए छम्मासे जा न होंतिवि क्याई । उक्कोसेणं नियमा एक्कं समयं जहन्नेणं ॥१॥ होंताई जहन्नेणं इक्कं दो तिष्णि पंचवा 1 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवं ति। उक्कोसेणं जुगवं पुहुत्तमेत्तं सहस्साणं ॥२॥ ततो यदा आहारकशरीरकायप्रयोगी आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी चैकोऽपि न लभ्यते तदा बहुवचनविशिष्टत्रयोदशपदात्मक एको भंगः, त्रयोदशपदानामपि सदेव बहुत्वेनावस्थितत्वात, यदा त्वेक आहारकशरीरकायप्रयोगी लभ्यते तदा द्वितीयः, तेऽपि यदा बहवो लभ्यन्ते तदा तृतीयः, एवमेव आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगिपदेनापिद्वौ भंगो लभ्येते इत्येकयोगे चत्वारो भंगाः द्विकसंयोगेऽपि प्रत्येकमेकवचनबहुवचनाभ्यां चत्वार इति सर्वसंख्या जीवपदेन नव भंगाः। जीव ( बहुवचन) क्या सत्यमनप्रयोग वाला है यावत् क्या कामगशरीरप्रयोग वाला है ? १-सब जीव सत्यमनप्रयोग वाले, असत्यमनप्रयोग वाले यावत् वैक्रियमिश्र शरीर प्रयोग वाले तथा कार्मणशरीर कायप्रयोग वाले भी होते हैं। (यहाँ आहारक काययोग व आहारकमिश्र काययोग को छोड़ा है)। अथवा एक आहारकशरीर कायप्रयोग वाला होता है, (१) अथवा कितनेक आहारकशरीर कायप्रयोग वाले होते हैं, (२) अथवा एक आहारकमिश्र शरीर कायप्रयोग वाला होता है, (३) अथवा कितनेक आहारकमिश्र शरीर कायप्रयोग वाले होते हैं, (४) यह चतुर्भगी जाननी चाहिए। - अथवा एक आहारकशरीर कायप्रयोग वाला और एक आहारकमिश्रशरीर कायप्रयोग वाला होता है, (१) अथवा एक आहारकशरीर कायप्रयोग वाला और कितनेक आहारकमिश्रशरीर कायप्रयोग वाले होते है, (२) अथवा कितनेक आहारकशरीर कायप्रयोग वाले होते हैं और एक आहारकमिश्रशरीर कायप्रयोग वाला होता है, (३) अथवा कितनेक आहारकशरीर कायप्रयोग वाले होते हैं और कितनेक आहारकमिश्रशरीर कायप्रयोग वाले होते हैं। ४ । इस प्रकार जीवों के आश्रयी आठ भंग-विकल्प जानने चाहिए। ____ अस्तु सर्व जीव सत्यमनप्रयोग वाले होते हैं-इत्यादि प्रथम भंग-विकल्प होता है । तात्पर्य यह है कि सर्वदा घने जीव सत्यमनप्रयोग वाले, असत्यमनप्रयोग वाले, यावत् वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोग वाले और कार्मणशरीर कायप्रयोग वाले भी होते हैं। नारकादि जीवों को हमेशा उपपात और उत्तरवैक्रिय का आरंभ सम्भव है। कार्मणशरीर कायप्रयोग वाले हमेशा होते हैं, क्योंकि वनस्पति आदि विग्रहगति से हमेशा अवान्तर गति में होते हैं। आहारक शरीरी कदाचित, सर्वथा नहीं होता है क्योंकि उसका उत्कृष्ट से छः मास तक का अन्तर संभव है। जब आहारकशरीरी होता है तब जघन्य से एक, दो और उत्कृष्ट से सहस्र पृथक्त्व-दो हजार से नव हजार तक होते हैं। कहा है-"लोक में आहारकशरीर Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) किसी को भी उत्कृष्ट छः मास तक अवश्य नहीं होता है। और जघन्य से एक समय तक नहीं होता है। जब होता है तब जघन्य से एक, दो, तीन अथवा पांच होता है और उत्कृष्ट एक साथ सहस्र पृथक्त्व होता है। इस कारण जब आहारकशरीर कायप्रयोग वाला और आहारकमिश्र शरीर कायप्रयोग वाला एक भी नहीं होता है तब दो प्रयोग के सिवाय बहुवचन युक्त तेरह पद का प्रथम भंग होता है क्योंकि तेरह पदों का भी हमेशा बहुपन होता है। जब एक आहारकशरीर-कायप्रयोग वाला होता है तब दूसरा भंग घटित होता है। वह भी जब घने होते हैं तब तीसरा विकल्प घटित होता है । इस प्रकार ही आहारकमिश्रशरीर-कायप्रयोग पद से भी दो भंग होते हैं। इस प्रकार एक के योग में चार भांगे होते हैं। . द्विक संयोग में भी प्रत्येक के एकवचन और बहुवचन में चार भंग, इस प्रकार सर्व संख्या में जीवपद के आश्रयी नव भंग होते हैं। •२ सयोगी नारको जीवों का विभाग ... रइया गं भंते ! कि सच्चमणजोगी जाव कि कम्मासरीरकायप्पओगी? गोयमा! णेरइया सब्वे वि ताव होज्जा सच्चमणजोगी वि जाव वेउग्वियमोसासरीरकायप्पओगी वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २॥ –पण्ण० प १६ । पू १०७८ । पृष्ठ० २६२ ____टोका-नरयिकपदे सत्यमन:प्रयोगिप्रभृतीनि वैक्रियमिथशरीरकायप्रयोगिपर्यन्तानि सदैव बहुवचनेन दश पदान्यवस्थितानीत्येको भंगः, अथ वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगिणः सदैव कथं लभ्यन्ते ? द्वादशमौहत्तिकगत्युपपातविरहकालभावात्, उच्यते, उत्तरवैक्रियापेक्षया, तथाहि द्वादशमौहूतिको गत्युपपातविरहकालस्तथापि तदानीमपि उत्तरक्रियारम्भिणः संभवन्ति, उत्तरवैक्रियारम्भे च भवधारणीयं वैक्रियमित्रं, तबलेनोत्तरवैक्रियारम्भात्, भवधारणीयप्रवेशे चोत्तरवैक्रियमिश्र, उत्तरवैक्रियबलेन भवधारणीये प्रवेशात, तत एवोत्तरवैक्रियापेक्षया भवधारणीयोत्तरवैक्रियमिश्रसंभवात् तदानीमपि वैक्रियशरीरमिश्रकायप्रयोगिणो नरयिका लभ्यन्ते, कार्मणशरीरकायप्रयोगी च नैरयिकः कदाचिदेकोऽपि न लभ्यते, द्वादशमौहूत्तिकगत्युपपात विरहकालभावात्, यदापि लभ्यते तदापि जघन्यत एको द्वौ वा उत्कर्षतोऽसंख्येयाः, ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगी न लभ्यते Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) तदा प्रथमो भंगो यदा पुनरेकस्तदा द्वितीयो यदा बहवस्तदा तृतीय इति, अत एव भंगाः भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु भावनीयाः। १-सब नारको जीव सत्यमनप्रयोग वाले यावत् वैक्रियमिश्रप्रयोग वाले होते हैं। (१) अथवा एक नारकी कार्मणशरीरकायप्रयोग वाला होता है। (२) अथवा कितनेक नारकी कार्मणशरीरकायप्रयोग वाले होते हैं। अस्तु नरयिक पद में सत्यमनप्रयोग वाले से आरंभी वक्रियमिश्र कायप्रयोग वाले पर्यन्त दस पद हमेशा बहुवचन से स्थित है। इस कारण यह प्रथम भंग है। प्रश्न उठता है कि-वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोग वाले हमेशा कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि नरकगति में बारह मुहूर्त का उपपात विरहकाल है। इसका उत्तर यह है कि-यह उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा कहा है। वह इस प्रकार है-यद्यपि बारह मुहूर्त का गति में उपपात विरहकाल होता है, फिर भी उस समय भी उत्तरवैक्रिय शरीर का आरंभ करने वाले संभव है और उत्तरवैक्रिय के प्रारंभ में भवधारणीय वैक्रिय से मित्र होता है, क्योंकि वैक्रिय शरीर के सामर्थ्य से उत्तरवैक्रिय का आरंभ करता है। भवधारणीय शरीर के प्रवेश में भी उत्तरवैक्रिय से मिश्र होता है, क्योंकि उतरवैक्रिय के बल से भवधारणीय शरीर में प्रवेश करता है। इस कारण उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा भवधारणीय और उत्तरवैत्रिय के मिश्र का संभव होने से उस समय भी वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोग वाले नैरयिक होते हैं। कार्मणशरीर कायप्रयोग वाला नारकी कदाचित् एक भी न होते हो, क्योंकि बारह मुहूर्त की गति में उपपात बिरहकाल होता है। जब होता है तब भी जघन्य एक, दो और उत्कृष्ट से असंख्यात होते हैं। इस कारण जब कार्मणशरीर कायप्रयोगवाला एक भी नहीं होता है तब प्रथम भंग होता है। जब एक होता है तब दूसरा भंग, जब घने होते हैं तब तीसरा भंग होता है। ३ सयोगी भवनवासियों का विभाग एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा वि । -पण्ण• प १६ । सू १०७९ । पृष्ठ. २६३ [ टीका के लिए नारकी का पाठ देखो ] जैसा नारकी (बहुवचन) के विषय में कहा है वैसा ही असुरकुमारों यावत् स्तनितकुमारों के विषय में भी जानना चाहिए । अस्तु नारकी की तरह यहाँ तीन भंग कहना चाहिए । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) •४ सयोगी एकेन्द्रिय का विभाग ॥ पृथ्वीकायिक , , अप्कायिक , तेउकायिक , बायुकायिक , " वनस्पतिकायिक , पुढविकाइया णं भंते ! कि ओरालियसरीरकायप्पओगी ओरालिमोसासरीरकायप्पओगी कम्मासरीरकायप्पओगी? गोयमा ! पुढविकाइया णं ओरालियसरीरकायप्पओगी वि ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी वि कम्मासरीरकायप्पओगी वि। एवं जाव वणप्फतिकाइयाणं । णवरं वाउक्काइया वेउन्वियसरीरकायप्पओगी वि वेउब्वियमीसासरीरकायप्पओगी वि। -पण्ण० प १६ । सू १०८० । पृष्ठ० २६३ टोका-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिषु औदारिकशरीरकायप्रयोगिणोऽपि औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणोऽपि कार्मणशरीरकायप्रयोगिणोऽपि सदा बहव एव लभ्यन्ते इति पदत्रयबहुवचनात्मकः प्रत्येकमेक एव भंगः, वायुकायिकेष्वौदारिकद्विकवैक्रियद्विककार्मणशरीरलक्षणपदपञ्चकबहुवचनात्मक एको भंगः, तेषु वैक्रियशरोरिणां वैक्रियमिश्रशरीरिणां च सदैव बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् । पृथ्वीकायिक जीव ( बहुवचन ) औदारिक शरीर कायप्रयोग वाले, औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोग वाले और कार्ममशरीर कायप्रयोग वाले भी होते हैं। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों के विषय में चानना चाहिए। किन्तु वायुकायिक जीव वैक्रियशरीर कायप्रयोग वाले और वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोगवाले भी होते हैं। पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय में (बहुवचन) औदारिकशरीर-कायप्रयोगवाले, औदारिकमिश्रशरीर-कायप्रयोगवाले और कामंणशरीर-कायप्रयोगवाले भी हमेशा बहुत होते हैं। अतः प्रत्येक में तीन पदों के बहुवचन रूप एक ही भंग होता है। वायुकायिकों में औदारिकद्विक, वैक्रियद्विक और कार्मणशरीर-इन पाँच पदों के बहुधचनरूप एक भंग होता है क्योंकि उनमें वैक्रियशरीरवाले और वैक्रियमित्र शरीरवाले हमेशा बहुत होते हैं। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •५ सयोगी द्वीन्द्रिय का विभाग ·६ वीन्द्रिय •७ 19 39 चतुरिन्द्रिय " 11 ( ८२ ) बेइ दिया गं भंते! कि ओरालियसरीरकायप्पओगी जाव कम्मासरीरerrorओगी ? गोयमा ! बेइ दिया सव्वे वि ताव होज्जा असच्चामोसवइप्पओगी fa ओरालिय सरीर कायप्पओगी वि ओरालियमी सासरीर कायप्पओगी वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ | अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ । एवं जाव चरदिया । - पण्ण ० प १६ । सू १०८१ । पृष्ठ० २६३ टीका - द्वीन्द्रियेषु यद्यप्यान्तमौहू तिक उपपातविरहकालस्तथाप्युपपातविरहकालोऽन्तर्मुहूतं लघु औदारिकमिश्रगतमन्तर्मुहूर्तमतिबृहत् प्रमाणमत औदाfreमिशरीर काय प्रयोगिणोऽपि तेषु सदैव लभ्यन्ते, कार्मणशरीरकायप्रयोगी तु कदाचिदेकोऽपि न लभ्यते, आन्तम हूतिकोपपातविरहकालभावात्, यदापि लभ्यते तदापि एको द्वौ वा उत्कर्षतोऽसंख्येयाः, ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरकाय प्रयोगी न लभ्यते तदा प्रथमो भंगः, यदा पुनरेकः कार्मणशरीरी लभ्यते तदा द्वितीयः, यदा बहवस्तदा तृतीय इति, एवं त्रिचतुरिन्द्रियेष्वपि भावनीयम् । सर्व बेइन्द्रिय असत्यमृषा वचनप्रयोगवाले, औदारिकशरीर कायप्रयोगवाले और औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाले भी होते हैं अथवा एक कार्मणशरीर कायप्रयोगवाला भी होता है १ - केतनेक कार्मणशरीर कायप्रयोगवाले भी होते हैं । २ - इसी प्रकार ते इन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय के विषय में जानना चाहिए । अस्तु — बेइन्द्रियों में जो कि अन्तर्मुहूर्तकाल का उपपात विरहकाल है तो भी उपपात विरहकाल का अन्तर्मुहूर्त छोटा है और औदारिक मिश्र का अन्तर्मुहूर्त बहुत मोटा है । अतः उनमें औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाले भी हमेशा होते हैं । कार्मणशरीर का प्रयोगवाले तो कदाचित् एक भी नहीं होते हैं। क्योंकि उनका उपपात विरहकाल अन्तर्मुहूर्त होता है । जब वह होता है तब जघन्य एक, दो और उत्कृष्ट से असंख्यात होते हैं । इस कारण जब एक भी कार्मणशरीर कायप्रयोग वाला नहीं होता है तब प्रथम भंग घटित होता है । जब एक कार्मणशरीर होता है तब द्वितीय भंग और जब बहुत होते हैं तब तीसरा भंग होता है । इसी प्रकार इन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के विषय समझना चाहिए । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ सयोगी पंचेन्द्रिय तियंचों का विभाग पंचेदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया । णवरं ओरालियसरीरकायप्पओगी वि ओरालिय मी सासरीरकायप्पओगी वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगी य ? अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ ( ८३ ) 1 - पण ० प १६ । सु १०८२ | पृष्ठ० २६३ टीका - पंचिदतिरिक्खजोगिया जहा नेरइया' इत्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका यथा नैरयिकास्तथा वक्तव्याः, नवरं वैक्रियमिश्रवैक्रियशरीरकायप्रयोगिस्थाने औदारिक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगिणो वक्तव्याः, किमुक्तं भवति ? सत्यमन: प्रयोगिणोऽपीत्यादि तावद्वक्तव्यं यावदसत्यामृषावाग्योगिनोऽपि तत औदारिकशरीरकाय प्रयोगिणोऽपि औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोणिऽपीति वक्तव्यं एतानि दश पदानि बहुवचनेन सदाऽवस्थितानि, यद्यपि च तिर्यक् पञ्चेन्द्रि याणामप्युपपात विरहकाल आन्तर्मुहूत्तिकस्तथाप्युपपातविरह कालान्तर्मुहूर्तं लघु औदारिक मिश्रान्तमुहूर्तमतिबृहदित्यत्र प्यौदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगिणः सदा लभ्यते यस्तु द्वादशमौहूत्तिक उपपातविरहकालः स गर्भव्युत्क्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिरश्वां न सामान्यपञ्चेन्द्रियतिरश्चामिति, कार्मणशरीरकायप्रयोगी तु तेष्वपि कदाचिदेकोऽपि न लभ्यते, आन्तम हूतिकोपपातविरहकालभावात्, ततो यदा एकोऽपि कार्मणशरीरी न लभ्यते तदा प्रथमो भंगः यदा पुनरेको लभ्यते तदा द्वितीयः यदा बहवस्तदा तृतीयः । पंचेन्द्रियतिर्यंच नारकी की तरह जानना चाहिए परन्तु वे औदारिकशरीर कायप्रयोग वाले भी और औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाले भी होते हैं । अथवा एक कार्मणशरीर काय प्रयोगवाला होता है ? अथवा कितनेक कार्मणशरीर कायप्रयोगवाले होते हैं । अस्तु -- जैसा नारकी के संबंध में कहा - वैसा ही पंचेन्द्रिय तिर्यंचपंचेन्द्रिय के संबंध में जानना चाहिए । परन्तु वैक्रिय और वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोगवालों के स्थान में औदारिक और औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोग वाला कहना चाहिए। तात्पर्य यह है कि१ - सत्यमनः प्रयोगवाला यावत् असत्यामृषावचन प्रयोगवाला ९ - औदारिकशरीर कायप्रयोग वाला और बाद में १० औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाला होता है ऐसा कहना चाहिए । - ये दस पद हमेशा बहुवचन की अपेक्षा अवस्थित है । जो कि तिथंच पंचेन्द्रियों का उपपात विरहकाल अन्तर्मुहूर्त का है तो भी उपपात विरहकाल का अन्तर्मुहूर्त छोटा है, औदारिक मिश्र का अन्तर्मुहूर्त बहुत बड़ा है । अतः यहाँ पर भी औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाले सदा होते हैं । जो बारह मुहूर्त का उपपात विरहकाल कहा है वह गर्भज Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) पंचेन्द्रिय तियंचों के आश्रयी समझना चाहिए। परन्तु सामान्य तिर्यंचों की अपेक्षा नहीं जानना चाहिए। कार्मणशरीर-कायप्रयोमवाला तो तिर्यंच पंचेन्द्रिय भी कदाचित् एक भी नहीं होता है क्योंकि उनका उपपात-विरहकाल अन्तमुहूर्त का है। इस कारण जब एक भी कार्मणशरीरी नहीं होता है तब प्रथम भंग होता है। जब एक होता है तब द्वितीय भंग और जब बहुत होते हैं तब तीसरा भंग होता है । .९ सयोगी मनुष्य का विभाग ( एकक भंग) __ १ मणूसा णं भंते ! कि सच्चमणप्पओगी जाव कि कम्मासरीरकायप्पओगी? गोयमा! मणसा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणजोगी वि जाव ओरालियसरीरकायप्पओगी वि वेउब्वियसरीरकायप्पओगी वि वेउध्वियमीसासरीरकायप्पओगी वि, अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ८, एते अट्ठ भंगा पत्तेयं । -पण्ण० प १६ । सू १०८३ । पृष्ठ० २६३-६४ टीका-मनुष्येषु मनश्चतुष्टयवाक्चतुष्टयौदारिकवत्रियद्विकरूपाप्येकादश पदानि सदेव बहुवचनेन लभ्यन्ते, वैक्रियमिश्रशरीरिणःकथं सदैव लभ्यन्ते इति चेत् ? उच्यते, विद्याधरापेक्षया, तथाहि-विद्याधरा अन्येऽपि केचिन्मिथ्याष्ट्यादयो वैक्रियलब्धिसम्पन्नाः अन्यान्यभावेन सदैव विकुर्वणायां लभ्यन्ते, आह च मूलटीकाकार:-"मनुष्या वैक्रियमिश्रसरीरप्रयोगिणः सदैव विद्याधरादीनां विकुर्वणाभावा" दिति, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी कार्मणशरीरकायप्रयोगी च कदाचित्सर्वथा न लभ्यते, द्वादशमौहूत्तिकोपपातविरहकालभावात्, आहारकशरीरी आहारकमिवशरीरी च कादाचित्कः प्रागेवोक्तः, तत औदारिकमिश्राद्यभावे पदैकादशबहुवचनलक्षण एको भंगः, तत औदारिकमिश्रपदेन एकवचनबहुबचनाभ्यां द्वौ भंगो, एवमेव द्वौ भंगो आहारकपदेन द्वौ चाहारकमिश्रयदेन द्वौ कार्मणपदेनेत्येकैकसंयोगे अण्टौ भंगाः। मनुष्य सभी सत्यमनः प्रयोगी यावत् औदारिकशरीर कायप्रयोगी, वैक्रियशरीर कायप्रयोगी, वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोगी भी बहुवचन की अपेक्षा से सतत होते हैं । यहाँ पर वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोगी का बहुवचन की अपेक्षा से कथन विद्याधर की Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) अपेक्षा से किया गया है, क्योंकि कुछ मिथ्यादृष्टि वैक्रियलब्धिसम्पन्न विद्याधर अन्यान्य भाव सेविकुर्वा में रहते हैं । मूल टीकाकार ने भी कहा है- मनुष्य वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी बहुवचन की अपेक्षा से विद्याधर आदि के सदैव विकुर्वणा करते रहने के कारण उपलब्ध होते हैं । अथवा एक समय में एक औदारिकमिश्रशरीर का प्रयोगी होता है (१), अथवा एक समय में अनेक ( बहुवचन) औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगी होते हैं (२), अथवा कदाचित् एक आहारकशरीर कायप्रयोगी उपलब्ध होता है ( ३ ), अथवा कदाचित् अनेक ( बहुवचन ) आहारकशरीर कायप्रयोगी उपलब्ध होते हैं (४), अथवा कदाचित् एक आहार मिश्र शरीर कायप्रयोगी उपलब्ध होता है (५), अथवा कदाचित् अनेक ( बहुवचन ) आहारकमिश्रशरीर कायप्रयोगी उपलब्ध होते हैं ( ६ ), अथवा कदाचित् एक कार्मणशरीर कायप्रयोगी उपलब्ध होता है (७), अथवा कदाचित् अनेक ( बहुवचन ) कार्मणशरीर कायप्रयोगी उपलब्ध होते हैं । ये आठ भंग होते हैं । arraf शरीर कायप्रयोगी तथा कार्मणशरीर कायप्रयोगी कदाचित् सर्वथा नहीं होते हैं, क्योंकि इनमें बारह मुहूर्त के उपपात का विरहकाल होता है । अवहारकशरीरी तथा आहारकमिश्रशरीर कदाचित् होते हैं यह पहले ही कहा जा चुका है । इस प्रकार Harfreeदि के अभाव में ग्यारह पदों का बहुवचन रूप भंग होता है, ओदारिकमिश्र पद से एकवचन और बहुवचन रूप दो भंग होते हैं, इसी प्रकार दो भंग आहारक पद से, दो भंग आहारकमिश्र पद से, दो भंग कार्मण पद से होते हैं। एक-एक के संयोग से आठ भंग होते हैं । • ९ २ सयोगी मनुष्य के विभाग ( युग्म भंग ) अहवेगे य ओरालियमोसासरीर कायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी म १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारग- सरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्प ओगिणो य आहारगसरीरकायपओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमी सासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य ४ एवं एते चत्तारि भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायओगी य आहारगमोसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरी कायपओगिणो य आहारगमी सासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमी सासरीरकायप्प ओगिणो य ४ चत्तारि भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमी सासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमी सासरी रकाय प्पओगिणोय कम्मासरी रकाय प्पओगीय ३ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ४ एते चत्तारि भंगा,अहवेगे यआहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४ चत्तारि भंगा, अहवेगे य आहारगसरीरकायापओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगीय ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४ चउरो भंगा, अहवेगे य आहारगमीसगसरीरकायप्पभोगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगमीसगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगमीसगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारममीसगसरीरकायप्पयोगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४ चत्तारि भंगा, एवं चउवीसं भंगा। -पण्ण० ५ १६ । सू १०८३ । पृष्ठ० २६४-६५ अस्तु द्विकसंयोग में प्रयैक के एकवचन और बहुवचन में औदारिकमिश्र और आहारकपद के चार भंग होते हैं। इस प्रकार ही औदारिकमिश्र और आहारकमिश्र पद के चार भंग होते हैं। औदारिक मिश्र और कार्मन के चार भंग होते हैं। आहारक और आहारकमिश्र के चार भंग होते हैं। आहारक और कार्मण के चार भंग होते हैं और आहारकमिश्र और कार्मण के चार भंग होते हैं। इस प्रकार सर्व मिलकर विकसंयोग में चौबीस भंग होते हैं। यथा १-अथवा एक औदारिकमिश्रशरीर काय प्रयोगवाला और एक आहारकशरीर कायप्रयोगवाला होता है। २-अथवा एक औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाला और कितनेक आहारकशरीर कायप्रयोगवाले होते हैं। ३-अथवा कितनैक औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाले और एक आहारकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाला होता है। ४.-अथवा कितनेक औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाले और कितनेक आहारकशरीर कायप्रयोगवाले होते हैं। इस प्रकार चार भंग-विकल्प होते हैं। १-अथवा एक औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाला और एक आहारकशरीर कायप्रयोगवाला होता है। २. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाला और कितनेक आहारकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाले होते हैं। ३-अथवा कितनेक औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगबाले और एक आहारकमिश्रशरीर कायप्रयोगवाला होता है। ४-अथवा Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक आहारकमिश्र शरीर-काय प्रयोगवाले होते हैं । इस प्रकार चार भंग-होते हैं । १-अथवा औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है । २-अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ३-अथवा कितनेक औदारिमिश्र शरीर कायप्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर प्रयोगवाला होता है। ४ – अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। इस प्रकार चार भंग होते हैं। १-अथवा एक आहारक शरीर कायप्रयोगवाला और एक आहारकमिश्र शरीर कायप्रयोगवाला होता है। २-अथवा एक आहारक शरीर कायप्रयोगवाला और कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला होता है। ३-अथवा कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले और एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । ४-- अथवा कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । इस प्रकार चार भंग होते हैं । १-अथवा एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है। २-अथवा एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला और कितनेक कार्मण शरीर प्रयोगवाले होते हैं। ३-अथवा कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है। ४ -अथवा कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। इस प्रकार चार भंग होते हैं। १-अथवा एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है । २-अथवा एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ३.-अथवा कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है। ४-अथवा कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। इस प्रकार चार भंग होते हैं । इस प्रकार सब मिलकर (४ x ६) चौबीस भंग होते हैं । सयोगी मनुष्य के विभाग (निक भंग) अहवेगे य ओरालियमीसगसरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसगसरीरकायप्पओगी प १ अहगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसगसरीरकायप्पओगिणो प २ अहवेगे य ओरालियमोसगसरीरकायप्पओगी म माहारगसरीरकायप्पओगिणो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरालियमोससरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमोसासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरोरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमोसासरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ८ एते अट्ठ भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मयसरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्प ओगीणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरलियमोसासरीरकायप्पयोगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरका यप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य कम्मगपरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारग सरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ८ एते अट्ठ भंगा, अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्माशरीरकायप्पओगी य ३ अहवेमे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्माशरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पभोगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीर Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९ ) कायप्पओगी य ७ अहवेगे य ओरालियमोसाशरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसाशरीरकायप्पओगिणो य कम्माशरीरकायप्पओगिणो य ८ एते अट्ठ भंगा, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहबेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगणिो य कम्मासरीरकायप्पओगो य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसाररीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ८ एवं एते तियसंजोएणं चत्तारि अट्टभंगा, सव्वे वि मिलिया बत्तीसं भंगा जाणियन्वा ३२ । -पण्ण० प १६ । सू १०८३ । पृष्ठ० २६५-६६ त्रिकसंयोग में औदारिकमिश्र, आहारक और आहारकमिश्र पद में एक वचन और बहुवचन के आठ भांगे होते हैं। औदारिकमिश्र, आहारक और कार्मण के आठ भांगे होते हैं, औदारिकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मण के आठ भांगे होते हैं, और आहारक, आहारकमित्र और कार्मण के आठ भांगे होते हैं। इस प्रकार सब मिलकर त्रिकसंयोगी बतीस भांगे होते हैं। __अस्तु १-अथवा एक औदारिकमिश्र-शरीर-काय प्रयोगवाला, एक आहारकशरीर काय प्रयोगवाला और एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला होता है । २-अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला होता है। ३-अथवा एक औदारिकमिश्रशरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले और एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला होता है। ४-अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ५–अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारकशरीर काय प्रयोगवाले और एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ६-अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं, एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला और कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ७-अथवा कितनेक Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले और एक आहारक मिश्र काय प्रयोगवाला होता है । ८ – अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोग वाले और कितनेक आहारक मिश्र शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । इस प्रकार आठ भांगे होते हैं । १ – अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है । ( २ ) अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । ३ – अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहाराक शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोग वाले होते हैं । ४ – अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले और किसनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । ५ – अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला और एक कार्मण शरीर कायप्रयोग वाला होता है । ( ६ ) अधवा कितनेक औदारिक मिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारक शरीर कायप्रयोगवाला तथा कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारक शरीर कायप्रयोगवाला तथा कितनेक कार्मण शरीर कायप्रयोगवाले होते हैं । ७ – अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है । ८ – अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । इस प्रकार आठ भांगे होते हैं । १ - अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है । २- अथवा एक tarfraमिश्र का प्रयोगवाला, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला तथा कितनेक कार्मण शरीर का प्रयोगवाले होते हैं । ३ - अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । ४ --- अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय वाला, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । ५ – कितनेक औदारिक मिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है । ६ – अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले व कितनेक कामंण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं ७ – कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारिक मिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । ८ - अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारकमिश्र शरीर कायप्रयोगवाले और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । इस प्रकार आठ भंग होते हैं । १ - अथवा एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है । २ – अथवा एक आहारक Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१ ) शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला तथा कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ३-अथवा एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला व एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है। ४–एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ५–अथवा कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ६-अथवा कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले व कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ७-अथवा कितनेक आहारकशरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ८-अथवा कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। इस प्रकार त्रिक संयोग से चार प्रकार से आठ-आठ भंग होते हैं। सर्व मिलकर बत्तीस भंग जानने चाहिए। ९.४ सयोगी मनुष्य के विभाग ( चतुः संयोगी) अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगी य ७; अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य ८ अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीर Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) कायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य ९ अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १० अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पोगो य ११ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १२ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगी य १३ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १४ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगो य १५ अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगिणो य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य १६ एवं प्रते चउसंजोएणं सोलस भंगा भवंति। सवे वि य णं संपिंडिया असीति भंगा भवति । -पण्ण० प १६ । सू १०८३ । पृष्ठ० २६६-६७ औदारिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण इन चार पदों से एकवचन और बहुवचन से सोलह भांगे होते हैं। सर्व मिलकर अस्सी भांगे होते हैं। १-अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारक शरीर प्रयोगवाला, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है। २-अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ३-अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। ४-अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारकमित्र शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगकाले होते हैं। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३ ) ५- अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारकमिश्र शरीर काम प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है । ६ - अभ्यवा एक औदारिकमित्र शरीर का प्रयोगवाला, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारकमिव शरीर काय प्रयोगवाला और कितनेक कार्मण शरीर काम प्रयोगवाले होते हैं । • ७ - अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारक शरीर ara प्रयोगवाले, कितनेक आहारकमिव शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । ८ - अथवा एक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और कितनेक कार्मण शरीर का प्रयोगवाले होते हैं । ९ - अथवा कित्तनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला और एक आहारकमिश्न शरीर का प्रयोगवाला तथा एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाला होता है । १० - अथवा, कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला, एक आहारक शरीर काम प्रयोगवाला, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला और कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगचाले होते हैं । ११ – अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारक शरीर काय प्रयोगवाला, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काम प्रयोगवाले होते हैं । १२- अथमा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारक शरीर का प्रयोगवाले, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काम प्रयोगवाले और कितनेक कार्मण शरीर. काय प्रयोगवाले होते हैं 1 १३ – अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । १४ - अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले, एक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाला व कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५-कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले और एक कार्मम शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। १६-अथवा कितनेक औदारिकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारक शरीर काय प्रयोगवाले, कितनेक आहारकमिश्र शरीर काय प्रयोगवाले व कितनेक कार्मण शरीर काय प्रयोगवाले होते हैं। इस प्रकार इस चतुः सयोगी सोलह भांमे हुए। सब इकट्ठा करने से मनुष्य-संबंधी अस्सी भांगे होते हैं। .१० वाणव्यंतर देवों में विभाग से प्रयोग ११ ज्योतिषी .१२ वमानिक .. बाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा (सू १०७९)॥ १०५४। -पम ५ १६. वाणव्यन्तर, ज्योतिषी तथा वैमानिक देवों के विषय में असुरकुमारों की तरह जानना चाहिए। अस्तु यहाँ तीन भंग कहने चाहिए। ३२ सयोगी जीव और नियमा-भजना .०१ मनोयोगी और वचनयोगी जीव की नियमा-भजना ..२ काययोगी जीव को नियमा-भजना .०३ औदारिक काययोगी जीव को नियमा-भजना .०४ औदारिकमिश्र काययोगी जीव की नियमा-भजना .०५ वेत्रिय काययोगी जीव को नियमा-भजना ..९ कार्मण काययोगी जीव की नियमा-भजना जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी कायजोगी औरालियकायजोगी भोरालियमिस्सकायजोगी वेउन्वियकायजोगी कम्मइयकायजोगी णियमा अस्थि । -षद खं २ । ४ । सू १० । पु ७ । पृष्ठ• २४० - योगमागंणा के अनुसार पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिकमिश्र काययोगी, वैक्रिय काययोगी और कार्मण काययोगी नियम से रहते हैं। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५ ) ०६ वैक्रियमिश्र काययोगी जीव को नियमा- भजना ०७ आहारक काययोगी जीव की ०८ आहारक मिश्र 39 91 #1 11 11 11 वेविवयमिसकायजोगी आहारकायजोगी आहारमिस्सकायजोगी सिया अस्थि सिया णत्थि । -षट्० [० खं २ । ४ । सू ११ । पु ७ । पृष्ठ० २४० क्रियमिश्र काययोगी, आहारक काययोगी तथा आहारकमिश्र काययोगी कदाचित् रहते हैं, कदाचित् नहीं भी रहते हैं 1 - ३३ सयोगी जीव और समवसरण - १ सलेस्सा णं भंते ! जीवा कि किरियावाई - पुच्छा । गोयमा ! किरियाबाई वि, अकिरियावाई वि, अण्णाणियवाई वि, वेणइयवाई वि । एवं जाव सुक्कलेस्सा । x x x । सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा 1 - भग० शे ३० 1 उ १ 1 सू ३-६ सयोगी जीव क्रियावादी भी होते हैं, अक्रियावादी भी हैं, अज्ञानवादी भी हैं तथा विनयवादी भी हैं 1 मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी जीव क्रियावादी भी हैं, अक्रियावादी भी हैं, अज्ञानवादी भी है, व विनयवादी भी है । - २ अलेस्सा णं भंते ! जीवा - पुच्छा । गोयमा ! किरियावाई, णो अकिरियावाई, णो अण्णाणियवाई, णो वेणइयवाई । x x x । अजोगी जहा अलेस्सा | - भग० श ३० । ३१ । ४-६ अयोगी जीव क्रियावादी होते हैं; अक्रियावादी, अज्ञानवादी तथा विनयवादी नहीं होते हैं । •३ सयोगी नारकी और समवसरण ससी णं भंते । मेरइया कि किरियाचाई ? एवं चैव । एवं जाव काउलेस्सा । xxx एवं एएणं कमेणं जच्चेव जीवाणं वत्तव्वया सच्चेव रयाणं वत्तव्वया वि जाव अणागारोबउत्ता । णवरं जं अस्थि तं भाणियव्वं, सेसं णं भण्णइ । -- भग० श ३० । १ । स ६ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयोगी यावत् काययोमी नारकी क्रियावादी भी हैं, अक्रियावादी, विनयवादी व अज्ञानवादी भी है। •४ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देव और समवसरण जहा परइया एवं जाव थणियकुमारा -भम० श३० । उ १ । सू८ सयोगी यावत् काययोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देव क्रियावादी भी होते हैं, अज्ञानवादी, विनयवादी और अक्रियावादी भी होते हैं। "५ सयोगी पृथ्वीकायिक जीव और समवसरण .६ से १२ सयोगी अपकायिक यावत् चतुरिन्द्रिय जीव और समवसरण पुढधिकाइयाणं भंते ! कि किरियावाई पुच्छा । गोयमा! णो किरियावाई, भकिरियावाई वि, अण्णाणवाई वि, णो वेणइयवाई। एवं पुढविकाइणं जं अस्थि तत्थ सव्वत्थ वि एयाई दो मज्झिलाई समोसरणाई जाव अणागारोवउत्ता वि, एवं जाव चरिदियाण । -भग श ३० । उ१। सू ९ सयोगी काययोगी पृथ्वीकायिकजीव क्रियावादी और विनयवादी नहीं है, अक्रियावादी और अज्ञानवादी है। इसी प्रकार अपकायिकजीव से चतुरिन्द्रियजीव क्रियावादी और विनयवादी नहीं है, भक्रियावादी और अज्ञानवादी है। नोट-अनेक प्रकार के परिणामवाले जीव जिसमें हो उसे समवसरण कहते हैं अर्थात् भिन्न-भिन्न मतों एवं दर्शनों को समवसरण कहते हैं। विनयवाद के योग्य परिणाम न होने से विनयवादी नहीं होते हैं। १३ सयोगी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव और समवसरण पाँचविय - तिरिक्ख - जोगिया जहा जीवा। गवरं जं अस्थि तं भाणियब। -भग श ३० । उ १ । सू ९ सयौगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी पंचेन्द्रिय सियंचयोनिक जीव औधिक जीवों की तरह क्रियावादी भी हैं, अक्रियावादी अज्ञानवादी और विनयवादी भी है । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) .१४ सयोगी मनुष्य और समवसरण १५ अयोगी मनुष्य और समवसरण मणुस्सा जहा जीवा तहेव गिरवसेसं । -भग० श ३० । उ १। सू १ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी मनुष्य औधिकजीव की तरह क्रियावादी भी है। अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी भी है । अयोगी मनुष्य क्रियावादी होते हैं। भक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी नहीं है। .१६ सयोगी वाणव्यंतर देव और समवसरण •१७ सयोगी ज्योतिषी देव और समवसरण .१८ सयोगी वैमानिक देव और समवसरण वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। - भग० श ३० । उ १। सू. सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी वाणव्यंतर ज्योतिषी-वैमानिकदेव क्रियावादी भी होते हैं । अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवानी भी होते हैं। .१९ क्रियावादी सयोगी जीव का आयुष्य-बन्ध समवसरण को अपेक्षा से १ सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई कि रइयाउयं पकरेंति-पुच्छा। गोयमा! णो णेरइयाउयं एवं जहेव जीवा तहेव सलेस्सा वि चउहि वि समोसरणेहि भाणियव्वा। (औधिक जीव पाठ-किरियावाई णं भंते ! जीवाxxx णो रइयाउयं पकरेंति, णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति। ४ प्र१०) xxx सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा xxx। -भग० श ३० । उ १ । सू १३ और २२ क्रियावादी सयोगी जीव नरकायु और तियंचायु का बन्ध नहीं करता है तथा मनुष्यायु और देवायु का बन्ध करता है। देवायु में भी बे सिर्फ वैमानिक देवों की आयु बांधते हैं। परन्तु भवनपति, बाणव्यंतर और ज्योतिषी देव का आयुष्य नहीं बांधते हैं। २० अक्रियावादी विनयवादी और अज्ञानवादी सयोगी जीव और आयुष्यबंध समवसरण को अपेक्षा से Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) सयोगी अक्रियावादी जीव नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु चारों प्रकार की आयु बांधते हैं । इसी प्रकार सयोगी विनयवादी तथा सयोगी अज्ञानवादी भी चारों प्रकार की आयु बांधते हैं । कृ -२१ अयोगी क्रियावादी जीव का समवसरण की अपेक्षा से आयुष्य-बन्ध अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियाबाई किं णेरइयाउयं - पुच्छा । गोयमा ! जो परइयाउयं पकरेs, णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ, णो मणुस्साउयं पकरेइ, णो देवाउयं पकरेइ x x x । अजोगी जहा अलेस्सा x x x - भग० श ३० । उ १ । सू १७ और २२ अयोगी क्रियावादी जीव न नरकायु बांधता है, न तिर्यंचायु बांधता है, न मनुष्यायु बांधता है और न देवायु बांधता है । • २२ सयोगी नारकी और अक्रियावादी की अपेक्षा आयुष्यबंध २३ •२४ "3 अज्ञानवादी विनयवादी 17 11 ( रइया) जे अकिरियाबाई, अण्णाणियवाई, वेणइयवाई ते सव्वाणेसु वि णो णेरइयाउयं पकरेइ, तिरिक्खजोणियाउयं विपकरेइ, मणुस्साउयं विपकरेइ, णो देवाउयं पकरेइ । - भग० श ३० । उ १ । सू २४, २५ सयोगी - मनोयोगी - वचनयोगी व काययोगी अक्रियावादी, अज्ञानवादी व विनयवादी नारकी - तिर्यंच का भी आयुष्य बांधते हैं, मनुष्य का भी आयुष्य बांधते हैं। नैरयिक व देव का आयुष्य नहीं बांधते हैं । - २५ सयोगी नारकी और क्रियावादी की अपेक्षा आयुष्यबंध सलेस्साणं भंते ! × × × एवं सव्वे वि णेरइया जे किरियाबाई ते मणुसाउयं एवं पकरेइ | - भग० श ३० । उ १ । सू २५ सयोगी - मनोयोगी - वचनयोगी व काययोगी क्रियावादी नारकी एकमात्र मनुष्य का ही आयुष्य बांधते हैं । - २६ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार और क्रियावादी की अपेक्षाआयुष्यबंध एवं जाव थणियकुमारा जहेव णेरइया । - भग० श ३० । उ १ । सू २५ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी क्रियावादी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार क्रियावादी नारकी की तरह एकमात्र मनुष्य का ही आयुष्य बांधते हैं । * २७ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार और अक्रियावादी की अपेक्षा आयुष्य बंध एवं जाव थणियकुमारा जहेव णेरइया । - भग० श ३० । उ १ । सू २४ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी असुरकुमार नारकी योनिक का भी आयुष्य बांधते हैं, मनुष्य का भी आयुष्य बांधते हैं । आयुष्य नहीं बांधते हैं । • २८ सयोगी पृथ्वी कायिक और समवसरण की अपेक्षा आयुष्यबंध सलेस्सा णं भंते ! ( अकिरयावाई x x x अण्णाणियवाई ) एवं जं जं प अस्थि पुढविकाइयाणं तह-तह मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु एवं चेव दुविहं आउयं पकरेइ । णवरं तेउलेस्साए णं किं पि पकरेइ । -भग० श ३० । उ १ । सू २६ योगी - काययोगी पृथ्वी कायिकजीव - अक्रियावादी अज्ञानवादी नारकी और देव का आयुष्य नहीं बांधते हैं -- किन्तु मनुष्य और तिर्यंच का आयुष्य बांधते हैं । लेकिन उनके तेजोलेश्या में किसी भी आयुष्य का बंध नहीं होता है । 1 की तरह तिर्यंचदेव व नारकी का • २९ सयोगी अपकायिक जीव और समवसरण की अपेक्षा आयुष्यबंध एवं आउकाइयाणवि । - भग० श ३० । उ १ । सू २७ सयोगी - काययोगी अपकायिक अक्रियावादी व अज्ञानवादी होते हैं । बे लियंच एवं मनुष्य का आयुष्य बांधते हैं - देव व नारकी का आयुष्य नहीं बांधते हैं । • ३० सयोगी वनस्पतिकायिक जीव और समवसरण की अपेक्षा आयुष्य बंध एवं वणस्सइकाइयाण वि । - भग० श ३० । उ १ । सू २७ इसी प्रकार सयोगी- काययोगी वनस्पतिकायिक जीव दोनों समवसरण में तिर्यंच व मनुष्य का आयु बांधते हैं । देव का व नारको का आयुष्य नहीं बांधते हैं । - ३१ सयोगी अग्निकायिक जीव और समवसरण में आयुष्यबंध • ३२ सयोगी वायुकायिक जीव और समवसरण में आयुष्यबंध Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) तेउकाइया वाउकाइया सव्वट्ठाणेसु मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु णो रइयाउयं पकरेइ तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ, णो मणुस्साउयं पकरेइ, णो देवाउयं पकरें। -भग० श ३० । उ १। सू २७ __ सयोगी-काययोगी अग्निकायिक में व वायुकायिक में मध्य के दोनों समवसरण ( अक्रियावादी-अज्ञानवादी) होते हैं। उनमें से वे सिर्फ तिर्यंच का आयुष्य बांधते हैं । नारकी, देव व मनुष्य का आयुष्य नहीं बांधते हैं। '३३ सयोगो द्वीन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय और समवसरण में आयुष्यबंध बेइंदिय-तेइ दिय-चरिदियाणं जहा पुढविकाइयाणं, गवरं सम्मत्तणाणेसु ण एक्कंपि आउयं पकरेइ। - भग० श ३० । उ१ । सू २७ - सयोगी-वचनयोगी व काययोगी में पृथ्वीकायिक की तरह द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय अक्रियावादी-अज्ञानवादी होते हैं। वे तिर्यंच व मनुष्य का आयुष्य बांधते हैं । देव-नारकी का आयुष्य नहीं बांधते हैं । .३४ सयोगी क्रियावादी पंचेन्द्रियतियंच और आयुष्यबंध सेसा जाव अणागारोवउत्ता सम्वे जहा सलेस्सा जहा चेव भाणियवा। -भग० श ३० । उ १ । सू २९ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी क्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्यच मात्र देव का आयुष्य बांधते हैं। मनुष्य, तिर्यंच व नारकी का आयुष्य नहीं बांधते हैं । •३५ सयोगी अक्रियावादी पंचेन्द्रियतिथंच और आयुष्यबंध .३६ ॥ अज्ञानवादी '३७ ॥ विनयवादी सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी अक्रियावादी, अज्ञानवादी व विनयवादी पंचेन्द्रिय तिर्यंच चारों प्रकार का आयुष्य बांधते हैं। '३८ सयोगी मनुष्य क्रियावादी और आयुष्यबंध जहा पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया भणिया एवं मणुस्साण वि भाणियन्वाxxx। -भग० श ३० । उ १। सू २९ क्रियावादी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के समान सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी मनुष्य-देव का आयुष्य बांधते हैं। मनुष्य-नारकी तिर्यच का आयुष्य नहीं बांधते हैं। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) •३९ सयोगी मनुष्य अक्रियावादी और आयुष्यबंध •४० , विनयवादी •४१ , अज्ञानवादी , ___ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी अक्रियावादी अज्ञानवादी व विनयवादी मनुष्य चारों गति का आयुष्य बांधते हैं। •४२ अयोगी क्रियावादी मनुष्य और आयुष्यबंध ( मणुस्साणं )xxx अयोगी य एए ण एगं वि आउयं पकरेइ । --भम० श ३० । उ१। सू २९ अयोगी सनुष्य किसी का भी आयुष्य नहीं बांधते हैं । .४३ सयोगी क्रियावादी वाणव्यंतर यावत् वैमानिकदेव और आयुष्यबंध । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। -भग० श ३० । उ१। सू २९ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी क्रियावादी वाणव्यंतर यावत वैमानिकदेव मात्र एक मनुष्य का आयुष्य बांधते हैं। अन्य का नहीं। •४४ सयोगी अक्रियावादी वाणव्यंतर यावत वैमानिकदेव और आयुष्यबंध पाठ ऊपर देखो। अक्रियावादी-विनयवादी-अज्ञानवादी सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी च काययोगी वाणब्यंतर से वैमानिकदेव चारों प्रकार के आयुष्य का बंध करते हैं । •४५ सयोगी जीव का समवसरण और भवसिद्धिक/अभवसिद्धिक सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई कि भवसिद्धिया-पुच्छा। गोयमा! भवसिद्धिया, णो अभवसिद्धिया। सलेस्सा णं भंते। जीवा अकिरियावाई कि भवसिद्धिया-पुच्छा। णोयमा! भवसिद्धिया वि, अभवसिद्धिया वि । एवं अण्णाणियवाई वि, बेणइयवाई वि जहा सलेस्सा।xxx। सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा।xxx। --भग० श ३० । उ १ । सू ३२-३४ सयोगी, मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी क्रियावादी जीच भवसिद्धिक होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं होते हैं । अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी सयोगी यावत् काययोगी जीव भवसिद्धिक भी होते हैं, अभवसिद्धिक भी होते हैं। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) .४६ अयोगी क्रियावादी और भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावाई कि भव०-पुच्छा। गोयमा ! भवसिद्धिया, णो अभवसिद्धिया।x x x अयोगी जहा सम्मविट्ठी। ( सम्मदिट्ठी नहा अलेस्सा)। --भग • श ३० । उ १ सू ३४ अयोगी क्रियावादी सम्यग्दृष्टि की तरह भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। .४७ सयोगी नारकी और समवसरण की अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक एवं रद्वया वि भाणियव्वा, णवरं णायच्वं जं अस्थि । -भग. श ३० । उ १। सू ३४ इसी प्रकार सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी क्रियावादी नारकी भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं है। अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी की अपेक्षा नारको भवसिद्धिक भी है, अभवसिद्धिक भी है। •४८ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार और समवसरण की अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा। -भग० श ३० । उ १ । सू ३४ इसी प्रकार सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी असुर कुमार यावत् स्तनितकुमार क्रियावादी भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं हैं । अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार भवसिद्धिक भी है, अभवसिद्धिक भी है। •४९ सयोगी अक्रियावादी पृथ्वीकयिक और भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक ., अज्ञानवादी पुढविक्काइया सव्वट्ठाणेसु वि मस्मिल्लसु दोसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया वि, अभवसिद्धिया वि। ..-भग• श ३० । उ १ । सू ३४ संयोगों, काययोगी पृथ्वीकायिक अक्रियावादी व अज्ञानवादी भवसिद्धिक भी है, अभवसिद्धिक भी है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५० सयोगी अक्रियावादी अप्कायिक यावत् वनस्पतिकायिक व भवसिद्धिक अभवसिद्धिक सयोगी अज्ञानवादी जाव वणस्सइकाइया। --भग० श ३० । उ १ । सू ३४ इसी प्रकार सयोगी, काययोगी अक्रियावादी, अज्ञानवादी अपकायिक यावत् वनस्पति कायिक जीव भवसिद्धिक भी है, अभवसिद्धिक भी है। .५१ सयोगी द्वीन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय अक्रियावादी और भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक अज्ञानवादी ' बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिया एवं चेवx xx। णवरं सम्मत्ते ओहिणाणे आभिणिबोहियणाणे सुयणाणे एएसु चेव दोसु मज्झिमे समोसरणेसु भवसिद्धिया णो अभवसिद्धिया, सेसं तं चेव । -भग० श ३० । उ १ । सू ३४ सयोगी-काययोगी-वचनयोगी द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय अक्रियाबादी, अज्ञानवादी श्वसिद्धिक भी है, अभवसिद्धिक भी है । लेकिन सम्यक्त्वी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी जीव दोनों समवसरण में भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है । .५२ सयोगी तिर्यचपंचेन्द्रिय और समवसरण को अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा रइया, गवरं गायव्वं जं अस्थि । --भग० स ३० । उ १ । सू ३४ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी क्रियावादी तिर्यंच पंचेन्द्रिय भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी तिर्यंच-पंचेन्द्रिय भवसिद्धिक भी है, अभवसिद्धिक भी है। '५३ सयोगो मनुष्य और समवसरण को अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक मर्गुस्सा जहा ओहिया जीवा । (सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा।) अयोगी जहा समदिट्टी। -भग० श ३० । उ १। सू३४ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी मनुष्य क्रियावादी भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी मनुष्य भवसिद्धिक भी है, अभवसिद्धिक भी है । अयोगी क्रियावादी मनुष्य भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) '५४ सयोगी वाणव्यंतरदेव यावत् वैमानिकदेव और समवसरण की अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक वाणमंतर-जोइसिय-वेमागिया जहा असुरकुमारा। -भग. श ३० । उ १ । सू३४ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी वाणव्यंतर यावत् वैमानिकदेव क्रियावादी भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी भवसिद्धिक भी है, अभवसिद्धिक भी है। . '५५ सयोगी अनन्तरोपपन्नक नारकी यावत् वैमानिकदेव और समवसरण सलेस्सा णं भंते ! अणंतरोववन्नगा रइया कि किरियावाई ? एवं चेव, एवं जहेव पढमुद्देसे णेरइयाणं वत्तव्वया तहेव इहवि भाणियवा। गवरं जं जस्स अस्थि अणंतरोववण्णगाणं णेरइया तं तस्स भाणियध्वं । एवं सव्वजीवाणं जाव वेमाणिया। गवरं अणंतरोववष्णगाणं जं हिं अत्थि तं तहि भाणियव्वं । -भग० श ३० । उ २ । सू १-२ ___ सयोगी व काययोगी अनंतरोपपत्रक नारकी क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी है। इसी प्रकार यावत वैमानिकदेव तक सब जीवों के संबंध में जानना। लेकिन अनंतरोपपत्रक जीवों में जिसमें जो संभव हो उसमें वह कहना। .५६ सयोगी अनन्तरोपपन्नक नारकी और समवसरण की अपेक्षा आयुष्यबंध (सजोगी गंभंते ) x x x। किरियावाई अणंतरोववण्णगा रइया किचि वि आउयं पकरेइ जाव अणागारोवउसति । एवं जाव वेमाणिया, णवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्यं । -भग• श ३० । उ २ । सू ४ सयोगी-काययोगी अनन्तरोपपत्रक क्रियावादी किसी भी आयुष्य का बंध नहीं करते हैं। इसी प्रकार अक्रियावादी, अज्ञानवादी व विनयवादी भी किसी प्रकार का आयुष्य नहीं बांधते हैं। इसी प्रकार यावत वैमानिकदेवों तक कहना लेकिन जिसमें जो संभव हो उसमें वह कहना। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) .५७ सयोगी अनंतरोपपन्नक नारकी और समवसरण को अपेक्षा भवसिद्धिक अभवसिद्धिक सलेस्सा णं भंते किरियावाई अणंतरोववण्णगा रइया कि भवसिद्धीया, अभवसिद्धीया ? गोयमा ! भवसिद्धीया, णो अभवसिद्धीया। एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिए उद्देसए रइया वत्तव्वया भणिया तहेव इहवि भाणियव्वा जाव अणगारोवउत्तति । -भग• श ३० । उ २ । सू ७ सयोगी-काययोगी अनंतरोपपन्नक क्रियावादी नारकी भवसिद्धिक है अभवसिद्धिक नहीं है । अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी भवसिद्धिक भी है, अभवसिद्धिक भी है। सयोगी अनंतरोपपन्नक असुरकुमार यावत् वैमानिकदेव और समवसरण को अपेक्षा भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक एवं जाव वेमाणियाणं । णवरं जं जस्स अत्थि तं तस्स भाणियव्वं । इमं से लक्खणं-जे किरियावाई सुक्कपक्खिवा सम्मामिच्छदिट्ठीया एए सम्वे भवसिद्धीया, णो अभवसिद्धीया। सेसा सव्वे भवसिद्धीया वि, अभवसिद्धीया वि। -भग० श ३० । उ २ । सू ७ ___ अनंतरोपपन्नक सयोगी, काययोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार क्रियावादी भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। अक्रियावादी-अज्ञानवादी-विनयवादी भवसिद्धिक भी है, अभवसिद्धिक भी है। नोट-तत्काल उत्पन्न हुआ जीव अनन्तरोपपन्नक कहाता है। क्रियावादी, शुक्लपासिक व सम्यग्दृष्टि-ये भव्य ही होते हैं, अभव्य नहीं । शेष जीव भव्य-अभव्य दोनों प्रकार के हैं। अलेशी, सम्यगमिथ्यादृष्टि ज्ञानी, अवेदी, अकषायी व अयोगी-ये भव्य ही होते हैं, इनका समावेश क्रियावादी में हो गया। इसी प्रकार यावत् वैमानिकदेव तक जानना लेकिन जिसके जो संभव हो वह कहना। .५८ सयोगी परंपरोपपन्नक नारकी यावत् वैमानिक क्रियावादी मावि सयोगी परंपरोपपत्रक यावत वैमानिक क्रियावादी आदि और आयुष्यबंध सयोगी परंपरोपपन्नक यावत् वैमानिक क्रियावादी और भवसिद्धिकअभबसिद्धिक Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंपरोपवष्णगा णं भंते ! रइया किरियावाई० ? एवं जहेव ओहिओ उद्देसओ तहेव परंपरोववण्णएसु विणेरइयादीओ तहेव गिरवसेसं भाणियन्वं, तहेव तियदंडगसंगहिओ। -भग० श ३० । उ ३ । सू १ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी परंपरोपपन्नक नारकी क्रियावादी भी है, अक्रियावादी भी है, विनयवादी भी है, अज्ञानवादी भी है। वैमानिक तक जानना । औधिक उद्देशक में जैसा कहा वैसा ही तीनों दंडको (क्रियावादित्वादि, आयुबंध व भव्याभव्यादि ) के संबंध में निरवशेष कहना । .५९ अनतरावगाढ़ सयोगी नारकी आदि दंडक और समवसरण '६० परंपरावगाढ .६१ अनंतराहारक .६२ परंपराहारक .६३ अनंतरपर्याप्तक .६४ परम्परपर्याप्तक '६५ चरम .६६ अचरम एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी सच्चेव इह पिजाव अचरियो उद्देसो, णवरं अणंतरा चत्तारि एक्कगमगा, परंपराचत्तारिवि एक्कगमएणं । एवंचरिमा वि अचरिमा वि एवं चेव। णवरं अलेस्सो केवली अजोगीण भण्णंति, सेसं तहेव। -~-भग० श ३० । उ ४ से ११ । सू १ ___ इस प्रकार इसी क्रम से बंधकशतक मैं (देखो ) में उद्दशकों की जो परिपाटी कही है उसी परिपाटी से यहाँ अचरम उद्देशक तक जानना। विशेषता यह है कि अनंतर शब्दघटित चार उद्देशकों में तथा परंपर घटित चार उद्देशकों में एक सा गमक कहना । इसी प्रकार चरम तथा अचरम शब्दघटित उद्देशकों के संबंध में भी कहना लेकिन अचरम में अलेशी, केवली व अयोगी के संबंध में कुछ भी न कहना। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७ ) ३४ सयोगी जीव और अल्पबहुत्व .२ जीव समास के आश्रय से योग का अल्पबहुत्व .०१ सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के अल्पतम योग सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो १४५। टीका–एवं उत्ते सुहुमेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स जहण्णओ उववादजोगो घेत्तव्यो। पढमसमयआहारयपढमसमयतब्भवत्थस्स सुहुमेइदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णओ उववादजोगो किण्ण गहिदो ? ण, गोकम्मसहकारिकारणबलेण जोगे उड्डिमागवे तत्थं जोगस्स जहण्णत्तसंभवाभावादो। -षट् ० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १४५ । पु. १. पृष्ठ० ३९६ अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय का जघन्य योग सबसे न्यून है । ऐसा कहने पर उस भव के प्रथम समय में स्थित हुआ व विग्रहगति में वर्तमान ऐसे सक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के जघन्य उपपाद योग को ग्रहण करना चाहिए। आहारक होने के प्रथम समय में रहने वाले व उस भव के प्रथम समय में स्थित हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के जघन्य उपपाद योग को नहीं ग्रहण करना चाहिए । क्योंकि नोकर्म सहकारी कारण के बल से योग की वृद्धि को प्राप्त होने पर वहां योग की जघन्यता संभव नहीं है । .०२ बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण वादरेइ दियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो। टोका–को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। कुदो ? बादरेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स जहण्णउववादजोगादो हेट्टिमसुहुमेइ दियलद्धिअपज्जत्तउववादजोगट्टाणेसु असंखेज्जजोगगुणहाणीणं संभवादो। तत्थतणणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगुणिय अण्णोण्णब्भत्थे कदे गुणगाररासी होदि त्ति वुत्तं होदि । -षट् ० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १४६ । पु. १० । पृष्ठ० ३९६ । ७ बादर एकेन्द्रिय का अपर्याप्तक का जघन्य योग उससे असंख्यातगुणा है।। गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है, क्योंकि उस भव के प्रथम समय में स्थित व विग्रहगति में वर्तमान ऐसे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के जघन्य Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) उपपाद योग से अधस्तन सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के उपपाद योग-स्थानों में असंख्यात योगगुणहानियों की संभावना है। वहां की नाना-गुणहानि-शलाकाओं का विरलन करके दुगुणा कर परस्पर गुणा करने पर गुणकार राशि होती है—यह अभिप्राय है । .०३ द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण बीइ दियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखखेज्जगुणो॥ टीका-को गणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कारणं पूवं व परूवेदव्वं । सव्वत्थ लद्धिअपज्जत्तयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स जहण्णओ उववादजोगो घेत्तव्यो। -षट० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १४७ । पु० १० । पृष्ठ० ३९७ उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। गुणाकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । इसके कारण की प्ररूपणा पहले के ही समान करनी चाहिए। सब जगह उस भव में स्थित होने के प्रथम समय में रहने वाले व विग्रहगति में वर्तमान ऐसे लब्ध्यपर्याप्तक के जघन्य उपपाद योग को ग्रहण करना चाहिए । ..४ वीन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण तीइदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो॥ टीका–को गुणगारो ? हेट्टिमणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगुणिय अण्णोण्णब्भत्थरासी। -षट् खण्ड ४ । २ । ४ । सू १४८ । पु० १० । पृष्ठ. ३९७ उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। अधस्तन नाना-गुण-हानि-शलाकाओं का विरलन करके द्विगुणित कर परस्पर गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो वह यहाँ गुणाकार है। .०५ चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण चरिदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो। टोका–को गुणगारो ? जोगगुणगारो। -षट् खण्ड ४ । २ । ४ । सू १४९ । पु० १० । पृष्ठ० ३९७ उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। गुणकार यहाँ योग-गुणकार अर्थात् पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९ ) ०६ असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण असणि चिदिय अपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असं खेज्जगुणो ॥ टीका - को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । - - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १५० । पु० १० । पृष्ठ ३९८ उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक का जघन्य योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । •०७ संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण सपिचिदिय अपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असं खेज्जगुणो । टीका -- को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १५१ । पु० १० । पृष्ठ० ३९८ उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक का जघन्य योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । ०८ सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण सुहमेइ दिय अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो । टीकाको गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ सुहुमेइ - दियअपज्जत्ता दुबिहा लडिअपज्जत्त- णिव्वत्तिअपज्जत्तभेएण । तत्थ के सिमपज्जताणमुक्कस्सजोगो घेप्पदे ? सुहुमेइ दियलद्धि अपज्जत्ताणमुक्कस्सपरिणामजोगो घेत्तव्वो । कुदो ? णिव्वत्ति अपज्जताणमुक्कस्सजोगो णाम उक्कस्सएयंताणुवड्डिजोगो, तत्तो एक्स्स उक्कस्सपरिणामजोगस्स असंखेज्जगुणत्तदंसणादो । कुदो णव्वदे ? जहण्णुक्कस्सवीणादो । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १५२ । पु० १० । पृष्ठ० ३९६ उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । यहाँ लब्ध्यपर्याप्त और निर्वृत्त्यपर्याप्तक के भेद से सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के दो प्रकार हैं । यहाँ सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकों के उत्कृष्ट परिणामयोग को यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि निर्वृत्त्यपर्याप्तकों के उत्कृष्ट योग जो उत्कृष्ट एकांतानुवृद्धियोग है उससे इसका उत्कृष्ट परिणाम योग असंख्यातगुणा देखा जाता है । यह जघन्योत्कृष्ट वीणा से जाना जाता है । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) .०९ बादर एकेन्द्रिय लब्धयपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण बादरेइ दियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असं खेज्जगुणो । टीका - को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्नदिभागो । एत्थ वि लद्धिअपज्जत्तयस्स बादरेइ दियउक्कस्सपरिणामजोगो घेत्तव्वो, जहष्णुक्कस्सबीणादो बावरेइ दियउक्कस्सपरिणामजोगो णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उवकस्सएयंतावडूजोगं पेक्खिण एदस्स असंखेज्जगुणत्तुवलं भादो । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सु १५३ । पु० १० । पृष्ठ ३९८ । ९ उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । यहाँ भी लब्ध्यपर्याप्तक बादर एकेन्द्रिय के उत्कृष्ट परिणामयोग को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जघन्य व उत्कृष्ट वीणा के अनुसार बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तक के उत्कृष्ट एकांतानुवृद्धियोग को देखते हुए बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा पाया जाता है । १० सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण सुमेई दियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥ टीकाको गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ सुहुमेद्द - दियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगो घेतव्वो । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १५४ । पु० १० । पृष्ठ० ३९९ सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक का जघन्य योग उससे असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । यहाँ सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तक के जघन्य परिणामयोग को ग्रहण करना चाहिए । • ११ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण बादरेइ दियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो । टीकाको गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ बादरेइ' दियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणाम जोगो घेत्तव्वो । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ सू १५५ । पु० १० । पृष्ठ० ३९९ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक का जघन्य योग उससे असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । यहाँ बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तक के जघन्य परिणामयोग को ग्रहण करना चाहिए । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) • १२ सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण सुहुमेइ दियपज्जत्तयस्स उवकस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो । टोका - को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ सू १५६ । पु० १० । पृष्ठ० ३९९ उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक का उत्पृष्ट योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । - १३ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण बादरेइ दियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो । टीकर - को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । - - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ १५७ । पु० १० | पृष्ठ० ३९९-४०० उससे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । • १४ द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण बोइ दियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असं खेज्जगुणो । टोका–को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ बोइंदियअपज्जत्ता लद्धिणिव्वत्तिअपज्जत्तभेएण दुविहा । तत्थ कस्सउक्कस्सजोगो घेप्पदे ? व्वित्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएयंताणुवड्डिजोगो घेत्तव्वो । कुदो ? बीई दियलद्धि अपज्जत्तउष कस्सपरिणामजोगादो वि बीइ दियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएगंताष्णुर्वा द्विजोगस्स जहष्णुक्कस्सवीणाबलेण असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । उवरिमेसु विणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएयंता णुवड्डिजोगो चेव घेत्तव्वो । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १५८ । पु० १० पृष्ठ० ४०० उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पत्योपम का असंख्यातवां भाग है । यहाँ द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक लब्ध्यपर्याप्तक और निर्वृ स्यपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार हैं । उनमें से निवृत्त्यपर्याप्तक के उत्कृष्ट एकतामुवृद्धि योग को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के उत्कृष्ट परिणामयोग से भी द्वीन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट एकांतानुवृद्धि योग जघन्योत्कृष्ट चणा के बल से असंख्यातगुणा पाया जाता है । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) आगे के सूत्रों में भी जहाँ अपर्याप्तक पद आया है वहाँ निर्वृत्त्यपर्याप्तक के उत्कृष्ट एकांतानुवृद्धियोग को ही ग्रहण करना चाहिए । - १५ त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण तीइ दियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सजोगो असंखेज्जगुणो ॥ टीका- गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १५९ । पु० १० । पृष्ठ ० ४०० उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । • १६ चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण चदुरिदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सजोगो असंखेज्जगुणो ॥ टीका- गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कारणं सुगमं । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १६० । पु० १० । पृष्ठ ० ४०० उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । -१७ असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण असण्णिपचदिय अपज्जतयस्स उक्कस्सजोगो असं खेज्जगुणो ॥ टीका- गुणगारो पलिदोवमस्स असं खेज्जदिभागो । कारणं सुगमं । - षट् खण्ड ४ । २ । ४ । सू १६१ । पु० १० पृष्ठ ० ४० १ उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । • १८ संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण सणिचिदिय अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो ॥ टीका- गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । - षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १६२ । पु० १० । पृष्ठ० ४० १ उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) १९ द्वीन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण बीइदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो॥ टोका—गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एत्थ णिव्वत्तिपज्जत्तजहण्णपरिणामजोगो घेत्तन्वो। -षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १६३ । पु० १० । पृष्ठ. ४०१ उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तक का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है, यहाँ निर्वृत्तिपर्याप्त के जघन्य परिणाम योग से ग्रहण करना चाहिए। •२० नीन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण तोइदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो॥ टीका-गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। उवरि सम्वत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो चेव होवि त्ति घेत्तव्वं । -षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १६४ । पु. १० । पृष्ठ० ४०१ उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्तक का जघन्य योग असंख्यातगुणा है । गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । आगे जब जगह गुणकार पल्योपम का असंख्यातवां भाग ही होता है। ऐसा ग्रहण करना चाहिए। •२१ चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण ___चरिदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो॥ टोका-सुगमं। -षट् खण्ड ४ । २ । ४ । सू १६५ । पु० १० । पृष्ठ० ४०१ उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक का जघन्य योग असंख्यातगुणा है । •२२ असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण असण्णिपंचिदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो॥ टीका-सुगमं । -षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १६६ । पु. १० । पृष्ठ० ४.१ ४०२ उससे असंज्ञी पर्याप्तक का जघन्य योग असंख्यातगुणा है । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) •२३ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के जघन्य योग असंख्यातगुण सण्णिपंचिदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ जोगो असंखेज्जगुणो॥ टोका-सुगम । —षट् खण्ड ४ । २ । ४ । सू १६७ । पु० १० । पृष्ठ० ४०२ उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक का जघन्य योग असंख्यातगुणा है । २४ द्वीन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण बोई दियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो॥ टीका–सुगम। -षट्० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १६ । पु० १० । पृष्ठ० ४०२ उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । .२५ त्रीन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण तीइ दियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो । टीका—सुगमं। -षट् खण्ड ४ । २ । ४ । सू १६९ । पु० १० । पृष्ठ · ४०२ उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । २६ चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण चरिदियपज्जत्तयस्स उक्सस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो॥ टीका-सुगम। -षट० खण्ड ४ । २ । ४ । सू १७० । पु० १० । पृष्ठ० ४०२ उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । •२७ असंज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण असण्णिपाँचदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो॥ टीका-सुगम। -षट् खण्ड ४ । २।४ । सू १७१ । पु० १० । पृष्ठ० ४०२ उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) .२८ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के उत्कृष्ट योग असंख्यातगुण सण्णिचिदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो असंखेज्जगुणो॥ टोका-सुगम। -षट् ० खण्ड ४ । २ । ४ सू १७२ । पु० १० । पृष्ठ० ४०२-४०३ उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है । २९ उपयुक्त असंख्यातगुण प्रमाण एवमेक्केक्कस्स जोगगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।। टीका पुवुत्तासेसजोगट्ठाणाणं गुणगारस्स पमाणमेदेण सुत्तेण परूविदं । पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो गुणगारो होदि ति कधं णव्वदे ? एवम्हादो चेव सुत्तोदो। ण च पमाणंतरमवेक्खदे, अणवत्थापसंगादो। -षद् खण्ड ४ । २ । ४ । सू १७३ । पु० १० । पृष्ठ० ४०३ इस प्रकार प्रत्येक जीव के गुणकार पल्यौपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इस सूत्र द्वारा पूर्वोक्त समस्त योग स्थानों के गुणकार का प्रमाण कहा गया है । अस्तु यह सूत्र स्वयं प्रमाणभूत होने से किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि ऐसा होने पर अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। •३० सयोगी जीवों का अल्पबहुत्व जोगाणुवादेण सव्वत्थोवा मणजोगी ॥१०७॥ टीका-कुदो ? देवाणं संखेज्जदिभागप्पमाणत्तादो। वचिजोगी संखेज्जगुणा ॥१०॥ टीका-कुदो? पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण वचिजोगिअवहारकालेण संखेज्जपदरंगुलमेत्ते मणजोगिअवहारकाले भागे हिदे संखेज्जरूवोवलंभादो। अजोगी अर्णतगुणा ॥१०९॥ टोका-को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो। कोयजोगी अणंतगुणा ॥११०॥ टीका-गुणगारो अभवसिद्धिएहितो सिद्धहितो सव्वजीवपढमवग्गमूलादो वि अणंतगुणो। अण्णेण पयारेण जोगप्पबहुअपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि । सव्वत्थोवा आहारमिस्सकायजोगी॥१११॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारकायजोगी संखेज्जगुणा ॥११२॥ टोका–को गुणगारो ? दोण्णि रूवाणि। वेउव्वियमिस्सकायजोगी असंखेज्जगुणा ॥११३॥ टोका—गुणगारो जगपदरस्स असखेज्जदिभागो। सच्चमणजोगी संखेज्जगुणा ॥११४॥ टोका-कुदो ? विस्ससादो। मोसमणजोगी संखेज्जगुणा ॥११॥ टीका-कुदो? सच्चमणजोगअद्धादो मोसमणजोगअद्धाए सखेज्जगुणतादो सच्चमणजोगपरिणमणवाहितो मोसमणजोगपरिणमणबाराणं संखेज्जगुणतादो वा। सच्च-मोसमणजोगी संखेज्जगुणा ॥११६॥ टोका-एत्थ पुव्वं व दोहि पयारेहि संखेज्जगुणत्तस्स कारणं वत्तव्वं । असच्च-मोसमणजोगी संखेज्जगुणा ॥११७॥ टोका-एत्थ वि पुविल्लं दुविहकारणं वत्तव्वं । मणजोगो विसेसाहिया ॥११८॥ टीका – केत्तियमेतो विसेसो ? सच्च-मोससच्चमोसमणजोगिमेतो विसेसो। सच्चवचिजोगी संखेज्जगुणा ॥११९॥ टोका–कारणं? मणजोगिअद्धादो वचिजोगिअद्धाए संखेज्जगुणत्तादो मणजोगवारेहितो सच्चवचिजोगवाराणं संखेज्जगुणत्तादो वा। मोसवचिजोगी संखेज्जगुणा ॥१२०॥ टीका-एत्थ वि पुव्वं व दुविहकारणं वत्तव्वं । सच्चमोसवचिजोगी संखेज्जगुणा ॥१२१॥ टोका-एत्थ वि तं चेव कारणं ।। वेउब्वियकायजोगी संज्ज्जगुणा ॥१२२॥ टोका-कुदो ? मण-वचिजोगद्धाहितो कायजोगद्धाए संखेज्जगुणत्तादो। असच्चमोसवचिजोगी संखेज्जगुणा ॥१२३॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) टोका–कुदो ? बोइदियपज्जत्तजीवाणं गहणादो। वचिजोगी विसेसाहिया ॥१२४॥ टीका केत्तिमेत्तेण ? सच्च-मोस-सच्चमोसवचिजोगिमेत्तेण । अजोगी अणंतगुणा ॥१२५॥ टोका–को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो। कम्मइयकायजोगी अणंतगुणा ॥१२६॥ टोका–को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहितो सिद्धहितो सव्वजीवाणं पढमवग्गमूलादो वि अणंतगुणो कुदो ? अंतोनुहुतगुणि अजोगिरासिपमाणेणोवट्टिदसव्वजीवरासिमेत्तत्तादो। ओरालियमिस्सकायजोगी असंखेज्जगुणा ॥१२७॥ टोका–को गुणगारो ? अंतोमुहुत्तं । ओरालियकायजोगी संखेज्जगुणा ॥१२८॥ कायजोगी विसेसाहिया ॥१२९॥ टोका-केत्तियमेतो विसेसो ? सेसकायजोगिमेत्तो। -षट्० भा २ । ११ । सू १०७-२८ । पु७ । पृ० ५५०-५४ योगमार्गणा के अनुसार मनोयोगी सबसे स्तोक हैं, क्योंकि वे देवों के संख्यातवें भाग रूप हैं। इनसे वचनयोगी संख्यातगुणा हैं, क्योंकि प्रतरांगुल के संख्यातवें भाग रूप वचनयोगी के अवहारकाल से संख्यात प्रतरांगुल रूप मनोयोगी के अवहारकाल को भाजित करने पर संख्यात रूप उपलब्ध होता है। इनसे अयोगी अनन्तगुणा हैं, क्योंकि वे अभव्यसिद्धिक जीवों से अनन्तगुणा हैं। इनसे काययोगी अनन्तगुणा हैं। इसका गुणकार अभव्यसिद्धिकों, सिद्धों और सर्वजीवों के प्रथम वर्गमूल से भी अनन्तगुणा है । अन्य प्रकार से योगमार्गणा के अनुसार अल्पबहुत्व का निरूपण निम्न प्रकार से किया जाता है। आहारकमिश्र काययोगी सबसे स्तोक हैं। इनसे आहारक काययोगी संख्यातगुणा हैं। इसका गुणकार दो रूप है। इनसे वैक्रियमिश्र काययोगी असंख्यातगुणा हैं। इसका गुणकार जगप्रतर का असंख्यातवां भाग रूप है। इनसे सत्यमनोयोगी संख्यातगुणा हैं, क्योंकि यह स्वाभाविक है। इनसे मृषामनोयोगी संख्यातगुणा हैं, क्योंकि सत्यमनोयोगी के काल की अपेक्षा मृषामनोयोग का काल संख्यातगुणा है, अथवा सत्यमनोयोग के परिणमन वारों की की अपेक्षा मृषामनोयोग का परिणमन बार संख्यातगुणा होता है। इनसे सत्यमृषामनोयोगी संख्यातगुणा हैं। यहाँ पर पूर्व समान दोनों प्रकारों से संख्यातगुणत्व का कारण जानना चाहिए। इनसे असत्यमृषामनोयोगी संख्यात गुणा हैं। यहाँ पर भी पूर्वोक्त Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) दोनों प्रकारों से संख्यातगुणत्व का कारण जानना चाहिए। इनसे मनोयोगी विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनकी विशेषता सत्यमनोयोगी, मृषामनोयोगी और सत्य - मृषामनोयोगियों के बराबर है। इनसे सत्यवचनयोगी संख्यातगुणा हैं, क्योंकि मनोयोगी के काल से वचनयोगी का काल संख्यातगुणा है, अथवा मनोयोग के बारों की अपेक्षा सत्यवचनयोग के बार संख्यातगुणा हैं । इनसे मृषावचनयोगी संख्यातगुणा हैं । यहाँ पर पूर्वोक्त दोनों कारणों से संख्यातगुणत्व जानना चाहिए। इनसे सत्य - मृषावचनयोगी संख्यातगुणा हैं । यहाँ पर भी पूर्वोक्त कारणों से ही संख्यातगुणत्व जानना चाहिए । इनसे वैक्रियकाययोगी संख्यातगुणा हैं, क्योंकि मनोयोग और वचनयोग के काल से काययोग का काल संख्यातगुणा है । इनसे असत्य- मृषावचनयोगी संख्यातगुणा हैं, क्योंकि यहाँ पर द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीवों का ग्रहण किया गया है। इनसे वचनयोगी विशेष अधिक हैं । इनकी विशेषता सत्यवचनयोगीं, मृषावचनयोगी और सत्य - मृषावचनयोगी रूप है । इनसे अयोगी अनन्तगुणा हैं, क्योंकि ये अभव्यसिद्धिक जीवों से अनन्तगुणा हैं । इनसे कार्मेण काययोगी अनंन्तगुणा हैं । गुणकार अभव्यसिद्धिकों, सिद्धों और सर्व जीवों के प्रथम वर्गमूल से भी अनन्तगुणा हैं, क्योंकि वह अन्तर्मुहूर्त से गुणित अयोगिराशि से अपवर्तित सर्व जीव-राशि रूप है। इनसे औदारिकमिश्र काययोगी असंख्यातगुणा हैं। इसका गुणकार अन्तर्मुहूर्त रूपं हैं । इनसे औदारिक काययोगी संख्यातगुणा हैं । इनसे काययोगी विशेष अधिक हैं । विशेषता शेष काययोगी रूप है । • ३१ सयोगी जीव और अल्पबहुत्व अप्पा हुए सव्वत्थोवा मणजोगी वइजोगी असंखिज्जगुणा अजोगी अनंतगुणा कायजोगी अनंतगुणा । -जींवा० प्रति ९ । सू २५७ | पृष्ठ० ४४९ टीका - सर्वस्तोंका मनोयोगिनों, देवनारंकगभंजतिर्यक्पश्च न्द्रियमनुष्याणामेव मनोयोगित्वात्, तेभ्यो वाग्योगिनोऽसंख्येयगुणाः द्वित्रिचतुरसंज्ञिपश्व न्द्रि याणां वाग्योगित्वात्, अयोगिनोऽनन्तगुणाः सिद्धांनांमनन्तत्वात्, तेभ्यः कार्ययोगिनोऽनन्तगुणाः वनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तत्वात् । सबसे कम मनोयोगी है क्योंकि देव, नारक, गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य, ये सब ही मनोयोगी होते हैं । वचनयोगी इनकी अपेक्षा असंख्यातगुणे अधिक है क्योंकि द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय-असंज्ञी पंचेन्द्रिय, ये सब वचनयोगी होते हैं । इनकी अपेक्षा अयोगी अनंतगुणे है । क्योंकि सिद्ध अनंतगुणें हैं । इनकी अपेक्षा काययोगी अनंतगुण हैं क्योंकि वनस्पतिकाय सिद्धों से अनंतगुण हैं । • ३२ सयोगी जीवों का अल्पबहुत्व एतेसि णं जीवाणं सजोगीणं मणजोगीणं वइजोगीणं कायजोगीणं अजोगीण य कतरे कतरे हितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वत्थोवा जीवा मणजोगी १, वइजोगी असंखेज्जगुणा २, अजोगी अणंतगुणा ३, कायजोगी अणं तगुणा ४, सजोगी विसेसाहिया ५। -पण्ण ० प ३ । सू २५२ । पृष्ठ ० ९६ टीका - सर्वस्तोका मनोयोगिनः, संजिनः पर्याप्ता एवहि मनोयोगिनः ते च स्तोका इति, तेभ्यो वाग्योगिनोऽसंख्येयगुणाः द्वीन्द्रियादीनां वाग्योगिनां संज्ञिभ्योऽसंख्यातगुणत्वात् तेभ्योऽयोगिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात, तेभ्यः काययोगिनोऽनन्तगुणाः वनस्पतीनामनन्तत्वात्, यद्यपि निगोदजीवानामनन्तानामेकं शरीरं तथापि तेनकेन शरीरेण सर्वेऽप्याहारादिग्रहणं कुर्वन्तीति सर्वेषामपि काययोगित्वान्नानन्तगुणत्वच्याघातः, तेभ्यः सामान्यतः सयोगिनो विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रिवादीनामपि वाग्योगादीनां तत्र प्रक्षेपात् । इन सयोगी जीवों में मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी तथा अयोगी जीव कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! मनोयोगी सबसे अल्प हैं, क्योंकि संज्ञी पर्याप्त जीव ही मनोयोगी होते हैं और वे अल्प हैं। इनसे वचनयोगी असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि द्वीन्द्रियादि वाग्योगी संज्ञी जीवों से असंख्यातगुणा हैं। इनसे अयोगी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। इनसे काययोगी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय अनन्त हैं। यद्यपि अनन्त निगोदों का शरीर एक होता है तथापि वे एक शरीर से आहारादि का ग्रहण करते हैं, अतः सभी के काययोगी होने के कारण अनन्त गुण का व्याघात नहीं होता है। इनसे सामान्यतः सयोगी विशेषाधिक हैं, क्योंकि द्वीन्द्रियादि वचनयोगियों का भी वहाँ पर प्रक्षेप किया गया है। :३३ एयस्स णं भंते ! पण्णरसविहस्स जहएणुक्कोसगरस कयरे कयरे. जाव विसेसाहिया वा? सम्वत्थोवे कम्मगसरीरसस्स जहण्णए जोए २ ओरालियमीसगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ३ वेउव्वियमीसगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ४ ओरालियसरीरगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ५ वेउब्वियसरीरस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ६ कम्मगसरीरस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे ७ आहारगमीसस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ८ तस्स चेव उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे ९-१० ओरालियमीसगस्स, वेउव्वियमीसगस्स य एएसि णं उक्कोसए जोए दोण्ह वि तुल्ले असंखेज्जगुणे ११ असच्चामोसमणजोगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे १२ आहारगसरीरस्स जहण्णए जोए असखेज्जगुणे १३-१९ तिविहस्स मणजोगस्स चउन्विहस्स वयजोगस्स-एएसि णं सत्तण्ह वि तुल्ले जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे २० आहारगसरीरस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे २१-३० ओरालियसरीरस्स, Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) वेउव्वियसरीरस्स, चउव्विहस्स य मणजोगस्स, चउन्विहस्स य वइजोगस्सएएसि णं दसह वि तुल्ले उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे। -भग० श २५ । उ १ । सू ७ १ कार्मण शरीर का जघन्य काययोग सबसे स्तोक होता है। २ उससे औदारिकमिश्र का जघन्य योग असंख्यातगुणा होता है। ३ उससे वैक्रियमिश्र का जघन्य योग असंख्यातगुणा होता है। ४ उससे औदारिक शरीर का जघन्य योग असंख्यातगुणा होता है। ५ उससे वैक्रिय शरीर का जघन्य योग असंख्यातगुणा होता है। ६ उससे कार्मण शरीर का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा होता है। ७ उससे आहारकमिश्र का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। ८ उससे उसी का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। ९-१० उससे औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है तथा परस्पर तुल्य है। ११ उससे असत्यमृषा मनोयोग का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। १२ उससे आहारक शरीर का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। १३-१९ उससे तीन प्रकार के मनोयोग और चार प्रकार के वचन योग, इन सातों का जघन्य योग असंख्यातगुणा है और परस्पर तुल्य है। २० उससे आहारक शरीर का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। २१-३० उससे औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, चार प्रकार के मनोयोग तथा चार प्रकार के वचनयोग-- इन दसों का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है तथा परस्पर तुल्य है। •३४ सयोगी और अल्पबहुत्व एएसि णं भंते ! चोद्दसविहाणं संसारसमावण्णगाणं जीवाणं जहण्णुक्कोसगस्स जोगस्स कयरेहितो कयरे जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! १ सव्वत्थोवे सुहुमस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए २ बायरस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ३ बेईदियस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुण ४ एवं तेइ दियस्स ५ एवं चरिदियस्स ६ असण्णिस्स पंचिदियस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ७ सण्णिस्स पंचिदियस्स अपज्जतगस्स जहण्णए जोए असखेज्जगुणे ८ सुहुमस्स पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे ९ बायरस्स पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुण १० सुहमस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे ११ बायरस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असखेज्जगुणे १२ सुहुमस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे १३ बायरस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे १४ बेइदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुणे १५ एवं तेइ दियस्स. १८ एवं जाव सण्णिपंचिदियस्स पज्जतगस्स जहण्णए जोए असंखेज्जगुण १९ बेईदियस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे २० एवं तेइ दियस्स वि २१ एवं चरिदियस्स वि २३ एवं जाव सण्णिपंचिदियस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ बेइदियस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे २५ एवं तेइ दियस्स वि पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे २६ चरिवियस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे २७ असण्णिपंचिदियस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे २८ एवं सण्णिपंचिदियस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे। -भम० श २५ । उ १ । सू ३ १ सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग सबसे अल्प है। २ उससे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। ३ उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। ४ उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। ५ उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। ६ उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। ७ उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। ८ उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। ९ उससे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है । १० उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। ११ उससे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। १२ उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। १३ उससे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। १४ उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। १५ उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। १६-१८ उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य योग उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा है। १९ उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। २०.२३ इसी प्रकार श्रीन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग उतरोत्तर असंख्यातगुणा है। २४ उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। २५ इसी प्रकार त्रीन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। २६ उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। २७ उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। २८ उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है। विनेचन-इनमें सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय का जघन्य योग सबसे अल्प है क्योंकि उनका शरीर सूक्ष्म और अपर्याप्त होने से ( अपूर्ण होवे के कारण ) दूसरे सभी जीवों के योगों की अपेक्षा उसका योग सबसे अल्प होता है और यह कार्मण शरीर द्वारा औदारिक शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय में होता है। तत्पश्चात् समय-समय योगों की वृद्धि होती है और उत्कृष्ट योग तक बढ़ता है। अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय का जघन्य योग, पूर्वोक्त की अपेक्षा असंख्यातगुण होता है। बादर होने से उसका योग असंख्यातगुण बड़ा होता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए । यद्यपि पर्याप्त तेइन्द्रिय की उत्कृष्ट काया की अपेक्षा पर्याप्तक बेइन्द्रियों की काया तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट काया, संख्यात योजन होने से संख्यात Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) गुण ही होती है, तथापि यहां परिस्पन्दन ( कम्पन-हलन-चलन ) रूप योग की विवक्षा होने से तथा क्षयोपशम विशेष की सामथ्र्य से असंख्यातगुण होने का कथन विरुद्ध नहीं है, क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि असंख्यातगुण वाले का कथन विरुद्ध नहीं है, क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि अल्प कायवाले का परिस्पन्दन अल्प ही होता है और महाकायवाले का परिस्पन्दन बहुत ही होता है क्योंकि इससे विपरीतता भी देखी जाती है। जैसे- अल्प कायवाले का परिस्पन्दन महान् भी होता है और महाकायवाले का परिस्पन्दन अल्प भी होता है। '३५ अंतोमुत्तमेत्ता चउमणजोगा कमेण संखगुणा तज्जोगो सामण्णं चउवचिजोगा तदो दु संखगुणा -गोजी० शा २६२ सत्य, असत्य, उभय और अनुभय-ये चार मनोयोगों में से प्रत्येक का काल अन्तमुहूर्त है तथापि क्रम से संख्यातगुणा है अर्थात् सत्य मनोयोग का काल सबसे स्तोक अन्तर्मुहूतं है। उससे संख्यातगुणा अन्तर्मुहूर्त असत्य मनोयोग का काल है। उससे संख्यातगुणा अन्तर्मुहूतं उभय मनोयोग का काल है। उससे संख्यातगुणा अन्तर्मुहूर्त अनुभय मनोयोग का काल है। वह भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। इन चारों योगों के काल का जोड़ सामान्य मनोयोग का काल है । टोका–सत्यासत्योभयानुभयाख्याः ! चत्वारो मनोयोगाः अन्तर्मुहूर्तमानाः प्रत्येक मन्तमुहूर्तकालवृत्तय: तथापि क्रमेण संख्येयगुणा भवत्ति एवं कालानां युतिः सामान्यं सामान्यमनोयोग कालो भवति । अयमप्यन्तर्मुहूर्तमान एव। - तज्जोगो सामण्णं चउवचिजोगा तदो दु संखगुणा। -गोजी• गा २६२ । उत्तरार्ध ___टीका-ततः सामान्य मनोयोगकालात्तु पुनः ते चत्वारो वाग्योगकाला अपि क्रमेण संख्यातगुणाः ; तथापि प्रत्येकमन्तमुहूर्तमात्रा एव–एषां युतिः xxx अपि अन्तर्मुहूर्तमात्री भवति । ___सामान्य मनोयोग के काल से चारों वचनयोगों का काल भी क्रम से संख्यातगुणा है तथापि प्रत्येक का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है अर्थात् चारों मनोयोग के कालों के जोड़ से संख्यातगुणा अन्तर्मुहूर्त सत्यवचन योग का काल है। उससे संख्यातगुणा अन्तर्मुहूर्त असत्यवचन का काल है। उससे संख्यातगुणा उभय वचन का काल है। उससे संख्यातगुणा अनुभय वचन का योग काल है। इन सबका योग भी अन्तर्मुहूर्त मात्र है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) '३६ काययोग का अल्पबहुत्त अन कार्मणकाययोगिनः सर्वतः स्तोका एभ्यः औदारिकमिश्रकाययोगिनः असंख्यातगुणाः एभ्यः औदारिककाययोगिनः संख्यातगुणाः । -- गोजी० गा २६५ । टीका यहाँ सबसे थोड़े कार्मण-काय योगी है, इनसे औदारिकमिश्र-काय योगी असंख्यातगुणे तथा इनसे औदारिक-काय योगी संख्यातगुणे हैं। .३७ पन्द्रह योगों का अल्पबहुत्व .०१ पंचमनोयोगी तथा पंचवचन योगी का अल्पबहुत्व .०२ काययोगी का अल्पबहुत्व .०३ औदारिककाययोगी का अल्पबहुत्व जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-कायजोगि-ओरालियकायजोगोसु तीसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा।। -षट्० खं० १ । ८ । सू १०५ । पु ५ । पृष्ठ० २९० टीका-एदेहि उत्तसव्वजोगेहि सह उवसमसेढिं चढंताणं वुक्कस्सेण चउवण्णत्तमत्थि त्ति तुल्लत्तं परविदं। उवरिमगुणट्ठाणजीहितो ऊणा त्ति थोवा त्ति परूविदा। एदेसि वारसण्हमप्पाबहुआणं तिसु अद्धासु द्विदउवसमगा मूलपदं जादा। उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तेत्तिया चेव । -षट् • खं० १ । ८ । सू १०६ । पु ५ । पृष्ठ० २९० टोका-सुगममेदं । खघा संखेज्जगुणा। --षट् ० खं० १।८ । सू १०७ पु ५ । पृष्ठ० २९० टीका-अठ्ठत्तरसदपरिमाणत्तादो। खीणकसायवीदरागछदुमत्था तेत्तिया चेव । -षट् • खं० १।८ । सू १०८ । पु ५ । पृष्ठ० २९१ टीका-सुगममेदं । सजोगिकेवली पवेसणेण तेत्तिया चेव। -षट्० खं० १।८ । सू १०८ । पु ५ । पृष्ठ० २९१ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) टोका-एदं पि सुगमं। जेसु जोगेसु सजोगिगुणट्ठाणं संभवदि, तेसि चैवेदमप्पाबहुअं घेत्तव्यं । सजोगिकेवली अद्ध पडुच्च संखेज्जगुणा। -षट्० खण्ड १ । ८ । सू ११० । पु ५ । पृष्ठ० २९१ टोका–को गुणकारो ? संखेज्जसमया। जहा ओघम्हि संखेज्जसमयसाहणं कवं, तहा एत्थ वि कायव्वं । अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा। -षट्० ख० १ । ८ । सू १११ । पु ५ । पृष्ठ० २९१ टोका-एत्थ वि जहा ओघहि गुणगारो साहिदो तहा साहेदव्यो। णवरि अप्पिदजोगजीवरासिपमाणं णादण अप्पाबहुअं कायव्वं । पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। ----षट्० खं० १ । ८ । सू ११२ । पु ५ । पृष्ठ० २९१/२ टीका–सुगममेदं । संजदासजदा असंखेज्जगुणा। -षट्० खं० १ । ८ । सू ११३ । पु ५ । पृष्ठ० २९२ टीका-को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेन्जदिभागस्स संखेन्जदिभागो। सेसं सुगम। सासणसम्माविट्ठी असंखेज्जगुणा । -षट् ० खं० १ । ८ । सू ११४ । पु ५ । पृष्ठ० २९२ टोका-को गुणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कारणं जाणिदूण बत्तव्वं । सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा। -षट् खं० १ । ८ । सू ११५ । पु ५ । पृष्ठ० २९२ टीका-को गुणगारो ? संखेज्जसमया। एत्थ वि कारणं णिहालिय बसवं। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा। -षट्० खण्ड १ । ८ । सू ११६ । पु० ५ । पृष्ठ० २९२ टोका–को गुणगारो ? आवलियाए असंखज्जदिभागो। जोगद्धापं समासं कादूण तेण सामग्णरासिमोचट्टिय अप्पिजोगद्धाए गुणिदे इच्छिद-इच्छिदरासीओ होति । अषण पयारेण सव्वत्थ दध्वपमाणमुप्पाइय अप्पाबहुअं वत्तव्वं । मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा, मिच्छादिट्ठी अपंतगुणा । - षट्० खण्ड १ । ८ । सू ११७ ५ पु० ५५ पृष्ठ० २९३ टोका-एत्थ एवं संबंधोकायन्वो। तंजहा-पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि असेजदसम्माविट्ठोहितो तेसि चेव जोगाणं मिच्छादिट्ठी असंखेज्लगुणा। को गुणगार ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडोओ। केत्तियमेत्ताओ! सेडोए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। को पडिभागो? घणगुलस्स असंखज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पदरंगुलावि । कायजोगि-ओरालियकायजोगिअसंजदसम्माविट्ठीहितो तेसि चेव जोगाणं मिच्छाट्ठिी अणंतगुणा। को गुणगारो? अभवसिद्धिहिं अणंतगुणो, सिद्धहि वि अपंतगुणो, अपंताणि सव्वजीवरासिपढमवम्गमूलाणि ति। असंजदसम्माविट्ठी-संजदासंजद-पमत्तापमत्त-संजट्ठाणे सम्मत्तप्पाबहुअमोघं । -षट् खण्ड १ । ६ । सू ११८ 1 पु० 1 पृष्ठ० २९३ टोक-एदेसि गुणटाणाणं जघा ओघम्हि सम्मत्तप्पाबहुअं उत्तं, तो एत्थ वि अपूणाहियं वत्तव्वं । एवं तिसु अद्धासु। -षट० खण्ड १।८ । सू ११९ । पु० ५ । पृष्ठ. २९४ टोका-सुगममेदें। सव्वत्थोवा उवसमा। -षट् खण्ड १ । ८ । स १२० । पु० ५ । पृष्ठ० २१४ टोका-एवं पि सुगर्म । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) खवा संखेज्जगुणा। -षट० खण्ड १ । ८ । सू १२१ । पु. । पृष्ठ० २९४ टीका-अप्पिदजोगउवसामगेहितो अप्पिदजोगाणं खवा संखेन्जगुणा। एत्थ पक्खेवसंखेवेण मूलरासिमोट्टिय अप्पिदपक्खेवेण गुणिय इच्छिदरासिपमाणमुप्पाएदव्वं । .०४ औदारिकमिश्र काययोगी का अल्पबहुत्व ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा सजोगिकेवली । -षट्० खण्ड १। ८ । सू १२२ । पु. ५। पृष्ठ० २९४ ... टीका- अप्पिदजोगउवसामगेहितो अप्पिदजोगाणं खवा संखेज्जगुणा । एत्थ पक्खेवसंखेवेण मूलरासिमोवट्टिय अप्पिदपवखेवेण गुणिय इच्छिदरासिपमाणमुप्पाएदव्वं । असंजदसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। -घट्० खण्ड १ । ८ । सू १२३ । पु. ५। पृष्ठ. २९४ टीका-कुदो ? देव-णेरइय-मणुस्से हितो आगंतूण तिरिक्खमणुसेसुप्पण्णाणं असंजदसम्मादिट्ठीणमोरालियमिस्सम्हि सजोगिकेवलीहितो संखेन्जगुणागमुवलंभा। सासणसम्मादिट्ठी असंखैज्जगुणा। -षट् खण्ड १ । ८ । सू १२४ । पु० ५। पृष्ठ. २९५ टीका-को गुणकारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि। मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा। -षट् खण्ड १ । ८ । सू १२५ । पु. ५ । पृष्ठ. २९५ टोका–को गुणकारो ? अभवसिद्धिएहि भणंतगुणो, सिद्धहि वि अणंतगुणो, अणंताणि सव्वजीवरासिपढमवग्गमूलाणि। असंजदसम्माइडिट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्माविट्ठी । -षट् खण्ड १ । ८ । सू १२६ । पु. ५ । पृष्ठ० २९५ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) टोका-दंपणमोहणीयखएणुप्पण्णसद्दहणाणं जीवाणमइदुल्लभत्तादो। वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा । -षट्० खण्ड १ । ८ । सू १२७ । पु ५ । पृष्ठ० २९५ टीकर-खओवसमियसम्मत्ताणं जीवाणं बहूणमुक्लंभा। को गुणकारो? संखेज्जा समयर। •.५ वंश्यि काययोगी का अल्पवहुत्व वेउव्वियकायजोगीसु देवगदिभंगो। -षट्० खण्ड ० १ । ८ । सू १२८ । पु ५ । पृष्ठ • २१५-२९६ टोका-जधा देवगदिम्हि अप्पाबहुअं उत्तं, तधा वेउव्वियकायजोगीसु वत्तव्यं । तं जधा-सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी। सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा । असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा। मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा। असंजदसम्मादिट्ठिाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी। खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा। वेदगसम्माट्ठिी असंखेज्जगुणा । ..६ वैक्रियमिश्र-काययोगी का अल्पबहुत्व बेउब्वियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी। __-षट्० खण्ड० १ । ८ । सू १२९ पु ५ । पृष्ठ० २९६ टीका कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । असंजदसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। -षट्० खण्ड ० १।८ । सू १३० । पु ५ । पृष्ठ० २९६ टोका–को गुणकारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। एत्य कारणं संभालिय वत्तव्वं । मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा। -षट् खण्ड ० १ । ८ । सू १३१ । पु ५ । पृष्ठ० २९६ टोका–को गुणकारो? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाओ सेडीओ सेडीए असंखेज्जविभागमेत्ताओ। को पडिभागो ? घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि गदरंगुलाणि । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) असंजदसम्मादिट्ठिठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्माविट्ठी। -षट्० खण्ड• १ । ८ । सू १३२ । पु ५ । पृष्ठ० २९७ टोका-कुदो ? उवसमसम्मत्तेण सह उवसमसेढिम्हि मदजीवाणमइथोवत्तादो। ख इयसम्मादिट्ठी संखेन्जगुणा।। - घट्० खण्ड० १।८ । सू १३३ । पु ३ । पृष्ठ० २९७ टीका-उवसामगेहितो संखेज्जगुणअसंजदसम्मादिदि-आदिगुणवाहितो संचयसंभवादो। वेदगसम्माविट्ठी असंखेज्जगुणा। -घट० खण्ड० १ । ८ । स १३४ : पु ५ । पृष्ठ ० २९७ टीका-तिरिक्खैहितो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमे तबेदग-सम्मादिद्विजीवाणं देवेसु उववादसंभवादो। को गुणकारो? पलिदोवमस्स असवेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि। .०७ आहारक-काययोगी का अल्पबहुत्व •०८ आहारकमिश्र-काययोगी का अल्पबहुत्व आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजट्ठाणे सम्वत्थोबा खइयसम्मादिट्ठी। -षट्७ खण्ड० १।८ । सू १३५ । ३ ५ । पृष्ठ• २९७ टीका-सुगममेदं । बेदगसम्माविट्ठी संखेज्जगुणा। - षट् ० खण्ड• १।८ । सू १३६ । पु ५ । पृष्ठ. २९७ टीका-एद पि सुगर्म । उवसमसम्मादिट्ठीणमेत्य संभवाभावा तेसिमप्पाबहुगं ण कहिवं । किमट्ठ उवसमसम्मत्तेण आहाररिद्धी ण उप्पज्जदि ? उवसमसम्मत्तकालम्हि अइदहरम्हि तदुप्पत्तीए संभवाभावा। उवसमसैडिम्हि उवसमसम्मत्तेण आहाररिद्धीओ लब्भइ, तत्थ पमादाभावा। ण च तत्तो ओइण्णाण आहाररिद्धी उवलन्भइ, जत्तियमेत्तण कालेण आहाररिद्धी उप्पज्जइ, उवसमसम्मत्तस्स तत्तियमेत्तकालमवढाणाभावा। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२९ ) .०९ कार्मण काययोगी का अल्पबहुत्व कम्मइय कायजोगीसु सव्वत्थोवा सजोगिकेवली। -षट् ० खण्ड ० १ । ८ । सू १३७ । पु ५ । पृष्ठ० २९८ टोका-कुदो ? पदर-लोगपूरणेसु उक्कस्सेण सट्ठिमेत्तसजोगिकेवलीणमुवलंभा। सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । -षट्० खण्ड० १ । ८ । सू १३८ । पु ५ । पृष्ठ० २९८ टोका–को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि। असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा। ---षट्० खण्ड ० १ । ८ । सू १३९ । पु ५ । पृष्ठ० २९९ टोका–को गुणकारो? आवलियाए असंखेज्जविभागो। एत्थ कारणं णादूण वसव्वं । मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा। -षट् खण्ड० १। ८ । सू १४१ । पु ५ । पृष्ठ० २९९ टीका–को गुणकारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो, सिद्धहि वि अणंतगुणो, अणंताणि सव्वजीवरासिपढमवग्गमूलाणि। असंजवसम्मादिट्टिट्ठाणे सवत्थोवा उवसमसम्माविट्ठी। -षट् खण्ड० १ । ८ । सू १४१ । पु ५ । पृष्ठ० २९९ टीका-कुदो ? उवसमसेडिम्हि उवसमसम्मत्तेण मदसंजदाणं संखेज्जत्तादो। खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा। -षट् खण्ड० १।८ । सू १४२ । पु ५। पृष्ठ० २९९-३०. टीका-पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तखइयसम्माविट्ठीहितो असंखेज्जजीवा विग्गहं किण्ण करेंति त्ति उत्ते उच्चदे–ण ताब देवा खइयसम्मादिट्ठिणो असंखेज्जा अक्कमेण मरंति, मणुसेसु असंखेज्जखइयसम्माविटिप्पसंगा। ण च Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणुसेमु असंखेज्जा मरंति, तत्थासंखेज्जाणं सम्मादिट्ठीणमभावा। ण तिरिक्खा असंखेज्जा मारणंतियं करेंति, तत्थ आयुणुसारिवयत्तादो। तेण विग्गहगदीए खइयसम्मादिट्ठिणो संखेज्जा चेव होंति। होता वि उवसमसम्माविट्ठोहितो संखेज्जगुणा, उवसमसम्मादिट्ठिकारणादो खइयसम्मादिट्टिकारणरस संखेज्जगुणजादो। वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।। -षट्० खण्ड० १ । ८ । सू १४३ । पु ५ । पृष्ठ० ३०० टीकाको गुणकारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? खइयसम्मादिट्ठिरासिगुणिदअसंखेज्जावलियाओ। १० सयोगी जीवों का अल्प बहुत्व अप्पाबहुअंतिविहं सत्थाणादिभेएण। सत्थाणे पयंद। पंचमणजोगितिण्णिवचिजोगिवेउब्विय-वेउब्वियमिस्सकायजोगीणं सत्थाणस्स देवगइभंगो। वचिजोगिअसच्चमोसवचिजोगीणं सत्थाणस्स पंचिदियतिरिक्खपज्जत्तभंगो। सेसकायजोगीसु मिच्छाइट्ठीणं सत्थाणं गत्थि । सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्टि-संजदा-संजदाणं सत्थाणस्स ओघभंगो। परत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा असच्चमोसमणजोगिणो चत्तारि उवसामगा। असच्चमोसमणजोगिणो चत्तारि खवगा संखेज्जगुणा। असच्चमोसमणजोगिणो सजोगिकेवली संखेज्जगुणा। असच्चमोसमणजोगिणो अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। असच्चमोसमणजोगिणो पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। असच्चमोसमणजोगिअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। असच्चमोसमणजोगिसम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। असच्चमोसमणजोगिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो सखेज्जगुणो। असच्चमोसमणजोगिसंजदासजद-अवहारकाली असंखेज्जगुणो। तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । असच्चमोसमणजोणिसासणसम्माइटिवव्वमसंखेज्जगुणं । असच्चमोसमणजोगिसम्मामिच्छाइट्ठिदव्वं संखेज्जगुणं । असच्चमोसमणजोगिअसंजदसम्माइट्ठिदव्वमसंखेज्जगुणं । पलिदोवममसंखेज्जगुणं । असच्चमोसमणजोगिमिच्छाइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तस्सेव विक्खंभसूई असंखेज्जगुणा। सेढी असंखेज्जगुणा। दव्वमसंखेज्जगुणं। पदरमसंखेज्जगुणं । लोगो असंखेज्जगुणो। एवं चत्तारिमण-पंचवचिजोगीणं परत्थाणप्पाबहुगं Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्तव्वं । वेउन्वियकायजोगीसु सव्वत्थोवो असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो। उवरि मणजोगपरत्थाणभंगो। वेउन्विमिस्सकायजोगीसु सम्वत्थोवो असंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो। सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं असंजदसम्माइट्ठिदव्वमसंखेज्जगुणं। उवरि मणजोगिपरत्थाणभंगो। सव्वत्थोवा कायजोगिणो उवसामगा। खवगा संखेज्जगुणा। एवं जयध्वं जाव। पलिदोवमं ति। पलिदोवमादो उवरि मिच्छाइट्ठी अणंतगुणा। एवं ओरालियकायजोगीणं पि वत्तव्वं । ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा सजोगिकेवली। असंजदसम्माइट्ठी संखेज्जगुणा। सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं। पलिदोवममसंखेज्जगुणं । मिच्छाइट्ठी अणंतगुणा। आहार-आहारमिस्सेसु णत्थि सत्थाणं परत्थाणं वा। कम्मइयकायजोगीसु सव्वत्थोवा सजोगिणो। असंजदसम्माइटिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। तस्सेव दव्वमसंखेज्जगुणं । असंजदसम्माइट्ठिदव्वमसंखेज्जगुणं । पलिदोवममसंखेज्जगुणं । कम्मइयकायजोगिमिच्छाइट्ठिणो अणंतगुणा। ___ सव्वपरस्थाणे पयदं। सव्वत्थोवा आहारमिस्सकायजोगिजीवा। आहारकायजोगिजीवा संखेज्जगुणा। अप्पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा। सब्वेसिमसंजदसम्मादिट्ठीणं अवहारकालो असंखेज्जगुणो। एवं जयवं जाव पलिदोवमं त्ति। किममेवं जाणिज्जदे। वेउब्वियमिस्स-ओरालियमिस्स कम्मइयकायजोगीसु सासणसम्माइट्ठि-असजदसम्माइटिरासीणं माहप्पं ण जाणिज्जदि ति। पुव्वं किमिदं परूविदं ? ण, आइरियाणं तस्स अभिप्पायंतरदरिसण?त्तादो। पलिदोवमादो उवरि वचिजोगिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। असच्चमोसवचिजोगिअवहारकालो विसेसाहिओ। वेउन्वियकायजोगिअवहारकालो संखेज्जगुणो। एवं सच्चमोसवचिजोगि-मोसवचिजोगि-सच्चवचिजोगिमण जोगौणं अवहारकाला संखेज्जगुणा। असच्चमोसमणजोगीणं अवहारकालो दिसेसाहिओ। सच्चमोसमणजोगिअवहारकालो संखेज्जगुणो। एवं मोसमणजोगि-सच्चमणजोगि-वेउब्वियमिस्सकायजोगीणं अवहारकाला संखेज्जगुणा। तस्सेव विक्खंभसूई असंखेज्जगुणा। सच्चमणजोगिविक्खंभसूई संखेज्जगुणा। एवं मोसमणजोगि-सच्चमोसमणजोगि-असच्चमोसमणजोगीणं । तदो मणजोगिविक्खंभसूई विसेसाहिया। सच्चवचिजोगिविवखंभसूई संखेज्जगुणा। एवं मोसवचिजोगि ( सच्चमोसवचिजोगि) वेउन्वियकायजोगि-असच्चमोसवधि Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोगिविक्खंभसूचीओ संखेज्जगुणाओ। वचिजोगिविक्खंभसूई विसेसाहिया। सेढी असंखेज्जगुणा । तदो वेउन्विमिस्सकायजोगिमिच्छाइट्ठिदव्वमसंखेज्जगुणं । सच्चमणजोगिदव्वं संखेज्जगुणं। एवं मोसमणजोगि-सच्चमोसमणजोगि-असच्चमोसमणजोगिदव्वाणि जहाकमेण संखेज्जगुणाणि। मणजोगिदच्वं विसेसाहियं । सच्चवचिजोगिदव्वं संखेज्जगुणं। एवं मोसवचिजोगि-सच्चमोसवचिजोगिवेउव्वियकायजोगि-असच्चमोसवचिजोगिदव्वाणि जहाकमेण संखेज्जगुणाणि । तदो वचिजोगिदव्वं विसेसाहियं । पदरमसंखेज्जगुणं। लोगो असं खेज्जगुणो। तदो अजोइणो अणंतगुणा। कम्मइयकायजोगिणो अणतगुणा। ओरालियमिस्सकायजोगिणो असंखेज्जगुणा। ओरालियकायजोगिणो मिच्छाइट्ठी संखेज्जगुणा। -षट् ० खण्ड ० १ । २ । सू १४३ । पु ३ । पृष्ठ० ४०८-१३ स्वस्थान आदि के भेद से अल्पबहुत्व तीन प्रकार का है। उनमें से स्वस्थान अल्पबहुत्व प्रकृत है। पाँच मनोयोगी, तीन वचनयोगी, वैक्रिय काययोगी और वैक्रियमिश्र-काययोगियों का स्वस्थान अल्पबहुत्व देवगति के समान हैं। वचनयोगी और अनुभयवचनयोगियों का स्वस्थान अल्पबहुत्व पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तों के स्वस्थान अल्पबहुत्व के समान है। शेष काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों के स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है। उन्हीं के सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतों का स्वस्थान अल्पबहुत्व ओघ अल्पबहुत्व ओघ स्वस्थान अल्पबहुत्व के समान है। अब पर स्थान में अल्पबहुत्व प्रकृत है । १-अनुभय मनोयोगी चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक सबसे थोड़े हैं। अनुभय मनोयोगी चार गुणस्थानवर्ती रूपक उपशामकों से संख्यातगुणे हैं । अनुभय मनोयोगी सयोगि केवली जीव उक्त क्षपकों से संख्यातगुणे हैं। अनुभय मनोयोगी अप्रमत्त संयत जीव उक्त सयोगी केवलियों से संख्यातगुणे हैं। अनुभय मनोयोगी प्रमत्त संयत जीव उक्त अप्रमत्त संयतों से संख्यातगुणे हैं। अनुभय मनोयोगी असंयत सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल उक्त प्रमत्त संयतों से असंख्यातगुणा है। अनुभय मनोयोगी सम्यमिथ्यादृष्टियों का अवहारकाल उक्त असंयत अवहारकाल से असंख्यातगुणा है। अनुभय मनोयोगी सासादन सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल उक्त सम्यमिथ्यादृष्टि के अवहारकाल से असंख्यातगुणा है। अनुभय मनोयोगी संयतासंयतों का अवहारकाल उक्त सासादन सम्यग्दृष्टि अवहारकाल से असंख्यातगुणा है। उन्हीं अनुभय मनोयोगी संयतासंयतों का द्रव्य उन्हीं के अपहारकाल से असंख्यातगुणा है। अनुभय मनोयोगी सासादन सम्यग्दृष्टियों का द्रव्य उक्त संयतासंयतों के द्रव्य से असंख्यातगुणा है। अनुभय मनोयोगी सम्यमिथ्यादृष्टियों का द्रव्य उक्त सासादन सम्यग्दृष्टियों के द्रव्य से संख्यातगुणा है । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) अनुभय मनोयोगी असंयतसम्यग्दृष्टियों का द्रव्य उक्त सम्यमिथ्यादृष्टियों के द्रव्य से असंख्यातगुणा है। पल्योपम उक्त असंयत सम्यग्दृष्टियों के द्रव्य से असंख्यातगुणा है। अनुभय मनोयोगी मिथ्यादृष्टियों का अवहारकाल पल्योपम से असंख्यातगुणा है। उन्हीं की विष्कंभ सूची अवहारकाल से असंख्यातगुणी है। जगश्रेणी विष्कंभ सूची से असंख्यातगुणी है। उन्हीं अनुभय मनोयोगी मिथ्यादृष्टियों का द्रव्य जग-श्रेणी से असंख्यातगुणा है । जगप्रतर द्रव्य प्रमाण से असंख्यातगुणा है। लोक जगप्रतर से असंख्यातगुणा है। इसी प्रकार शेष चार मनोयोगी और पांचों वचनयोगियों का परस्थान अल्पबहुत्व कहना चाहिए। ___वैक्रियिक काययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल सबसे स्तोक है । इसके ऊपर मनोयोग के परस्थान अल्पबहुत्व के समान जानना चाहिए। वैक्रियिकमिश्र-काययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल सबसे स्तोक है। सासादन सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल असंयतसम्यग्दृष्टियों के अवहारकाल से असंख्यातगुणा है। उन्हीं सासादन सम्यग्दृष्टि वैक्रियिकमिश्र-काययोगियों का द्रव्य अपने अवहारकाल से असंख्यातगुणा है। असंयतसम्यग्दृष्टि वैऋियिकमिश्र-काययोगियों का द्रव्य सासादन द्रव्य से असंख्यातगुणा है । इसके ऊपर मनोयोगियों के परस्थान अल्पबहुत्व के समान जानना चाहिए । काययोगी उपशामक सबसे स्तोक है। काययोगी क्षपक काययोगी उपशामकों से संख्यातगुषे हैं। इसी प्रकार पल्योपम तक ले जाना चाहिए। पल्योपम के ऊपर काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव अनंतगुणे हैं । इसी प्रकार औदारिककाययोगियों का भी कथन करना चाहिए । औदारिकमिश्र काययोगियों में सयोगी केवली जीव सबसे स्तोक है। असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सयोगी केवलियों से संख्यातगुणे हैं। सासादन सम्यग्दृष्टियों का अचहारकाल असंयतसम्यग्दृष्टियों से असंख्यातगुणा है। उन्हीं का द्रव्य अपने अवहारकाल से असंख्यातगुणा है। पल्योपम सासादन सम्यग्दृष्टि औदारिकमिश्रकाययोगियों से असंख्यातगुणा है । औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव पल्योपम से अनंतगुणे हैं । __ आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग में स्वस्थान अथवा परस्थान अल्प बहुत्व नहीं पाया जाता है । कार्मणकाययोगियों में सयोगी केवली जीव सबसे स्तोक है। असंयतसम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल सयोगिकेवलियों के प्रमाण से असंख्यातगुणा है । सासादन सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल असंयत सम्यग्दृष्टियों के अवहारकाल से असंख्यातगुणा है। उन्हीं का द्रष्य Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने अवहारकाल से असंख्यातगुणा है। असंयत सम्यग्दृष्टियों का द्रव्य सासादन सम्यगदृष्टियों से असंख्यातगुणा है। पल्योपम असंयत सम्यग्दृष्टियों के द्रव्य से असंख्यातगुणा है। कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टियों का द्रव्य पल्योपम से अनंतगुणा है । अब सर्व परस्थान में अल्पबहुत्व प्रकृत है । १-आहारकमिश्र-काययोगी जीव सबसे स्तोक है। २–आहारक काययोगी जीव आहारकमिश्र काययोगियों से संख्यातगुणे है । ३-अप्रमत्त संयत जीव आहारक काययोगियों से संख्यातगुणे है । ४–प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयतों से संख्यातगुणे है । ५-सभी का असंयतसम्यम्दृष्टि अवहारकाल प्रमत्तसंयतों से असंख्यातगुणा है । इसी प्रकार पल्योफ्म तक ले जाना चाहिए। चूंकि वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण-काययोगियों में सासादन-सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि राशियों का महात्म्य अर्थात् परस्पर अल्पबहुत्व नहीं जाना जाता है। अत: ऐसा समझना चाहिए । क्योंकि वहाँ अन्य आचार्यों का अभिप्रायान्तर दिखलाना उनके अल्पबहुत्व के कथन का प्रयोजन था। पल्योपम के ऊपर वचनयोगियों का अवहारकाल असंख्यातगुणा हैं। अनुभय वचनयोगियों का अवहारकाल वचनयोगियों के अवहारकाल से विशेषाधिक है। वैयिककाययोगियों का अवहारकाल अनुभय वचनयोगियों के अवहारकाल से संख्यातगुणा है। __इसी प्रकार उभयवचनयोगी, मृषावचनयोगी और सत्यवचनयोगी जीवों का अवहारकाल उत्तरोत्तर संख्यातगुणा है। अनुभय मनोयोगियों का अवहारककाल सत्यवचनयोगियों के अवहारकाल से विशेषाधिक है। उभयमनोयोगियों का अवहारकाल अनुभय वचनयोमियों के अवहारकाल से संख्यातगुणा है। इसी प्रकार असत्य-मनोयोगी, सत्थ-मनोयोगी और वैक्रियिकमिश्र-काययोगियों का अवहार काल उत्तरोत्तर संख्यातगुणा है। उन्हीं की अर्थात् वैक्रियिकमिश्र-काययोगियों की विष्कंभ सूची उन्हीं के अवहारकाल से असंख्यातगुणी है। सत्य-मनोयोगियों की विष्कंभ सूची वैक्रियिकमिश्र-काययोगियों की विष्कंभ सूची से संख्यातगुणी है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) इसी प्रकार मृषा-मनोयोगी, उभय-मनोयोगी और अनुभय मनोयोगियों की विष्कंभ सूची भी समझना चाहिए। अनुभय मनोयोगियों की विष्कंभ सूची से मनोयोगियों की विष्कंभ सूची विशेषाधिक है । सत्त्व-वचनयोगियों को विष्कंभ सूची मनोयोगियों की विष्कंभ सूची से संख्यातगुणी है । इसी प्रकार मृषा-वचनयोगी, उभयवचन योगी, वैक्रियिक-काययोगी और अमुभय वचनयोगियों की विष्कंभ सूचियां भी उत्तरोतर संख्यातगुणी हैं। वचनयोगियों की विष्कंभ सूची अनुभय वचनयोगियों की विरुकंभ सूची से विशेषाधिक है। जगश्रेणी वचन-योगियों की विष्कंभ सूची से असंख्यातगुणी है। जगश्रेणी से वैऋियिकमिश्थ-काययोगियों का द्रव्य असंख्यातगुणा है। सत्य मनोबोगियों का द्रव्य वैक्रियिकमिथ-काययोगियों के द्रव्य से संख्यातगुणा है। इसी प्रकार मृषामनोयोगी, उभयमनोयोगी, अनुभय-मनोयोगियों का द्रव्य यथा क्रम से संख्यात गुणा है। मनोयोगियों का द्रव्य अनुभय-मनोयोगियों के द्रव्य से संख्यातगुणा है। इसी प्रकार मृषा-वचनयोगी, उभय-वचनयोगी वैक्रियिक-काययोगी और अनुभय वचनयोगियों का द्रब्य यथाक्रम से संख्यातगुणा है। अनुभय वचनयोगियों के द्रव्य से वचनयोगियों का द्रव्य विशेषाधिक है। जग-प्रतर वचनयोगियों के द्रव्य से असंख्यातगुणा है। लोक जगप्रतर से असंख्यातगुणा है। लोक से अयोगी जीव अनंतगुणे हैं। अयोगियों से कार्मणकाययोगी जीव अनंतगुणे हैं। कार्मणकाययोगियों से औदारिकमिश्रकाययोगी जीव असंख्यातगुणे हैं । औदारिकमिश्र-काययोगियों से औदारिक-काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणे हैं । .११ योग स्थान का अल्पबहुत्व एबमेक्केकस्स जोगगुणगारे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो॥ टोका-पुवुत्तासेसजोगट्टाणाणं गुणगारस्स पमाणमेदेण सुत्तेण परुविदं । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो होदि त्ति कधं गन्धदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। णच पमाणतरमवेक्खदे, अणनत्थागसंगादो । तत्थ परुवणं वत्तहस्सामो। तं जहा-सत्तण्णं लद्धिअपज्जत्तजीवसमाणमथि उववादजोगट्ठाणाणि एयंताणुवडिजोगट्ठाणाणि परिणामजोगट्ठाणाणि च । सत्तणणिव्वत्तिअपज्जत्तजीवसमासाण Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) मत्थि उववादजोगट्टाणाणि एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि च । सत्तण्णं णिव्वत्तिपज्जत्तयाणमत्थि परिणामजोगट्टाणाणि चेव । परूवणा समत्ता । संपहि पमाणं वुच्चदे । तं जहा - एदेसि वृत्तसव्वजीवसमासाणं उववादजोगट्टाणाणं एयंताणुव डिजोगट्टाणाणं च पमाणं सेडीए असंखेज्जदिभागो । पमाण परूवणा गदा । अप्पा बहुगं (दुविहं ) जोगट्ठाणप्पा बहुगं जोगविभागपडिच्छेदप्पा बहुगं चेदि । तत्थ जोगट्टाणप्पा बहुगं वत्तइस्लामो । तं जहा- सत्तष्णं लद्धिअपन्नताणमुववादजोगट्टाणाणि । तेसिमेगताणुव डिजोगट्टाणाणि असंखेज्जगुणाणि । परिणामजोगट्टाणाणि असं खेज्जगुणाणि । सत्तण्णं णिव्वत्तिअपज्जत्तजीवसमासाणं सव्वत्थोवाणि उववादजोगट्टाणाणि । एगंताणुवड्डिजोगट्टाणाणि असंखेज्जगुणाणि । सत्तण्णं णिव्वत्तिपज्जत्ताणं णत्थि अप्पाबहुगं, परिणामजोगट्ठाणाणि मोतूण तत्थ अणस जोगद्वाणाणमभावादो। सव्वत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्ज - दिभागो । एवं जोगट्ठाणप्पा बहुगं समत्तं । -षट्० ४ । २ । ४ । १७३ । पृष्ठ ४०३ । ४ । षु १० इस प्रकार प्रत्येक जीव के योग का गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । पूर्वोक्त समस्त योग- स्थानों के गुणकार का प्रमाण कहा गया है । यह सूत्र स्वयं प्रमाण-भूत होने से किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि ऐसा होने पर अनवस्था दोष का प्रसंग आता है । यह मूल वीणा का अल्पबहुत्व-आलाप देशामर्शक है क्योंकि, वह प्ररूपणादि अनुयोगद्वारों का सूचक है। इसलिए यहाँ प्ररूपणा प्रमाण, अल्पबहुत्व- इन तीन अनुयोग द्वारों की प्ररूपणा करनी चाहिए। उनमें प्ररूपणा को कहते हैं । वह इस प्रकार है सात लब्ध्यपर्याप्त, जीव समासों के उपपाद योग-स्थान, एकांतानुवृद्धि योग-स्थान और परिणाम योग-स्थान होते हैं। सात निवृत्त्यपर्याप्त, जीव समासों के उपपाद योग-स्थान व एकांतानुवृद्धि योग-स्थान होते हैं । सात निवृत्तिपर्याप्तकों के परिणाम-योग-स्थान ही होते हैं । प्ररूपणा समाप्त हुई । अब प्रमाण की प्ररूपणा की जाती है- इन उक्त सब जीव-समासों के उपपादयोग स्थानों, एकांतानुवृद्धियोग-स्थानों और प्रमाण योग-स्थानों का प्रमाण जगश्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र है । प्रमाण की प्ररूपणा समाप्त हुई । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) अल्पबहुत्व दो प्रकार के हैं -योगस्थान अल्पबहुत्व और योगविभागप्रतिच्छेद अल्पबहुत्व । उनमें योगस्थान अल्पबहुत्व इस प्रकार है । सात लब्ध्यपर्याप्तकों के उपपाद-योग-स्थान सबसे स्तोक है। उससे उनके एकांतानुवृद्धि योगस्थान असंख्यातगुणे हैं । उनसे परिणाम योगस्थान असंख्यातगुणे हैं। सात निवृत्ति अपर्याप्त जीव समासों के उपपाद योगस्थान सबसे स्तोक है। उनसे एकांतानुवृद्धि योग-स्थान असंख्यातगुणे हैं। सात निर्वृत्तिपर्याप्तकों के अल्पबहुत्व नहीं है क्योंकि, परिणामयोगस्थानों को छोड़कर उनमें अन्य योग-स्थानों का अभाव है। गुणकार सर्वत्र पल्योपम का खसंख्यातवां भाग है। •११ करण-कृति की अपेक्षा यौगिक जीवों का परस्थान अल्पबहुत्व पंचमणजोगि-तिण्णिवचिजोगीसु सव्वत्थोवा आहारपरिसादणकदी। संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया। वेउब्वियपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया। ओरालियसंघादण-परिसादणकवी असंखेज्जगुणा । वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा। तेजाकम्मइयसंधादणपरिसादणकदी विसेसाहिया। वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीसु सव्वत्थोवा आहारपरिसादणकदी। संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया। वेउवियपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा। ओरालियसंघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा। तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया। कायजोगो ओघं । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी णत्थि । ओरालियकायजोगीसु सव्वत्थोवा आहारपरिसादणकदी। वेउव्वियसंघादणमसंखेज्जगुणं । परिसावणकदी असंखेज्जगुणा। संघावणपरिसावणकदी विसेसाहिया। ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया। ओरालियसंघादण-परिसादणकदी अणंतगुणा। तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया। ओरालियमिस्सकायजोगीस पंचिदियअपज्जत्तभंगो। वेउब्विय-कायजोगीसु पत्थि अप्पाबहुगं, तिष्णिपदाणं सारिच्छियादो। वेउब्वियमिस्स-कायजोगीणं णारगभंगो। आहारकायजोगीसु पत्थि अप्पाबहुगं, चदुण्हं पदाणं सारिच्छियादो। आहारमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी। संघादण-परिसा Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दणकदी संखेज्जगुणा। ओरालियपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकवी तिण्णि वि सरिसा विसेसाहिया। कम्मइयकायजोगीसु सव्वत्थोवा ओरालियपरिसादणकदी। तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी अणंतगुणा। -षट० ४। १ सू ७१ । पु ९ । पृष्ठ० ४४२ । ४ पाँच मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में आहारक शरीर की परिशातन कृति युक्त जीव सबसे थोड़े हैं। उससे उसी की संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है। उनसे वैक्रियिक शरीर की परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिक शरीर की परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है। उनसे औदारिक शरीर की संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिक शरीर की संघातन परिशातनकृति उक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मण शरीर की संघातनपरिशातनकृति उक्त जीव विशेष अधिक हैं। ' वचनयोगी और असत्यमृषा वचनयोगी जीवों में आहारक शरीर की परिशातन कृति युक्त जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है। उनसे वैक्रियिक शरीर की परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे है। उनसे औदारिक शरीर की संघातन परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे है। उनसे तैजस व कार्मण शरीर की संघातन परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है । काययोगी जीवों की प्ररुपणा ओघ के समान है। विशेष इतना है कि उनमें तैजस और कार्मण शरीर की परिशातनकृति नहीं होती है। औदारिक काययोगियों में आहारक शरीर की परिशातन कृति युक्त जीव सबसे स्तोक है। उनसे वैक्रियिक शरीर की संघातन कृति युक्त जीव असंख्यातगुण है। उनसे वैक्रियिक शरीर की परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे है। उनसे उसीकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है। उनसे औदारिक शरीर की परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है । उनसे औदारिक शरीर की संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव अनन्तगुणे उनसे तैजस और कार्मण शरीर की संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है। औदारिकमिश्रकाययोगियों में अपवे पदों के अल्पबहुत्व की प्ररुपणा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तों के समान है। वैक्रियिककाययोगियों में अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि उनमें तीनों पद सदृश है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों की प्ररुपणा नारकियों के समान है। आहारककाययोगियों में अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि उनमें चारों पद समान है । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३९ ) आहारकमिश्रकाययोगियों में आहारकशरीर की संघातनकृति युक्त जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे उसी की संख्यातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीर की परिशातन कृति तथा तैजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृति, इन तीनों पदों से युक्त जीव सदृश विशेष अधिक है । कार्मणकाययोगियों में औदारिकशरीर की परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक है। उनसे तैजस और कार्मणशरीर की संघातन-परिशातन कृति युक्त जीव अनतगुण हैं। '३५ सयोगी जीवों का लोक-क्षेत्र में अवस्थान .०१ पंच मनोयोगी तथा पंच वचनयोगी का अवस्थान जोणाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली केवडि खेते लोगस्स अंसेखज्जविभागे। -षट्० खण्ड ० १ । ३ । सू २९ । पु ४ । पृष्ठ• १०२ टीका-एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-पंचमणजोगि-पंचवचिजोगिमिच्छादिद्विसत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्वियसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे। वेउन्वियसमुग्घादगदाणं कध मणजोग-वचिजोगाणं संभवो? ण, तेसि पि णिप्पण्णुत्तरसरीराणं मणजोग-वचिजोगाणं परावत्तिसंभवादो। मारणंतियसमुग्धादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोहितो असंखेज्जगुणे। मारपंतियसमुग्घादगदाणं असंखेज्जजोयणायामेण ठिदाणं मुच्छिादाणं कधं मणवचिजोगसंभवो? ण, वारणाभावादो अवत्ताणं णिभरसुत्तजीवाणं व तेसिं तत्थ संभवं पडि विरोहाभावादो। मण-वचिजोगेसु उववादो पत्थि। सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव असमुग्घादसजोगिकेबलि त्ति मूलोघभंगो। णवरि सासणअसंजदसम्माइट्ठीणं उववादो पत्थि । ___ योगमार्गणा के अनुवाद से पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी-केवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । अस्तु - स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत्स्व स्थान, वेदना समुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिक समुद्घात पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्य लोकादि तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) प्रश्न है कि वैक्रियिकसमुद्घात को प्राप्त जीवों के मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव है । उत्तर - नहीं, क्योंकि, निष्पन्न हुआ है, विक्रियात्मक उत्तर शरीर जिनके, ऐसे जीवों के मनोयोग और वचनयोगों का परिवर्तन संभव है । मारणान्तिक समुद्घात गत पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिध्यादृष्टि जीव सामान्य लोक आदि तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग में, मनुष्यलोक और तिर्यग्लोक के असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । प्रश्न है कि मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त, असंख्यातयोजन आयाम से स्थित और मुच्छित हुए संज्ञी जीवों के मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव हैं । उत्तर— नहीं, क्योंकि बाधक कारण के अभाव होने से निर्भर ( भरपूर ) सोते हुए जीवों के समान अव्यक्त मनोयोग और वचनयोग मारणान्तिक समुद्घात गत मुच्छित अवस्था में भी संभव है, इसमें कोई विरोध नहीं है । • ०२ काययोगी का अवस्थान कायजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं । - षट्० खण्ड० १ । ३ । सू ३० । पु ४ । पृष्ठ० १०३ टीका - सत्याणसत्थाण- वेदण-कसाय- मारणंतिय उववाद- गदा कायजोगिमिच्छाइट्ठी सव्वलोए । विहारवदिसत्थाण वेउव्वियसमुग्धादगदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एत्थ ओवट्टणा जाणिय कायव्वा । सासणसम्मादिद्विप्पहूडि जाव खोणकसायवीदरागछदुमत्था केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे । - षट्० खण्ड ० १ । ३ । सू ३१ । पु ४ । पृष्ठ० १०३ टीका - जोगाभावादो एत्थ अजोगीणमग्गहणं । सेसं सुगमं । सजोगिकेवली ओघं । - षट्० खण्ड ० १ । ३ । सू ३२ । पु ४ । पृष्ठ० १०४ टीका- गुणपडवण्णाणमेगजोगो किण्ण कदो ? ण, सजोगिम्हि लोगस्स असं खेज्जेसु भागेसु सव्वलोगे वा इदि विसेसुवलंभादो । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र ओघ के समान सर्वलोक है। अस्तु स्वस्थान-स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादगत काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सर्वलोक में रहते हैं। विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घातगत काययोगी मिथ्यादृष्टिजीव सामान्यलोक आदि तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । यहाँ पर अपवर्तना जानकरके करना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती काययोगी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। योगाभाव होने से इस सूत्र में अयोगिकेवलियों का ग्रहण नहीं किया गया है। शेष सूत्र का अर्थ सुगम है। काययोगवाले सयोगिकेवली का क्षेत्र ओघ सयोगिकेवली के क्षेत्र के समान है। अस्तु सयोगिकेवली.-क्षेत्र में सयोगिकेवली लोक के असंख्यात बहुभागों में और सर्वलोक में रहते हैं। •०३ औदारिक काययोगी का अवस्थान ओरालियकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं। -षट् खण्ड० १ । ३ । सू ३३ । पु ४ पृष्ठ० १०४ टोका-एदे सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतियसमुग्धादगदा सव्वलोए, सुहुमपज्जताणं सव्वलोगखेत्तेसु संभवादो। उववादो णत्थि, णिरुद्धोरालियकायजोगादो। विहारवदिसत्थाणगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, तसपज्जत्तरासिस्स संखेज्जविभागस्स संचारे होदि त्ति गुरुवएसादो। अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे। घेउव्वियसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे, ओरालियकायजोगे णिरुद्ध बेउन्वियकायजोगिसहगदवेउब्वियसमुग्घादस्स असंभवादो। सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली लोगस्स असंखेज्जदिभागे। -षट् खण्ड ० १ । ३। सू ३४ । पु ४ । पृष्ठ० १०५ टीका-कधं सजोगिकेवली लोगस्स असंखेज्जदिभागे? ण एस दोसो, ओरालियकायजोगे णिरुद्ध ओरालियमिस्स-कम्मइयकायजोगसहगदकवाड-पदरलोग-पूरणाणमसंभवादो। सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्माविट्ठीणमुववादो पत्थि । पमत्ते आहारसमुग्धादो पत्थि । सेसं जाणिय वत्तव्यं । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) औदारिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र ओघ के समान सर्वलोक है। अस्तु स्वस्थान-स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घातगत-ये औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि यावत् सर्वलोक में रहते हैं। क्योंकि सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रिय जीव सर्वलोकवर्ती क्षेत्र में संभव है। किन्तु उक्त जीवों के उपपाद पद नहीं होता है, क्योंकि यहाँ पर औदारिक-काययोग से निरुद्ध जीवों का क्षेत्र बताया जा रहा है। विहारवत्स्वस्थानवाले औदारिक-काययोगी जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में और तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं, क्योंकि समस्त त्रसपर्यायराशि के संख्यातवें भाग का ही संचार ( विहार ) होता है, ऐसा गुरु का उपदेश है। उक्त औदारिक-काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। वैक्रियसमुद्घातगत औदारिक-काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। क्योंकि, औदारिककाययोग से निरुद्ध क्षेत्र का वर्णन करते समय वैक्रियिक-काययोमी जीवों के होने वाला वैक्रियिकसमुद्घात असंभव है। सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती औदारिक-काययोगी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अस्तु औदारिक-काययोग से निरुद्ध क्षेत्र का वर्णन करते समय औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग के साथ में होने वाले कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्घातों का होना संभव नहीं है। इसलिए औदारिक-काययोगी सयोगिकेवली लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि औदारिक-काययोगी जीवों के उपपाद नहीं होता है। प्रमत्तसंयतगुणस्थान में आहारकसमुद्घात पद भी नहीं है, क्योंकि यहाँ पर औहारिक-काययोगियों का क्षेत्र बताया जा रहा है। शेष गुणस्थानों में यथासंभव पद जानकर कहना चाहिए। .०४ औदारिकमिश्र काययोगी का अवस्थान ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठि ओघ । --षट्० खण्ड ० १ । ३ । सू ३५ । पु ४ । पृष्ठ० १०५ टीका-बहुसु कधमेगवयणणिद्देसो ? ण एस दोसो, बहूणं पि जादीए एगत्तुवलंभादो। अधवा मिच्छाइट्ठी इदि एसो बहुवयणणिद्देसो वेव। कधं पुण एत्थ विहत्ती गोवलब्भदे ? 'आइ-मज्भंतवण्णसरलोवो' इदि विहसिलोवादो। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा ओरालियमिस्सकायजोगिमिच्छाइट्ठी सव्वलोगे। विहारवदिसत्थाण-वेउब्वियसमुग्घादा गत्थि, तेण तेसि विरोहादो। ओरालियमिस्सस्स वेउव्वियादिपदेहि भेदसंभवादो ओघणिडेसो ण घडदे ? ण एस दोसो, एत्थ विज्जमाणपदाणं परूवणा ओघपरूवणाए तुल्लेत्ति ओघत्तविरोधाभावादो। सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी अजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। -षट्० खण्ड ० १ । ३ । सू ३६ 1 पु ४ । पृष्ठ० १०६ टीका-एत्थ पुवसुत्तादो ओरालियमिस्सकायजोगो अणुघट्टदे। तेणेवं संबंधो भवदि-ओरालियमिस्सकायजोगीसु सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्माट्ठिी सजोगिकेतली केवडि खेत्ते इदि । सासणम्मादिदी-सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे। कुदो ? ओरालियमिस्सम्हि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसासणसम्मादिहिरासिस्स संभवादो। एत्थ सेसपदाणि णत्थि, तेण तेसि तत्थ विरोधादो। असंजदसम्माइट्ठीसत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे, संखेज्जपरिमाणादो। सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुववादो। किमण उत्तो ? ण, ओरालियमिस्सम्हि टिदाणमोरालियमिस्सकायजोगेसु उववादाभावादो। अधवा उववादो अत्थि, गुणेण सह अक्कमेण उपात्तभवसरीर पढमसमए उवलंभादो, पंचावत्थावदिरित्तओरालियमिस्सजीवाणमभावादो च। सजोगिकेवली कवाडगदो तिण्हं लोयाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जमुणे। औदारिकमिश्र काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव ओघ के समान सर्वलोक में रहते हैं ॥३५॥ ___ अस्तु संख्या की अपेक्षा बहुत से भी जीवों के जाति-विवक्षा से एकत्व पाया जाता है । आदि, मध्य और अंत के वर्ण और स्वर का लोप हो जाता है। स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना समुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादगत औदारिकमिश्र-काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सर्वलोक में रहते हैं। यहाँ पर विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियसमुद्घात-ये दो पद नहीं होते हैं क्योंकि, औदारिकमिश्र काययोग के साथ इन दोनों का विरोध है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) अस्तु यहाँ औदारिकमिश्र-काययोग में विद्यमान स्वस्थान आदि पदों की प्ररूपणा बोध प्ररूपणा के तुल्य है अतः ओघपना विरोध को प्राप्त नहीं होता है। औदारिकमिश्र-काययोगी सासादन-सम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दष्टि और सयोगी केवली लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। इस सूत्र में पूर्व सूत्र से 'औदारिकमिश्र काययोग' इस पद की अनुवृत्ति होती है। अतः सूत्र के अर्थ का इस प्रकार संबंध होता है। औदारिकमिश्र काययोगियों में सासादन सम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगी-केवली कितने क्षेत्र में रहते हैं। स्वस्थानस्वस्थान, वेदना समुद्घात और कषायसमुद्घात सासादन सम्यग्दृष्टि जीव सामान्य लोकादि चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । क्योंकि औदारिकमिश्रकाय में पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण सासादन सम्यग्दृष्टियों की राशि का पाया जाना संभव है। यहाँ पर शेष विहारवत्स्वस्थानादि पद नहीं होते हैं। क्योंकि सासादन गुणस्थान के साथ उन पदों का यहाँ पर विरोध है। स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना समुदघात और कषायस मुद्घात औदारिकमिश्र-काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सामान्य लोकादि चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और मनुष्य क्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं क्योंकि वे संख्यात राशि-प्रमाण होते हैं। औदारिकमिश्र-काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों के उपपाद नहीं होता है। क्योंकि, औदारिकमिश्र काययोग में स्थित जीवों का पुनः औदारिकमिश्रकाययोगियों में उपपाद नहीं होता है। अथवा उपपाद होता है, क्योंकि सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के साथ अक्रम से उपपात भव शरीर के प्रथम समय में उसका सद्भाव पाया जाता है। दूसरी बात यह है कि स्वस्थान-स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, केवलिसमुद्घात और उपपाद-इन पांच अवस्थाओं के अतिरिक्त औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों का सद्भाव है। कपाट समुद्घात, औदारिकमिश्र-काययोगी, सयोगिकेवली भगवान् सामान्यलोक आदि तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। .०५ वैक्रियकाययोगी का अवस्थान ___ वेउब्वियकायजोगीसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जविभागे। -षट्० खण्ड० १ । ३ । सू ३७ । पु ४ । पृष्ठ• १०८ टीका-एदस्सत्थो-सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणवेदण-कसाय-वेउब्वियसमुग्धादगदा मिच्छादिट्ठी तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) संखेज्जदिमागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे, पहाणीकयजोइसियरासित्तादो। मारणंतियसमुग्धादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, पर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुण। एत्थ ओवट्टिय दृढव्वं । सासणदिपवणा ओघपरूवणाए तुल्ला, णवरि सव्वत्थ उववादो णत्थि। वैक्रियमिश्र-काययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अस्तु स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना समुद्घात, कषायसमुदघात और वैक्रियिक समुद्घातगत वैक्रियिक काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक अदि तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। क्योंकि यहां वैक्रियिक-काययोग के प्रकरण में ज्योतिष्क देव राशि की प्रधानता है। मारणान्तिक समुदघातगत वैक्रियिक-काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्य लोक आदि तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में और नरलोक और तिर्यग्लोक-इन दोनों लोकों से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहाँ अपवर्तना स्वयं जान लेना चाहिए। सासादन सम्यग्दृष्टि आदि शेष तीन गुणस्थानवर्ती वैक्रिय-काययोगी जीवों के स्वस्थानादि पदों की क्षेत्र-प्ररूपणा ओघ-क्षेत्र-प्ररूपणा के तुल्य है। विशेषता केवल यह है कि इन सभी गुणस्थानों में उपपाद पद नहीं होता है । .०६ वैक्रियमिश्र-काययोगी का अवस्थान वेउव्वियमिस्सकायजोगीसुमिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्माविट्ठी केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। -षट्० 'खण्ड ० १ । ३ । सू ३८ । पु ४ । पृष्ठ० १०९ टीका-एदस्सत्थो-वेउन्वियकायजोगी मिच्छादिट्ठी सत्थाण-वेदणकसायसमुग्धादगदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरिय-लोगस्स संखेज्जदिमागे अडाइज्जादो असंखेज्जगुणे। सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्माइट्ठी सत्थाण-वेदणकसायसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे। वैक्रियमिश्र-काययोगियों में मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यगदृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अस्तु स्वस्थान, वेदना समुदघात और कषाय समुद्घातगत वैक्रियमिश्र-काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोकादि तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाई द्वीप से असंख्यानगुणे क्षेत्र में रहते हैं। स्वस्थान, वेदना समुद्घात और कषायसमुद्घातगत सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि जीव सामान्य लोकादि चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) .०७ आहारककाययोगी तथा आहारकमिश्र-काययोगी का अवस्थान आहारकायजोगीसु आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। -षट् खण्ड० १ । ३ । सू ३९ । पु ४ । पृष्ठ० १०९ टीका-एवस्स अत्थो-सत्थाण-विहारवदिसत्थाणपरिणद-पमत्तसंजदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स सखेज्जदिभागे। मारणतिय. समुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणम-संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे। सेसपदाणि पत्थि। आहारमिस्सकायजोगिणो पमत्तसंजदा सत्थाणगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे। आहारक-काययोगियों में और आहारकमिश्र-काययोगियों में प्रमत्त-संयत गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । अस्तु स्वस्थान-स्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान इन दोनों पदों से परिणत आहारक काययोगी प्रमत्त-संयत सामान्यलोकादि चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और मानुष-क्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं। मारणान्तिक समुद्घातगत आहारक काययोगी सामान्यलोकादि चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । आहारक-काययोगी प्रमत्त-संयत के उक्त तीन पदों के सिवाय शेष सात पद नहीं होते हैं। स्वस्थानगत आहारकमिश्र-काययोगी प्रमत्त-संयत सामान्यलोकादि चारों लोकों के असंख्यातवें भाग में और मानुष-क्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं । •०८ कार्मणकाययोगी का अवस्थान कम्मइयकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं । -षट्० खण्ड ० १ । ३ । सू ४० । पु ४ । पृष्ठ० ११० टोका-सत्थाण-वेदण-कसाय-उववादगदा कम्मइयकायजोगिमिच्छादिद्विणो जेण सव्वत्थ सव्वद्ध होति, तेण सव्वलोगे वुत्ता। सासणसम्मादिट्ठी असंजवसम्माइट्ठी ओघं । -षट् खण्ड० १ । ३ । सू ४१ । पु ४ । पृष्ठ० ११० टीका-एदे दो वि रासोओ जेण चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणे खेत्ते अच्छंति, तेण सुत्ते ओधमिदि वुत्तं । सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु सव्वलोगे वा। -षट्० खण्ड ० १ । ३ । सू ४२ । पु ४ । पृष्ठ० १११ टोका-सुगममेदं सुत्तं। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) कार्मणका योगियों में मिध्यादृष्टि जीव ओघ मिथ्यादृष्टि के समान सर्वलोक में रहते हैं । अस्तु स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और उपपाद - इन पदों से प्राप्त कर्मणका योगी मिथ्यादृष्टिजीव चूंकि सर्वत्र सर्वकाल में पाये जाते हैं अतः वे सर्वलोक में रहते हैं । का काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव ओघ के समान लोक के असंख्यायवें भाग में रहते हैं । अस्तु इन दोनों गुणस्थानों को प्राप्त कामंणकाययोगी राशियां चूंकि सामान्य लोकादि चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहती है अतः सूत्र में 'ओघ' ऐसा पद कहा गया है । का काययोगी-सयोगिकेवली भगवान लोक के असंख्यातवें भागों में और सर्वलोक में रहते हैं । • ३६ सयोगी जीवों की क्षेत्र - स्पर्शना ०१ पंचमनोयोगी तथा पंचवचनयोगी की क्षेत्र - स्पर्शना जोगाणुवादेण पंचमणजोगि पंचवचिजोगीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेसं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । - षट् ० ० खण्ड ० १ । ४ । सू ७४ । पु ४ । पृष्ठ० २५५ टीका - एदं सुत्तं वट्टमाणकालमस्सिदृण द्विदभिदि एदस्स परूवणं कोरमाणे जधा खेत्ताणिओगद्दारे पंचमणवचिजोगिमिच्छादिट्ठीणं परूवणा कदा, तथा एत्थ वि मंदबुद्धिसिस्स संभालणट्ठ परूवणा कादव्वा । अट्ठ चोहसभागा देणा, सव्वलोगो वा । - षट्० खण्ड ० १ । ४ । सू ७५ । पु ४ । पृष्ठ० २५५ टीका-पंचमण-पंचवचिजोगि मिच्छादिट्ठीह सत्याणसत्थाणपरिणदेहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, माणुस खेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । एत्थ सत्थाणखेत्ताणयणविधाणं जाणिय कादव्वं । एसो 'वा' सद्दसूचिदत्थो । विहार- बेदण- कसाय वेउव्वियपरिणदेहि अट्ठ चोहसभागा देसूणा पोसिदा । घणलोगमट्ठभागूणते दालीसरूवेहि छिण्णेगभागो, अधोलोगं साद्धचउव्वी सरूवेहि छिण्णेगभागो, उड्डलोगमट्टभागूणसाद्धद्वारस रूवेहि छिण्णेग Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) भागो, पर- तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणो पोसिदो त्ति जं उत्तं होदि । मारणंतियपदेण सव्वलोगो पोसिदो । सासणसम्मादिट्टिप्पहूडि जाव संजदासंजदा ओघं । -षट्० खण्ड ० १ । ४ । सू ७६ । षु ४ । पृष्ठ० २५६ टीका - वट्टमाणकालमस्सिदृण जधा खेत्ताणिओगद्दारस्स ओघम्हि एसि चदुहं गुणद्वाणाणं खेत्तपरूवणा कदा, तधा एत्थ वि सिस्ससंभालणट्ट परूवणा कादव्वा ; णत्थि कोइ विसेसो । अदीदकालमस्सिदूण जधा पोसणाणि ओगद्दारस्स ओघ म्हि तीदाणा गदकालेसु एदेहि चदुगुणट्ठाणजीवेहि छ त्तखेतपरूवणा कदा, तधा एत्थ वि कादव्वा, विसेसाभावा । णवरि सासणसम्मादिट्ठि - असंजदसम्मादिट्ठीसु उववादो णत्थि, उववादेण पंचमण-वचिजोगाणं सहअणवद्वाण लक्खणविरोहा । योगमार्गणा के अनुवाद से पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है । अस्तु यह सूत्र वर्तमानकाल का आश्रयकरके स्थित है, अतः इसकी प्ररूपणा करने पर जैसी क्षेत्रानुयोगद्वार में पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवों की प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार यहाँ पर भी मंदबुद्धि शिष्यों को संभालने के लिए स्पर्शनप्ररूपणा करनी चाहिए । पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने अतीत और अनागतकाल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्वलोक स्पर्श किया है । अस्तु स्वस्थान- स्वस्थान- पदपरिणत पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने सामान्य लोकादि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और मनुष्य क्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहाँ पर स्वस्थान- स्वस्थान क्षेत्र के निकालने का विधान जान करके करना चाहिए । वह 'वा' शब्द से सूचित अर्थ है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत उक्त जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं, जो कि घनाकार लोक को आठवें भाग से कम तेतालीस (४२) रूपों से विभक्त करने पर एक भाग, अथवा अधोलोक से साढ़े चौबीस (२४३ ) रूपों से विभक्त करने पर एक भाग, अथवा ऊर्ध्वलोक को आठवें भाग से कम साढे अठारह १८ ) रूपों से विभक्त करने पर एक भाग प्रमाण होता है । अर्थात् उक्त तीनों ही पद्धतियों से क्षेत्र निकालने पर वही देशोन आठ राजु प्रमाण आ जाता है । उदाहरण - ( १ ) घनलोक – ३४३ : 323 (२) अधोलोक - १९६ ÷ ू (३) ऊर्ध्वलोक - १४७ - १८७ ८ राजु पराजु = ८ राजु Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४९ ) इस प्रकार सामान्य लोकादि तीनों लोकों का संख्यातवां भाग और नरलोक तथा तिर्यम्लोक से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकपदपरिणत जीवों ने सर्वलोक स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों का स्पर्शन-क्षेत्र ओघ के समान है। अस्तु वर्तमानकाल का आश्रय करके जैसी क्षेत्रानुयोगद्वार के ओघ में इन चारों गुणस्थानों की प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार से यहाँ पर भी शिष्यों के संभालने के लिए स्पर्शप्ररूपणा करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विशेषता नहीं है। अतीतकाल का आश्रय करके जैसी स्पर्शनानुयोगद्वार के ओघ में अतीत और अनागतकालों की अपेक्षा इन चार गुणस्थानवी जीवों से स्पशित क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार से यहाँ पर भी करना चाहिए। क्योंकि इसमें कोई विशेषता नहीं है । विशेष बात यह है कि सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियों में उपपाद पद नहीं होता है, क्योंकि उपपाद के साथ पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगों का सहावस्थान-लक्षण विरोध है। अर्थात् उपपाद में उक्त योग संभव नहीं है। पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलोहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो। -षट् खण्ड० १ । ४ । सू ७७ । पु ४ पृष्ठ० २५७ टोका -एदेसिमट्टण्हें गुणट्ठाणाणं जधा पोसणाणिओगद्दारस्स ओघम्हि तिणि काले अस्सिदूण परूवणा कदा, तधर एत्थ वि कादवा। जदि एवं, तो सुत्ते ओघमिदि किण्ण परविदं ? ण, तधा परूवणाए कामजोगाविणाभाविसजोगिचउन्विहसमुग्धादखेत्तपडिसेहफलत्तादो। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवलीगुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवौ उक्त जीवों ने लोक का असंख्यायवां भाग स्पर्श किया है। अस्तु आठों गुणस्थानों को स्पर्शनानुयोगद्वार के ओघ में तीनों कालों को आश्रय करके जैसी स्पर्शनप्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार से यहाँ भी करना चाहिए । क्योंकि उस प्रकार की प्ररूपणा काययोग के अविनाभावी सयोगिकेवली के चारों प्रकार के समुद्घात क्षेत्र के प्रतिषेध करने के लिए है। नोट-केवल काययोग के निमित्त से ही केवली के समुद्घात होता है जिसका स्पर्शन-क्षेत्र लोक का असंख्यातवां भाग, असंख्यातबहुभाग और सर्वलोक है । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) .०२ काययोगी को क्षेत्र स्पर्शना कायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं । -षट् खण्ड• १ । ४ । सू ७८ । पु ४ । पृष्ठ• २५८ टोका-सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्विय-मारणंतियउववादपरिणदकायजोगिमिच्छादिट्ठीणं तिसु वि कालेसु सव्वलोगतुवलंभादो, विहारवदिसत्याणवेउब्वियपदेहि वट्टमाणकाले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागत्तेण, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तेण, माणुसखेत्तादो असंखेज्जदिगुणत्तेण ; अदीदकाले अट्ठ-चोद्दसभागत्तेण च तुल्लतुवलंभादो, सुत्तेण ओघमिदि उत्तं । सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ओघ । -षट्० खण्ड० १ । ४ । सू ७९ । पु ४ । पृष्ठ• २५८ टीका-एदेसिमेक्कारसण्हं गुणट्ठाणाणं तिविहं कालस्सदूण सत्यागादिपदाणं परूवणा कौरमाणे पोसणाणिओगद्दारोघम्हि जधा तिविहकालमस्सिदूण एक्कारसण्हं गुणढाणाणं सत्थाणादिपरूवणा कदा, तधा कादवा ; गस्थि एत्थ कोवि विसेसो। सजोगिकेवली ओघं । ----षट् • खण्ड० १ । ४ सू ८० । पु ४ । पृष्ठ० २५८ । ९ टोका-एदस्स सुत्तस्स पुधारंभो किफलो? ण, सजोगिकेलिचत्तारिसमुग्धादा कायजोगाविणाभाविणो त्ति मंदमेहाविजमावबोहणकलत्तादो। एगजोगं कादण ओघमिदि उत्त वि ओघतण्णहाणुववत्तीदो कायजोगी वि चदुण्डं समुग्यादाणमत्थित्तं परिच्छिज्जदे चे, ण एस दोसो, ओघमिदि उत्ते इमाणि पदाणि अस्थि, इमाणि च णत्थि त्ति (ण) णव्वदे। जाणि संभवंति पदाणि तेसि परूवणाओ ओधपरूवणाए तुल्ला त्ति एत्तियमेत्तं चेव णव्वदे। तेण पुध सुत्तारंभो कायजोगिम्हि चउन्विहसमुग्धादाणमत्थित्तपदुप्पायणफलो त्ति। काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का स्पर्शन-क्षेत्र ओघ के समान सर्वलोक है। अस्तु स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद-पदपरिणत काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों का स्पर्शन-क्षेत्र तीनों ही कालों में सर्वलोक पाया जाता है। विहारवत्स्वस्थान ओर वैक्रियिक-पदपरिणत उक्त जीवों ने वर्तमानकाल में सामान्य लोकादि तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग से, तिर्यगलोक के संख्यातवें भाग से Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ), और मनुष्य क्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्र की अपेक्षा तथा अतीतकाल में आठ बटे चौदह () भाग प्रमाण से तुल्यता पाई जाती है, इसलिए सुत्र में 'ओघ' ऐसा पद कहा है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती काययोगी जीवों का स्पर्शन-क्षेत्र ओघ के समान है। अस्तु इन ग्यारह गुणस्थानों की तीनों कालों को आश्रय लेकर ग्यारह गुणस्थानों की स्वस्थानादि पर-सबंधी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार से यहाँ पर भी करना चाहिए, क्योंकि यहां पर कोई विशेषता नहीं है। काययोगी सयोगिकेवली का स्पर्शन-क्षेत्र ओघ के समान लोक का असंख्यातवां भाग, असंख्यातबहुभाय और सर्वलोक है। सयोगीकेवली में दण्ड, कपाटादि चारों समुद्घात काययोग के अविभाभावी होते हैं, इस बात का मंदमेधावीजनों को ज्ञान कराने के लिए इस सूत्र का पृथक् निर्माण किया गया है। अस्तु पृथक सूत्र का प्रारम्भ काययोगी सयोगिकेवली में चारों प्रकार के समुद्धातों का अस्तित्त्व प्रतिपादन करने रूप फल के लिए है । .०३ औदारिक-काययोगी को क्षेत्र स्पर्शना ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं। .. -षट् खण्ड ० १ । ४ । सू ८१ । पु ४ । पृष्ठ० २५२ टोका-दव्वट्ठियपरूवणाए ओघत्तं जुज्जदे। पज्जवट्ठियपरुवणाए पुण ओघत्तं णत्थि, ओरालियजोगे णिरुद्ध विहारवेउब्वियपदाणमट्ठ-चोद्दसभागताणुवलंभादो। तदो एत्थ भेदारूवणा कोरचे-सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसायमारणंतियपरिणदेहि तिसु वि कालेसु सन्तलोगो पोसिदो। उघवादो पत्थि, दोण्हं सहाणवट्ठाणलक्खणविरोहा। चट्टमाणकाले बेउन्चियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। तीदाणागदेसु तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो, दोलोगेहितो असंखेज्जगुणो, वाउक्काइयवेउव्वियफोसणस्स पाधण्णविवक्खाए। विहारपरिणदेहि ओरालियकायजोगिमिच्छादिट्ठीहि वट्टमाणकाले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स सखेज्जदिभागो, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। तीदाणागदकालेसु तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइजादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिवं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । -षट्० खण्ड ० १ । ४ । सू ८२ । षु ४ । पृष्ठ० २६० टीका - एदस्स वट्टमाणकाल संबंधिसुत्तस्स खेत्ताणिओगद्दारे ओरालियकायजोगिसासणसुत्तस्से व परूवणा कादव्वा । सत्त चोहसभागा वा देसूणा । - षट्० खण्ड० १ । ४ । स ८३ । पु ४ । पृष्ठ० २६० । २६१ टीका - सत्याणसत्याण-विहारवदिसत्थाण- वेदण कसाय वे उब्बियपरिणदेहि सास सम्मादिट्ठीहि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । उववादो णत्थि । मारणंतियपरिणदेहि सत्त चोहसभागा देसूणा पोसिदा । केण ऊणा ? इसिपब्भारपुढवीए उवरिमबाहलभेण । सम्मामिच्छादिट्ठीहि केवडिय खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । षट्० खण्ड ० १ । ४ । सू ८४ । पु ४ । पृष्ठ० २६१ टीका - एदस्स सुत्तस्स परूवणा खेत्ताणिओगद्दारोरालियकाय जोग सम्मामिच्छादिट्टिसुत्त परूवणाए तुल्ला । सत्याणसत्याण विहार व दिसत्थाण- वेदणकसाय - वेउब्वियपरिणदेहि ओरालियसम्मामिच्छादिट्ठीहि तीदाणागदका लेसु तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । मारणंतिय उववादा णत्थि । असंजदसम्मादिट्ठीहि संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं लोगस्स असंखेज्जदिभागो । षट्ο ० खण्ड ० १ । ४ । सू ६५ । ४ । पृष्ठ० २६१ । २ टीका - सत्यासत्याण-विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय वे उब्विय-मारणंतियपरिणदेहि असंजदसम्मादिट्ठीहि संजदासंजदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जवि - भागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो वट्टमाणद्वाए पोसिदो । छ चोसभागा वा देसूणा । ----षट् • खण्ड ० १ । ४ । सू ५६ । ४ । पृष्ठ० २६२ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) टीका - सत्याण सत्थाण- 1 - विहारवदिसत्थाणवेदण- - कसाय- य-वेउव्विय-परिणदेहि असंजदसम्मादिट्ठीहि संजदासंजदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो । एसो वा सद्दसूचिदत्थो । मारणंतिय ( उववाद ) परिणदेहि छ चोहसभागा देसूणा पोसिदा, अच्चदकप्पादो उवरि असंजदसम्मादिट्ठिसंजदासंजदाणमुववादाभावादो । पत्तसंजद पहुडि जाव सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । - षट्० ० खण्ड ० १ । ४ । सू ८७ । ४ । पृष्ठ० २६२ । ३ टीका - एदेसिमट्टहं गुणट्टाणाणं तिण्णि वि काले अस्सिदृण परूवणं कोरमाणे खेत्तपोसणाणं मूलोघपमत्तादिपरूवणाए समाणा परूवणा कादव्वा । वरि सजोगिकेवलिम्हि कवाड - पदर - लोग पूरणाणि णत्थि । तं कधं णव्वदे ? जोगकेवलीहि लोगस्स असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा फोसिदो त्ति सुत्तेण अणिद्दित्तादो । औदारिक काययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टियों का स्पर्शन क्षेत्र ओघ के समान सर्वलोक में है । अस्तु द्रव्यार्थिकन की प्ररूपणा में तो ओघपना घटित होता है, किन्तु पर्यायार्थिकनय की प्ररूपणा में ओघपना घटित नहीं होता है, क्योंकि औदारिककाययोग के विरुद्ध करने पर विहार वत्स्वस्थान और वैक्रियिक पदों के स्पर्शन का क्षेत्र आठ बटे चौदह (१४) भाग नहीं पाया जाता है । इससे यहाँ पर भेद प्ररूपणा की जाती है । स्वस्थान स्वस्थान, वेदना, कषाय और मारणान्तिकपदपरिणत औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने तीनों ही कालों में सर्वलोक स्पर्श किया है । यहाँ पर उपपाद नहीं है । क्योंकि औदारिककाययोग और उपपादपद- इन दोनों का सहानवस्थान लक्षण विरोध है । वर्तमानकाल में क्रियिकपदपरिणत उक्त जीवों ने सामान्यलोक आदि चार लोकों का असंख्यातवां भाग और मनुष्यलोक से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । अतीत और अनागत इन दोनों कालों में सामान्यलोक आदि तीन लोकों का संख्यातवां भाग और नरलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकों से असंख्यातगुणा क्षेत्रस्पर्श किया है, क्योंकि यहाँ पर वायुकायिक जीवों के वैयिक पद संबंधी स्पर्शन क्षेत्र की प्रधानता से विवक्षा की गई है । विहार वत्स्वस्थान पद से परिणत औदारिक काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने वर्तमानकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । उन्हीं जीवों ने अतीतकाल और अनागतकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) औदारिक काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है। अस्तु इस वर्तमानकाल संबंधी सूत्र की क्षेत्रानुयोग द्वार में कहे गये औदारिक काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टियों की क्षेत्र-प्ररूपणा करनेवाले सूत्र के समान स्पर्शनप्ररूपणा करनी चाहिए। उक्त जीवों ने अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम सात बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं। स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत सासादन सम्यग्दृष्टियों ने सामान्य लोकादि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यगलोक का संख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इन जीवों के उपपाद पद नहीं होता है। मारणान्तिक-पद-परिणत उक्त जीवों ने कुछ कम सात बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं। ईषत्प्रागभार पृथ्वी के उपरिमभाग के बाहल्य-प्रमाण से कुछ कम क्षेत्र समझना चाहिए। जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श औदारिककाययोगी : किया है। अस्तु इस क्षेत्र की प्ररूपणा क्षेत्रानुयोगद्वार में वणित औदारिककाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के क्षेत्र का वर्णन करनेवाले सूत्र की प्ररुपणा के तुल्य है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदपरिणत औदारिक काययोगी सम्यमिथ्यादृष्टि जीवों ने अतीत और अनागत काल में सामान्य लोकादि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। औदारिक काययोगी सम्यगमिथ्यादृष्टि के मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद-ये दो पद नहीं होते हैं । औदारिक काययोगी, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है। अस्तु स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घात इन पदों से परिणत औदारिक काययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत ने सामान्य लोकादि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यह 'वा' शब्द से सूचित अर्थ है। मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पद परिणत उक्त जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह (8) भाग Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) स्पर्श किये हैं, क्योंकि अच्युत कल्प से ऊपर असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवों का उपपाद नहीं होता है। लाक्षणिक साहित्य में कोश का अपना महत्वपूर्ण स्थान है। कार्मण काययोगी जीव मरण को प्राप्त नहीं होता है। यद्यपि असंयत सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत की उपपाद अच्युत-कल्प तक का कहा है। द्रव्य लिंगी-मिथ्यादृष्टि का उपपाद नौ प्रवेयक तक है। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती औदारिक काययोगी जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है। ___ अस्तु इन आठों गुणस्थानों का तीनों ही कालों का आश्रय करके स्पर्शप्ररूपणा करने पर क्षेत्र और स्पर्शन अनुयोगद्वार के मूलोघ प्रमत्तादि गुणस्थानों की प्ररूपणा के समान प्ररूपणा करनी चाहिए। विशेष बात यह है कि सयोगी-केवलौ-गुणस्थान में कपाट, प्रतर और लोक पूरण समुदघात नहीं होते हैं। (क्योंकि औदारिक काययोग की अवस्था में उनके केवल एक दंड समुद्घात ही होता है । ) चूकि सयोगि-केवलियों ने लोक का असंख्यात वहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है। इस सूत्र से निर्दिष्ट नहीं की गई है। अतः हम जानते हैं कि औदारिक काययोगी सयोगिजिन के कपाट आदि तीन समुद्घात नहीं होते हैं । नोट-औदारिक काययोग की अवस्था में केवल एक दंड समुद्धात ही होता है, कपाट समुद्घात आदि नहीं। इसका कारण यह है कि कपाट समुद्घात में औदारिकमिश्र काययोग और प्रतर और लोक पूरण समुद्घात में कार्मण काययोग होता है--ऐसा नियम है। अतः यहाँ, औदारिक काययोग की प्ररूपणा करते समय सयोगी केवली में कपाट, प्रतर और लोक पूरण समुद्घात नहीं होने हैं । .०४ औदारिकमिश्र काययोगी को क्षेत्र-स्पर्शना ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छाविट्ठी ओघं । -षट्० खण्ड० १।४। सू ८८ । पु४ । पृष्ठ० २६३ टोका–सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय उववादपरिणदेहि ओरालियमिस्सकायजोगिमिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेसु जेण सव्वलोगो फोसिदो, तेण ओघत्तमेदेसि ण विरुज्झदे । विहारवदिसत्थाण-वेउन्वियपदाणमत्थाभावा णोत्तं जुज्जदे ? होदु णाम एदेसि दोण्हं पि पदाणमभावो, तधावि पदसंखाविवक्खाभावा विज्जमाणपदाणं फोसणस्स ओघपदफोसणेण तुल्लत्तमथि ति ओघतं ण विरुज्झदे। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) सासण सम्माइट्ठि असंजबसम्माइट्ठि-सजोगिकेवली हि केवडियं खेत्तं फोसिद, लोगस्स असंखेज्जदिभागो । - षट्० खण्ड० १ । ४ । सू ८९ । पु ४ । पृष्ठ० २६४ / ५ टीका - एदेसि तिन्हं गुणट्ठाणाणं वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगो । सत्याणसत्थाण- वेदण कसाय-उववादपरिणदओरालियमिस्स सासनसम्मा दिट्ठीहि अदीदकाले तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो । कथं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तं ? देव णेरइयमणुस्सतिरिक्सा सणसम्मादिट्ठीहि तिरिक्ख मणुस्से सुप्पज्जिय सरीरं घेत्तूण ओरालियमिस्स कायजोगेण सह सासणगुणमुव्वहं तेहि अदीदकाले संखेज्जंगुल बाहल्ल रज्जुपद रं मज्लिम समुद्दवज्जं सव्वं जेण फुसिज्जदि तेण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो त्ति वयणं जुज्जदे । एत्थ विहार - वेउब्विय- मारणंतिय पदाणि णत्थि एदेसिमोरालियमस्कायजोगेण सहअवट्ठाणविरोहा । उववादो पुण अस्थि, सासणगुणण सह अक्कमेण उवात्तभवसरीरपढमसमए उववादोवलंभा । मिच्छादिट्ठीणं पुण मारणंतिय उववाद- पदाणि लब्भंति, अणंतो ओरालियमिस्सेइ दिय अपज्जत्तरासी सट्टाणे परट्ठाणे च वक्कमणोवक्कमणं करेमाणो लब्भदिति । सत्याणसत्याणवेदण कसा उववाद परिणदेहि असंजदसम्मादिट्ठीहि ओरालियमिस्सकायजोगीहि तीदे काले तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कधं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागत्तं ? ण, पुव्वं तिरिक्खमणुस्सेसु आउअं बंधिय पच्छा सम्मत्तं घत्तूण दंसणमोहणीयं afar बद्धाउवसेr भोगभूमिसंठाण असं खेज्ज दीवेसु उप्पण्णंहि भवसरी रगहणपढमसमए वट्टमाणेहि ओरालियमिस्सजोगअसं जदसम्मादिट्ठीहि अदीदकाले पोसिदतिरियलोगस्स संखेज्जदिभागवलंभा । कवाडगदेहि सजोगिकेवली हि ओरालियमस्सकायजोगे वट्टमाणेहि तिष्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; अदीदेण तिरियलोगादो संखेज्जगुणो पोसिदो । एत्थ कवाडखेत्तादो जगपदरुप्पायणविधाणं जाणिय वत्तव्वं । औदारिक मिश्र काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का स्पर्शन क्षेत्र ओघ के समान सर्वलोक है । स्वस्थान- स्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद परिणत arrafमिश्र काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने तीनों ही कालों में चूंकि सर्वलोक स्पर्श किया है, अतः ओघपना इन पदोंवाले जीवों से विरोध को प्राप्त नहीं होता है । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) अस्तु औदारिकमिश्र काययोगी जीवों के विहारवत्स्वस्थान और वैक्रिय समुद्घात इन दो पदों का अभाव भले ही रहा जावे, तथापि पदों की संख्या की विवक्षा न करने से उनमें विद्यमान पदों के स्पर्शन की ओघ पद के स्पर्शन के साथ तुल्यता है ही अतः ओघपना विरोध को प्राप्त नहीं होता है । ___ औदारिकमिश्रकाययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है। __ अस्तु इन तीनों ही गुणस्थानों के स्वर्शन की वर्तमानकालिक प्ररूपणाक्षेत्र के समान है। स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना, कषाय, समुद्घात और उपपादपदपरिणत औदारिकमिश्र काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों ने अतीतकाल में सामान्य लोक आदि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग् लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यागुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। चूंकि देव, नारकी, मनुष्य और तिर्यंच सासादन-सम्यगदृष्टि जीवों में (यथासंभव) तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर शरीर को ग्रहण करके औदारिकमिश्र काययोग के साथ सासादन गुणस्थान को धारण करते हुए अतीतकाल में बीच के समुद्र को छोड़ कर संख्यात अंगुल बाहल्यवाले संपूर्ण राजुप्रतररूप क्षेत्र का स्पर्श किया है अत: तिर्यग् लोक का संख्यातवां भाग यह वचन युक्तियुक्त है । यहाँ पर विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिक और मारणान्तिक पद नहीं होते हैं, क्योंकि इन पदों का औदारिकमिश्रकाययोग के साथ अवस्थान का विरोध है, किन्तु उपपाद पद होता है क्योंकि सासादन गुणस्थान के साथ अक्रम से ( युगपत् ) उपात्त भवशरीर के प्रथम समय में उपपाद पाया जाता है। मिथ्यादृष्टि जीवों के भी मारणान्तिक और उपपाद पद पाये जाते हैं। क्योंकि अनंत-संख्यक औदारिकमिश्र काययोगी एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि, स्वस्थान और परस्थान में अपक्रमण और उपक्रमण करती हुई, अर्थात् जाती-आती पाई जाती है। स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना, कषायसमुद्धात और उपपादपदपरिणत औदारिकमिश्र काययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों में अतीत काल में सामान्य लोकादि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। औदारिकमिश्रकाययोग असंयत सम्यग्दृष्टियों के उपपाद क्षेत्र से तिर्यग लोक को संख्यातवां भाग कैसे कहा है - यह एक प्रश्न है। __इसका समाधान यह है कि नहीं, क्योंकि पूर्व में तिथंच और मनुष्यों में आयु को बांधकर पीछे सम्यक्त्व को ग्रहण कर, और दर्शन मोहनीय का क्षय करके बांधी हुई आयु के वश से भोगभूमि के रचनावाले असंख्यात द्वीपों में उत्पन्न हुए तथा भवशरीर के ग्रहण करने के प्रथम समय में वर्तमान, ऐसे औदारिकमिश्रकाययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) के द्वारा अतीतकाल में स्पर्श किया गया क्षेत्र तिर्यगलोक का संख्यातवां भाग पाया जाता है। कपाट समुद्घात को प्राप्त, औदारिकमिश्रकाययोग में वर्तमान सोगि केवलियों ने सामान्य लोक आदि तीन लोकों का असंख्यातवां भाम, तिर्यग लोक का संख्यातवाँ भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहाँ पर कपाट समुद्घातगत क्षेत्र की अपेक्षा से स्पर्शनक्षेत्र संबंधी जगप्रतर के उत्पादन का विधान जान करके कहना चाहिए । ( इसके लिए देखो-क्षेत्र प्ररूपणा पृ० ४९ आदि षट्खंडामभ पु ४ )। .०५ वैक्रियकाययोगी की क्षेत्र-स्पर्शना ___ वेउन्वियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेतं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो। -~-~~षट् ० खण्ड• १ । ४ । सू ९० । पु ४ । पृष्ठ० २६६ टोका-एदं सुत्तं जेण वट्टमाणकाले पडिबद्ध तेणेदस्स वक्खाणे कोरमाणे जधा खेताणिओगद्दारे वेउव्वियकायजोगिमिच्छाइट्टिप्पहुडि-बद्धसुत्तरस वक्खाणं कद, तधा एत्थ वि कायव्वं । अठ तेरह चोहसभागा वा देसूणा। -षट्० खण्ड ० १ । ४ । सू ९१ । पु ४ । पृष्ठ० २६६ टोका-सस्थाणसत्थाणपरिणद-वेउवियमिच्छादिट्ठीहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जविभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। विहारवदिसत्थाणवेदण-कसाय-वेउवियपरिणदेहि अट्ठ चोद्दसभागा फोसिदा। उववादो पत्थि । मारणंतियपरिणदेहि तेरह चोदसभागा फोसिदा, हेट्ठा छ, उवरि सत्त रज्जू । घणलोगमेगरूव्वस अट्ठतेरसभागूण-सत्तावीसरूवेहि खंडिद एग खंडं फोसंति त्ति वृत्तं होइ । सासणसम्मादिट्टी ओघं। -षट्० खण्ड ० १ । ४ । सू ९२ । पु ४ । पृष्ठ० २६७ टीका--एदस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगो। सत्थाणसत्थाण-परिणदवेउवियकायजोगिसासणसम्मादिट्ठीहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जविभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो। एस्थ तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागपरूवणं पुन्वं व वत्तव्वं । विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-वेउन्वियपरिणदेहि Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५९ ) अट्ठ चोहसभागा फोसिदा । उववादो णत्थि । मारणंतियपरिणदेहि बारह चोद्दसभागा फोसिदा । तेणोघमिदि जुज्जदे । सम्मामिच्छादिट्टी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं । - ष० खण्ड० १ । ४ । सु ९३ । पु ४ | पृष्ठ० २६७ टीका - जेणदेसि वट्टमाणपरूवणा खेतोघपरूवणाए तुल्ला, तेणोघं होदि । अदोदपरूवणा वि फोसणोघेण तुल्ला । तं जहा - सत्याणसत्याणपरिणदेहि तिह लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असं खेज्जगुणो फोसिदो । विहारव दिसत्थाय वेदण-कसाथ वे उब्विय- मारणं तियपरिणदेहि अट्ठ चोसभामा देसूणा फोसिदा । असंजदसम्मादिट्ठिस्स उववादो णत्थि । सम्मामिच्छादिट्टिस्स मारणं तिय-उववादो गत्थि । तेणेत्थ वि ओघत्तमेदेसि जुज्जदे । वैकि काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श क्रिया है । चूंकि यह सूत्र वर्तमान काल में संबद्ध है । अतः इसकी व्याख्या करने पर जिस प्रकार से क्षेत्रानुयोगद्वार में वैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टि आदि जीवों के प्रतिबद्ध सूत्र का व्याख्यान किया है, उसी प्रकार यहाँ पर भी करना चाहिए । वैकि काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने तीनों कालों की अपेक्षा कुछ कम आठ बढे चौदह और कुछ कम तेरह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं । स्वस्थान- स्वस्थानपदपरिणत वैक्रियिक काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने सामान्य लोकादि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग तिर्यग् लोक का संख्यातवां भाग और मनुष्य लोक से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और afafe समुदघातपदपरिणत उक्त जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं । यहाँ पर उपपाद पद नहीं होता है । ( क्योंकि मिश्रयोग और कार्मण काययोग के सिवाय अन्य योगों के साथ उपपाद पद का सहानवस्थान लक्षण विरोध है ) मारणान्तिक समुद्घातपदपरिणत उक्त जीवों ने ( कुछ कम ) तेरह बटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं, जो कि मेरुतल से नीचे छह राजु और सात राजु जानना चाहिए। घनाकार लोक को एक रूप के आठ बटे तेरह ( 3 ) भाग से कम ससाइस ( २६१ ) रूपों से खंडित (विभक्त ) करने पर एक खंड प्रमाण क्षेत्र का स्पर्श करते हैं, ऐसा अर्थ कहा गया समझना चाहिए । वैrियिक काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों का स्पर्शन-क्षेत्र भोघ स्पर्शन के समान है । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) इस सूत्र की वर्तमानस्पर्शनप्ररूपणा के समान है। स्वस्थान-स्वस्थान पदपरिणत वैक्रियिक काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों ने सामान्य लोकादि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाई द्वीप से असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहाँ पर तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागप्ररूपणा पूर्व के समान ही करना चाहिए। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घात- इन पदों से परिणत वैक्रियिक काययोगी जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं। इनके उपपाद नहीं होता है। मारणान्तिक समुद्घात पद से परिणत उक्त जीवों ने बारह बटे चौदह (११) भाग स्पर्श किये हैं। अतः सूत्र में दिया गया 'ओघ' पद युक्ति संगत है । वैक्रिय काययोगी सम्यमिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का स्पर्शन ओघ के समान है। चंकि इन दोनों गुणस्थानवी जीवों की वर्तमानकालिक स्पर्शन-प्ररूपणा क्षेत्र संबंधी ओघ प्ररूपणा के तुल्य है, अतः उनकी स्पर्श न-प्ररूपणा ओघ के तुल्य होती है । अतीतकालिक स्पर्शन-प्ररूपणा भी ओघ-प्ररूपणा के समान है। वह इस प्रकार से हैंस्वस्थान-स्वस्थान पद-परिणत वैक्रियिक काययोगी सम्यगमिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यगमिथ्यादृष्टि जीवों ने सामान्य लोकादि तीन लोकों का असंख्यात वां भाग, तिर्यगलोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक पद परिणत उक्त जीवों ने कुछ कम आठ बटे चौदह (२१) भाग स्पर्श किये हैं। वैक्रियिक काययोगी असंयत सम्यगदृष्टि जीवों के उपपाद पद नहीं होता है। वैक्रियिक काययोगी सम्यगमिथ्यदृष्टि जीवों के मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद-ये दो पद नहीं होते हैं। अतः यहाँ पर भी ओघपना बन जाता है। •०६ वैक्रियमिश्र काययोगी की क्षेत्र-स्पर्शना वेउवियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिदि-सासणसम्मादिदि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो। -षट्० 'खण्ड ० १ । ४ । सू ९४ । पु ४ । पृष्ठ० २६८ टीका-एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगो। सत्थाणसत्थाण-वेदणकसाय-उववादपरिणदवेउव्वियमिस्सकायजोगिमिच्छादिट्ठीहि अदीदकाले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। विहारवदिसत्थाण-वेउव्वियमारणंतियपवाणि णत्थि। सासणसम्मादिहिस्स वि एवं चेव वत्तव्वं, वाणवेंतरजोदिसियदेवाणमसंखेज्जावासेसु तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमोडहिय हिदे सासणाणमुप्पत्तिदंसणादो असंजद Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) सम्माइट्रीहि सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-उववादपरिणदेहि चउण्हं लोगाणम संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो, वाणवेतर-जोदिसियभवणवासिएसु एदेसिमुववादाभावा; सम्मादिदिउववादपाओग्गसोधम्मादिउवरिमविमाणाणं तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागे चेव अवट्ठाणादो। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है। ___ अस्तु इस सूत्र की वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्र के समान है। स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय और उपपादपदपरिणत वैक्रियिक मिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने अतीतकाल में सामान्यलोकादि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों के विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिक और मारणान्तिक समुद्घात—ये पद नहीं होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थान की स्पर्शनप्ररूपणा इसी प्रकार से कहना चाहिए। तियंगलोक के संख्यातवें भाग को व्याप्त करके स्थित वाणव्यंतर और ज्योतिष्क देवों के असंख्यात आवासों में सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पति देखी जाती है। स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना, कषाय और उपपादपरिणत वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों ने सामान्य लोकादि चार लोकों का असंख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है क्योंकि वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और भवनवासी देवों में इनका, अर्थात् वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों का उपपाद नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि जीवों के उपपाद के प्रायोग्य सौधर्मादि उपरिम विमानों का, तिर्यग्लोक के असंख्यातवें भाग में ही अवस्थान देखा जाता है ।। •०७ आहारक काययोगी तथा आहारकमिश्र काययोगी को क्षेत्र-स्पर्शना आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जविभागो। --षट० खण्ड० १ । ४ । सू ९५ । पु ४ । पृष्ठ० २६९ टीका-एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरुवणा खेत्तभंगा। मत्थाणसत्याणविहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायपरिणदेहि आहारकायजोगिपमत्तसंजदेहि तोदे काले चदुण्हं लोगाणमसंखज्जविभागो माणुसखेत्तस्सं संखेज्जदिभागो फोसिदो। उववाद-वेउव्वियं गत्थि । मारणंतियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो। आहारमिस्सकायजोगिपमत्तसंजदेहि सत्थाणवेदण-कसायपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो फोसियो। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में प्रमत्तसंयतों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है। इस सूत्र की वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्र प्ररूपणा के समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना व कषाय समुद्घात परिणत आहारककाययोगी प्रमत्त संयत जीवों ने अतीतकाल में सामान्यलोकादि चार लोकों का असंख्यात वां भाग और मनुष्य क्षेत्र का संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। आहारककाययोगियों में उपपाद और वैक्रियिकपद नहीं होते हैं। मारणान्तिकपदपरिणत आहारककाययोगी जीवों में सामान्यलोकादि चार लोकों का असंख्यातवां भाग और मनुष्य क्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। स्वस्थान, वेदना और कषाय समुद्घात - इन पदों से परिणत आहारकमिश्रकाययोगी प्रमत्तसंयतों ने सामान्यलोकादि चार लोकों का असंख्यातवां भाग और मनुष्य क्षेत्र का संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। .०८ कार्मण काययोगी को क्षेत्र-स्पर्शना कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं । -षट्० खण्ड ० १ । ४ । सू ९६ । पु । ४ पृष्ठ० २६९ टीका-सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-उववादपरिणदेहि मिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेसु जेण सव्वलोगो फोसिदो, तेण सुत्ते ओघमिदि वुत्तं । एत्थ विहारवदिसत्थाणवेउम्विय-मारणंतियपदाणि पत्थि। सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जविभागो। -षट्० खण्ड० १।४ । सू ९७ । पु ४ । पृष्ठ० २७० टीका-एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा। एक्कारह चोद्दसभागा देसूणा। -षट् खण्ड १ । ४ । सू ९८ । पु ४ । पृष्ठ० २७० टीका--एत्थ उववादवदिरित्तसेसपदाणि गत्थि, कम्मइयकायजोगविवक्खादो। उववादे वट्टमाणा सासण हेट्टा पंच, उवरि छ रज्जुओ फुसंति त्ति एक्कारह चोद्दसभागा फोसिदखेत्तं होदि। असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो। -षट० खण्ड० १।४। सू ९९ । पु ४ । पृष्ठ० २७० टोका-एदस्स परवणा खेत्तभंगो, वट्टमाणकालपडिबद्धत्तादो। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) छ चोभागा देणा । -षट्० खण्ड ० १ । ४ । सू १०० । पु ४ । पृष्ठ० २७० । १ टीका - एत्थ वि उववादपदमेक्कं चेव । तिरिक्खासंजदसम्माइट्ठिणो जेवरि छ रज्जुओ गंतणुप्पज्जंति, तेण फोसणखेत्तपरुवणं छ- चोद्दस भागमेत्तं होदि । हेट्ठा फोसणं पंचरज्जुपमाणं ण लब्भदे, णेरइयासंजदसम्मादिट्ठीणं तिरिक्खे सुववादाभावा । सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं लोगस्स असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा । -षट्० खण्ड ० १ । ४ । सू १०१ । पु ४ । पृष्ठ० २७१ टीका - पदरगद केवलीहि लोगस्स असंखेज्जा भागा फोसिदा, लोगपेरंतदिवादवलएसु अपविट्टजीवपदेसत्तादो। लोगपूरणे सव्वलोगो फोसिदो, वादवलएसु वि पविट्ठजीवपदेसत्तादो । कार्मणका योगी जीवों में मिथ्यादृष्टि जीवों की स्पर्शनप्ररूपणा ओघ के समान है । अस्तु स्वस्थान- स्वस्थान, वेदना, कषाय और उपपादपदपरिणत कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों ने तीनों ही कालों में चूंकि सर्वलोक स्पर्श किया है । इसलिए सूत्र में 'ओघ' ऐसा पद कहा है । यहाँ अर्थात् कार्मणकाययोगी मिध्यादृष्टियों के, विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिक और मारणान्तिक समुद्घात, इतने पद नहीं होते हैं । कार्मण काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टियों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है । चूंकि इस सूत्र की वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा ओघ के समान है | कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों ने तीनों कालों की अपेक्षा कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं । यहाँ पर उपपादपद को छोड़कर शेष पद नहीं है, क्योंकि कार्मणकाययोग की विवक्षा की गई है । उपपादपद में वर्तमान सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मेरु के मूल भाग से नीचे पांच राजू और ऊपर अच्युतकल्प तक छह राजू प्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन करते हैं, अतः ग्यारह बटे चौदह (१४) भाग प्रमाण स्पर्श किया हुआ क्षेत्र हो जाता है । कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों ने लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया हैं । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) अस्तु वर्तमानकाल से प्रतिसंबद्ध होने से इस सूत्र की स्पर्शन प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणा के समान है। कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों ने तीनों कालों की अपेक्षा से कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं । यहां पर भी केवल उपपादपद ही होता है। तिर्यंच असंयतसम्यगदृष्टि जीव चूकि मेरुतल से ऊपर छह राजु जा करके उत्पन्न होते हैं। अतः स्पर्शन क्षेत्र की प्ररूपणा छह बटे चौदह (९) भाग प्रमाण होती है। मेरुतल से नीचे पांच राजु प्रमाण स्पर्शन क्षेत्र नहीं पाया जाता है, क्योंकि नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का तिर्यंचों में उपपाद नहीं होता है। कार्मणकाययोगी सयोगि-केवलियों ने लोक का असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है। अस्तु प्रतरसमुद्घात को प्राप्त केवलियों ने लोक के असंख्यात बहुभाग स्पर्श किये हैं क्योंकि लोकपर्यन्तस्थित वातवलयों में केवली भगवान के आत्मप्रदेश प्रतरसमुद्घात में प्रवेश नहीं करते हैं। लोकपूरण समुद्घात में सर्वलोक स्पर्श किया है। क्योंकि लोक के चारों ओर व्याप्त वातवलयों में भी केवली भगवान् के आत्मप्रदेश प्रविष्ट हो जाते हैं । .३७ सयोगी जीव का क्षेत्र-स्पर्श .०१ मनोयोगी और वचनयोगी का क्षेत्र-स्पर्श जोगाणुवादेण पंचमणजोगी-पंचवचिजोगी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? -षट् खण्ड० २ । ७ । सू ९९ । पु ७ । पृष्ठ० ४११ टोका-सुगम। लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ---षट् खण्ड० २ । ७ । सू १०० । पु ७ । पृष्ठ• ४११ टोका-एसो बट्टमाणणिद्देसो। तेणेत्थ खेत्तवण्णणा कायव्वा । अट्ठचोद्दसभागा वा देसूणा। -षट् खण्ड ० २ । ७ । सू १०१। पु ७ । पृष्ठ० ४११ । २ टोका-एत्थ ताव वासद्दत्थो वुच्चदे-सत्थाणेण अप्पिदजोवेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जविभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अट्ठाइज्जादो असंखेज्ज Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) गुणो फोसिदो । एसो वासद्दत्थो । विहारवदिसत्थाणेण अट्ठचोद्द सभागा देसूणा फोसिदा । कुदो ? अट्ठरज्जुबाहल्ललोगणालीए मण-वचिजोगीणं विहारुवलंभादो । समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? टीका - सुगममेदं । - षट्० खण्ड ० २ । ७ । सू १०२ । पु ७ । पृष्ठ० ४१२ लोगस्स असंखेज्ददिभागो । -षट्ο ० खण्ड ० २ । ७ । सू १०३ । पु७ 1 पृष्ठ ४१२ टीका - एत्थ खेत्तवण्णणा कायव्वा, वट्टमाणप्पणादो । अड्डचो सभागा देणा सव्वलोगो वा । - षट्० खण्ड० २ । ७ । सू १०४ । पु ७ । पृष्ठ० ४१२ टीका – आहार - तेजइयपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणूसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो । एसो वासद्दत्थो । धेयण- कसायवेड व्विएहि अटुचो सभागा देणा कोसिदा, अट्ठरज्जुआयदलोगणालीए सव्वत्थ तोदे काले aur - कसाय - विउव्वणाणमुवलंभादो । मारणंतिएण सव्वलोगो । उववादो णत्थि | - षट्० खण्ड० २ । ७ । सू १०५ । पु ७ | पृष्ठ० ४१३ टीका - तत्थ मण वचिजोगाणमभावादो । योगमार्गनानुसार पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीव स्वस्थान पदों से लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं । अस्तु यह कथन वर्तमानकाल की अपेक्षा है । अतः यहाँ क्षेत्र - प्ररूपणा करनी चाहिए । अथवा उक्त जीव स्वस्थान पदों में कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं । ( १०१ ) यहाँ प्रथम वा शब्द से सूचित अर्थ रहते हैं - स्वस्थान की अपेक्षा प्रकृत जीवों द्वारा तीन लोक का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पृष्ट है । यह वा शब्द से सूचित अर्थ है । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) विहारवत्स्वस्थान की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है, क्योंकि, मनोयोगी और वचनयोगी जीवों का विहार आठ राजु बाहल्ययुक्त लोकनाली में पाया जाता है । उपर्युक्त जीवों द्वारा समुद्घात की अपेक्षा लोक का असंख्यातवां भाग स्पृष्ट है । ( १०३ ) अस्तु यहाँ क्षेत्र प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि वर्तमानकाल की प्रधानता है । अथवा उन्हीं जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग या सर्वलोक स्पृष्ट है । ( १०४ ) आहारकसमुद्घात और तैजससमुद्घात पदों को अपेक्षा चार लोकों का असंख्यातवां भाग और मनुष्य क्षेत्र का संख्यातवां भाग स्पृष्ट है । यह वा शब्द से सूचित अर्थ है । वेदना समुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदों से कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट है, क्योंकि आठ राजु आयत लोकनाली से सर्वत्र अतीतकाल की अपेक्षा वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्घात पाये जाते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक स्पृष्ट है । पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों के उपपादपद नहीं होता । (१०५) क्योंकि, उपपादपद में मनोयोग-वचनयोग का अभाव है । - ०२ काययोगी का क्षेत्र - स्पर्श • ०४ औदारिकमिश्र काययोगी का क्षेत्र-स्पर्श कायजोगि ओरालियमस्सकायजोगी सत्याण समुग्धादउववादेहि के वडियं खेत्तं फोसिदं । टीका - सुगमं । - षट्० खण्ड ० २ । ७ । सू १०६ । पु ७ । पृष्ठ ० ४१३ सव्वलोगो । - षट्० खण्ड० २ । ७ । सू १०७ । पु ७ । पृष्ठ० ४१३ | ४ टीका- एक्स्स अत्थो - सत्याण- वेयण- कसाय मारणंतिय उववादेहि वट्टमाणादीदेसु सव्वलोगो फोसिदो । कुदो ? सव्वत्थ गमणागमणावद्वाणं पडि विरोहाभावादो | बिहारबदिसत्याण - वेडब्बियपदेहि वट्टमाणं खेत्तं । अदीदेण अचोभागा देणा फोसिदा । णवरि वेडव्वियपदेण तिष्हं लोगाणं संखेज्जदि Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) भागो | तेजाहारपदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो, फोसिदो । एत्थ नासद्देण विणा कधमेसो अत्थो एत्थ वक्खाणिज्जदि ? ण एस दोसो, एस्स सुत्तस्स देसामासियत्तादो । विहारवदिसत्थाणवेउच्चिय-तेजा हारपदाणि ओरालियमिस्से णत्थि । काययोगी और औदारिकमिश्र काययोगी जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदों से सर्वलोक स्पर्श करते हैं । ब्याख्या—श्वस्थान-स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदों से वर्तमान और अतीतकालों में उक्त जीवों में सर्वलोक का स्पर्श किया है, क्योंकि उन जीवों के सर्वत्र गमनागमन और अवस्थान में कोई विरोध नहीं है । विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घात पदों से वर्तमानकाल की अपेक्षा स्पर्शन का निरूपण क्षेत्र - प्ररूपणा के समान है । अतीतकाल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भागों का स्पर्श किया है । विशेष इतना है कि वैयिकपद को अपेक्षा तीन लोकों के संख्यातवें भाग का स्पर्श किया है । तेजस समुद्घात और आहारकसमुद्घात पदों में चार लोकों के असंख्यातवें भाग ब मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भाग का स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिकसमुद्घात, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घातपद औदारिकमिश्रयोग में नहीं होते हैं । - ०३ औदारिक काययोगी का क्षत्र- स्पर्श ओरालिका जोगी सत्याण- समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिवं ? टीका - सुगमं । - षट् ० ० खण्ड० २ । ७ । स १०८ । पु ७ । पृष्ठ ० ४१४ सव्वलोगो । - षट् खण्ड ० २ । ७ । सूं १०९ । ७ । पृष्ठ० ४१४ टीका - सत्यासत्याण- वेयण कसाय मारणंतिएहि वट्टमाणातोदेसु सव्वलोगो फोसिदो विहारवदिसत्थाणेण वट्टमाणं खेत्तं । अदीदेण तिन्हं लोगाणम संखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो | वेउव्वियपदेण वट्टमाणं खेत्तं । अदीदेण तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, पर- तिरियलोगेहितो असं खेज्जगुणो फोसिदो । एवं सुत्तं - देसामासिय सव्वमेदं वक्खाणं सुत्तारूढं कायव्वं । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उववादं णस्थि। षट् खण्ड ० २ । ७ । सू ११० । पु ७ । पृष्ठ० ४१५ टोका-उववादकाले ओरालियकायजोगस्स अभावादो। औदारिककाययोमी जीव स्वस्थान और समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श करते हैं। अस्तु स्वस्थान-स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात पदों से उक्त जीवों ने सर्वलोक स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान से वर्तमानकाल की अपेक्षा स्पर्शन का निरूपण क्षेत्र के समान है। अतीतकाल की अपेक्षा तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तियंग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र का स्पर्श किया है। वैक्रियिकपद से वर्तमानकाल की प्ररूपणा क्षेत्र-प्ररूपणा के समान है। अतीतकाल की अपेक्षा तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग तथा मनुष्यलोक व तिर्यमलोक से असंख्यातगुणे क्षेत्र का स्पर्श किया है। इस सूत्र से देशामर्शक करके यह सब सूत्रविहित व्याख्यान करना चाहिए। औदारिककाययोग में उपपाद नहीं होता है। क्योंकि उपपादकाल में औदारिककाययोग का अभाव रहता है। ..५ वैक्रिय काययोगी का क्षेत्र-स्पर्श वेउब्वियकायजोगी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? -षट् खण्ड० २ । ७ । सू १११ । पु ७ । पृष्ठ० ४१५ टीका-सुगर्म। लोगस्स असंखेज्जविभागो। --षट् खण्ड• २ । ७ । सू ११२ । पु ७ । पृष्ठ० ४१५ टीका-एदस्स अत्थो-तिहं लोगाणमसंखेज्जविभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो कोसिदो। कुदो ? वट्टमाणप्पणादो। अट्टचोद्दसभागा देसूणा। -षट् खण्ड• २ । ७ । सू ११३ । पु ७ । पृष्ठ• ४१५ टीका उब्वियकायजोगीहि सत्थाणेहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जविभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जविभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोसिदो। विहारवदिसत्थाणेण अटुचोद्दसभागा फोसिदा, अट्ठरज्जुबाहल्ललोगणालीए वेउन्वियकायजोगेण देवाणं विहारुवलंभादो। समुग्घादेण केवडियं खेत्तं फोसिदं ? -षट० खण्ड ० २ । ७ । सू ११४ । पु ७ । पृष्ठ० ४१६ टोका-सुगमं। लोगस्स असंखेज्जदिभागो। -षट्० खण्ड ० २ । ७ । सू ११५ । पु ७ । पृष्ठ० ४१६ टीका-एत्थ खेत्तवण्णणा, वट्टमाणप्पणादो। अट्ठ-तेरह चोद्दसभागा देसूणा। ---षट्० खण्ड० २ । ७ । सू ११६ । पु । ७ पृष्ठ० ४१६ टीका- वेयण-कसाय-वेउवियपदेहि अटुचोद्दसभागा फोसिदा। मारणंतिएण तेरह चोद्दसभागा देसूणा फोसिदा। कुदो? मेरुमूलादो उवरि सत्त हेट्ठा छरज्जुआयामलोगणालिमावूरिय वेउब्वियकायजोगेण तौदे कयमारणंतिय जीवाणमुवलंभादो। उववादं स्थि। -षट् खण्ड० २ । ७ । सू १९७ । पु ७ । पृष्ठ• ४१६ वैक्रियिकाययोगी जीव स्वस्थान पदों से लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं। अस्तु उक्त जीवों ने स्वस्थान पदों से तीन लोकों के असंख्यातवें भाग, तिर्यगलोक के संख्यातवें भाग, और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र का स्पर्श किया है। क्योंकि, वर्तमानकाल की प्रधानता है। अतीतकाल की अपेक्षा वैक्रियिककाययोगी जीव कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं। ___ अस्तु वैक्रियिककाययोगी जीवों ने स्वस्थान पदों से अतीतकाल की अपेक्षा तीन लोकों के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र को स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान की अपेक्षा आठ बटे चौदह भागों का स्पर्श किया है, क्योंकि आठ राजु बाहल्यवाली लोकनाली में वैक्रियिककाययोग से देवों का विहार पाया जाता है। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं । ( १७० ) fararaयोगी जीव समुद्घात की अपेक्षा लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श अस्तु यहाँ पर क्षेत्र प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि वर्तमानकाल की प्रधानता है । उक्त जीव अतीतकाल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह और नेरह बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं । अस्तु अतीतकाल की अपेक्षा वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैऋियिक - समुद्घात पदों से उक्त जीवों ने आठ बटे चौदह भागों का स्पर्श किया है । मारणान्तिकसमुद्घात 'से कुछ कम तेरह बटे चौदह भागों का स्पर्श किया है । क्योंकि, मेरुमूल से ऊपर सात और नीचे छह राजु आयामबाली लोकनाली से पूर्ण कर वैक्रियिककाययोग के साथ अतीतकाल में मारणान्तिकसमुद्घात को प्राप्त जीव पाये जाते हैं । वैकिकाययोगी जीवों में उपपादपद नहीं होता है । क्योंकि उपपादपद में वैक्रियिककाययोग का अभाव है । • ०६ वैक्रियमिश्र काययोगी का क्षेत्र - स्पर्श वेव्वियमिस्तकायजोगी सत्याणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? टोका - सुगमं । - षट्० खण्ड० २ । ७ । सू ११८ | पु ७ । पृष्ठ० ४१७ लोगस्स असंखेज्जदिभागो । - षट्० खण्ड० २ । ७ । सू ११९ । पु ७ । पृष्ठ० ४१७ -- टीका - एत्थ वट्टमाणं खेत्तं । अदीदेण तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । विहारवदिसत्थाणं णत्थि । समुग्धाद- उवावदं णत्थि । - षट्० खण्ड० २ । ७ । सू १२० । पु ७ । पृष्ठ० ४१७ । ८ टीका - हो णाम मारणंतिय उववादाणामभावो, एदेसि दोण्हं वेडब्बियमिस्सकायजोगेण सह विरोहादो । वेडव्वियस्स वि तत्थ अभावो होदु णाम, अपज्जत्तकाले तदसंभवादो। ण पुण वेयण-कसायाणं तत्थ असंभवो, णेरइएस अपज्जत्तकाले चेव ताणमुवलंभादो । एत्थ परिहारो बुच्चवे । तं जहा होदु णाम Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) संभव, किंतु तत्थ सत्थाणखेत्तादो अहियं खेत्तं ण लब्भदि त्ति तेसि पडिसेहो कदो । किमिद ण लब्भदे ? जीवपदेसाणं तत्थ सरीरतिगुणविप्फुज्जणाभावादो । faraमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान पदों से लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं । अस्तु यहाँ वर्तमानकाल की अपेक्षा स्पर्शन का निरूपण क्षेत्र प्ररूपणा के समान है । अतीतकाल की अपेक्षा तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श करते हैं । बिहारवत्स्वस्थान उनके नहीं होता है । शंका -- वैक्रियमिश्रकाययोगियों के मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पदों का अभाव भले ही हो, क्योंकि, इनका वैक्रियिकमिश्रकाययोग के साथ विरोध है । इसी प्रकार किसमुद्घात का भी उनके अभाव रहा आवे, क्योंकि, अपर्याप्तकाल में वैक्रियिकसमुद्घात का होना असंभव है । किन्तु वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदों की उनमें असंभावना नहीं है, क्योंकि नारकियों के ये दोनों समुद्घात अपर्याप्तकाल में ही पाये जाते हैं । जीवस्थान स्पर्शनानुगम के सूत्र ९४ की टीका में धवलाकार ने यहाँ उपपादपद भी स्वीकार किया है । समाधान- नारकियों के अपर्याप्तकाल में वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदों की संभावना रही जावे, किन्तु उनमें स्वस्थान क्षेत्र में अधिक क्षेत्र नहीं पाया जाता, इसी कारण उनका प्रतिषेध किया गया है । शंका- वहाँ स्वस्थान क्षेत्र से अधिक क्षेत्र वहाँ क्यों नहीं पाया जाता है ? समाधान - क्योंकि, उनमें जीव प्रदेशों के शरीर से तिगुणे विसर्पण का अभाव है । ०७ आहारक काययोगी का क्षेत्र - स्पर्श आहारकायजोगी सत्थाण- समुग्धादेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? टीका - सुगमं । —षट् ० ० खण्ड ० २ । ७ । सू १२१ । पु ७ । पृष्ठ० ४१८ लोगस्स असंखेज्जविभागो । - षट्० खण्ड० २ । ७ । सू १२२ । पु ७ । पृष्ठ० ४१८ टीका -- एत्थ चट्टमाणस्स खेत्तभंगो । अवीदेण सत्याण- सत्याण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसायपदेहि चदुष्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुस खेत्तस्स Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) संखेज्जदिभागो फोसिदो। मारणंतिएण चदुण्णं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो। उववादं पत्थि। -षट् खण्ड ० २ । ७ । सू १२३ । पु ७ । पृष्ठ० ४१९ टोका-कुदो ? अच्चताभावेण ओसारिदत्तादो। आहारककाययोगी जीव स्वस्थान और समुद्घात पदों से लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं। अस्तु यहाँ वर्तमानकाल की अपेक्षा स्पर्शन का निरूपण क्षेत्र प्ररूपणा के समान है । अतीतकाल की अपेक्षा स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनास मुद्घात और कषायसमुद्घात पदों से आहारककाययोगी जीवों ने चार लोकों के असंख्यातवें भाग और मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भाग का स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्घात से चार लोकों के असंख्यातवें भाग और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्र का स्पर्श किया है । आहारककाययोगी जीवों के उपपादपद नहीं होता क्योंकि वह अत्यन्ताभाव से निराकृत है। .०८ आहारकमिश्र काययोगी का क्षत्र-स्पर्श आहारमिस्सकायजोगी सत्थाणेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? -षट् खण्ड० २ । ७ । सू १२४ । पु ७ । पृष्ठ० ४१९ टीका-सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो। -षट्० खण्ड ० २ । ७ । सू १२५ । पु ७ । पृष्ठ ० ४१९ टीका-एत्थ वट्टमाणस्स खेत्तभंगो। अदौदेण चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो फोसिदो। विहारवदिसत्थाणं णत्थि । समुग्घाद-उववादं णस्थि। -षट् खण्ड ० २ । ७ । सू १२६ । पु ७ । पृष्ठ० ४१९ टोका–कुदो ? अच्चताभावेण ओसारिदत्तादो। आहारकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थानों पदों से लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श करते हैं। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) अस्तु यहाँ वर्तमानकाल की अपेक्षा स्पर्शन का निरूपण क्षेत्र प्ररूपणा के समान है । अतीतकाल की अपेक्षा चार लोकों के असंख्यातवें भाग और मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भाग का स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान उनके नहीं होता है । आहारक मिश्रकाययोगी जीवों के समुद्घात और उपपादपद नहीं होते हैं । क्योंकि वे अत्यन्ताभाव से निराकृत है । - ०९ कार्मण काययोगो का क्षेत्र - स्पर्श कम्मइयकायजोगीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? -षट्० खण्ड० २ । ७ । लु १२७ । पु ७ । पृष्ठ ० ४१९ । २० टोका - सुगमं । सव्वलोगो । षट्० खण्ड ० २ । ७ । सू १२८ । पु ७ । पृष्ठ० ४२० टीका - एदं पि सुगमं । काकाययोगी जीवों द्वारा सर्वलोक स्पृष्ट है । • ३८ सयोगी जीव कितने क्षेत्र में • ०२ मनोयोगी और वचनयोगी कितने क्षेत्र में जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी सत्थाणेण समुग्धायेण केवडिखेत्ते ? - षट्० खण्ड० २ । ६ । सू ५२ । पुं ७ | पृष्ठ० ३४० टीका - एत्थ सत्थाणे दो वि सत्याणाणि अस्थि, समुग्धादे वेयण- कसायवे उव्विय-तेजाहार-मारणंतियसमुग्धादा अस्थि, उट्ठाविदउत्तरसरीराणं मारणंतिगदाणं पि मण - वचिजोगसंभवस्स विरोहाभावादो । उववादो णत्थि, तत्थ कायजोगं मोत्तूणण्णजोगाभावादो । लोगस्स असंखेज्जदिभागे । - षट्० खण्ड० २ । ६ । सू ५३ । पुं ७ | पृष्ठ० ३४० । १ टीका - एदस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा - सत्याणसत्याण-विहारवदिसत्याणarr - कसाय- बेउब्वियसमुग्धादगदा एदे दस वि तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे ; तेजाहारसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जस्स संखेज्जदिभागे ; मारणंतिय समुग्धा Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) दगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, पर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे अच्छति । उववादं णत्थि, मणजोग-वचिजोगाणं विवक्खादो। योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीव स्वस्थान व समुद्घात की अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? यहाँ स्वस्थान में दोनों स्वस्थान और समुद्घात में वेदनासमुदघात, कषायस मुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात, तेजससमुद्घात, आहारकसमुद्घात एवं मारणान्तिकसमुद्घात हैं। क्योंकि, उत्तर शरीर को उत्पन्न करनेवाले मारणान्तिकसमुद्घात प्राप्त जीवों के भी मनोयोग व वचनयोग होने में कोई विरोध नहीं है। मनोयोगी व वचनयोगी जीवों के उपपादपद नहीं है क्योंकि उनमें काययोग को छोड़कर अन्य योगों का अभाव है। पांच मनोयोगी व पांच वचनयोगी जीव स्वस्थान व समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अस्तु स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात को प्राप्त ये दश ही जीव तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। तैजससमुद्घात व आहारकसमुद्घात को प्राप्त उक्त जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग और अढाईद्वीप के संख्यातवें भाग में रहते हैं। मारणान्तिकसमुद्घात को प्राप्त उक्त जीव तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में तथा मनुष्य तथा तिर्यग्लोक की अपेक्षा असख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। उपपादपद नहीं है, क्योंकि मनोयोग व वचनयोग की यहाँ विवधा है। .०२ काययोगी कितने क्षेत्र में .०४ औदारिकमिश्र काययोगी कितने क्षेत्र में _कायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगी सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते? -षट्० खण्ड० २ । ६ । सू ५४ । पु ७ । पृष्ठ० ३४१ टोका-सुगममेदं। सव्वलोए। -षट्० खण्ड ० २ । ६ । सू ५५ । पु ७ । पृष्ठ० ३४१ । २ टीका-एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा–सत्थाण-वेयण-कसायमारणंतियउववादेहि सव्वलोगे। कुवो? आपंतियादो। विहारवदिसत्थाणवेउव्वियपदेहि कायजोगिणो तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, तिरियलोस्स संखेज्जदिमागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे। कुदो? जगपवररस असंखेज्ददि Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) भागमेत्ततसरासिस्स गहणादो। तेजाहारपदेहि कायजोगिणो चदुहं लोगाणमसंज्जदिभागे, अड्डाइज्जस्स संखेज्जदिभागे। दंड-कवाड-पदर-लोगपूरणेहि कायजोगिणो ओघभंगो। काययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान, समुद्घात व उपपादपद से सर्वलोक में रहते हैं। अस्तु - स्वस्थान, वेदनासमुदघात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादपदों से काययोगी व औदारिकमिश्रकाययोगी सवंलोक में रहते हैं। क्योंकि वे अनन्त हैं। विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घात पदों से काययोगी जीव तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि जगप्रतर के असंख्यातवें भाग मात्र सराशि का यहाँ ग्रहण है। तेजससमुद्घात और आहारक समुद्घात पदों से काययोगी जीव चार लोकों के असंख्यावें भाग में और अढाईद्वीप के संख्यातवें भाग में रहते हैं। दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्घात की अपेक्षा काययोगियों के क्षेत्र का निरूपण ओघ के समान है। नोट -अपने-अपने उत्पन्न होने के ग्रामदिकों के सीमा के भीतर परिभ्रमण करने से स्वस्थान-स्वस्थान और इससे बाह्य प्रदेश में घूमने को विहारवत्स्वस्थान कहते हैं। .०३ औदारिककाय योगी कितने क्षेत्र में ओरालियकायजोगी सत्थाणेण समुग्घादेण केवडिखेत्ते? -षट्० खण्ड ० २ । ६ । सू ५६ । पु ७ । पृष्ठ० ३४२ टीक—सुगम। सव्वलोए। -षट् खण्ड ० २ । ६ । सू ५७ । पु ७ । पृष्ठ० ३४२ । ३ टीका एदस्सत्थो वुच्चदे-सत्थाण-वेयण-कसाय-मारणंतियेहि सव्वलोगे। कुदो? सव्वत्थावट्ठाणाविरोहिजीवाणमोरालियकायजोगीणं मारणंतियादो। विहारपदेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे। कुदो? तसणालि मोत्तूणण्णत्थ विहाराभावादो। वेउव्विय-तेजा-दंडसमुग्धादगदा चदुहं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे। गवरि तेजासमुग्धादगदा माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे। कवाडपदर-लोगवूरणाहारपदाणि णत्थि, ओरालियकायजोगेण तेसि विरोहादो। उववादं पत्थि। -षट्० खण्ड० २। ६ । सू ५८ । पु ७ । पृष्ठ० ३४३ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) टीका-ओरालियकायजोगेण सह एदस्स विरोहादो। औदारिककाययोगी जीव स्वस्थान व समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में रहते हैं । अस्तु स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात की अपेक्षा उक्त जीव सर्वलोक में रहते हैं, क्योंकि सर्वत्र अवस्थान के अविरोधी औदारिककाययोगी जीवों के मारणान्तिकसमुद्घात होता है। विहारपद की अपेक्षा तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यगलोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि सनालि को छोड़कर उक्त जीवों का अन्यत्र विहार नहीं है । वैक्रियिकसमुद्घात, तेजससमुद्घात और दंडसमुद्घात को प्राप्त उक्त जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। विशेष इतना है कि तैजससमुद्घात को प्राप्त उक्त जीव मानुष क्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं। कपाटसमुद्घात, प्रतरसमुद्घात, लोकपूरणसमुद्घात और आहारकसमुद्घात पद नहीं है, क्योंकि औदारिककाययोग के साथ उनका विरोध है। औदारिककाययोगी जीवों के उपपादपद नहीं होता, क्योंकि औदारिककाययोग के साथ इसका विरोध है। .०५ वैक्रिय काययोगी कितने क्षेत्र में बेउन्वियकायजोगी सत्थाणेण समुग्धादेश केवडिखेत्ते ? -षट्० वण्ड. २ । ६ । सू ५९ । पु ७ पृष्ठ• ३४३ टोका-सुगमं। लोगस्स असंखेज्जदिभागे। --षट्० खण्ड• २ । ६ । सू ६० । पु ७ । पृष्ठ० ३४३ टीका-एदस्सत्थो वुच्चदे-सत्थाणसत्थाण-विहारवदि-सत्थाण-वेयणकसाय-वेउवियपदेहि बेउब्वियकायजोगिणो तिण्हं लोगाणमस खेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जविभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे। कुदो? पहाणीकयजोइसियरासित्तादो। मारणंतियसमुग्धादेण तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, गरतिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे। एत्थ ओवट्टणं जाणिय कायव्वं । उववादो णत्यि। -षट् खण्ड० २।६। सू ६१ । पु७ । पृष्ठ. ३४३ । ४ टीका-वेउन्वियकायजोगेण उववादस्स विरोहादो। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) वैक्रिय काययोगी स्वस्थान और समुद्घात से लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । अस्तु स्वस्थान- स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदों से वैक्रियिककाययोगी जीव तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । क्योंकि यहाँ ज्योतिषी राशि की प्रधानता है। मारणान्तिकसमुद्घात को अपेक्षा तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोक की अपेक्षा असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । यहाँ अपवर्तन जानकर करना चाहिए । वैक्रियिककाययोगियों के उपपादपद नहीं होता क्योंकि, वैक्रियिककाययोग के साथ उपपादपद का विरोध है । • ०६ वैक्रियमिश्र काययोगी कितने क्षेत्र में defore मिस कायजोगी सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? टोका - सुगमं । - षट्० खण्ड० २ । ६ । सू ६२ । पु ७ । पृष्ठ० ३४४ लोगस्स असंखेज्जदिभागे । - षट्० खण्ड० २ । ६ । सू ६३ । पु ७ । पृष्ठ० ३४४ टोका - एदस्स अत्थो - तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जाबो असंखेज्जगुणे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे । कुदो ? देवरासिस्स संखेज्जवि - भागमेत्तवेउब्विय मिस्सकायजोगिदव्वलंभादो । समुग्धाद उववादा णत्थि । - षट्० खण्ड० २ । ६ । सू ६४ । पु ७ । पृष्ठ० ३४४ टीका - वेउन्नियमिस्सेण सह एदेसि विरोहादो । होदु मारणंतियउवादेहि सह विरोहो, ण बेयण- कसायसमुग्धादेहि । तम्हा वेउव्वियमिस्सम्मि समुग्धादो णत्थि त्ति ण घडदे ? एत्थ परिहारो वुच्चदे - सत्थाणखेत्तादो वाचयदुवारेण लोगस्स असंखेज्जदिभागेण वेयणकसाय- वे उब्विय-विहारख दिसत्याणतेजाहारखेत्ताणि अपुधभूदत्तादो तत्थेव लोणाणि त्ति एदाणि एत्थ खुद्दाबंधे परिग्गहिदाणि । तदो मारणंतियमेक्कं चेव केवलिसमुग्धादेण सहिदं एत्थ समुग्धादणिसे घेप्पदि । सो च समुग्धादो एत्थ णत्थि तेणेसो ण दोसो त्ति । अधवा बेयण-कसाय-वेउन्थिय-तेजाहाराणं पि एत्थ खुद्द बंधे अस्थि समुग्धादववएसो, किंतु ण ते पहाणं, मारणंतियखेत्तावो तेसिमहियखेत्ताभावादो । तदो पहाणं Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) मारणंतियपदं जत्थ अत्थि, तत्थ समुग्घादो वि अस्थि। जत्थ तं पत्थि ण तत्थ समुग्धादो त्ति वुच्चदि। तदो दोहि पयारेहि 'समुग्धादो पत्थि' त्ति ण विरुज्झदे। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । अस्तु वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीव स्वस्थान से तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे और तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं, क्योंकि देवराशि के संख्यातवें भाग मात्र वैक्रियिकमिश्रकाययोगी द्रव्य पाया जाता है। समुद्घात व उपपादपद नहीं है। क्योंकि वैक्रियिकमिश्रकाययोग के साथ इनका विरोध है । शंका-वैक्रियिकमिश्रकाययोग का मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादपदों के साथ भले ही विरोध हो, किन्तु वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात के साथ कोई विरोध नहीं है । अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोग में समुद्घात नहीं है-यह वचन घटित नहीं होता । समाधान-स्वस्थान क्षेत्र से कथन की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग से वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात, विहारवत्स्वस्थान, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात के क्षेत्र अभिन्न होने से उसी में लीन है। अतः ये यहाँ 'क्षुद्रकबंध' में नहीं ग्रहण किये गये हैं। इसी कारण केवलिसमुद्घात सहित एक मारणान्तिकसमुद्घात ही यहाँ समुद्घात-निर्देश से ग्रहण किया जाता है। और वह समुद्घात यहाँ है नहीं, अतः यह कोई दोष नहीं। अथवा वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकस मुद्घात, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात को भी यहाँ 'क्षुद्रकबंध' में समुद्घात संज्ञा प्राप्त है किन्तु वे प्रधान नहीं है, क्योंकि मारणान्तिकक्षेत्र की अपेक्षा उनके अधिक क्षेत्र का अभाव है। अतः जहाँ मारणान्तिकपद है वहाँ समुद्घात भी है, किन्तु जहाँ वह नहीं है वहाँ "समुद्घात भी नहीं है" यह वचन विरोध को भी प्राप्त नहीं होता। ०७ आहारक-काययोगी कितने क्षेत्र में आहारकायजोगी वेउव्वियकायजोगिभंगो। __ -षट् खण्ड ० २ । ६ । सू ६५ । पु ७ । पृष्ठ० ३४५ टीका-एसो दवट्ठियणिद्देसो। पज्जवट्ठियणयं पडुच्च भण्णमाणे अत्थि तको विसेसो। तं जहा- सत्थाणविहारवदिसत्थाणपरिणदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जविभागे। मारणंतियसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे त्ति। - आहारककाययोगियों के क्षेत्र का निरूपण वैक्रियिककाययोगियों के क्षेत्र के समान है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७९ ) अस्तु यह द्रव्यार्थिकनय से अपेक्षा निर्देश है । लेकिन पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा निरूपण करने पर वैक्रियिककाययोगियों के क्षेत्र से यहाँ विशेषता है । यथा -- स्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र से परिणत आहारककाययोगी जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और मानुष क्षेत्र से संख्यातवें भाग में रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात से प्राप्त आहारककाययोगी जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में और अढाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । ०८ आहारकमिश्र काययोगी कितने क्षेत्र में आहारमिस्सकायजोगी वेडव्वियमिस्तभंगो । - षट्० खण्ड ० २ । ६ । सू ६६ । पु७ | पृष्ठ० ३४६ टीका- एसो वि दव्वट्ठियणिद्देसो, लोगस्स असंखेज्जदिभागत्तणेण दोन्ह खेत्ताणं समाणत्तं पेक्खिय पवृत्तीदो । पज्जवट्टियणयं पडुच्च भेदो अत्थि । तं जहा - आहारमिस्सकायजोगी चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे ति । आहारक मिश्रका योगियों का क्षेत्र वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों के समान है । अस्तु - यह भी द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा निर्देश है। क्योंकि, लोक के असंख्यातवें भागत्व से दोनों क्षेत्रों की समानता की अपेक्षा कर इसकी प्रवृत्ति हुई है । पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा भेद है । वह इस प्रकार है - - आहारकमिश्र काययोगी जीव चार लोकों के असंख्यातवें भाग में व मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं । • ०९ कार्मण काययोगी कितने क्षेत्र में टीका - सुगमं । कम्मइयकायजोगी केवडिखेत्ते । - षट्० खण्ड० २ । ६ । सु ६७ । पु ७ । पृष्ठ० ३४६ सव्वलोगे । - षट्० खण्ड० २ । ६ । सू ६८ । ७ । पृष्ठ ० ३४६ टीका - एवं सामासियसुत्तं ण होदि, वृत्तत्थं मोत्तूणेदेण सुइदत्थाभावादो । कथं कम्मइयकायजोगिरासी सव्वलोए ? ण, तस्स अनंतस्स सव्वजोवरासिस्स असं खेज्जदिभागत्तणेण तदविरोहादो । कार्मणका योगी जीव सर्वलोक में रहते हैं । अस्तु यह देशामर्शक सूत्र नहीं है, क्योंकि उक्त अर्थ को छोड़कर इसके द्वारा सूचित अर्थ का अभाव है । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) शंका-कार्मणकाययोगी जीवराशि सर्वलोक में कैसे रहती है। समाधान-नहीं, क्योंकि, कार्मणकाययोगी राशि के अनन्त सर्वजीवराशि के असंख्यांतवें भाग होने से उसमें कोई विरोध नहीं है । आत्मप्रवृत्तस्संकोचविकोचो योगः, मनोवाक्कायावष्टंभबलेन जीवप्रदेशपरिस्पन्दो योग इति यावत् । -षट् खण्ड ० २, १, ३ । सू २ । पु ७ । पृष्ठ० ६, ७ । टीका आत्मा की प्रवृत्ति से उत्पन्न संकोच-विकोच का नाम योग है। अर्थात् मन, वचन और काय के अवलम्बन से जीव प्रदेशों के परिस्पन्दन होने को योग कहते हैं। •३९ सयोगी जीवों की काल स्थिति .०२ पंच मनोयोगी-पंच वचनयोगी की कालस्थिति जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसुमिच्छादिट्ठो असंजदसम्मादिट्ठी संजवासजदा पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। -षट्० खण्ड० १। ५ । सू १६२ । पु ४ । पृष्ठ० ४०९ टोका-कुदो ? मणजोग-वचिजोगेहि परिणमणकालादो तदुवक्कमणकालंतरस्स थोवत्तादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं । ----षट् खण्ड ० १ । ५ । सू १६३ । पु ४ । पृष्ठ० ४०९ । १२ - टोका-एदस्स सुत्तस्स अत्थणिच्छयसमुप्पायण8 मिच्छादिट्ठिआदिगुणट्ठागाणि अस्सिदूण एगसमयपरूवणा कीरदे। एत्थ ताव जोगपरावत्ति-गुणपरावत्तिमरण-वाघादेहि मिच्छत्तगुणट्ठाणस्स एगसमओ परूविज्जदे। तं जधा-एक्को सासणो सम्मामिच्छादिट्टी असंजदसम्मादिदी संजदासंजदो पमत्तसंजदो चा मणजोगेण अच्छिदो। एगसमओ मणजोगद्धाए अत्थि ति मिच्छत्तं गदो। एगसमयं मणजोगेण सह मिच्छत्तं दिट्ठ। विदियसमए मिच्छादिट्ठी चेव, किंतु वचिजोगी कायजोगी वा जादो। एवं जोगपरावत्तीए पंचविहा एयसमयपरूवणा कवा। कधं समयभेदो? सासणादिगुणट्ठाणपच्छाकधत्तेण। गुणपरावत्तीए एगसमओ बुच्चदे। तंजहा एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो। तस्स वचिजोगद्धासु खोणासु मणजोगो आगदो। मणजोगेण सह Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) एगसमये मिच्छतं दिट्ठ । विदियसमए वि मणजोगी चेव । किंतु सम्मामिच्छत्तं वा असंजमेण सह सम्मत्तं वा संजमासंजमं वा अपमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णो । एवं गुणपरावत्तीए चउव्विहा एगसमयपरूवणा कदा । कधमेत्थ समयभेदो ? पडिवज्ज माणगुणभेएण । पुविल्लपंचसु समएस संपहिलद्धचदुसमए पक्खित्ते णव मंगा होंति (९) । एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो । तेसि खएण मणजोगो आगदो । एगसमयं मणजोगेण सह मिच्छत्तं दिट्ठ । विदियसमए मदो । जदि तिरिक्खेसु वा मणुसेसु वा उप्पण्णो, तो कम्मइयकायजोगी ओरालियमिस्स कायजोगी वा । अध देव णेरइएस जइ उववष्णो तो कम्मइयकायजोगी वे उव्वियमिस्सकायजोगी वा जादो । एवं मरणेण लद्धएगभंगे पुव्विल्लणवभंगेसु पक्खित्ते दस भंगा होंति ( १० ) । वाघादेण एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो । तेसि चचि कायजोगाणं खएण तस्स जोगो आगदी । एगसमयं मणजोगेण मिच्छत्तं दिट्ठ । विदियसमए वाघादिदो कायजोगी जादो । लद्धो एगसमओ । एदं पुव्विल्लदसभंगेसु पविखत्ते एक्कारस भंगा (११) । एत्थ उववुज्जंती गाहा - गुण- जोगपरावत्ती वाघादो मरणमिदि हु चत्तारि । जोगेसु होंति ण वरं पच्छिल्लद्गुणका जोगे ॥ ३९ ॥ एदम्हि गुणट्ठाणे ट्ठिदजीवा इमं गुणट्ठाणं पडिवज्जंति त्ति जादूण गुणपडिaoणा वि इमं गुणद्वाणं गच्छंति, ण गच्छति त्ति चितिय असंजदसम्मादिट्ठिसंजदासंजद - पमत्तसंजदाणं च चडव्विहा एगसमयपरुवणा परविदव्वा । एवमप्पमत्तसंजदाण । णवरि वाघादेण विणा तिविधा एगसमयपरुवणा कादव्वा । किमट्ठ वाघादो णत्थि ? अप्पमाद - वाघादाणं सहअणवद्वाणलक्खणविरोहा । सजोगिकेवलिस एगसमयपरुवणा कोरदे । तं जधा — एक्को खीणकसाओ मणजोगेण अच्छिदो मणजोगद्धाए एगो समओ अस्थि त्ति सजोगी जादो । एगसमयं मणजोगेण दिट्ठो सजोगिकेवली विदियसमए वचिजोगी वा जादो । एवं चदुसु मणजोगेसु पंचसु वचिजोगेसु पुण्वुत्तगुणट्ठाणाणं एगसमयपरुवणा कादव्वा । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १६४ । पु ४ । पृष्ठ० ४१२ टीका-तं जधा-मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदो पमत्तसंजदो ( अप्पमत्तसंजदो ) सजोगिकेवली वा अणप्पिदजोगे द्विदो अद्धाक्ख एण Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) अप्पिदजोगं गदो । तत्थ तप्पाओग्गुक्कस्समं तो मुहुत्तमच्छिय अणप्पिदजोगं दो । सासणसम्मादिट्ठी ओघं । -- षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १६५ । पु ४ । पृष्ठ ० ४१२ ३ टीका-कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगो समओ, उक्कर से ट पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ; एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उनकस्सेण छ आवलियाओ ; इच्चेदेहि पंचमण-वचिजोगसासणाणं ओघसासहितो भेदाभावा । एत्थ वि जोग- गुणपरावत्ति मरणवाघादेहि समयाबिरोहेण एगसमय परुवणा कायव्वा । सम्मामिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं । - षट्० खण्ड ० १ ५ । सु १६६ पु ४ । पृष्ठ ४१ ३ टोका - उदाहरणं - सत्तट्ठ जणा बहुगा वा मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठो संजदासंजदा पमत्तसंजदा वा अप्पिदमण-वचिजोगेसु ट्ठिदा अप्पिदजोगद्धाए एगसमओ अस्थि ति सम्मामिच्छतं गदा । एगसमयमप्पिदजोगेण दिट्ठा, विदियसमए सब्वे अणप्पिदजोगं गदा । एवं मरणेण विणा जोग-गुणपरावत्ति-वाघादेहि एगसमयपरुवणा चितिय वसव्वा । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १६७ । पु ४ । पृष्ठ ० ४१३ टीका - कुर्दा ? अप्पिदजोगेण सहिदसम्मामिच्छादिट्ठीणं पवाहस्स अच्छि - oणरुवस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागायामस्सुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १६८ । पु४ | पृष्ठ ० ४१४ मरणेण विणा गुण- जोगपरावत्ति - वाघादे अस्सिदूण टीका - एत्थ वि एगसमयपरुवणा जाणिय वत्तव्वा । उक्करण अंतोतं - षट्० खण्ड० १ । ५ । सु १६९ । ४ । पृष्ठ ० ४१४ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) टोका-उदाहरणं-एक्को सम्मामिच्छादिट्ठी अणप्पिदजोगे ट्ठिदो अप्पिदजोगं पडिवण्णो। तत्थ तप्पाओग्गुक्कस्समंतोमुत्तमच्छिय अणप्पिदजोगं गदो। लद्धमतोमुहुत्तं । चदुण्हमुवसमा चदुहं खवगा केनचिरं कालादो होंति, गाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । -षट्० खण्ड ० १ ५ ५ । सू १७० । पु ४ । पृष्ठ० ४१४ टोका-उवसामगाणं वाघादेण विणा जोग-गुणपरावत्तिमरणेहि णाणाजीवे अस्सिदूण एगसमयपरूवणा कादव्वा। खवगाणं मरण-वाघादेहि विणा जोगगुणपरावत्तीओ दो चेव अस्सिदूण एगसमयपरूवणा परूवेदव्वा । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। --षट्, खण्ड• १ । ५ । सू १७१ । पु ४ । पृष्ठ० ४१५ टोका-तं जधा-चत्तारि उबसामगा चत्तारि खवगा च अणप्पिदजोगे टिदा अद्धाक्खएण अप्पिदजोगं गदा । तत्थ अंतोमुत्तमच्छिय पुणो वि अणप्पिदजोगं पडिवण्णा । लद्धमतोमुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं । -षट्० खण्ड० १ । ५ । सू १७२ । पु ४ । पृष्ठ० ४१३ टोका-एत्थ एगसमयपरूवणा खवगुवसामगाणं दोहि तीहि पयारेहि जाणिय वत्तव्वा। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्ते। -षट्, खण्ड० १।५ । सू १७३ । पु ४ । पृष्ठ. ४१५ टीका-एत्थ अंतोमुहत्तपरूवणा जाणिय वसव्वा। एस्थ एगसमयवियप्पपरूवट्ठ गाहा एक्कारस छ सत्त य एक्कारस दस य णव व अट्ठ वा। पण पंच पंच तिणि य दुदु दु दु एगो य समयगणा ॥४१॥ ११, ६, ७, ११, १०, ९, ८, ५, ५, ५, ३, २, २, २, २, १। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) योगागंणा के अनुवाद से पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगिकेवली नाना जीवों का अपेक्षा सर्वकाल रहते हैं ।। १६२ ॥ क्योंकि मनोयोग और वचनयोग के द्वारा होने वाले परिणमनकाल से उनके उपक्रमणकाल का अन्तर अल्प पाया जाता है । एक जीव की अपेक्षा उक्त जीवों का जघन्यकाल एक समय है । इस सूत्र के अर्थ निश्चय के समुत्पादनार्थ मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों को आश्रय करके एक समय की प्ररूपणा की जाती है— उनमें से पहले योगपरिवर्तन, गुणस्थान परिवर्तन मरण और व्यख्यात इन चारों के द्वारा मिथ्यात्व गुणस्थान का एक समय प्ररूपण किया जाता है। वह इस प्रकार है - सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कोई एक जीव मनोयोग के साथ विद्यमान था । मनोयोग के काल में एक समय अवशिष्ट रहने पर वह मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ वहाँ पर एक समय मात्र मनोयोग के साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया । द्वितीय समय में भी वह जीव मिथ्यादृष्टि ही रहा, किन्तु मनोयोग से वह वचनयोगी यह काययोगी हो गया । इस प्रकार योगपरिवर्तन के साथ पांच प्रकार से एक समय की प्ररूपणा की गई प्रश्न है कि यहाँ पर समय में भेद कैसे हुआ ? उत्तर - सासादनादि गुणस्थानों को पीछे करने से, अर्थात् उसमें पुनः वापस आने से समय भेद हो जाता है । अब गुणस्थान परिवर्तन के द्वारा एक समय की प्ररूपणा करते हैं, यथा कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोग से अथवा काययोग से विद्यमान था । उसके वचनयोग अथवा काययोग का काल क्षीण होने पर मनोयोग आ गया और मनोयोग के साथ एक समय में मिथ्यात्व दृष्टिगोचर हुआ । पश्चात् द्वितीय समय में भी वह जीव यद्यपि मनोयोगी ही है, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व को, अथवा असंयम के साथ सम्यक्त्व को, अथवा संयमासंयम को, अथवा अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त हुआ । इस प्रकार से गुणस्थान के परिवर्तन के द्वारा चार प्रकार से एक समय की प्ररूपणा की गई। समाधान यह है कि आगे प्राप्त होने प्रश्न है कि यहाँ पर समय-भेद कैसे हुआ ? वाले गुणस्थान के भेद से समय में भेद हुआ । अस्तु पूर्वोक्त योग परिवर्तन संबंधी पांच समयों में साम्प्रतिकलब्ध गुणस्थान संबंधी चार समयों को प्रक्षिप्त करने पर नौ ( ९ ) भंग होते हैं । कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोग से अथवा काययोग से विद्यमान था । पुनः योग संबंधीकाल के क्षय हो जाने पर उसके मनोयोग आगया । तब एक समय मनोयोग के साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया और दूसरे समय में मरा। सो यदि वह तियंचों में या मनुष्यों में उत्पन्न हुआ तो कार्मणकाययोगी Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) अथवा औदारिकमिश्रकाययोगी हो गया। अथवा, यदि देव या नारकियों में उत्पन्न हुआ तो कार्मणकाययोगी, अथवा वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हो गया । इस प्रकार मरण से प्राप्त एक भंग को पूर्वोक्त नो भंगों में प्रक्षिप्त करने पर दस भंग हो जाते हैं (१०)। अब व्याघात से लब्ध होने वाले एक भंग की प्ररूपणा करते हैं --कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोग से अथवा काययोग से विद्यमान था। सो उन वचनयोग अथवा काययोग के क्षय हो जाने पर उसके मनोयोग आ गया तब एक समय मनोयोग के साथ मिथ्यादृष्टि हुआ और द्वितीय समय में वह व्याघात को प्राप्त होता हुआ काययोगी हो गया। इस प्रकार से एक समय लब्ध हुआ। पूर्वोक्त दस भंगों में इस एक भंग के प्रक्षिप्त करने पर ग्यारह भंग होते हैं (११)। इस विषय में उपयुक्त गाथा इस प्रकार है गुणस्थानपरिवर्तन, योगपरिवर्तन, व्याघात और मरण ये चारों बातें योगों में अर्थात् तीन योग के होने पर होती है। किन्तु सयोगिकेवली के पीछले दो, अर्थात् मरण और व्याघात तथा गुणस्थानपरिवर्तन नहीं होते हैं। अस्तु इस विवक्षित गुणस्थान में विद्यमान जीव इस अविवक्षित गुणस्थान को प्राप्त होते हैं या नहीं--ऐसा जान करके, गुणस्थान को प्राप्त जीव भी इस विवक्षित गुणस्थान को जाते हैं अथवा नहीं ऐसा चित्तवन करके, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयतों की चार प्रकार से एक समय की प्ररूपणा करनी चाहिए। इसी प्रकार से अप्रमत्तसंयतों की भी प्ररूपणा होती है, किन्तु विशेष बात यह है कि उनके व्याघात के बिना तीन प्रकार से एक समय की प्ररूपणा करनी चाहिए । अस्तु अप्रमाद और व्याघात इन दोनों का सहानवस्थान लक्षण विरोध है अतः अप्रमत्तसंयत के इस कारण से व्याघात नहीं है । अब सयोगिकेवली के एक समय की प्ररूपणा की जाती है, यथा-एक क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ जीव मनोयोग के साथ विद्यमान था। जब मनोयोग के काल में एक समय अवशिष्ट रहा, तब वह सयोगिकेवली हो गया और एक समय मनोयोग के साथ दृष्टिगोचर हुआ। वह सयोगिकेवली द्वितीय समय में वचनयोगी हो गया। इस प्रकार चारों मनोयोगों में और पांच वचनयोगों में पूर्वोक्त गुणस्थानों भी एक समय संबंधी प्ररूपणा करनी चाहिए। उक्त पांच मनोयोगी तथा पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, (अप्रमत्तसंयत) और सयोगिकेवली का उत्कृष्टकाल अंतर्मुहूर्त है। जैसे अविवक्षित योग में विद्यमान मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यगदृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत (अप्रमत्तसंयत) और सयोगिकेवलौ उस योग संबंधौकाल के क्षय हो जाने से विवक्षित योग को प्राप्त हुए। वहाँ पर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूंतकाल तक रह करके पुनः अविवक्षित योग को चले गये। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियों का काल ओघ के समान है । क्योंकि, नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय, उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्यातवां भाग, एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से छह आवलियां, इस रूप से पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियों के काल का ओघ संबंधी सासादन के काल से कोई भेद नहीं है । यहाँ पर भी योगपरावर्तन, गुणस्थानपरावर्तन मरण और व्याघात के द्वारा आगम के अविरोध से एक समय की प्ररूपणा करनी चाहिए । पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय होते हैं । उदाहरण - विवक्षित मनोयोग अथवा वचनयोग में स्थित सात, आठ जन, अथवा बहुत से मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत जीव उस विवक्षित योग के काल में एक समय अवशिष्ट रह जाने पर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुए और एक समय मात्र विवक्षित योग के साथ दृष्टिगोचर हुए । द्वितीय समय में सभी के सभी अविवक्षित योग को चले गये । इस प्रकार मरण के बिना शेष योगपरावर्तन, गुणस्थानपरावर्तन और व्याघात, इन तीनों की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा चिन्तन करके करना चाहिए । सम्यग्मध्यादृष्टि जीवों का उत्कृष्टकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं । क्योंकि, विवक्षिय योग से सहित सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों का अविच्छिन रूप प्रवाह पल्योपम के असंख्यातवें भाग लम्बे काल तक पाया जाता है । एक जीव की अपेक्षा उक्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों का जघन्यकाल एक समय है । यहाँ पर भी मरण के बिना गुणस्थानपरावर्तन, योगपरावर्तन और व्याघात इन तीनों का आश्रय करके एक समय की प्ररूपणा जान करके करना चाहिए । उदाहरण - अविवक्षित योग में विद्यमान कोई एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव विवक्षित योग को प्राप्त हुआ । वहाँ पर अपने योग के प्रायोग्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूतकाल तक रह करके अविवक्षित योग को चला गया। इस प्रकार से एक अंतर्मुहूर्तकाल प्राप्त हो गया । पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी चारों उपशामक और क्षपक नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय होते हैं । उपशामक जीवों के व्याघात के बिना योगपरिवर्तन, गुणस्थानपरिवर्तन और मरण के द्वारा नाना जीवों का आश्रय करके एक समय की प्ररूपणा करना चाहिए । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) क्षपक जीवों की मरण और व्याघात के बिना योगपरिवर्तन और गुणस्थानपरिवर्तन इन दोनों का आश्रय लेकर ही एक समय की प्ररूपणा करना चाहिए । उक्त जीवों का उत्कृष्टक वह इस प्रकार है-अविवक्षित योग में स्थित चारों उपशामक और क्षपक जीव उस योग के कालक्षय से विवक्षित योग को प्राप्त हुए। वहां पर अंतर्मुहूर्त तक रह करके पुनरपि अविवक्षित योग को प्राप्त हो गए। इस प्रकार से अंतर्मुहूर्तकाल प्राप्त हो गया। उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल अंतर्मुहूर्त है । अस्तु यहाँ अंतर्मुहूर्त की प्ररूपणा जान करके करना चाहिए। यहाँ पर एक समय संबंधी विकल्पों में प्ररूपण करने के लिए यह गाथा है मिथ्यादृष्टादि गुणस्थानों में क्रमशः ग्यारह, छः, सात, ग्यारह, दस, नो, आठ, पांच, पांच, पांच, तीन, दो, दो, दो, और एक, इतने एक समय संबंधी प्ररूपणा के विकल्प होते हैं-११, ६, ७, ११, १०, ९, ८, ५, ५, ५, ३, २, २, २, १ । .०२ काययोगीजीवों की काल स्थिति कायजोगीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। -षट् खण्ड० १ । ५ । सू १७४ । पु ४ । पृष्ठ ० ४१५ । ६ टीका-कुदो ? सव्वद्धासु कायजोगिमिच्छादिट्ठीणं विरहाभावा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं । -षट् खण्ड० १ । ५ । सू १७५ । पु ४ । पृष्ठ• ४१६ टोका-तं जधा-एगो सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्माविट्ठी संजदासजदो पमत्तसंजदो वा कायजोगद्धाए अच्छिदो। तिस्से एगसमयावसेसे मिच्छादिट्ठी जादो। कायजोगेण एगसमयं मिच्छत्तं दिद। विदियसमए अण्णजोगं गदो। अधवा मणवचिजोगेसु अच्छिदस्स मिच्छादिहिस्स तेसिमद्धाक्खएण कायजोगो आगदो। एगसमयं कायजोगेण सह मिच्छत्तं दिटुं। विदियसमए सम्मामिच्छत्तं वा असंजमेण सह सम्मत्तं वा संजमासंजमं अप्पमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णो। लद्धो एगसमओ। एत्थ मरण-वाधादेहि एगसमओ णत्थि। कुदो ? मुदे वाघाविदे वि कायजोगं मोत्तण अग्णजोगाभावा। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्ट । — षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १७६ । पु ४ । पृष्ठ० ४१६ । ७ टीका - तं जधा -मिच्छादिट्ठी मण वचिजोगेसु अच्छिदो अद्धाखएण कायजोगी जादो, सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तमच्छिद्रण एइ दिएसु उप्पण्णी । तत्थ अनंतकालमसंखेज्ज पोग्गलपरियदृ कायजोगेण सह परियट्टिण आवलियाए असंखेज्जदिभागमे तपोग्गल परिय सुप्पण्णेसु तसेसु आगंतूण सव्बुक्कस्समं तो मुहुत्तमच्छिय वचिजोगी जादो । लद्धो कायजोगस्स उक्कस्सकालो । काययोगमों में मिथ्यादृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं । क्योंकि, सभी कालों में काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों के विरह का अभाव है । एक जीव की अपेक्षा काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों का जघन्यकाल एक समय है । जैसे- - एक सासादनसम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा असंयत सम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत जीव काययोग के काल में विद्यमान था । उस योग के काल में एक समय अवशेष रहने पर वह मिथ्यादृष्टि हो गया । तब काययोग के साथ एक समय मिथ्यात्वदृष्टिगोचर हुआ । पुनः द्वितीय समय में अन्य योग को चला गया । अथवा, मनोयोग और वचनयोग में विद्यमान मिथ्यादृष्टि जीव के उन योगों के काल के क्षय से काययोग आ गया | तब एक समय काययोग के साथ मिथ्यात्वदृष्टिगोचर हुआ । पुनः द्वितीय समय में सम्यगु मिथ्यात्व को, अथवा असंयम के साथ सम्यक्त्व को, अथवा संयमासंयम को अथवा अप्रमत्त भाव के साथ संयम को प्राप्त हुआ । इस प्रकार एक समय लब्ध हो गया । यहाँ पर मरण और व्याघात की अपेक्षा एक समय नहीं है, क्योंकि मरण होने पर अथवा व्याघात होने पर भी काययोग को छोड़कर अन्य योग का अभाव है । एक जीव की अपेक्षा काययोगी मिथ्यादृष्टि जीबों का उत्कृष्टकाल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है । जैसे - मनोयोग अथवा वचनयोग में विद्यमान एक मिथ्यादृष्टि जीव, उस योग के काल-क्षय हो जाने पर काययोगी हो गया । वहाँ पर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल तक रह करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ । वहाँ पर अनन्तकाल प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन काययोग के साथ परिवर्तन करके आवली के असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गल परिवर्तनों के शेष रहने पर त्रस जीवों में आकर और सर्वोत्कृष्ट अंतर्मुहूर्तकाल रह करके वचनयोगी हो गया। इस प्रकार से काययोग का उत्कृष्टकाल प्राप्त हुआ । सासणसम्मादिट्टिप्पहूडि जाव सजोगिकेवलि त्ति मणजोगिभंगो । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १७७ । पु४ । पृष्ठ० ४१० Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८९ ) टोका-एदं सुत्तं सुगम, मणजोगे णिरुद्ध पवंचेण परुविदत्तादो। णवरि मरण-वाघादा सम्मामिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीणं णत्थि । सासणसम्मादिट्ठिसंजदासंजद-पमत्तसंजदाणं वाघादेण एगसमओ णत्थि, मरणेण पुण अत्थि । __सासादनसम्यगदृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक काययोगियों का काल मनोयोगियों के समान है। यह सूत्र सुगम है। क्योंकि, मनोयोग के निरुद्ध करने पर पहले प्रपंच से (विस्तार से) प्ररूपण किया जा चुका है। विशेष बात यह है कि काययोगी सम्यगमिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियों के मरण और व्याघात नहीं होते हैं। तथा काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयतों के व्याघात की अपेक्षा एक समय नहीं होता है, किन्तु मरण की अपेक्षा एक समय होता है । •०३ औदारिककाय योगी जीवों की काल स्थिति ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, गाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। षट् खण्ड ० १ । ५ । सू १७८ । पु ४ । पृष्ठ० ४१७ टोका–कुदो? ओरालियकायजोगिमिच्छादिट्ठिसंताणस्स सव्वद्धासु वोच्छे दाभावा। एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं । -षट्० खण्ड० १ । ५ । सू १७९ । पु ४ । पृष्ठ० ४१६ टोका-एत्थ मरण-गुण-जोगपरावत्तीहि एगसमयो परुवेदव्यो। वाघादेणं एगसमओ ण लब्भदि, तस्स कायजोगाविणाभावित्तादो। उक्कस्सेण वावीसं वाससहस्साणि देसूणाणि । --षट् खण्ड० १।५ । सू १८० । पु ४ । पृष्ठ० १४८ टोका-तं जधा-एगो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा वावीससहस्सवासाउटिदिएसु एइदिएसु उववण्णो। सव्वजहण्णण अंतोमुत्तकालेण पत्ति गदो। ओरालियअपज्जतकालेणूणवावीसवाससहस्साणि ओरालियकायजोगेण अच्छिय अण्णजोगं गदो। एवं देसूणवावीसवाससहस्साणि जादाणि। अधवा देवो ण उप्पादेदव्यो, तस्स जहण्णअपज्जत्तकालाणुवलंभा। सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति मणजोगिभंगो। -षद् खण्ड० १। ५ । सू १८१ । पु ४ । पृष्ठ० ४१६ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९० ) टीका-एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो, पुत्वं परविदत्तादो। णवरि वाघादेण एत्थ एगसमयपरुवणा परवेदव्वा। औदारिककाययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं। क्योंकि औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों की परंपरा के सभी कालों में विच्छेद का अभाव है। एक जीव की अपेक्षा औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टियों का जघन्यकाल एक समय है। यहाँ पर मरण, गुणस्थानपरावर्तन और योगपरावर्तन की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा करनी चाहिए। किन्तु यहाँ व्याघात की अपेक्षा एक समय नहीं पाया जाता है, क्योंकि वह काययोग का अविनाभावी है। उक्त जीवों का उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। जैसे-एक तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव, बाईस हजार वर्ष की आयुस्थिति वाले एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल से पर्याप्तपने को प्राप्त हुआ। पुनः इस औदारिकशरीर के अपर्याप्तकाल से कम बाईस हजार वर्ष औदारिककाययोग के साथ रह करके पुनः अन्य योग को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से कुछ कम बाईस हजार वर्ष हो जाते हैं। · अथवा, यहाँ पर देव नहीं उत्पन्न कराना चाहिए। क्योंकि, देवों से जाकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने वाले जीव के जघन्य अपर्याप्तकाल नहीं पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक औदारिककाययोगियों का काल मनोयोगियों के काल के समान है। अस्तु-विशेष बात यह है कि यहाँ पर व्याघात की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा करना चाहिए। •०४ औदारिकमिश्र काययोगी जीवों की काल स्थिति ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। -षट् खण्ड ० १ । ५ । सू १८२ । पु ४ । पृष्ठ० ४१९ टीका-ओरालियमिस्सकायजोगीसुमिच्छादिट्टिसंताणवोच्छेदस्स सम्वद्धासु अभावा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं । -षट० खण्ड० १ । ५ । सू १८३ । पु ४ । पृष्ठ० ४१९ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१ ) टीका-तं जहा-एगो एइदिओ सुहुमवाउकारएसु अघोलोगते ट्ठिएसु खुद्दाभवग्गहणाउट्ठिदिएसु तिण्णि विग्गहे काऊण उववण्णो। तत्थ तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणमपज्जत्तो होदूण जीविय मदो, विग्गहं कादण कम्मइयकायजोगी जादो। एवं तिसमऊणखुद्दाभवग्गहणमोरालियमिस्सजहण्णकालो जादो। उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । -षट् खण्ड ० १ । ५ । सू १८४ । पु ४ । पृष्ठ० ४१९ टोका-तं जधा–अपज्जसएसु उववज्जिय संखेज्जाणि भवग्गहणाणि तत्थ परियट्टिय पुणो पज्जत्तएसु उववज्जिय ओरालियकायजोगी जादो। एदाओ संखेज्जभवग्गहणद्धाओ मिलिदाओ वि मुहुत्तस्संतो चेव होंति । सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, गाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । -षट् खण्ड ० १ । ५ । सू १८५। पु ४ । पृष्ठ० ४२. टीका-तं जधा-सत्तट्ट जणा बहुगा बा सासणा सगद्धाए एगसमओ अस्थि त्ति ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा। एगसमयमच्छिदूण विदियसमए मिच्छत्तं गदा । लद्धो ओरालियमिस्सेण सासणाणमेगसमओ। उक्कसेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। -षट्० खण्ड० १ । ५ । सू १८६ । पु ४ । पृष्ठ० ४२० टीका.-तं जधा-सत्तट्ट जणा बहुआ वा सासणा ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा। सासणगुणेण अंतोमुहत्तमच्छिय ते मिच्छत्तं गदा। तस्समए चेय अण्णे सासणा ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा। एवमेक्कदो-तिण्णि आदि कादण जाव उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेन्जदिभागमेत्तवारं सासणा ओरालियमिस्सकायजोगं पडिवज्जावेदव्या। तदो णियमा अंतरं होधि । एवमेस कालो मेलाविदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो होदि । एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। -षट् खण्ड ० १ । ५ । सू १८७ । पु ४ । पृष्ठ० ४२० । १ टीका-तं जधा-एक्को सासणो एगद्धाए एगसमओ अत्थि ति ओरालियमिस्सकायजोगी जादो। विदियसमए मिच्छत्तं गदो। लद्धो एगसमओ। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कस्सेण छ आवलियाओ समऊणाओ। -षट् • खण्ड० १ । ५ । सू १८८ । पु ४ । पृष्ठ० ४२१ टीका-तं जधा-देवो वा रइओ वा उवसमसम्मादिट्टी उवसमसम्मत्तद्धाए छ आवलियाओ अस्थि त्ति सासणं गदो। एगसमयमच्छिय कालं करिय तिरिक्ख-मणुस्सेसु उजुगदीए उववज्जिय ओरालियमिस्सकायजोगी जादो। समऊण-छ-आवलियाओ अच्छिय मिच्छत्तं गदो। असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, गाणाजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । -षट० खण्ड ० १ । ५ । सू १८९ । पु ४ । पृष्ठ० ४२१ टीका-तं जधा-सत्तट्ठ जणा बहुआ ता असंजदसम्मादि?िणो णेरइया ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा। सव्वलहु पज्जत्ति गदा, बहुसागरोवमाणि पुव्वं दुक्खेण सह ट्ठिदत्तादो। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १९० । पु ४ । पृष्ठ० ४२१ २ । टीका-तं जधा-देव-णेरइया मणुस्सा सत्तट्ट जणा बहुआ वा सम्मादिट्रिणो ओरालियमिस्सकायजोगिणो जादा। ते पज्जत्ति गदा। तस्समए चेव अण्णे असंजदसम्मादिद्विणो ओरालिमिस्सकायजोगिणो जादा। एवमेक-दो-तिणि जावुक्कस्सेण संखेज्जवारा त्ति। एदाहि संखेज्जसलागाहि एगमपज्जत्तद्ध गुणिदे एगमुहुत्तस्स अंतो चेव जेण होदि, तेण अंतोमुहुत्तमिदि वुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं । -षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १९१ । पु ७ । पृष्ठ० ४२२ टीका-तं जधा-एक्को सम्मादिट्ठी वात्रीस सागरोवमाणि दुक्खेक्करसो होदूण जीविदो। छट्ठीदो उव्वट्टिय मणुसेसु उप्पण्णो। विग्गहगदीए तस्स सम्मत्तमाहप्पेण उववज्जिदपुण्णपोग्गलस्स ओरालियणामकम्मोदएण सुअंध-सुरससुवण्ण-सुहपासपरमाणुपोग्गलबहुला आगच्छंति, तस्स जोगबहुत्तदंसणादो। एदस्स जहणिया ओरालियमिस्सकायजोगस्स अद्धा होदि । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । -षट्० खण्ड• १ । ५ । सू १९२ । पु ७ । पृष्ठ० ४२२ । ३ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३ ) टोका-एवं कस्स होदि ? सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवस्स तेत्तीस सागरोवमाणि सुहलालियस्स पमुट्ठदुक्खस्स माणुसगब्भे गृह-मुत्तंत-पित-खरिसवस-सेंभ-लोहि सुक्कामादिदे अइदुग्गंधे दूरसे दुव्वण्णे दुप्पासे चमारकुडोपमे उप्पण्णस्स, तत्थ मंदो जोगो होदित्ति आइरियपरंपरागदुवदेसा। मंदजोगेण थोवे पोग्गले गेण्हंतस्स ओरालियमिस्सखा दीहा होदि त्ति उत्तं होदि। अधवा जोगो एत्थ महल्लो चेव होदु, जोगवसेण बहुआ पोग्गला आगच्छंतु, तो वि एक्स्स दोहा अपज्जत्तद्धा होदि, विलिसाए दूसियस्स लहुं पज्जत्तिसमाणणे असामत्थियादो। सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण . एगसमयं । -षट् खण्ड० १ । ५ । सू १९३ । पु ४ । पृष्ठ० ४२३ टोका-एसो एगसमजो कस्स होदि ? सत्तट्ठजणाणं दंडावो कवाडं गंतूण तत्थ एगसमयमच्छिय रुजगं गदाणं, रुजगादो कवाडं गंतूण एगसमयमच्छिय वंडं गदकेवलीणं वा। उक्कस्सेण संखेज्जसमयं । -षट्० खण्ड० १ । ५ । सू १९४ । पु ४ । पृष्ठ. ४२४ टीका-एदे संखेज्जसमया कम्हि होंति ? कवाडे चडण-ओयरणकिरियाचावददंड-पदर-पज्जायपरिणवसंखेज्जकेवलोहि संखेज्जसमयपंतीए ट्ठिदेहि अघिउत्तेहि। एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। -षद० खण्ड ० १ । ५ । सू १९५ । पु ४ । पृष्ठ० ४२४ टीका-एसो कम्हि होदि ? कवाडगरकेवलिम्हि चडणोदरण-किरियाचावददंड-पदरपज्जयपरिणवकेवलीहितो आगदम्हि । बहुमा समया किण्ण होंति ? ण, कवाडम्हि एगसमयं मोतूण बहुसमयमच्छणाभावा । कधमेक्कस्सेव जहण्णुक्क स्सववएसो? ण एस दोसो, कणिट्ठो वि जेट्टो वि एसो चेव मम पुत्तो त्ति लोगे बवहारवलंभा। औदारिकमिश्र काययोगियों में मिथ्यावृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४ ) क्योंकि, औदारिक मिश्र काययोगियों में मिथ्यादृष्टियों की परम्परा के विच्छेद का सर्वं कालों में अभाव है । एक जीव की अपेक्षा औदारिक मिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों का जघन्य काल तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है । १८३ जैसे एकेन्द्रिय जीव अधोलोक में स्थित और क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण आयुस्थिति वाले सूक्ष्म-वायुकायिकों में तीन विग्रह करके उत्पन्न हुआ । वहाँ पर तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणकाल तक लब्ध्यपर्याप्त हो, जीवित रह कर मरा । पुनः विग्रह करके कार्मणकाययोगी हो गया । इस प्रकार से तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण औदारिकमिश्र काययोगी का जघन्य काल सिद्ध हुआ । उक्त जीवों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । १८४ जैसे - कोई एक जीव लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न होकर संख्यात भवग्रहणप्रमाण उनमें परिवर्तन करके पुन: पर्याप्तकों में उत्पन्न होकर औदारिककाययोगी हो गया । इन सब संख्यात भवों के ग्रहण करने का काल मिल करके भी मुहूर्त के अंतगर्त ही रहता है, अधिक नहीं होता है | arrafमिश्र काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय होते हैं । १८५ जैसे - सात, आठ जन अथवा बहुत से सासादन सम्यग्दृष्टि, अपने योग के काल में एक समय कम अवशेष रहने पर औदारिक मिश्रकाययोगी हो गये । उसमें एक समय रह करके द्वितीय समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हुए । इस प्रकार से औदारिकमिश्रकाययोग के साथ सासादन सम्यग्दृष्टियों का एक समय लब्ध हुआ । उक्त जीवों की उत्कृष्ट काल पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । १८६ जैसे - सात, आठ जन, अथवा बहुत से सासादन सम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्रकाययोगी हुए । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के साथ अंतर्मुहूर्त काल रह करके पीछे वे मिथ्यात्व को प्राप्त हुए । उसी समय में ही अन्य दूसरे सासादन सम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्रकाययोगी हुए । इस प्रकार से एक, दो, तीन को आदि करके उत्कर्ष से पत्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र वार सासादन सम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्रकाययोग को प्राप्त करना चाहिए। इसके पश्चात् नियम से अन्तर हो जाता है। इस प्रकार से यह सब मिलाया गया काल पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र होता है । एक जीव की अपेक्षा उक्त जीवों का जघन्यकाल एक समय है । १८७ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९५ ) जैसे - एक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव अपने काल में एक समय अवशिष्ट रहने पर औदारिकमिश्रकाययोगी हो गया और द्वितीय समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । इस प्रकार एक समय प्राप्त हो गया । उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल एक समय कम छह आवली प्रमाण है । १८८ जैसे कोई एक देव अथवा नारकी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव, उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलीकाल के शेष रहने पर सासादनगुणस्थान को प्राप्त हुआ। वहाँ एक समय रह करके मरण कर तिर्यंच और मनुष्यों में ऋजुगति से उत्पन्न होकर औदारिकमिश्र काययोगी हो गया । वहाँ पर एक समय कम छह आवली तक रहकर के मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । दारिकमिश्र काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से अंतमुहूर्तकाल तक होते हैं । १८९ । जैसे - --- सात, आठ, जन, अथवा बहुत से असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव औदारिकमिश्र काययोगी हुए । और बहुत से सागरोपमकाल तक पहले दुःखों के साथ रहे हुए होने से सर्वलघुकाल से पर्याप्तियों को प्राप्त हुए । उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल अंतर्मुहूर्त है । १९० । जैसे – देव, नारकी, अथवा मनुष्य सात, आठ, जन, अथवा बहुत से सम्यग्दृष्टि जीव, औदारिकमिश्रकाययोगी हुए। वे सब पर्याप्तपने को प्राप्त हुए। उसी समय में ही अन्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव औदारिक मिश्रकाययोगी हुए । इस प्रकार एक, दो, तीन इत्यादि क्रम से उत्कृष्ट संख्यात वार तक अन्य अन्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव मिश्रकाययोगी हो गये । इन संख्यात शलाकाओं में से एक अपर्याप्तकाल से गुणा करने पर वह सब काल चूंकि एक मुहूर्त के अन्तर्गत ही होता है, अतः सूत्रकार ने अंतर्मुहूर्तकाल कहा है । एक जीव की अपेक्षा उक्त जीवों का जघन्यकाल अंतर्मुहूर्त है । १९१ । जैसे - छट्ठे पृथ्वी का कोई एक सम्यग्दृष्टि नारकी बाईस सागर तक दुःखों से एक रस अर्थात् अत्यन्त पीड़ित होकर जीता रहा । पुनः छट्ठी पृथ्वी से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । विग्रहगति में, सम्यक्त्व के महात्म्य से उदय में आये हैं, पुण्यप्रकृति के पुद्गल परमाणु जिसके ऐसे उस जीव के औदारिकनामकर्म के उदय से सुगन्धित, सुरस, सुवर्ण और शुभ स्पर्श वाले पुद्गलपरमाणु बहुलता से आते हैं, क्योंकि उस समय उसके योग की बहुलता देखी जाती है । ऐसे जीव के औदारिकमिश्रकाययोग का जघन्यकाल होता है । एक जीव को अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियों का उत्कृष्टकाल अंतर्मुहूर्त है | १९२ । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न है कि यह उत्कृष्टकाल किस जीव के होता है ? समाधान – यह है कि तेंतीस सागरोपमकाल तक सुख से ललित-पालित हुए तथा दुःखों से रहित सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देव के विष्टा, मूत्र, आंतड़ी, पिस, खरिस ( कफ ) चर्वी, नासिकामल, लोहू, शुक्र और आम से व्याप्त, अतिदुर्गन्धित, कुत्सित रस, दुर्वर्ण और दुष्ट स्पर्श वाले चमार के कुण्ड के सदृश मनुष्य के गर्भ में उत्पन्न हुए जीव के औदारिकमिश्रकाययोग का उत्कृष्ट काल होता है, क्योंकि उसके विग्रहगति में तथा उसके पश्चात् भी मंदयोग होता है, इस प्रकार आचार्य-परम्परागत उपदेश है, मंदयोग से अल्पपुद्गलों को ग्रहण करने वाले जीव से औदारिकमिश्रकाययोग का काल दीर्घ होता है, यह अर्थ कहा गया है। अथवा, यहाँ पर चाहे योगकाल का बड़ा ही रहा आवे, और योग के वश से पुद्गल भी बहुत से आते रहें, तो भी उक्त प्रकार के जीव के अपर्याप्तकाल बड़ा ही होता है, क्योंकि विलास से दूषित जीव के शीघ्रतापूर्वक पर्याप्तियों को सम्पूर्ण करने में असामर्थ्य है। औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय होते हैं। १९३ । प्रश्न है कि यह एक समय किसके होता है ? समाधान यह है कि दंड समुद्घात से कपाट समुद्घात को प्राप्त होकर और वहाँ एक समय रहकर प्रतरसमुद्घात को प्राप्त हुए सात-आठ केवलियों के यह एक समय होता है। अथवा, रूचकसमुद्घात से कपाटसमुद्घात को प्राप्त होकर और एक समय रह करके दंड समुद्घात को प्राप्त होने वाले केवलियों के यह एक समय होता है । औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवलीजिनों का उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । १९४। शंका--ये संख्यात समय किसमें होते हैं ? समाधान-कपाटसमुद्घात की आरोहण और अवतरणरूप क्रिया में लगे हुए दंडसमुद्घात और प्रतरसमुद्घातरूप पर्याय से परिणत संख्यात समयों की पंक्ति में स्थित, ऐसे संख्यात केवलियों के द्वारा अधिकृत अवस्था में उक्त संख्यात समय पाये जाते हैं। एक जीव की अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवलीजिनों का जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । १९५ । प्रश्न है कि यह एक समय कहाँ होता है ? समाधान—आरोहण और अवतरणरूप क्रिया में व्यापृत, ऐसे दंडसमुद्घात और प्रतरसमुद्घात रूप पर्याय से क्रमशः परिणत हो उक्त समुद्घात केवली अवस्था से आये हुए कपाटसमुद्घातगत केवली को यह एक समय पाया जाता है । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७ ) क्योंकि, कपाटसमुद्घात में एक समय को छोड़कर बहुत समय रहने का अभाव है अतः उक्त प्रकार के जीवों के बहुत समय नहीं पाये जाते हैं। शंका-ये फिर एक ही समय के जघन्य और उत्कृष्ट का व्यपदेश कैसे हुआ। समाधान---यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कनिष्ट भी है और ज्येष्ठ भी है । 'यही हमारा पुत्र है' इस प्रकार का लोक में व्यवहार पाया जाता है अतः एक में भी जघन्य और उत्कृष्ट का व्यपदेश हो सकता है । योग की स्थिति ( योगकालः ) औदारिकमिश्रस्य अन्तमुहूर्तः । -गोजी० गा० ६७१ । टीका औदारिकमिश्रकाययोग का काल अन्तर्मुहूर्त है। .०५ वैक्रिय काययोगी जीवों की कालस्थिति वेउव्वियकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, गाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। -षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १९६ । पु ४ । पृष्ठ० ४२५ टोका-कुदो ? सव्वद्धासु वेउन्वियकायजोगिमिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिद्विसंताणवोच्छेदाभावा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। --षट् खण्ड ० १ । ५ । सू १९७ । पु ४ । पृष्ठ० ४२५ टोका-तं जधा-एगो मिच्छादिट्ठी मण-वचिजोगेसु अच्छिदो अद्धाखएण वेउव्वियकायजोगी जादो। एगसमयं वेउब्वियकाय जोगेण दिट्ठो। विदियसमए मदो अण्णजोगं गदो। मरणेण विणा सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी वा जादो। अधवा सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छाविट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी वा वेउब्वियकायजोगद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति मिच्छादिट्ठी जादो। विदियसमए अण्णजोगं गदो। वाघादेण एगसमओ णस्थि, विरुद्धकायजोगादो। एवमसंजदसम्माविट्ठिस्स वि एगसमयपरुवणा तोहि पयारेहि कायव्वा । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। -षट्० खण्ड० १। ५ । सू १९८ । पु ४ । पृष्ठ० ४२५ । ६ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८ ) टीका-मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्टीणो देवा णेरइया वा मण- वचिजोगे द्विदा कायजोगिणो जादा । सव्वुक्कस्समंतो- मुहुत्तमच्छिय अण्णजोगिणो जादा । लद्धमंतोमुहुत्तं । सास सम्मादिट्ठी ओघं । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १९९ । ४ । पृष्ठ ० ४२६ टीका - णाणाजीव पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छ आवलियाओ, इच्चे देहि ओधसासणादो भेदाभावा । सम्मामिच्छादिट्टीणं मणजोगिभंगो । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । प्तू २०० । पु ४ । पृष्ठ ० ४२६ टीका - णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगो समओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमिच्चेएग मणजोगिसम्मामिच्छादिट्ठीहिंतो वेउब्विय कायजोगिसम्मामिच्छादिट्ठीणं विसेसाभावा । वैकिकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं । १९६ । क्योंकि, सभी कालों में वैक्रियिककाययोगवाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों की परम्परा के विच्छेद का अभाव है । एक जीव की अपेक्षा उक्त जीवों का जघन्यकाल एक समय है । १९७ । जैसे कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव मनोयोग अथवा वचनयोग में विद्यमान था । वह उस योग के काल के क्षय हो जाने से वैक्रियिककाययोगी हो गया । तब वह एक समय वैक्रियिककाययोग के साथ दृष्टिगोचर हुआ । द्वितीय समय में मरा और अन्य योग को प्राप्त हो गया । अथवा मरण के बिना सम्यग्मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया । अथवा सासादनसम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिध्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि कोई जीव काययोग के काल में एक समय अवशेष रहने पर, मिथ्यादृष्टि हो गया और द्वितीय समय में अन्य योग को प्राप्त हुआ । इस प्रकार से एक समय लब्ध होता है । यहाँ पर व्याघात की अपेक्षा एक समय नहीं पाया जाता है, क्योंकि काययोग की अपेक्षा कथन हो रहा है ( व्याघात जो मनोयोग और वचनयोग में पाया जाता है ) । इसी प्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि जीव के भी एक समय की प्ररूपणा तीन प्रकार से करनी चाहिए । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९ ) उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल अंतर्मुहूर्त है । १९८ । जैसे - मनोयोग और वचनयोग में स्थित मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि कोई देव और नारकी जीव वैक्रियिककाययोगी हुए और उसमें सर्वात्कृष्ट अंतर्मुहूर्तकाल रह करके अन्य योग वाले हो गये । इस प्रकार से उत्कृष्टकालरूप अंतर्मुहूर्त प्राप्त हो गया । affar योगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों का काल ओघ के समान है । १९९ । अस्तु नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय, उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्यातवां भाग, तथा एक जीव की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से छह आवली, इस रूप में ओघवर्णत्त सासादनगुणस्थान के काल से इसमें कोई भेद नहीं है । defecareयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों का काल मनोयोगियों के समान है । २०० । नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय तथा उत्कृष्टकाल पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अंतर्मुहूर्त है । इस प्रकार से मनोयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों से वैक्रियिककाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के काल में कोई विशेषता नहीं है । -०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी जीवों की काल स्थिति deforfमस्कायजोगीसु मिच्छादिट्ठो असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । -- षट्० खण्ड० १ । ५ । सू २०१ । पु ४ । पृष्ठ० ४२६ । ७ टीका - एत्थ तावमिच्छादिट्ठिस्स जहण्णकालो वुच्चदे-सत्तट्ठ जणा बहुआ वादगणो उवरिमगेवज्जेसु उववण्णा सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण पर्जात गदा । संपति सम्मादिट्ठीगं वच्चदेसं खेज्जा संजदा सव्वदेवेसु दो विग्गहं कावण पज्जति गदा । किमट्ठ दो विग्गहे कराविदा ? बहुपोग्गलग्गहष्टुं । तं पि किमट्ठ ? थोवकालेण पर्जातिसमाणट्ठ | मिच्छादिट्ठी दो विग्गहे किण्ण कराविदो ? ण, तत्थ वि पडिसेहाभावा । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असं खेज्जदिभागो । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू २०२ । ४ । पृष्ठ ० ४२७ । ८ टीका - सत्तट्ठ जणा उक्कस्सेण असंखेज्जसेढिमेत्ता वा मिच्छादिट्टिणो देवरइएस उववज्जिय वेउब्वियमिस्स कायजोगिणो जादा, अंतोमुहुत्तेण पत गदा । तस्समए चेव अण्णे मिच्छादिट्टिणो वेजव्वियमिस्सकायजोगिणो जादा । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) एवमेक्क-दो तिणि उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमे त्ताओ सलागाओ लब्भंति । एदाहि वेउव्वियमिस्सद्ध ं गुणिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो asforयमिस्सकालो होदि । असंजदसम्मादिट्ठीणं पि एवं चैव वत्तत्वं । णवरि एवे एसमएण पलिदोवमस्स असं खेज्जदिभागमेत्तो उक्कस्सेण उप्पज्नंति, रासीदो asoorमिस्सकालो असंखेज्जगुणो । तं कधं नव्वदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो | देवलोए उत्पज्जमाणसम्मादिट्ठीहितो देव णेरइएसु उप्पज्जमाणमिच्छादिट्ठी असंखेज्जसे ढिगुणिदमेत्ता होंति त्ति कालो वि तावदिगुणो किण्ण होदि त्ति वुते, ण होदि, उपहत्य वेडव्दियमिस्सद्धासलागाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमे त्वदेसा | एगजीवं पच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू २०३ । पु४ । पृष्ठ ० ४२८ टीका-तं जधा – एक्कोदव्वलिंगी उवरिमगेवेज्जेसु दो विग्गहे कादूण उववण्णो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण पर्जात गदो । सम्मादिट्ठी एक्को संजदो सव्वट्टदेवेसु दो विग्गहे कादूण उववण्णो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण पज्जत्ति गदो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू २०४ । पु ४ । पृष्ठ ० ४२९ टीका-तं जधा – एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा मिच्छादिट्ठी सत्तमपुढविणेरइएसु उववण्णो सव्वचिरेण अंतोमुहुत्तेण पर्जांत गदो । सम्मादिट्ठिस्स- एक्को बद्धणिरयाओ सम्मत्तं पडिवज्जिय दंसणमोहणीयं खविय पढमपुढविणेरइएसु उववज्जिय सव्वचिरेण अंतोमुहुत्तेण पर्जात गदो । दोहं जहणकालेहितो उक्कस्सकालादो वि संखेज्जगुणा । कधमेदं णव्वदे ? गुरुवदेसादो । सास सम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू २०५ । पु ४ । पृष्ठ० ४२९ टीका- तं जधा - सत्तट्ठ जणा बहुआ वा सासणसम्मादिट्टिणी सगद्धाए एगो समओ अस्थि त्ति देवेसु उववण्णा । विदियसमए सच्चे मिच्छतं गदा । लद्धो एगसमओ । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू २०६ । पु ४ । पृष्ठ० ४२९ । ३० Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१) टोका-तं जहा-सत्तट्ठ जणा जावुक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेसा वा एक्क-वे-तिण्णि समए आदि कादूण जाव उक्कसेण समऊण-छआवलियाओ सासणद्धा अस्थि त्ति देवेसु उववण्णा। ते सव्वे कमेण मिच्छत्तं गदा। तस्समए चेव पुव्वं व सासणा देवेसुववणा। एवं णिरंतरं गाणाजीवे अस्सिदूण सासणद्धा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता सगरासीदो असंखेज्जगुणा जादा त्ति। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं । - पट० खण्ड ० १ । ५ । सू २०७ । पु ४ । पृष्ठ० ४३० टीका-तं जधा-एक्को सासणो सगद्धाए एगसमओ अत्थि त्ति देवेसुववण्णो, विदियसमए मिच्छत्तं गदो। लद्धो एगसमओ। उक्कस्सेण छ आवलियाओ समऊणाओ। -षट० खण्ड० १ । ५ । सू २०८ । पु ४ । पृष्ठ० ४३० टीका-तं जधा-एक्को तिरिक्खो मणुस्सो वा उवसमसम्मत्तद्धाए छ आवलियाओ अत्थि त्ति आसाणं गंतूण एगसमयमच्छिय उजुगदीए देवेसुवधज्जिय समऊण-छ-आवलियाओ आसाणेणच्छिय मिच्छत्तं गदो। वैक्रियमिश्रकाययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक रहते हैं ? । २०१। नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्तकाल तक होते हैं । अस्तु यहाँ पर पहले मिथ्यादृष्टि का जघन्यकाल कहते हैं। सात, आठ, अथवा बहुत से द्रव्यलिंगी जीव उपरिम वेयकों में उत्पन्न हुए और सर्वलघु अंतमुहर्तकाल से पर्याप्तपने को प्राप्त हुए। अब सम्यग्दृष्टि का जघन्यकाल कहते हैं। संख्यात संयत दो विग्रह करके सर्वार्थसिद्धविमानवासी देवों में पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुए। बहुत सी पुद्गलवर्गणाओं के ग्रहण कराने के लिए दो विग्रह कराये गए हैं । अल्पकाल के द्वारा पर्याप्तियों के सम्पन्न करने के लिए बहुत से पुद्गलों का ग्रहण आवश्यक है। शंका-मिथ्यादृष्टि जीव के दो विग्रह क्यों नहीं कराये गये हैं। समाधान नहीं, क्योंकि, उनमें भी प्रतिषेध का अभाव है। अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव भी दो विग्रह कर सकते हैं। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का उत्कृष्ट काल पल्योपम के असंख्यातवें भाग है । २०२। अस्तु सात-आठ जन, अथवा उत्कर्ष से असंख्यातश्रेणि मात्र मिथ्यादृष्टि जीव देव, अथवा नारकियों में उत्पन्न होकर वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुए और अन्तर्मुहूर्त से पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुए। उसी समय में ही अन्य मिथ्यादृष्टि जीव वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुए। इस प्रकार से एक, दो, तीन आदि लेकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग-मात्र वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों की शलाकाएं पाई जाती है। इससे वैक्रियिकमिश्रकाययोग के काल को गुणा करने पर पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण वैक्रियमिश्रकाययोग का काल होता है। __ असंयतसम्यग्दृष्टियों का काल भी इसी प्रकार से जानना चाहिए। विशेष वात यह है कि ये असंयतसम्यगदृष्टि जीव एक समय में पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र उत्कृष्ट रूप से उत्पन्न होते हैं, क्योंकि इस उत्पन्न होने वाली राशि से वैक्रियिकमिश्रकाययोग का काल असंख्यातगुणा है। शंका-यह कैसे माना जाता है। समाधान-आचार्यपरम्परागत उपदेश से जाना जाता है कि एक समय में उत्पन्न होने वाली असंयतसम्यग्दृष्टि राशि से उक्त काल असंख्यातगुणा है । अस्तु ( देव व नारकी) दोनों ही स्थानों पर अर्थात् मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यगदृष्टि वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में, वैक्रियिकमिश्र काल की शलाकाओं के पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र होने का उपदेश है । एक जीव की अपेक्षा उक्त जीवों का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । २०३ । अस्तु-एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिम वेयकों में दो विग्रह करके उत्पन्न हुआ और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त के द्वारा पर्याप्तपने को प्राप्त हुआ। एक सम्यग्दृष्टि भावलिंगी संयत सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों में दो विग्रह करके उत्पन्न हुआ और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकाल से पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुआ। एक जीव की अपेक्षा उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है । २०४ । अस्तु-कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथ्वी के नारकियों में उत्पन्न हुआ और सबसे बड़े अन्तमुहूर्तकाल से पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुआ। अब असंयतसम्यग्दृष्टि की कालप्ररूपणा कहते हैं-कोई एक बद्धनरकायुष्क जीव सम्यक्त्व को प्राप्त होकर दर्शन मोहनीय का क्षपण करके और प्रथम पृथ्वी के नारकियों में उत्पन्न होकर सबसे बड़े अन्तर्मुहूर्तकाल में पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुआ। दोनों के जघन्यकालों से दोनों ही उत्कृष्टकाल संख्यातगुणे हैं । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव-नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय तक होते हैं । २०५। जैसे-सात-आठ जन, अथवा बहुत से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव अपने गुणस्थान के काल में एक समय अवशेष रहने पर देवों में उत्पन्न हुए और द्वितीय समय में सबके सब मिथ्यात्व को प्राप्त हुए। इस प्रकार एक समय प्राप्त हो गया। उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । २०६ । जैसे-सात-आठ जन, अथवा उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र जीव, एक, दो अथवा तीन समय को आदि देकर उत्कर्ष से एक समय कम छह आवली प्रमाण सासादनकाल के अवशेष रहने पर वे सबके सब देवों में उत्पन्न हुए। पुनः वे सब क्रम से मिथ्यात्व को प्राप्त हुए। उसी समय में ही पूर्व के समान अन्य सासादनसम्यग्दृष्टि जीव देवों में उत्पन्न हुए। इस प्रकार निरन्तर नाना जीवों का आश्रय करके सासादनगुणस्थान का काल पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र और अपनी राशि से असंख्यातगुणा हो जाता है। एक जीव की अपेक्षा उक्त जीवों का जघन्यकाल एक समय है । २०७ । जैसे-कोई एक सासादनसम्यगदृष्टि जीव अपने गुणस्थान के काल में एक समय अवशिष्ट रहने पर देवों में उत्पन्न हुआ और द्वितीय समय में ही मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से एक समय प्रमाणकाल उपलब्ध हो गया। वैक्रियमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि का उत्कृष्टकाल एक समय कम छह आवली प्रमाण है । २०८ । ___ अस्तु-जैसे कोई एक तिर्यंच अथवा उपशम सम्यक्त्व के काल में छह आवलियां अवशिष्ट रहने पर सासादनगुणस्थान को प्राप्त होकर और एक समय वहाँ रहकर ऋजुगति से देवों में उत्पन्न होकर एक समय कम छह आवली प्रमाणकाल तक सासादनगुणस्थान के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। .०७ आहारककाययोगी जीवों को कालस्थिति ___ आहारकायजोगीसु पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होति, गाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं । -षट् खण्ड० १ । ५ । सू २०९ । पु ४ । पृष्ठ० ४३१ टोका-तं जहा–सत्तट्ठ जणा पमत्तसंजदा मणजोगेण पचिजोगेण वा अच्छिदा सगराए खीणाए आहारकायजोगिणो जादा। विदियसमए मुदा, Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) मूलसरीरं वा पविट्ठा। लद्धो एगसमओ। एत्थ वाघाद-गुणपरावत्तीहि एगोसमओ ण लब्भादे। उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं। -षट० खण्ड० १ । ५ । सू २१० । पु ४ । पृष्ठ० ४३१ टोका--तं जहा-आहरसरीरमुट्ठानिदपमत्तसंजदा मण-वचि-जोगिट्ठिदा आहारकायजोगिणो जादा। जाधे ते जोगंतरं गदा, ताधे चेव अण्णे आहारकायजोगं पडिवण्णा। एवमेगादि एगुत्तरवड्डीए संखेज्जसलागाओ लभंति। एदाहि एगं कायजोगद्धगुणिदे आहारकायजोगद्धा उक्कस्सिया अंतोमुत्तपमाणा होदि । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। -षट् ० खण्ड० १ । ५ । सू २११ । पु ४ । पृष्ठ० ४३१ । २ टोका-तं जधा-एक्कोपमत्तसंजदो मणजोगे वचिजोगे वा अच्छिदो आहारकायजोगं गदो। विदियसमए मदो, मूलसरीरं वा पविट्ठो। उक्कसेण अंतोमहत्तं। -षट् खण्ड० १ । ५ । सू २१२ । पु ४ । पृष्ठ० ४३२ टीका-तं जधा-मणजोगे वचिजोगे वा ट्ठिदपमत्तसंजदो आहारकायजोगं गदो, सव्वुक्कस्समंतोमुत्तमाच्छिय अणजोगं गदो। आहारककाययोगियों में प्रमत्तसंयत-नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय होते हैं । २०९। ___ अस्तु-जैसे सात-आठ प्रमत्तसंयत मनोयोग अथवा वचनयोग के साथ वर्तमान में थे। वे अपने योगकाल के क्षीण हो जाने पर आहारककाययोगी हुए। द्वितीय समय में मरे अथवा मूल औदारिकशरीर में प्रविष्ट हुए। इस प्रकार से एक समय का काल उपलब्ध हो गया। यहाँ व्याघात अथवा गुणस्थानपरिवर्तन के द्वारा एक समय प्राप्त नहीं होता है। उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । २१० । अस्तु -जैसे आहारकशरीर को उत्पन्न करने वाले, मनोयोग अथवा वचनयोग में विद्यमान प्रमत्तसंयत जीव आहारककाययोगी हुए। जब वे किसी दूसरे योग को प्राप्त हुए उसी समय में ही अन्य प्रमत्तसंयत आहारककाययोग को प्राप्त हुए। इस प्रकार एक को आदि लेकर एकोत्तर वृद्धि से संख्यात शलाकाएं प्राप्त होती है। इन शलाकाओं से एक काययोग के काल को गुणा करने पर उत्कृष्ट आहारककाययोग का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हो जाता है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) एक जीव की अपेक्षा आहारककाययोगी जीवों का जघन्यकाल एक समय है । २११ । अस्तु - जैसे मनोयोग या वचनयोग में विद्यमान कोई एक प्रमत्तसंयत जीव आहारककाययोग को प्राप्त हुआ और द्वितीय समय में मरा अथवा मूल शरीर में प्रविष्ट हो गया । उक्त जीवों या उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अस्तु – जैसे मनोयोग अथवा वचनयोग में विद्यमान कोई एक प्रमत्तसंयत जीव आहारक काययोग को प्राप्त हुआ। वहाँ पर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल रह करके अन्य योग को प्राप्त हुआ । ०८ आहारकमिश्रकाययोगी जीवों की कालस्थिति आहार मिस्स कायजोगोसु पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होंति, णाणाजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू २१३ | ४ | पृष्ठ० ४३२ टीका-तं जधा - सत्तट्ठ जणा पमत्तसंजदा दिट्ठमग्गा आहारमिस्सजोगिणो जादा, सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण पज्जति गदा । एवं जहण्णकालो परूविदो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । - षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू २१४ । पु४ । पृष्ठ ० ४३२ । ३ टीका - तं जधा - सत्तट्ठ जणा पमत्तसंजदा दिट्ठमग्गा वा आहारमिस्सकायजोगिणो जादा, अंतोमुहुत्तेण पर्जात गदा । तस्समए चेव अण्णे आहारमिस्सकायजोगिणो जादा । एवमेक्क-दो तिष्णि जा संखेज्जसलासा जादा त्ति कादव्वं । पुणो एदाहि सलागाहि आहारमिस्स कायजोगद्ध गुणिदे आहार मिस्स - कायजोगस्स उक्कस्सकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो होदि । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं । - षट्० खण्ड० १ । ५ । सू २१५ । पु ४ | पृष्ठ० ४३३ टीका-तं जधा – एक्का पमत्तसंजदो पुत्रमणेगवारमुट्ठाविदआहारसरीरो आहार मिस्सकायजोगी जादो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण पर्जात गदो । लद्धो कालो । उक्सेण अंतोमुहुत्तं । - षट्• खण्ड ० १ । ५ । सू २१६ । पु ४ । पृष्ठ० ४३३ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) टीका-तं जधा-एक्को पमत्तसंजदो अविट्ठमग्गो आहारमिस्सो जादो। सव्वचिरेण अंतोमुहुत्तेण जहण्णकालादो संखेज्जगुणेण पज्जति गदो। आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत जीव-नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से अन्तमुहूर्तकाल होते हैं । २१३ । ___ अस्तु-जैसे-देखा है कि मार्ग को जिन्होंने ऐसे सात-आठ प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुए और सर्वलघु अन्तमुहूर्त से पर्याप्तपने को प्राप्त हुए। इस प्रकार जघन्यकाल कहा है। उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अस्तु-जैसे-देखा है मार्ग को जिन्होंने ऐसे, अथवा अदृष्टमार्गी सात-आठ प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुए और अन्तमुहूर्त से पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुए। उसी समय में ही अन्य भी प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुए। इस प्रकार से एक, दो, तीन से आदि लेकर जब तक संख्यात शलाकाएं पूरी न हों, तब तक संख्या बढ़ाते जाना चाहिए। पुनः इन शलाकाओं से आहारकमिश्रकाययोग के काल से गुणा करने पर आहारकमिश्रकाययोग का अन्तमुहूर्तप्रमाण उत्कृष्टकाल होता है। एक जीव की अपेक्षा आहारकमिश्रकाययोगी जीवों का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । २१५। अस्तु-जैसे पूर्व में जिसने अनेक बार आहारकशरीर को उत्पन्न किया है - ऐसा कोई प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी हुआ और सबसे लघु अन्तमुहर्त से पर्याप्तपने को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से जघन्यकाल प्राप्त हो गया। उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अस्तु-जैसे-नहीं देखा है मार्ग से जिसने ऐसा कोई एक प्रमत्तसंयत जीव आहारकमिश्रकाययोगी भी हुआ, और जघन्यकाल से संख्यातगुणे सबसे बड़े अन्तर्मुहूर्त द्वारा पर्याप्तियों की पूर्णता को प्राप्त हुआ। •०७ आहारककाययोग की स्थिति •०८ आहारकमिश्रकाययोग की स्थिति आहारककाययोग्यः संजिपर्याप्तषष्ठगुणस्थाने जघन्योत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्तकाले एव भवति। ___ तन्मिश्रयोगः इतरस्मिन् संज्यपर्याप्तषष्ठगुणस्थाने खलु जघन्योत्कृष्टेन तावत्काले एव भवति । -गोजी० मा० ६८३ । टीका Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७ ) १-आहारककाययोग संज्ञीपर्याप्त छ8 गुणस्थान में जघन्य-उत्कृष्ट अन्तमुहूर्तकाल में ही होता है। २–आहारकमिश्रकाययोग संज्ञिअपर्याप्त अवस्था में छ8 गुणस्थान में जघन्यउत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्तकाल में ही होता है । नोट--वैक्रियमिश्रकाययोग की स्थिति जघन्य-उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल की है। वैक्रियकाययोग की स्थिति उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून ३३ सागर की है। .०९ कार्मणकाययोगी जीवों की कालस्थिति कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, गाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। -षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू २१७ । पु ४ । पृष्ठ० ४३३ टोका–कुदो ? विग्गहगदीए वट्टमाणजीवाणं सव्वद्धासु विरहभावादो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । -षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू २१८ । पु ४ । पृष्ठ• ४३३ । ४ टोका-तं जहा---एगो मिच्छादिट्ठी विग्गहगदिणामकम्मवसेण एगविग्गहे मारणंतियं गदो। पुणो अंतोमुहुत्तेण छिण्णाउओ होदूण बद्धाउवसेण उप्पण्णपढमसमए कम्मइयकायजोगी जादो। विदियसमए ओरालियमिस्सं वेउब्धियमिस्सं वा गदो। लद्धो एगसमओ। उक्कस्सेण तिण्णि समया। -षट् खण्ड ० १ । ५ । सू २१९ । पु ४ । पृष्ठ० ४३४ । ५ टीक-तं जधा-एगो सुहमेइ दियो अहो सुहमवाउकाइएसु तिण्णि विग्गहं मारणंतियं गदो। अंतोमुहुत्तेण छिण्णाउओ होदूण उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि तिसु विग्गहेसु तिण्णि समयं कम्मइयजोगी होदूण चउत्थसमए ओरालियमिस्सं गदो। सुहमेइ दियाणं सुहुमेइ दिएसु उपज्जमाणाणं तिण्णि विग्गहा होंति त्ति णियमो कधं णव्वदे ? पत्थि एत्थ णियमो, किंतु संभवं पडुच्च सुहुमेइदियग्गहणं कदं । बादरेइ दिया सुहुमेइ दिया तसकाया वा सुहुमेइ दिएसु उववज्जमाणा तिष्णि विग्गहे करेंति ति एस णियमो घेत्तव्यो, आइरियपरंपरागदत्तादो। तिण्णिविग्गहाकरणदिसा वुच्चदे-बम्हलोगुद्दे से वामदिसालोगपेरंतादोतिरिच्छेण दक्खिणं Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) तिष्णि रज्जुमेत्तं गंतूण तदो साद्धदसरज्जुणि अधो कंडुज्जुवं गंतूण तदो संमुहं चदुरज्जुमेत्तं आगंतूण कोणदिसाठिदलोगपेरंतसुहुमवाउका इएस उपज्जमानस्स तिणि विग्गहा होंति । कार्मणका योगियों में मिथ्यादृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं । २१७ ॥ क्योंकि, सभी कालों में विग्रहगति में विद्यमान जीवों के विरह का अभाव है । एक जीव की अपेक्षा उक्त जीवों का जघन्यकाल एक समय है । २१८ । - अस्तु – जैसे – एक मिथ्यादृष्टि जीव, विग्रहगति नामकर्म के वश से एक विग्रह वाले मारणान्तिकसमुद्घात को प्राप्त हुआ । पुनः अन्तर्मुहूर्त से छिन्नायुष्क होकर बांधी हुई आयु के वश से उत्पन्न होने के प्रथम समय में कार्मणकाययोगी हुआ । पुनः द्वितीय समय में औदारिक मिश्रकाययोग को, अथवा वैक्रियिकमिश्रकाययोग को प्राप्त हुआ । इस प्रकार से एक समय उपलब्ध हुआ । एक जीव की अपेक्षा कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों का उत्कृष्टकाल तीन समय है । २१९ । अस्तु – जैसे - एक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव अधस्तन सूक्ष्म वायुकायियों में तीन विग्रह वाले मारणान्तिकसमुद्घात को प्राप्त हुआ । पुन: अन्तर्मुहूर्त से छिन्नायुष्क होकर उत्पन्न होने के प्रथम समय से लगाकर तीन विग्रहों में तीन समय तक कार्मणकाययोगी होकर चौथे समय में औदारिकमिश्रकाययोग को प्राप्त हो गया । शंका- सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्मएकेन्द्रिय जीव के तीन विग्रह होते हैं, यह नियम कैसे बना । समाधान - यद्यपि इस विषय में कोई नियम नहीं है, तो भी संभावना की अपेक्षा यहाँ पर सूक्ष्म केन्द्रियों का ग्रहण किया है । अतः सूक्ष्मएकेन्द्रियों में उत्पन्न होने वाले बादरए केन्द्रिय या सूक्ष्म एकेन्द्रिय अथवा त्रसकायिक जीव ही तीन विग्रह करते हैं । यह नियम ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, यही उपदेश आचार्य परम्परा से आया हुआ है । अब तीन विग्रह करने की दिशा को कहते हैं - ब्रह्मलोकवर्ती प्रदेश पर वामदिशा सम्बन्धी लोक के पर्यन्त भाग से तिरछे दक्षिण की ओर तीन राजुप्रमाण जाकर पुनः साढे दस राजु नीचे की ओर बाण के समान सीधी गति से जाकर पश्चात् सामने की ओर चार राजुप्रमाण आकर कोणवर्ती दिशा में स्थित लोक के अन्तवर्ती सूक्ष्मवायुकायिकों में समुत्पन्न होने वाले जीव के तीन विग्रह होते हैं । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०९ ) सासणसम्मादिट्ठी असंजवसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति, गाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । -षट्० खण्ड० १ । ५ । सू २२० । पु ४ । पृष्ठ० ४३५ टोका-तं जधा-सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी एगविग्गहं कादूगुप्पण्णपढमसमए एगसमओ कम्मइयकायजोगेण लग्भदि । उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। -षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू २२१ । पु ४ । पृष्ठ. ४३५ टोका-तं जधा-सासणसम्माविट्ठी-असंजदसम्माविट्ठिणो दोण्णि विग्गहं कादूण बद्धाउवसेणुप्पज्जिय दोण्णि समए अच्छिय ओरालियमिस्सं वेउम्वियमिस्सं वा गदा। तस्समए चेव अण्ण कम्मइयकायजोगिणो जादा। एवमेगं कंडयं कादण एरिसाणी आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तं कंडयाणि होति । एदाणं सलागाहि दोणि समए गुणिदे आवलियाए असंखेज्जभागमेत्तो कम्मइयकायजोगस्स उक्कस्सकालो होदि। एग जीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं । -षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू २२२ । पु ४ । पृष्ठ. ४३६ टीका-सुगममेदं सुत्तं। उक्कस्सेण वे समयं । -षट् खण्ड ० १ । ५ । सू २२३ । पु ४ । पृष्ठ• ४३६ टोका-कुदो? एदेसि सुहुमेइ दिएसु उप्पत्तीए अभावा, वडि-हाणिकमेण द्विदलोगते उप्पत्तीए अभावावो च । सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होति, गाणाजीवं पडुच्च जहणेण तिण्णि समयं । --षट् खण्ड ० १ । ५ । सू २२४ । पु ४ । पृष्ठ० ४३६ टोका-तं जहा-सत्तट्ठ जणा वा सजोगिणो समगं कवाडं गदा पदर-लोगपूरणं गंतूण भूओ पदरं गंतूण तिण्णि समयं कम्मइयकायजोगिणो होण कवाडं गवा। उक्कस्सेण संखेज्जसमयं । -षट्० खण्ड० १ । ५ । सू २२५ । पु४ । पृष्ठ० ४३६ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) टोका-कुदो? तिण्णि समइयं कंडयं काऊण संखेज्जकंडयाणमुवलंभा। एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण तिण्णि समयं । --षट्० खण्ड० १ । ५ । सू २२६ । पु ४ । पृष्ठ० ४३६ । ७ टोका-कुदो? पदरादो लोगपूरणादो वा कवाडस्स गमणाभावा। कामंणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव-नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय होते हैं । २२० । अस्तु-जैसे-कोई सासादनसम्यगदृष्टि और असंयतसम्यगदष्टि जीव एक विग्रह करके उत्पन्न होने के प्रथम समय में एक समय कार्मणकाययोग के साथ पाया जाता है । उक्त जीवों का उत्कृष्टकाल आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । २२१ । जैसे पूर्व पर्याय को छोड़ने के पश्चात् कितने ही सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव बांधी हुई आयु के वश से उत्पन्न होकर विग्रहगति में दो विग्रह करके, दो समय रहकर, पुनः औदारिकमिश्रकाययोग को अथवा वैक्रियिकमिश्रकाययोग को प्राप्त हुए । उसी समय में ही दूसरे जीव भी कार्मणकाययोगी हुए। इस प्रकार इसे एक कांडक करके, इस प्रकार के अन्य-अन्य आवली के असंख्यातवें भाग मात्र कांडक होते हैं। इन कांड को भी शलाकाओं से दोनों समयों को गुणा करने पर आवली का असंख्यातवां भाग कार्मणकाययोग का उत्कृष्टकाल होता है । ( योगकालः ) कार्मणस्य त्रिसमयाः। -गोजी० गा० ६७१ । टीका कार्मणयोग का काल तीन समय है। योग की स्थिति ___स कार्मणकाययोगः एकद्वित्रिसमयविशिष्टविग्रहगतिकालेषु केवलिसमुद्घातसम्बन्धिप्रतरद्वयलोकपूरणे समयनये च प्रवर्तते शेषकाले नास्तीति विभागः तु शब्देन सूच्यते ? अनेन शेषयोगानामव्याघातविषये अन्तमुहर्तकालो व्याघातविषये एकसमयादि यथासंभवान्तर्मुहूर्तपर्यन्तकालश्च एकजीवं प्रतिभणितो भवति । नानाजीवापेक्षया x x x सर्वकाल इति विशेषो ज्ञातव्यः। -गोजी० गा० २४१ । टीका वह कार्मणकाययोग एक-दो या तीन समय वाली विग्रहगति के काल में और केवलिसमुद्घात संबंधी दो प्रतर और लोकपूरण के तीन समयों में होता है, शेषकाल में नहीं होता है। यह विभाग 'तु' शब्द से सूचित होता है। इससे शेष योग यदि कोई व्याघात Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) नहीं हो तो अन्तमुहूर्तकाल तक और यदि व्याधात हो तो एक समय से लेकर यथासंभव अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त एक जीव की अपेक्षा होते हैं। नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल योग की काल स्थिति है। योग की कालस्थिति औदारिककाययोग को कालस्थिति औदारिकमिथकाययोग की कालस्थिति कार्मणकाययोग को कालस्थिति समयत्तयसंखावलिसंखगुणावलिसमासहिदरासी। -गोजी० गा० २६५ । पूर्वाध कार्मणकाययोग का काल तीन समय होता है, क्योंकि विग्रहगति में अनाहारक तीन समयों में कार्मणकाययोग ही संभव है। औदारिकमिश्रकाययोग काल संख्यात आवलिमात्र होता है क्योंकि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अपर्याप्तकाल ही औदारिकमिश्र का काल है । औदारिककाययोग का काल उससे संख्यातगुणा है क्योंकि उन दोनों कालों में से हीन सब काल ही औदारिककाययोग का काल है। .४० सयोगिजीव को सयोगीत्व की अपेक्षा स्थिति .०१ मनोयोगी और वचनयोगी को कालस्थिति .०२ काययोगी की कालस्थिति .०३ औदारिककाययोगो को कालस्थिति •०४ औदारिकमिश्रकाययोगी को कालस्थिति .०५ वैक्रियकाययोगी की कालस्थिति .०६ कार्मणकाययोगी को कालस्थिति जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी कायजोगी ओरालियकायजोगी ओरालियमिस्सकायजोगी वेउम्वियकायजोगी कम्मइयकायजोगी केवचिरं कालादो होति। -षट् खण्ड० २।८ । सू १६ । पु ७ । पृष्ठ• ४६८ टोका-सुगम। सव्वद्धा। -षट् खण्ड• २ । ८ । सू १७ । पु ७ । पृष्ठ• ४६८ । ९ टीका-मणजोगि-वचिजोगीणमद्धा जहण्णेण एगसमओ, उक्कसेण अंतोमुहत्तं । मणसअपज्जत्ताणं पुण जहणओ उक्कस्सओ अंतोमुहुत्तगेत्तो चेव । जवि Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) एवं विहमणुस अपज्जत्ताणं संताणो सांतरो होज्ज तो मण-वचिजोगीणं संतानो सांत किण्ण हवे, विसेसाभावादो। ण दव्वपमाणकओ विसेसो, देवाणं संखेज्जभागमेत्तदव्वुलक्खि-वेउव्विय मिस्स कायजोगिसंताणस्स वि सव्वद्धप्प संगादो । एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं जहा - ण दव्वबहुत्तं संताणाविच्छेदस्स कारणं, संखेज्जमणुसपज्जत्ताणं संताणस्स वि वोच्छेदध्पसंगादो । ण सगद्धाथोवत्तं संताणवोच्छेदस्त कारणं, वेउव्विय मिस्सद्धादो संखेज्जगुणहीणद्ध वलक्खियमणजोगिसंताणस्स वि सांतरत्तप्पसं गावो । किंतु जस्स गुणट्टाणस्स मग्गणट्ठाणस्स वा एगजीवावद्वाणकालादो पवेसंतरकालो बहुगो होदि तस्सण्णयवोच्छेदो । जस्स पुण कयावि ण बहुओ तस्स ण संताणस्स वोच्छेदो त्ति घेत्तव्वं । मणजोगिर्वाच - जोगीणं पुण एगसमयो सुट्ट पविरलो त्ति एत्थ जहण्णकालत्तणेण ण गहिदो । 9 योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारि मिश्र काययोगी, वैक्रियकाययोगी और कार्मणकाययोगी जीव सर्वकाल में रहते हैं । अस्तु —- शंका - मनोयोगी और वचनयोगियों का काल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । परन्तु मनुष्य अपर्याप्तों का काल जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है । यदि इस प्रकार के मनुष्य अपर्याप्तों की संतान सान्तर है तो मनोयोगी और वचनयोगियों की सान्तर संतान क्यों नहीं होगी, क्योंकि उनमें कोई विशेषता नहीं है । यदि द्रव्यं प्रमाणकृत विशेषता मानी जाय तो वह भी नहीं बनती, क्योंकि देवों के संख्यातवें भाग मात्र द्रव्य से उपलक्षित वैक्रियमिश्रकाययोगी जीवों की संतान के भी सर्वकाल रहने की प्रसंग होगा । समाधान- द्रव्य की अधिकता संतान के अविच्छेद का कारण नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर संख्यात मनुष्य पर्याप्त जीवों को संतान के भी व्यवच्छेद का प्रसंग होगा । अपने काल की अल्पता भी संतानव्युच्छेद का कारण नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर वैक्रियमिश्रकाल में संख्यातगुणेहीन काल से उपलक्षित मनोयोगिसंतान के भी सान्तरता का प्रसंग आयेगा । किन्तु जिस गुणस्थान अथवा मार्गणास्थान के एक जीव के अवस्थानकाल से प्रवेशान्तरकाल बहुत होता है । उसकी संतान का व्युच्छेद होता है। जिसका वह काल कदापि बहुत नहीं है । उसकी संतान का व्युच्छेद नहीं होता, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । परन्तु मनोयोगी व वचनयोगियों का एक समय बहुत ही कम पाया जाता है । इस कारण यहाँ जघन्यकाल रूप से यह नहीं ग्रहण किया गया । • ०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी को कालस्थिति ❤ बेव्यमिस्स कायजोगी केवचिरं कालादो होंति । - षट्० खण्ड ० २ । ८ । सू १८ | पु ७ । पृष्ठ० ४६९ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २१३ ) टोका-सुगम। जहण्णेण अंतोनुहुत्तं । -षट् खण्ड ० २ । ८ । सू १९ । पु ७ । पृष्ठ. ४६९ टोका-कुदो ? ओरालियकायजोगट्टिदतिरिक्ख-मणुस्साणं बे विग्गहे कादूण देवेसुप्पज्जिय सव्वजहण्णण कालेण पज्जत्तीओ समाणिय अंतोमुहुत्तमेत्तजहण्णकालुवलंभादो। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। -षट• खण्ड० २ । ८ । सू २० । पु ७ । पृष्ठ० ४७० टोका- मणुसअपज्जत्ताणं जधा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो संताणकालो परूविदो तधा एत्थ वि परूबेदव्वो। वैक्रियमिश्रकाययोगियों का काल जघन्य से अन्तमुहूर्त है। अस्तु, क्योंकि औदारिककाययोग में स्थित तिर्यंच और मनुष्यों का दो विग्रह करके देवों में उत्पन्न होकर और सर्वजघन्यकाल से पर्याप्तियों को पूर्ण कर बहुत ही कम अन्तर्मुहूर्त मात्र जघन्यकाल पाया जाता है । वैक्रियमिश्रकाययोगियों का काल उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अस्तु जिस प्रमाण मनुष्य अपर्याप्तों के पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र संतानकाल का निरूपण किया जा चुका है, उसी प्रकार यहाँ भी निरूपण करना चाहिए। .०७ आहारककाययोगी को कालस्थिति आहारककायजोगो केवचिरं कालादो होति । -षट् खण्ड० २ । ८ । सू २१ । पु ७ । पृष्ठ० ४७. टोका–सुगम । जहण्णेण एगसमयं । -षट्० खण्ड ० २ । ८ । सू २२ । पु ७ । पृष्ठ० ४७० टोका-कुदो ? मणजोग-वचिजोगेहितो आहारकायजोगं गंतूण बिदियसमए कालं करिय जोगंतरं गयस्स एगसमयकालुवलंभावो। उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं। ---षट्० खण्ड० २।८ । सू २३ । पु ७ । पृष्ठ० ४७० 1 ७१ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) टीका- एत्थ आहारककायजोगीणं दुचरिमसमओ जाव आहारकायजोगपवेसस्स अंतरं करिय पुणो उवरिमसमए अण्णे जीवे पवेसियव्वा । एवं संखेज्जवारसलागासु उप्पण्णासु तदो णियमा अंतर होदि । एवं संखेज्जं तोमुहुत्तसमासोविअंतमुत्तमेत्तो चेव । कधं गव्वदे ? उक्कस्सकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो ति सुत्तवयणादो । -- आहारक काययोगी जीव जघन्य से एक समय तक रहते हैं। क्योंकि मनोयोग और वचनयोग से आहारककाययोग को प्राप्त होकर व द्वितीय समय में मरण कर योगान्तर को प्राप्त होने पर एक समय काल पाया जाता है । आहारककाययोगी जीव उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । यहाँ आहारककाययोगियों के द्विचरम समय तक आहारककाययोग में प्रवेश का अंतर करके पुनः उपरिम समय में अन्य जीवों का प्रवेश कराना चाहिए । इस प्रकार संख्यातवार शलाकाओं में उत्पन्न होने पर तत्पश्चात् नियम में अन्तर होता है । इस प्रकार संख्यात अन्तर्मुहूर्तों का जोड़ अन्तर्मुहूर्त मात्र ही होता है । .०८ आहारकमिश्रकाययोगी की कालस्थिति आहार मस्कायजोगी केवचिरं कालादो होंति । टीका - सुगमं । - षट्० खण्ड० २ । ८ । सू २४ । पु ७ । पृष्ठ ० ४७१ जहणेण अंतमुत्तं । - षट्० खण्ड० २ । ८ । सू २५ ॥ पु ७ । पृष्ठ ० ४७१ टीका - कुदो ? आहारमिस्सकायजोगचरस्स आहार मिस्सकायजोगं गंतूण सुट्ट. जहणेण कालेन पज्जत्तीओ समाणिदस्स जहण्णकालुवलं भादो । उक्कस्से अतोमुत्तं । - षट् ० टीका - एत्थ वि पुव्वं व संखेज्जं तोमुहुत्ताणं संकलणा कायव्वा । आहारकमिश्र काययोगी जीव जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । क्योंकि, आहारकमिश्रकाययोग में जाने वाले जीव के आहारक मिश्रकाययोग को प्राप्त होकर अतिशय जघन्यकाल से पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेने पर जघन्यकाल पाया जाता है । ० खण्ड ० २ । ८ । सू २६ । पु ७ । पृष्ठ ० ४७१ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१५ ) आहारक मिश्रकाययोगी जीव उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । अस्तु -- यहाँ पर भी पूर्व के समान संख्यात अन्तर्मुहूर्तों का संकलन करना चाहिए । ४१ योगी और कालप्ररूपणा ०१ मनोयोगी और वचनयोगी को कालस्थिति जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी के वचिरं कालादो होदि ? - षट्० खण्ड० २ । २ । ९६ । पु ७ । पृष्ठ० १५१ टीका- 'जोगिणो' इदि वयणादो बहुवयणणिद्दसो किण्ण कदो ? ण, पंचहं पि एयत्ताविणाभावेण एयवयणुववत्तीदो । सेसं मुगमं । जहणेण एगसमओ । - षट्० खण्ड० २ । २ । सू ९७ । पु ७ । पृष्ठ० १५१ टीका - मणजोगस्स ताव एगसमयपरूवणा कोरदे । तं जहा - एगो कायजोगेण अच्छिदो कायजोगद्वाए खएण मणजोगे आगदो, तेणेगसमय मच्छिय बिदियसमये मरिय कायजोगी जादो । लद्धो मणजोगस्स एगसमओ । अधवा कायजोगद्वाखएण मणजोगे आगदे बिदियसमए वाघादिदस्स पुणरवि कायजोगो चेव आगदो । लद्धो बिदियपयारेण एगसमओ । एवं सेसाणं चदुण्हं मणजोगाणं पंचहं वचिजोगाणं च एगसमयपरूवणा दोहि पयारेहि णादण कायव्वा । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । - षट्० खण्ड ० २ । २ । ९८ । पु ७ । पृष्ठ० १५२ टीका - अणप्पिदजोगादो अप्पिदजोगं गंतॄण उक्कस्सेण तत्थ अंतोमुहुत्ताagri पsि विरोहाभावादो । योगमार्गणानुसार जीव पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी कितने काल तक रहते हैं । " जोगिणो" इस प्रकार के वचन से यहाँ बहुवचन का निर्देश नहीं किया । क्योंकि पांचों के ही एकत्व के साथ अविनाभाव होने से यहाँ एकवचन उचित है । कम से कम एक समय तक जीव पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी रहते हैं । अस्तु - प्रथमतः मनोयोग के एक समय की प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार - एक जीव काययोग में स्थित था, वह काययोगकाल के क्षय मनोयोग में आया, उसके साथ एक समय रहकर व द्वितीय समय में मरकर काययोगी हो गया । इस प्रकार मनोयोग Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) का जघन्यकाल एक समय प्राप्त हो जाता है । अथवा काययोगकाल के क्षय से मनोयोग के प्राप्त होने पर द्वितीय समय में व्याघात को प्राप्त हुए उसको फिर भी काययोग ही प्राप्त हुआ । इस तरह द्वितीय प्रकार एक समय प्राप्त होता है । इसी प्रकार शेष चार मनोयोगों और पांच वचनयोगों के भी एक समय की प्ररूपणा दोनों प्रकारों से जानकर करना चाहिए । अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्तकाल तक जीव पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी रहते हैं । क्योंकि, अविवक्षित योग से विवक्षित योग को प्राप्त होकर उत्कर्ष से यहाँ अंतर्मुहूर्त तक अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं है । •• २ काययोगी की कालस्थिति काय जोगी केवचिरं कालादो होदि ? - षट्० खण्ड ० २ । २ । टीका - किममेत्थ एगवयणणिद्दे सो कदो ? मोत्तू बहूहि जीवेहि एत्थ पओजणाभावादो । ९९ । पु ७ । पृष्ठ० १५२ ण एस दोसो, एगजीवं जहणेण अंतोमुत्तं । षट्० खण्ड ० २ । २ । सू १०० ॥ पु ७ । पृष्ठ १५२ टीका - अणप्पिदजोगादो कायजोगं गदस्स जहण्णकालस्स वि अंतोमुहुत्तपमाणं मोत्तूण एगसमयादिपमाणाणुवलंभादो । उक्कस्सेण अनंतकालमसं खेज्जपोग्गल परियहं । -षट्० खण्ड० २ । २ । सू १०१ । ७ । पृष्ठ ० १५२ · टीका - अणपदजोगादो कायजोगं गंतूण तत्थ सुट्ठ दोहद्धमच्छिय कालं करिय एइ दियेसु उप्पण्णस्स आवलियाए असंखेज्ज दिभागमे त्तपोग्गल परियट्टाणि परियट्टिदस्स कायजोगुक्कस्सकालुवलं भादो । जीव काययोगी कितने काल तक रहता है । यहाँ एकवचन के निर्देश करने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक जीव को छोड़कर यहाँ बहुत जीवों से प्रयोजन नहीं है । कम से कम अन्तर्मुहूर्त तक जीव काययोगी रहता है । क्योंकि अविवक्षित योग से काययोग को प्राप्त हुए जीव के जघन्यकाल का प्रमाण अन्तर्मुहूतं को छोड़कर एक समयादि रूप नहीं पाया जाता है । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) अधिक से अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्तकाल तक जीव काययोगी रहता है। क्योंकि, अविवक्षित योग से काययोग को प्राप्त होकर और वहाँ अतिशय दीर्घकाल तक रहकर काल को करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुए जीव के आवली के असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गलपरिवर्तन भ्रमण करते हुए काययोग का काल पाया जाता है । .०३ औदारिककाययोगी और कालस्थिति ओरालियकायजोगी केचिरं कालादो होदि ? -षट्० खण्ड ० २ । २ । सू १०२ । पु ७ । पृष्ठ० १५३ टोका—सुगमं। जहणेण एगसमओ। -षट० खण्ड ० २ । २। सू १०३ । पु७ । पृष्ठ० १५३ टोका-मणजोगेण वचिजोगेण वा अच्छिय तेसिमद्धाखएण ओरालिकायजोगंगदबिदियसमए कालं काढूण जोगंतरं गदस्स एगसमयदंसणादो। उक्कस्सेण बावीसं वाससहस्साणि देसूणाणि । -षट्० खण्ड० २।२। सू १०४ । पु ७ । पृष्ठ० १५३ टोका-बावीसवाससहस्साउअपुढवीकाइएसु उप्पज्जिय सव्वजहण्णण कालेण ओरालियमिस्सद्ध गमिय पत्तिगदपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुत्तूणबावीसवाससहस्साणि ताव ओरालियकायजोगुवलंभादो। औदारिककाययोगी जीव कम से कम एक समय तक रहता है। क्योंकि, मनोयोग अथवा वचनयोग के साथ रहकर उनके काल-क्षय से औदारिककाययोग को प्राप्त होने के द्वितीय समय में मरकर योगान्तर को प्राप्त हुए जीव के एक समय देखा जाता है। अधिक से अधिक बाईस हजार वर्षों तक जीव औदारिककाययोगी रहता है । क्योंकि बाईस हजार वर्ष की आयु वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होकर सर्वजघन्यकाल से औदारिकमिश्रकाल को बिताकर पर्याप्ति को प्राप्त होने के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष तक औदारिककाययोग पाया जाता है। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) .०४ औदारिकमिश्रकाययोगी और कालस्थिति • ०५ वक्रियकाययोगी और कालस्थिति • ०७ आहारककाययोगी और कालस्थिति ओरालियमस्सकाय जोगी वेउव्वियकायजोगी आहारककायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? -षट्० खण्ड ० २ । २ । सू १०५ । पु ७ पृष्ठ० १५३ । ४ जण एसओ । - षट्० खण्ड ० २ । २ । सू १०६ । पु ७ | पृष्ठ० १५३ | ४ टीका–ओरालिमकायजोगाविणाभाविदंडादो कवाडं गदसजोगिजिहि ओरालियमस्सस्स एगसमओ लब्भदे, तत्थ ओरालियमिस्सेण विणा अण्णजोगाभावादो । मण वचिजोगेहिंतो वेउब्वियजोगंगदबिदियसमए मदस्स एगसमओ asarकायजोगस्स उवलब्भदे, मुदपढमसमए कम्मइय-ओरालियवेउब्वियमिस्स कायजोगे मोत्तूण वेउव्वियकायजोगाणुवलं भादो । मण वचिजोगेहितो आहारकायजोगं गदबिदियसमए मुदस्स मूलसरीरं पविट्ठस्स वा आहारकायजोगस्स एसओ लब्भदे, मुदाणं मूलसरीरपविद्वाणं च पढमसमए आहारकायजोगाणुवलंभादो । उक्करण अंतोमुहुत्तं । - षट्० खण्ड ० २ । २ । सू १०७ । पु ७ पृष्ठ० १५४ । ५ टीका--मणजोगादो वचिजोगादो वा वेडव्विय- आहारकायजोगं गंतूण सव्वक्सं अंतोमुहुत्तमच्छिय अण्णजोगंगदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवल भादो, अणप्पिद जोगादोओरालिय मिस्स जोगं गं तूण सव्वक् कस्सकालमच्छिय अप्णजोग गदस्स ओरालियमस्सस्स अंतोमुहुत्तमेत्तुक्कस्सकालुवल भादो । सुहुमेइ दियअपज्जत्तएसु बादरे' दियअपज्जत्तसु च सत्तट्टभवग्गहणाणि निरंतरमुप्पण्णस्स बहुओ कालो किण्ण लब्भदे ? ण, ताओ सव्वाओ द्विदीओ एक्कदो कदे वि अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलं भादो । जीव औदारिक मिश्र काययोगी, वैक्रियिककाययोगी और आहारककाययोगी कितने काल तक रहता है | अस्तु - कम से कम एक समय तक जीव औदारिक मिश्रकाययोगी आदि रहता है । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१९ ) औदारिककाययोगी के अविनाभावी दंडसमुद्घात से कपाटसमुद्घात को प्राप्त हुए योगी केवली जिनमें औदारिकमिश्र का एक समय पाया जाता है, क्योंकि, उस अवस्था में औदारिकमिश्र के बिना अन्य योग पाया नहीं जाता । मनोयोग या वचनयोग से वैक्रियिककाययोग को प्राप्त होने के द्वितीय समय में मृत्यु को प्राप्त हुए जीव के वैक्रियिककाययोग एक समय पाया जाता है। क्योंकि मर जाने के प्रथम समय में कार्मणकाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, और वैक्रियिकमिश्रकाययोग को छोड़कर वैक्रियिककाययोग नहीं पाया जाता है । मनोयोग अथवा वचनयोग से आहारककाययोग को प्राप्त होने के द्वितीय समय में मृत्यु को प्राप्त हुए या मूल शरीर में प्रविष्ट हुए जीव के आहारककाययोग का एक समय पाया जाता है । क्योंकि, मृत्यु को प्राप्त या मूल शरीर में प्रविष्ट हुए जीवों के प्रथम समय में आहारककाययोग नहीं पाया जाता है । अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्तकाल तक जीव औदारिकमिश्रकाययोगी आदि रहता है । क्योंकि मनोयोग अथवा वचनयोग से वैक्रियिक या आहारककाययोग को प्राप्त होकर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर अन्य योग को प्राप्त हुए जीव के अन्तर्मुहूर्तमात्र काल पाया जाता है । तथा अविवक्षित योग से औदारिक मिश्रयोग को प्राप्त होकर व सर्वोत्कृष्टकाल तक रहकर अन्य योग को प्राप्त हुए जीव के औदारिकमिश्र का अन्तर्मुहूर्त मात्र उत्कृष्टकाल पाया जाता है । शंका - सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तों में और बादरएकेन्द्रिय अपर्याप्तों में सात-आठ भव ग्रहण तक निरन्तर उत्पन्न हुए जीव के बहुत काल क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान- नहीं पाया जाता, क्योंकि, उन सब स्थितियों का इकट्ठा करने पर भी अन्तर्मुहूर्त मात्र काल पाया जाता है । ०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी और कालस्थिति - ०८ आहारकमिश्रकाययोगी और कालस्थिति वेव्वियमस्तकायजोगी आहारमिस्सकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? - षट्० खण्ड० २ । २ । सू १०८ । पु ७ । पृष्ठ० १५५ टीका - सुगमं । जहणेण अंतोमुहुत्तं । - षट्० खण्ड ० २ । २ । सू १०९ । पु ७ । पृष्ठ० १५५ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) टीका–एगसमओ किण्ण लब्भदे ? ण, एत्थ मरणजोगपरावत्तीणमसंभवादो। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। -षट्० खण्ड० २ । २ । सू ११० । पु ७ । पृष्ठ० १५५ टीका-सुगम। जीव वैक्रियमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी कम से कम अन्तमुहूर्तकाल तक रहता है । प्रश्न है कि यहाँ एक समय मात्र जघन्यकाल क्यों नहीं पाया जाता है । समाधान नहीं पाया जाता, क्योंकि यहाँ मरण और योगपरावृत्ति का होना असंभव है। तक जीव वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारक अधिक से अधिक अ मिश्रकाययोगी रहता है। .०९ कार्मणकाययोगी और कालस्थिति कम्मइयकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? -षट् खण्ड ० २ । २ । सू १११ । पु ७ । पृष्ठ० १५५। ६ टोका-सुगमं । जहण्णण एगसमओ। -षट् खण्ड ० २ । २ । सू ११२ । पु ७ । पृष्ठ ० १५६ टोका-एगविग्गहं कादूण उप्पण्णस्स तदुवल भादो। उक्कस्सेण तिण्णि समया। -षट्० खण्ड ० २ । २ । सू ११३ । पु ७ । पृष्ठ० १५६ टोका-तिण्हं समयाणमुवरि विग्गहाणुवल भादो। कार्मणकाययोगी-कम से कम एक समय तक रहता है, क्योंकि, एक विग्रह ( मोड़ा) करके उत्पन्न हुए जीव के सूत्रोक्तकाल पाया जाता है। अधिक से अधिक तीन समय तक जीव कार्मणकाययोगी रहता है। क्योंकि तीन समयों के ऊपर विग्रह पाये नहीं जाते हैं। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) काययोग की स्थिति .३ औदारिककाययोग की स्थिति '४ औदारिकमिश्रकाययोग की स्थिति .९ कार्मणकाययोग की स्थिति तद्यथा-योगकालः कार्मणस्य त्रिसमयाः । औदारिकमिश्रस्य अन्तर्मुहूर्तः । औदारिकस्य ततः संख्यातगुणः। मिलित्वा त्रिसमयाधिकसंख्यातगुणितान्तमुहूर्तः। x x x । प्रक्षेपयोगोद्धृतमिश्रपिण्डः प्रक्षपकानांगुणको भवेदिति । - गोजी० गा० ६७१ । टीका १--कार्मणकाययोग का काल तीन समय है । २-औदारिकमिश्रकाययोग का काल अन्तमुहूर्त है । ३-औदारिककाययोग का काल उससे संख्यातगुणा है। सब मिलाने पर तीन समय अधिक संख्यातगुणित अन्तर्मुहूर्तकाल होता है। करणसूत्र में कहा है-प्रक्षेप को मिलाकर मिले हुए पिंड से भाग देने पर जो प्रमाण आवे उसे प्रक्षेप से गुणा करने पर अपना-अपना प्रमाण होता है। सो उक्त तीनों योगों के कालों को मिलाने पर तीन समय अधिक संख्यात अन्तर्मुहूर्तकाल हुआ। काययोग की स्थिति तज्जोगो सामण्णंकालो संखाहदो तिजोगमिदं । -गोजी० गा० २६३ । पूर्वार्ध टीका-तेषां चतुर्णां वाग्योगकालानां योगः-युतिः सामान्यवाग्योगकालो भवति । x x x अस्मात् काययोगकालः संख्यातगुणः। चारों वचनयोगों के काल का योग सामान्य वचनयोग का काल है। इससे संख्यातगुणा काययोग का काल है। .१० अयोगी जीव में सुगममजोगीणं। -षट० खण्ड० १।१। पु २ | पृष्ठ • ६७२ अयोगी गुणस्थान योग रहित होता है । नोट-अयोगी-चौदहवें गुणस्थान की अपेक्षा पांच ह्रस्व अक्षर ( अ, इ, उ, ऋ, ल) मात्र स्थिति होती है। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) .११ कालानुगमती से संचित योगी जीवों का कालस्थिति ___जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंजवचिजोगितिण्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमहत्तं। कायजोगिस कदि-णोकदिअवत्तव्वसंचिदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमहत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरिया। ओरालियकायजोगीसु कदिसंचिदा केवचिर कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीव पडुच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण बावोसवस्ससहस्साणि देसूणाणि। ओरालियमिस्सकायजोगीसु कदि-णोकदिअवत्तव्वसंचिदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । वेउव्वियकायजोगीणं मणजोगिभंगो। वेउव्वियमिस्सकायजोगीसुतिण्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो एगमंतोमुहत्तं ; पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तवक्कमणवारसलागाहि पदुप्पण्ण समुप्पत्तीदो। एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आहारकायजोगीसु तिण्णिपदा केवचिरं कालादो हांति ? णागजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । आहारमिस्सकायजोगीसु तिण्णिपदा केचिरं कालादो होंति ? णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । कम्मइयकायजोगीसु-कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिप्णिसमया। -षट्० खण्ड ० ४ । १ । सू ६६ । पु ९ । पृष्ठ• २९८ । ९९ योग मार्गणानुसार पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी तीन पद वाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृर्ष से अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहते हैं। काययोगियों में कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीव कितने काल तक रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कृर्ष से असंख्यात पुदगल-परिवर्तन-प्रमाण अनन्तकाल तक रहते हैं। औदारिककाययोगियों में कृतिसचित कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृर्ष से कुछ कम वाईस हजार वर्ष तक रहते हैं । औदारिकमिश्रकाययोगियों में कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित जीव कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा जघन्य Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहते हैं । वैक्रियकाययोगियों की प्ररूपणा मनोयोगियों के समान है । वैक्रियमिश्रकाययोगियों में तीन पद वाले कितने काल तक रहते हैं | नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं । क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र उपक्रमण वार शलाकाओं से उत्पन्न होने पर यह काल प्राप्त होता है । अपेक्षा जघन्य व उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहते हैं । एक जीव की आहारककाययोगियों में तीनों पद वाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना व एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूतकाल तक रहते हैं । आहार मिश्रका योगियों में तीनों पद वाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना व एक जीव की अपेक्षा जघन्य व उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं । कार्मण काययोगियों में कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित काल कितने काल तक रहते हैं । नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल रहते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट तीन समय तक रहते हैं । - १२ करणकृति अनुगम में कालानुगम से संचित जीव को कृतिरूपस्थिति पंचमण जोगि पंचवचिजोगीसु ओरालिय-वेउब्वियपरि सादणकदी ओरालिय- वे उव्यिय - तेजा - कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अतोमुहुत्तं । आहार दोपदाणमोघो । कायजोगीसु ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए वेउब्वियपरिसारण-संघादणपfरसादणकदीणं तिरिक्खभंगो। ओरालियसंघादण - परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बावीसवास सहसाणि समऊणाणि । वेउव्वियसंघादणकदी ओघो । आहारसंघादणकदी ओघो । सेसदोपदाणं मणजोगिभंगो। तेजा - कम्मइयसंघादण-परिसादणकदो णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अनंतकालमसं खेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ओरालियकायजोगीसु ओरालियसंघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण बावीसवाससहस्साणि देसुणाणि । वेउव्वियसंघादणकदी णाणाजीव पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पच्च जहष्णुक्कस्सेण एगसमओ । वेउब्वियपरिसादण संघादणपरि 1 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) सादणकदी गाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आहारपरिसादणकदीए मणजोगिभंगो। ओरालियमिस्सकायजोगीसु ओरालियसंघादणकदी ओघो। ओरालियसंघादण-परिसादणकदी गाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं समऊण । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी गाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं। वेउन्वियकायजोगीसु वेउन्विय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए मणजोगिभंगो। वेउव्वियमिस्सकायजोगीसु वेउव्वियसंघादणकदीए देवभंगो। वेउन्विय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं। ___ आहारकायजोगीसु ओरालियपरिसादणकदी आहार-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आहारमिस्सकायजोगीसु ओरालियपरिसादणकदी आहार-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी-णाणाजीवं पडुच्च एगजीवं जहण्णुक्कस्सेण अन्तोमुहुत्तं । आहारसंघादणकदी ओघो। कम्मइयकायजोगोसु ओरालियपरिसादणकदी गाणाजीवं पडुच्च जहण्णण तिण्णि समया, उक्कस्सेण संखेज्जा समया। एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कसेण तिणि समया। तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया। -षट्० खण्ड० ४ । १ । सू ७१ । पु ९ । पृष्ठ० ३९२ । ९५ पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवों में औदारिक व वैक्रियशरीर की परिशातनकृति तथा औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीर की संघातन परिशातनकृति नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है। आहारकशरीर के दो पदों की प्ररूपणा ओघ के समान है। ___ काययोगियों में औदारिकशरीर की संघातन-परिशातनकृति तथा वैक्रियशरीर की परिशातन व संघातन-परिशातन कृतियों की प्ररूपणा तिर्यंचों के समान है। इनमें औदारिकशरीर भी संघातन-परिशातनकृति का नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट एक समय कम बाईस हजार वर्षकाल है। वैक्रियशरीर की संघातनकृति की प्ररूपणा ओघ के समान है। आहारकशरीर की संघातनकृति की प्ररूपणा ओघ के समान है। इसके शेष दो पदों की प्ररूपणा मनो. योगियों के समान है। तैजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृति नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्यतः अंतमुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात पुद्गलपरावर्तन प्रमाण अनन्तकाल है । औदारिककाययोगियों में औदारिकशरीर की संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृति का नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट कुछ कम बाईस हजार वर्ष काल है । वैक्रियिकशरीर की संघातनकृति का नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट आवली का असंख्यातवां भाग काल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य व उत्कृष्ट से एक समय काल है। वैक्रियिकशरीर की परिशातन व संघातन-परिशातनकृति का नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्तकाल है। औदारिकमिश्रकाययोगियों में औदारिकशरीर की संघातनकृति की प्ररूपणा ओघ के समान है। औदारिक शरीर की संघातन-परिशातनकृति का नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट से एक समय कम अन्तमुहूर्तकाल है। तेजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातन कृति का नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्तकाल है । वैक्रियिककाययोगियो में वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीर संबंधी संघातनपरिशातनकृति की प्ररूपणा मनोयोगियों के समान है। वैक्रियमिश्रकाययोगियों में वैक्रियिकशरीर की संघातनकृति की प्ररूपणा देवों के समान है। वैक्रियिक, तैजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृति का नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाणकाल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य व उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्तकाल है । आहारककाययोगियों में औदारिकशरीर की परिशातनकृति तथा आहारक, तेजस और कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृति का नाना जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्तकाल है। आहारकमिश्रकाययोगियों में औदारिकशरीर की परिशातनकृति तथा आहारक, तैजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृति का नाना जीवों की व एक जीव की अपेक्षा जघन्य व उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्तकाल है। आहारकशरीर की संघातनकृति की प्ररूपणा ओघ के समान है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) कार्मणकाययोगियों में औदारिक शरीर की परिशातन कृति का नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से तीन समय और उत्कर्ष से संख्यात समय काल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य व उत्कर्ष से तीन समय काल है। तैजस व कार्मणशरीर की संघातनपरिशातनकृति का नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से तीन समय काल है। योग की स्थिति अंतोमुहुत्तमेत्ता चउमणजोगा कमेण संखगुणा । तज्जोगो सामण्णं चउवचिजोगा तदो दु संखगुणा ॥ -गोजी० गा० २६२ टीका-सत्यासत्योभयानुभयख्याः चत्वारो मनोयोगाः अन्तमुहर्त मात्राः प्रत्येकमन्तमुहूर्तकालवृतयः तथापि क्रमेण संख्येयगुणा भवन्ति-एषां कालानां युति सामान्य सामान्यमनोयोगकालो भवति २-८५। अयमप्यन्तमुहूर्तमान एव । अ२। ६४, उ२।१६, अ२।४, स २।१ सत्य, असत्य, उभय और अनुभय नामक चारों मनोयोगों में से प्रत्येक का काल अन्तर्मुहूर्त है तथापि क्रम से संख्यातगुणा है अर्थात् सत्य मनोयोग का काल सबसे स्तोक अन्तमुहूर्त है। उससे संख्यातगुणा अन्तर्मुहूर्त असत्य मनोयोग का काल है। उससे संख्यातगुणा अन्तर्मुहूर्त उभय मनोयोग का काल है। उससे संख्यातगुणा अन्तर्मुहूर्त अनुभय मनोयोग का काल है। इन चारों योगों के काल का जोड़ सामान्य मनोयोग का काल है। वह भी अन्तमुहूर्त मात्र ही है। नोट-संदृष्टि के रूप में सत्य मनोयोग का काल १ है तो असत्य मनोयोग का काल ४ है, उभय मनोयोग का काल १६ है और अनुभय का ६४। इन सबका जोड़ ८५ होता है। •४२ सयोगी जीव का सयोगी की अपेक्षा अन्तरकाल .०१ पंचमनोगी तथा पंच वचन योगी में काल का अंतर .०२ काययोगी में काल का अंतर •०३ औदारिककाय योगी में काल का अंतर जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसु कायजोगि-ओरालियकायजोगोसु मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिहि-संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजद-सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि णाणेगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं, णिरंतरं। -षट्० खण्ड ० १ । ६ । सू १५३ । पु ५ । पृष्ठ ० ८७ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) टोका-कुदो ? अप्पिदजोगसहिदअप्पिदगुणटाणाणं सव्वकालं संभवादो। कधमेगजीवमासेज्ज अंतराभावो ? ण ताव जोगंतरगमणेणंतरं संभवदि, मग्गणाए विणासापत्ती दो। ण च अण्णगुणगमणेण अंतरं संभवदि, गुणंतरं गदस्स जीवस्य जोगंतरगमणेण विणा पुणो आगमणा भावादो। तम्हा एगजीवस्स वि णस्थि चेव अंतरं। सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । --षट्० खण्ड ० १ । ६ । सू १५४ । पु ५ । पृष्ठ० ८८ टीका-सुगममेदं। उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। -षट् खण्ड ० १ । ६ । सू १५५ । पु ५ । पृष्ठ० ८८ टोका–कुदो ? दोण्हं रासीणं सांतरत्तादो वि अहियमंतरं किण्ण होदि ? सहावदो। एगजीवं पडुच्च गत्थि अंतरं, णिरंतरं । -षट्० खण्ड० १ । ६ । सू १५६ । पु ५ । पृष्ठ० ८८ टीका—कुदो ? गुण-जोगंतरगमणेहि तदसंभवा। चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीव पडुच्च ओघं। -षट्० खण्ड० १ । ६ । सू १५७ । पु ५ । पृष्ठ० ८८ टीका—कुदो ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासुपुधत्तमिच्चेएहि ओघादो भेदाभावा। एगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं, णिरंतरं। -षट् खण्ड० १ । ६ । सू १५८ । पु ५ । पृष्ठ० ८९ टीका-जोग-गुणंतरगमणण तदसंभवा। एगजोगपरिणमकालादो गुणकालो संखेज्जगुणो त्ति कधं णव्वदे? एगजीवस्स अंतराभावपदुप्पायणसुत्तादो। चदुण्हं खवाणमोघं । -षट्० खण्ड ० १।६ । सू १५९ । पु ५। पृष्ठ ० ८९ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) टीका—णाणाजीव पडुच्च जहण्णण एगसमयं, उक्कस्सेण छम्मासं ; एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरमिच्चेदेहि भेदाभावा। .०४ औदारिकमिश्र काययोगी का काल का अंतर ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं, णिरंतरं । -षट्० खण्ड ० १ । ६ । सू १६० । पु ५ । पृष्ठ० ८९ टोका-तम्हि जोग-गुणंतरसंकंतीए अभावादो। सासणसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं। -षट् • खण्ड ० १ । ६ । सू १६१ । पु ५ । पृष्ठ० ८९ । ९० टोका–कुदो ? जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो ; इच्चेदेहि ओघादो भेदाभावा । एगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं, णिरंतरं। -षट् खण्ड ० १ । ६ । सू १६२ । पु ५ । पृष्ठ ० ९० टोका-कुदो ? तत्थ जोगंतरगमणाभावा। गुणंतरं गदस्स वि पडिणियत्तिय सासणगुणेण तम्हि चेव जोगे परिणमणाभावा। असंजदसम्माविट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं । -षट्० खण्ड० १ । ६ । सू १६३ । पु ५ । पृष्ठ० ९० टोका–कुदो? देव-णेरइय-मणुसअसंजदसम्माविट्ठीणं मणुसेसु उप्पत्तीए विणा मणुसअसंजदसम्मादिट्ठीणं तिरिक्खेसु उप्पत्तीए विणा एगसमयं असंजदसम्मादिट्ठिविरहिदओरालियमिस्सकायजोगस्स संभवादो। उक्कस्सेण वासपुधत्तं। -षट्० खण्ड० १ । ६ । सू १६४ । पु ५ । पृष्ठ० ९० टीका-तिरिक्ख-मणुस्सेसु वासपुधत्तमेत्तकालमसंजदसम्मादिट्ठीणमुववादा भावा। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२९ ) एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । -षट् खण्ड० १ । ६ । सू १६५ । पु ५ । पृष्ठ ० ९० । ९१ टीका तम्हि तस्स गुण-जोगंतरसंकंतीए अभावा। सजोगिकेवलोणमतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं । -षट० खण्ड० १ । ६ । सू १६६ । पु ५ । पृष्ठ० ९१ टोका कुदो ? कवाडपज्जायविरहिदकेवलीणमेगसमओवलंभा। उक्कस्सेण वासपुधत्तं । -षट् ० खण्ड० १ । ६ । सू १६७ । पु ५ । पृष्ठ ० ९१ टोका-कवाडपज्जाएण विणा केवलीणं वासपुधत्तच्छणसंभवादो। एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं। -- षट्० खण्ड० १ । ६ । सू १६८ । पु ५ । पृष्ठ० ९१ टीका-कुदो ? जोगंतरमगतूण ओरालियमिस्सकायजोगे चेव टिदस्स अंतरासंभवा। .०५ वक्रियकाययोगी का काल का अन्तर वेउन्वियकायजोगीसु चदुट्ठाणीणं मणजोगिभंगो। --षट् खण्ड० १ । ६ । सू १६९ । पु ५ ! पृष्ठ० ९१ टोका-कुदो? गाणेगजीवं पडुच्च अंतराम वेण साधम्मादो। .०९ कार्मणकाययोगी का काल का अन्तर कम्मइकायजोगीसु मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्टिसजोगिकेवलीणं ओरालिमिस्सभंगो। -षट्, खण्ड० १ । ६ । सू १७७ । पु ५ । पृष्ठ० ९३ । ९४ टीका-मिच्छादिठ्ठीणं गाणेगजीवं पडुच्च अंतराभावेण ; सासणसम्मादिट्ठोणं णाणाजीवगयएयसमय पलिदोवमासंखेज्जदिभागतरेहि, एगजीवगयअंतराभावेण ; असंजदसम्मादिट्ठीणं णाणाजीवगयएयसमयमास पुधत्तंतरेहि, एगजीवगयअंतराभावेण ; सजोगिकेवलि-णाणाजीवगयएयसमय-वासपुधत्तेहि, एगजीवगयअंतराभावेण च दोण्हं समाणत्तुवलंभा। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) ०१ मनोयोगी और वचनयोगी का अन्तरकाल • ०२ काययोगी का अन्तरकाल •०३ औदारिककाययोगी का अन्तरकाल • ०४ औदारिकमिश्रकाययोगी का अन्तरकाल ०५ वैक्रियकाययोगी का अन्तरकाल .०९ कार्मणकाययोगी का अन्तरकाल जोगाणुवादेण पंचमणजोगि पंचवचिजोगि कायजोगि ओरालियकायजोगिओरालियमस्स कायजोगि वेउव्वियकाय जोगि कम्मइय कायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि । टीका - सुगमं । टीका - सुगमं । षट्० खण्ड० २ । ९ । सू २१ । पु ७ । पृष्ठ० ४८४ णत्थि अंतरं । - षट्० खण्ड० २ । ९ । सू २२ । पु ७ । पृष्ठ ० ४६४ निरंतरं । - षट्० खण्ड० २ । ९ । सू २३ । पु ७ । पृष्ठ० ४८४ टीका - सुगमं । योगमार्गणा के अनुसार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और कार्मणकाययोगी जीवों का अन्तर नहीं होता है । अस्तु वे जीव राशियां निरन्तर हैं । .०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी का काल का अन्तर वे उव्वियमिस्तकायजोगीसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । - षट्० खण्ड ० १ । ६ । सू १७० । पु५ । पृष्ठ० ९१ । ९२ टीका-तं जहा --- वेउब्वियमिस्स कायजोगिमिच्छादिट्टिणो सब्बे वेउब्वियकायजोगं गदा । एगसमयं वेडव्वियमिस्सकायजोगो मिच्छादिट्ठीहि विरहिदो दिट्ठो । विदियसमए सत्तट्ठ जणा वेउव्वियमिस्सकायजोगे दिट्ठा लद्धमेगसमयमंतरं । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१ ) उक्कस्सेण बारस मुहुत्तं। -षट् खण्ड ० १ । ६ । सू १७१ । पु ५ । पृष्ठ ० ९२ टीका-तं जधा-वेउब्वियमिस्समिच्छादिट्ठीसु सम्वेसु वेउब्वियकायजोगं गदेसु बारसमुहुत्तमेत्तमंतरिय पुणो सत्तट्ठनेणेसु वेउब्वियमिस्सकायजोगं पउि. वण्णेसु बारहमुहुत्तंतर होदि। एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं । -षट्० खण्ड० १ । ६ । सू १७२ । पु ५ । पृष्ठ० ९२ टीका तत्थ जोग-गुणतरगमणाभावा। सासणासम्मादिट्ठी-असंजदसम्मादिट्ठीणं ओरालिमिस्सभंगो। -षट् ० खण्ड० १ । ६ । सू १७३ । पु ५ । पृष्ठ ० ९२ । ३ टीका—कुदो? सासणसम्मादिट्ठीणं गाणाजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमयं, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो तेहि, एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरतेण; असंजदसम्मादिट्ठीणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सगयएगसमयमासपुधत्तंतरेण, एगजीवं पडुच्च अंतराभावेण च तदो भेदाभावा। .०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी का अन्तरकाल वेउन्वियमिस्सकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? -षट् खण्ड ० २ । ९ । सू २४ । पु ७ । पृष्ठ० ४८५ टोका- सुगम। जहण्णेण एगसमयं । -षट० खण्ड ० २ । ९ । सू २५ । पु ७ । पृष्ठ० ४८५ टोका-कुदो? वेउम्वियमिस्सकायजोगीसु सवेसु पज्जत्तीओ समाणिदेसु एगसमयमंतरिदूण बिदियसमए देवेसु गैरइएसु वेउब्वियमिस्सकायजोगीणमंतरं एगसमयं होदि। उक्कस्सेण बारसमुहत्तं। __ - षट्० खण्ड ० २ । ९ । सू २६ । पु ७ पृष्ठ० ४८५ टीका-देवेसु णेरइएसु वा अणुप्पज्जमाणा जीवा जदि सुट्ठ, बहुअं कालमच्छंति तो बारस मुहुताणि चेव। कधमेदं णव्वदे ? जिणवयणविणिग्गयवयणादो। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) वैयिक मिश्रका योगियों का अन्तर जघन्य एक समय होता है । क्योंकि, सब वैक्रियिक मिश्रकाययोगियों के पर्याप्तियों के पूर्ण कर लेने पर एक समय का अन्तर होकर द्वितीय समय में देवों व नारकियों में उत्पन्न होने पर वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों का अन्तर एक समय होता है । वैक्रियिकमिश्र काययोगियों का अन्तर उत्कृष्ट बारह मुहूर्त होता है । क्योंकि देव अथवा नारकियों न उत्पन्न होने वाले जीव यदि बहुत अधिक काल तक रहते हैं तो बारह मुहूर्त तक ही होते हैं । अस्तु - यह जिन भगवान के मुख से निकले हुए वचनों से जाना जाता है । -०७ आहारककाययोगी का काल का अन्तर .०८ आहारकमिश्रकाययोगी का काल का अन्तर आहारक कायजोगी आहार मिल्सकाय जोगी सु मत्त संजदाणमंतरं सु केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहणणं एगसमयं । - षट्० खण्ड ० १ । ६ । सू १७४ | पु ५ । पृष्ठ ० ९३ टीका - सुगममेदं । होदि ? टीका - एदं पि सुगममेव । उक्कस्सेण वासपुधत्तं । - षट्० खण्ड ० १ । ६ । सू १७५ । पु ५ । पृष्ठ० ९३ एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं । टीका - तम्हि जोग-गुणंतरग्गहणाभावा । -०७ आहारककाययोगी का अन्तरकाल -०८ आहारकमिश्रकाययोगी का अन्तरकाल टीका - सुगमं । - षट्० खण्ड ० १ । ६ । मू १७६ | पु ५ | पृष्ठ० ९३ आहारक कायजोगि आहारमिस्सकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो - षट्० खण्ड ० २ । ९ । सू २७ । पु ७ । पृष्ठ० ४८५ जहणेण एगसमयं । - षट्० खण्ड ० २ । ९ । सू २८ । पु ७ । पृष्ठ० ४८६ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) टीका-कुदो ? आहार-आहारमिस्सजोगेहि विणा तिहुवणजीवाणमेगसमयमुवलंभादो। उक्कस्सेण वासपुधत्तं । -षट् खण्ड ० २ । ९ । सू २९ । पु ७ । पृष्ठ० ४८६ टोका-कुदो ? दोहि वि जोगेहि विणा सव्वपमत्तसंजदाणं वासपुधत्तावट्ठाणसणादो। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों का अन्तर जघन्य एक समय होता है। क्योंकि, आहारक और आहारकमिश्रकाययोगियों के बिना तीनों लोकों के जीव एक समय पाये जाते हैं। उपयुक्त जीवों का अन्तर उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व प्रमाण होता है। क्योंकि, उक्त दोनों ही योगों के बिना समस्त प्रमत्तसंयतों का वर्षपृथक्त्वकाल तक अवस्थान देखा जाता है । योग का अन्तरकाल उवसम सुहृमाहारे बेगुम्वियमिस्सणर अपज्जते । सासणसम्मे मिस्से सांतरगा मग्गणाअट्ठ॥ सत्तविणा च्छम्मासा वासपुधत्तं च बारसमुहुत्ता। पल्लासंखं तिण्हं वरमवरं एगसमओ दु॥ -- गोजी० गा० १४३, १४४ टीका-- x x x तच्च उत्कृष्टेन औपशमिकसम्यगदृष्टीनां सप्त दीनानि । तदनन्तरं कश्चित्स्यादेवेत्यर्थः x x x आहारकतन्मिभकाययोगिना वर्षपृथक्त्वं । त्रिकादुपरि नवकादधः पृथक्त्वमित्यागमसंज्ञा। वैक्रियमिश्रकाययोगिणां द्वादशमुहुर्ताः। xxx । तासां जघन्येनान्तरं एकसमय एव ज्ञातव्यः । आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगवालों का उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। तीन से ऊपर और नौ से नीचे की संख्या को आगम में पृथक्त्व संज्ञा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों का अन्तर बारह मुहूर्त है। इनका जघन्य अन्तर एक समय ही जानना चाहिए। विशेष-सत्यादि चार मनोयोग और चार वचनयोग, वैक्रियकाययोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग व कार्मणकाययोग का अन्तर नहीं है । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) • १० अंतरानुगम से संचित योगी जीवों का अन्तरकाल पंचमणजोगि. पंचवचिजोगीणं गरइयभंगो । कायजोगीणमेइ दियभंगो । णवरि जहण्णमंतरं एगसमओ । ओरालियकायजोगि-ओरालिय मिस्सकायजोगीणं कदिसं चिदाणं एगजीवं पडुच्च जहणणेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीस - सागरोवमाणि सादिरेयाणि । वेउब्वियकायजोगीणं एगजीवं पडुच्च जहणण एगसमओ, उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टा । वे उव्वियमिस्सकायजोगीणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहणण एगसमओ, उक्कस्सेण बारसमुहुत्ताणि । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि, उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । आहारकायजोगि आहारभिस्सकायजोगीणं तिष्णिपवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि । णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च जहणणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देणं । कम्मइयाजोगीणं कदिसं चिदाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ । ---षट्० खण्ड ० ४ । १ । सू ६६ । पु ९ । पृष्ठ० ३१२ पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवों की प्ररूपणा नारकियों के समान है । विशेषता इतनी है कि इनका जघन्य अन्तर एक समय होता है । औदारिककाययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी कृति संचित जीवों का अन्तर एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम से कुछ अधिक है । वैकाययोगियों का अन्तर एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल है । वैकिमिश्र काययोगियों का अन्तरकाल कितने काल तक होता है । नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से बारह मुहूर्त प्रमाण अन्तर होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य से दस हजार वर्षों से कुछ अधिक और उत्कर्ष से असंख्यात पुद्गल - परिवर्तन प्रमाण अनन्तकाल तक होता है | आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी तीनों पद वालों का अन्तर कितने काल तक होता है | नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वर्षपृथक्त्व प्रमाण उक्त जीवों का अन्तर होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५ ) कार्मणकाययोगी कृत संचितों का अन्तर कितने काल तक होता है ? एक जीव की अपेक्षा जघन्य से तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट से अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल तक होता है। नोट-तीन पद-कृति, नोकृति और अवक्तव्य है। .४३ सयोगीजीव और भाव .०१ पंच मनोयोगी तथा पंच वचनयोगी का भाव .०२ काययोगी का भाव .०३ औदारिक काययोगी का भाव जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगिकायजोगि-ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं । -षट् खण्ड० १ । ७ । सू ३२ । पु ५ । पृष्ठ० २१८ टीका-सुगममेदं। .०४ औदारिकमिश्र काययोगी का भाव ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिद्विसासणसम्मादिट्ठीणं ओघ । -षट् खण्ड० १ । ७ । सू ३३ । पु ५ । पृष्ठ० २१८ टोका-एदं पि सुगम। असंजदसम्मादिट्टि त्ति को भावो, ख इओ वा खओवसमिओ वा भावो । ___-षट् ० खण्ड० १ । ७ । सू ३४ । पु ५ । पृष्ठ० २१८ । ९ टीका-कुदो? खइय-वेदगसम्माविट्ठीणं देव-णेरइयमणुसाणं तिरिक्खमणुसेसु उप्पज्जमाणाणमुवलंभा। ओवसमिओ भावो एत्थ किग्ण परुविदो ? ण, चउग्गइउवसमसम्माविट्ठीणं मरणाभावादो ओरालियमिस्सुम्हि उवसमसम्मत्तस्सवलंभाभावा। उवसमसेडि चढंत-ओअरंतसंजदाणमुवसमसम्मत्तण मरणं अस्थि त्ति चे सच्चमत्थि, किंतु ण ते उवसमसम्मत्तेण ओरालियमिस्स कायजोगिणो होंति, देवदि मोत्तूण तेसिमण्णत्थ उप्पत्तीए अभावा। ओदइएण भावेण पुणो असंजदो। -षट् ० खण्ड ० १ । ७ । सू ३५ । पु ५ । पृष्ठ० २१९ टोका–सुगममेदं। सजोगिकेवलि ति को भावो, खइओ भावो । -~षट् • खण्ड ० १ । ७ । सू ३६ । पु ५ । पृष्ठ० २१९ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) टीका-एदं पि सुगमं। .०५ वैक्रिय काययोगी का भाव वेउब्वियकायजोगीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्टि त्ति ओघभंगो। -षट्० खण्ड. १ । ७ । सू ३७ । पु ५ । पृष्ठ० २१९ । २२० टीका-एदं पि सुगम। .०६ वैक्रियमिश्र काययोगी का भाव वेउव्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्माक्ट्ठिी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं। -षट् खण्ड० १ । ७ । सू ३८ । पु ५ । पृष्ठ० २२० टोका-कुदो? मिच्छादिट्ठीणमोदइएण, सासणसम्माविट्ठीणं, पारिणामिएण, असंजदसम्मादिट्ठीण ओवसमिय-खइय-खओवसमियभावेहि ओघमिच्छादिटिआदीहि साधम्मुघलंभा। •०७ आहारक काययोगी का भाव '०८ आहारकमिश्र काययोगी का भाव __ आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा त्ति को भावो, खओवसमिओ भावो। -षट्० खण्ड ० १ । ७ । सू ३९ । पु ५ । पृष्ठ० २२० । २२१ टोका-कुदो ? चारित्तावरणचदुसंजलण-सत्तणोकसायाणमुदए संते वि पमादाणुविद्धसंजमुवलंभा। कधमेत्थ खओवसमो। पत्तोदयएक्कारसचारित्त. मोहणीयपयडिदेसघादिफयाणमुवसमसण्णा, हिरवसेसेण चारित्तघायणसत्तीए तत्थुवसमुवलंभा। तेसि चेव सव्वघादिफद्दयाणं खयसण्णा, गट्ठोदयभावत्तादो। तेहि दोहि मि उप्पण्णो संजमो खओवसमिओ। अधवा एक्कारसकाम्माणमुदयस्सेव खओवसमसण्णा। कुदो ? चारित्तघायणसत्तीए अभावस्सेव तव्ववएसादो। तेण उप्पण्ण इदि खओवसमिओ पमावाणविद्धसंजमो। .०८ कार्मण काययोगी का भाव कम्मइयकायजोगीसु मिच्छाट्ठिी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टी सजोगिकेवली ओघं। -षट् खण्ड० १ । ७ । सू ४० । पु ५ । पृष्ठ० २२१ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) टोका–कुदो ? मिच्छादिट्ठीणमोदइएण, सासणाणं पारिणामिएण, कम्मइयकायजोगिअसंजदसम्माविट्ठीणं ओवसमिय-खइय-खओवसमियभावेहि, सजोगिकेवलोणं खइएण भावेण ओघम्मि गदगुणट्ठाणेहि साधम्मुवलंभा। .१० सयोगी और भाव ___x x x। सजोगो त्ति को भावो? अणादिपारिणामिओ भावो। णोवसमिओ, मोहणीए अणुवसंते वि जोगुवलंभा। ण खइओ, अण्णप्पसरूवस्स कम्माणं खएणुप्पत्तिविरोहा । ग घादिकम्मोदयजणिओ, ण? वि धादिकम्मोदए केवलिम्हि जोगुवलंभा। णो अघादिकम्मोदयजणिदो वि, संते वि अघादिकम्मोदए अजोगिम्हि जोगाणुवलंभा। ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाइयाणं जीवपरिफद्दणहेउत्तविरोहा । कम्मइयसरीरं ण पोग्गलविवाई, तदो पोग्गलाणं वण्णरस-गंध-फास-संठाणागमणादीणमणुवलंभा। तदुप्पाइदो जोगो होदु चे ण, कम्मइयसरीरं पि पोग्गलविवाई चेव, सव्वकम्माणमासयत्तादो। कम्मइओदयविण?समए चेव जोगविणासदसणादो कम्मइयसरीरजणिदो जोगो चे ण, अघाइकम्मोदयविणासाणंतरं विणस्संतभवियत्तस्स पारिणामियस्स ओदइयत्तप्पसंगा। तदो सिद्ध जोगस्स पारिणामियत्तं । अधवा ओदइओ जोगो, सरीणामकम्मोदयविणासाणंतरं जोगविणासुवलंभा। ण च भवियत्तेण विउवचारो, कम्मसंबंध विरोहिणो तस्स कम्मणिदत्तविरोहा। -षट् खण्ड ० १, ७ । सू ४८ टीका । पु ५ । पृष्ठ० २२५ । २६ जोगमगणा वि ओदइया, णामकम्मस्स उदीरणोदयजणिदत्तादो। -षट्० खण्ड० ४, १ । सू ६६ । टीका । पु ९ । पृष्ठ० ३१६ 'सयोग' . यह कौन सा भाव है ? अनादि पारिणामिक भाव है, क्योंकि योग औपशमिक भाव तो नहीं है, क्योंकि मोहनीय कर्म के उपशम नहीं होने पर भी योग प्राप्त होता है। वह क्षायिक भाव भी नहीं है, क्योंकि आत्मस्वरूप से रहित कर्मों के क्षय से योग की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। योग घातिकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि घातिकर्मोदय के नष्ट हो जाने पर भी सयोगिकेवली में योग का सद्भाव रहता है। योग अघातिकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि अघातिकर्मोदय के सद्भाव में भी अयोगिकेवली में योग नहीं रहता है। योग शरीर नामकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि पुद्गलविपाकी प्रकृतियों को जीव-परिस्पन्द का कारण मानने में विरोध आता है। यद्यपि कार्मणशरीर पुद्गलविपाकी नहीं है, क्योंकि उससे पुद्गलों के वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान आदि का आगमनादि नहीं होता है ; फिर भी योग को कार्मण Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८ ) शरीर से उत्पन्न होने वाला नहीं मानना चाहिए ; क्योंकि सभी कर्मों का आश्रय होने के कारण कार्मणशरीर भी पुद्गलविपाकी ही है । यद्यपि कार्मणशरीर के उदय विनष्ट होते समय में ही योग का विनाश देखा जाता है तथापि योग को कार्मणशरीरजनित नहीं मानना चाहिए ; क्योंकि अघातिकर्मोदय के विनाश होने के अनन्तर ही विनष्ट होने वाला पारिणामिक भव्यत्व भाव है उसको भी औदयिक स्वीकार करने का प्रसंग उपस्थित हो जायगा। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर योग की पारिणामिकता सिद्ध हुई। अथवा योग औदयिक भाव है, क्योंकि शरीरनामकर्मोदय के विनष्ट होने के पश्चात् ही योग का विनाश देखा जाता है। ऐसा मानने पर भव्यत्व भाव के साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि कर्म सम्बन्ध के विरोधी पारिणामिक भाव की कम से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। •११ भावानुगम से संचित योगी जीवों के भाव .१ जोगमग्गणा वि ओदइया, णामकम्मस्स उदोरणोदयजणिदत्तादो। -षट्० सू ४ । १ । ६६ । पु ९ । पृष्ठ० ३१६ योगमार्गणा भी औदयिक है, क्योंकि वह नामकर्म की उदीरणा व उदय से उत्पन्न होती है। .२ लेस्साभग्गणा ओदइया, कसायाणुविद्धजोगं मोत्तूण लेस्साभावावो। ---षट् सू४।१। ६६ । पु ९ । पृष्ठ० ३१७ लेश्या मार्गणा और्दायक है, क्योंकि कषायानुविद्ध योग को छोड़कर लेश्या का अभाव है, अर्थात् कषायानुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । अतः वह औदायिक है। .४४ सयोगी जीव का भागाभाग .०१ मनोयोगी और वचनयोगी का भागाभाग .०५ वक्रिय काययोगो का भागाभाग .०६ वैक्रियमिश्र काययोगी का भागाभाग .०७ आहारक काययोगी का भागाभाग .०८ आहारकमिश्र काययोगी का भागाभाग जोगाणवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-वेउब्वियकायजोगि-वेउध्वियमिस्सकायजोगि-आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगी सध्वजीवाणं केवडिओ भागो? --- बट० खण्ड ० २ । १० । सू ३५ । पु ७ । पृष्ठ० ५०७ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३९ ) टोका-सुगम। अणंतो भागो। -षट् खण्ड० २ । १० । सू ३६ । पु ७ । पृष्ठ० ५०७ टीका--कुदो ? एदेहि सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंतरूवोवलंभादो। योगमार्गणा के अनुसार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीव सर्व जीवों के अनन्तवें भाग प्रमाण है। क्योंकि इनका सर्वजीवराशि में भाग देने पर अनन्तरूप प्राप्त होते हैं। •०२ काययोगी का भागाभाग कायजोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? -षट्० खण्ड० २ । १० । सू ३७ । पु ७ । पृष्ठ० ५०७ टीका-सुगम। अणंता भागा। -षट्० खण्ड ० २ । ११ । सू ३८ । पु ७ । पृष्ठ० ५०७ । ८ टोका-कुदो? अप्पिददव्ववदिरित्तसव्वदन्वेहि सव्वजीवरासिमवहिरिज्जमाणे लद्धअणंत्तसलागाओ विरलिय सव्वजीवरासि समखंडं करिय दिण्णे तत्थेगरूवधरिदं मोत्तूण सेसबहुभागेसु समुदिदेसु कायजोगिदत्वपमाणुवलंभादो। काययोगी जीव सब जीवों के अनन्त बहुभाग प्रमाण है। क्योंकि विवक्षित द्रव्य से भिन्न सब द्रव्यों द्वारा सर्व राशि को अपहृत करने पर प्राप्त हुई अनन्त शलाकाओं का विरलन कर व सर्व जीव राशि को समखण्ड करके देने पर उसमें एक रूप धरित को छोड़कर शेष समुदित बहुभागों में काययोगी द्रव्य का प्रमाण पाया जाता है। ..३ औदारिक काययोगी का भागाभाग ओरालियकायजोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? -षट्० खण्ड० २ । १० । सू ३९ । पु ७ । पृष्ठ० ५०८ टीका-सुगम। संखेज्जा भागा। -षट् खण्ड० २ । १० । सू ४० । पु ७ । पृष्ठ० ५०० टीका-कुदो ? अणप्पिदसव्वदव्वेण सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे संखेज्जरूवाणमुवलं भादो। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) औदारिक काययोगी जीव सर्व जीवों के संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। क्योंकि, अविदक्षित सर्व द्रव्य का जीव राशि में भाग देने पर संख्यात रूप उपलब्ध होते हैं। .०४ औदारिकमिश्र काययोगी का भागाभाग ओरालियमिस्सकायजोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? --षट् खण्ड ० २ । १० । सू ४१ । पु ७ । पृष्ठ० ५०८ टीका-सुगमं। संखेज्जदिभागो। ---षट ० खण्ड ० २ । १० । सू ४२ । पु ७ । पृष्ठ ० ५०८ । ९ टोका-कुदो ? अप्पिददव्वेण सव्वरासिम्हि भागे हिदे संखेज्जरवाणमुवल भालो। औदारिकमिश्रकाययोगी जीव सब जीवों के संख्यातवें भाग प्रमाण है। क्योंकि विवक्षित द्रव्य का सर्व जीवराशि में भाग देने पर संख्यात रूप उपलब्ध होते हैं। .०९ कार्मण काययोगो का भागाभाग कम्मइयकायजोगी सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? -षट्० खण्ड ० २ । १० । सू ४३ । पु ७ । पृष्ठ• ५०९ टोका-सुगमं। असंखेज्जविभागो। -षट् • खण्ड ० २ । १० । सू ४४ । पु ७ । पृष्ठ० ५०९ टोका-कुदो ? अप्पिददवेण सव्वजोवरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जरूवोवलभालो। कार्मण काययोगी जीव सब जीवों के असंख्यातवें भाग-प्रमाण हैं। क्योंकि, विवक्षित द्रव्य का सर्व जीव राशि में भाग देने पर असंख्यात रूप उपलब्ध होते हैं। •४५ सयोगी जीवों के भागाभाग रूप द्रव्य प्रमाण भागाभागं वत्तइस्सामो। सवजीवरासि संखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा ओरालियकायजोगरासोओ सेसमसंखेज्नखंडे कए बहुखंडा ओरालियमिस्सकायजोगरासो होवि। सेसमणतखंड कए बहुखंडा कम्मइयकायमिच्छाइदिरासी होदि। सेसमंण्तखंडे कए बहुखंडा सिद्धा होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४१ ) असच्चमोसवचिजोगिमिच्छाइट्ठिणो होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा वेउन्वियकायजोगिमिच्छाइट्ठिणो होति। सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसवचिजोगिमिच्छाइट्ठिणो होति। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसचिजोगिमिच्छाइट्टिणो हति। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चवचिजोगिमिच्छाइट्टिणो होति। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसमणमिच्छाइट्ठी होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसमणमिच्छाइट्ठी होति। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसमणमिच्छाइट्ठिणो होति। सेसं संखेज्जखडे कए बहुखंडा सच्चमणमिच्छाइट्ठी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा वेउव्वियमिस्सकायजोगिमिच्छाइट्ठिणो होति । सेसं संखेज्जखंड कए बहुखंडा वेउव्वियकायजोगिअसंजदसम्माइट्ठिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसवचिजोगिअसंजदसम्माइट्ठिरासी होवि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसवचिजोगिअसंजदसम्माइटिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसवचिजोगिअसंजदसम्माइट्ठिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चवचिजोगिअसंजदसम्माइट्ठिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसमणजोगिअसंजदसम्माइद्विरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसमणजोगिअसंजदसम्माइट्टिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसमणजोगिअसंजदसम्माइट्रिरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमणजोगिअसंजदसम्माइदिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कदे बहुखंडा वेउन्वियकायजोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कदे बहुखंडा असच्चमोसवचिजोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कदे बहुखंडा सच्चमोसवचिजोगिसम्मामिच्छाइटिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसवचिजोगिसम्मामिच्छाइटिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चवचिजोगिसम्मामिच्छाइटिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसमणजोगिसम्मामिच्छाइटिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसमणजोगिसम्मामिच्छाइटिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसमणजोगिसम्मामिच्छाइट्ठिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमणजोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी होदि। ओघसासणरासीदो ओघसम्मामिच्छाइटिरासी संखेज्जगुणो त्ति सुत्तसिद्धो। संपहि ओघसम्मामिच्छाइट्ठिरासिस्स संखेज्जदिभागो सच्चमणजोगिसम्मामिच्छाइद्विरासी कधं ओघसासणरासौदो Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२ ) संखेज्जगुणो होवि ति उत्त वुच्चदे-जोगद्धागुणगारदो सम्मामिच्छाइट्ठिरासि पडिसासणसम्माइट्ठिरासिस्स गुणगारो बहुगो, तेण सच्चमणजोगिसम्मामिच्छाइट्ठिरासी सेसस्स संखेज्जभागो। तं कधं णव्वदे सुत्तेण विणा ? पत्थि सुत्तं वक्खाणं वा, किंतु आइरियवयणमेव केवलमत्थि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा वेउन्वियकायजोगिसासणसम्माइटिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसवचिजोगिसासणसम्माइटिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसवचिजोगिसासणसम्माइदिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसवचिजोगिसासणसम्माइद्विरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चवचिजोगिसासणसम्माइटिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसमणजोगिसासणसम्माइदिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसमणजोगिसासणसम्माइट्टिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसमणजोगिसासणसम्माइट्ठी होति। सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुभागा सच्चमणजोगिसासणसम्माइट्टी होति। सेसमसंखेज्जखंडे कए तत्थ बहुखंडा ओरालियकायजोगिअसंजदसम्माइदिरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा ओरालियकायजोगिसम्मामिच्छाइट्टिरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा ओरालियसासणसम्माइदिरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा ओरालियकायजोगिसंजदासंजदरासी होदि। सेसं संज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसवचिजोगिसंजदासंजदरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसवचिजोगिसंजदासंजदरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसवचिजोगिसंजवासंजदरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चवचिजोगिसंजदासंजदरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा असच्चमोसमणजोगि संजवासंजदरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमोसमणजोगिसंजदासंजदरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसमणजोगिसंजदासंजदरासी होदि। सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमणजोगिसंजदासंजदरासी होदि । सुत्तेण विणा वेउन्वियमिस्सकायजोगिअसंजदासम्माइदिरासीतिरिक्खसम्मामिच्छाइटिप्पहुडि तीहिं विरासीहितो असंखेज्जगुणहीणो त्ति कधं णव्वदे ? आइरियघयणादो। आइरियवयणमणेयंतमिदि चे, होदु णाम, पत्थि मज्झत्थ मज्झत्थ अग्गहो। सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा वेउव्वियमिस्सकायजोगिअसंजदसम्माइट्ठीरासो होदि। सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा कम्मइयकायजोगिसी होदि। असंजद Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ) सम्माइट्ठिरासी होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा कम्मइयकायजोगिअसंजदसम्माइद्विरासी होदि। सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा ओरालियमिस्सकायसासणसम्माइट्ठिरासी होदि। सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा वेउत्वियमिस्सकायजोगिसासणा होति। सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा कम्मइयकायजोगिसासणसम्माइदिरासी होदि। सेसं जाणिऊण यव्वं । -षट्० खण्ड ० १, २ । सू १२३ । टीका । पु ३ । पृष्ठ० ४०४ से ४०८ अब भागाभाग को बतलाते हैं-सर्व जीव-राशि के संख्यात खण्ड करने पर उनमें से बहुभागप्रमाण औदारिककाययोगी जीव-राशि है। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभागप्रमाण औदारिकमिश्रकाययोगी जीव-राशि है। शेष एक भाग के अनन्त खण्ड करने पर बहुभागप्रमाण कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि राशि है। शेष एक भाग के अनन्त खण्ड करने पर बहुभागप्रमाण सिद्ध जीव है। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग अनुभय वचनयोगी मिथ्यादृष्टि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग वैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर उनमें से बहुभाग उभय वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग मृषा वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग सत्यवचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग अनुभय मनोयोगी मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग उभय मनोयोगी मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग मृषा मनोयोगी मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग सत्य मनोयोगी मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग बैंक्रियिककाययोगी असंयतसम्यगदृष्टि जीव है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग अनुभय वचनयोगी असंयतसम्यगदृष्टि जीव-राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहभाग उभयवचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर मृषा वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग सत्य वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग अनुभयमनोयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग उभय मनोयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग मृषा-मनोयोगी असंयतसम्यगदृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग सत्य मनोयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव राशि है । शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग वैक्रियिककाययोगी सम्यगदष्टि जीव-राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग अनुभय वचनयोगी Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) सम्यगमिथ्यादष्टि जीव-राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर उभय वचनयोगी सम्यग्दृष्टि जीव-राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग मृषावचनयोगी सम्यमिथ्यादृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग सत्यवचनयोगी सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग उभय मनोयोगी सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग मृषामनोयोगी सम्यमिथ्यादृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग सत्यमनोयोगी सम्यमिथ्यादृष्टि जीव राशि है। ___ ओघ सासादनसम्यगदृष्टि जीव राशि से ओघ सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव राशि संख्यातगुणी है-यह सूत्र सिद्ध है। अब ओघ सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव राशि के संख्यातवें भाग प्रमाण सत्यमनोयोगी सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव राशि ओघ सासादनसम्यगदृष्टि जीव राशि से संख्यातगुणी कैसे हैं। आगे इसी विषय के पूछने पर कहते हैं—योगकाल के गुणकार से सम्यमिथ्यादृष्टि जीव राशि की अपेक्षा सासादनसम्यगदृष्टि जीव राशि का गुणकार बहुत है, अतः सत्यमनोयोगी, सम्यग्दृष्टि जीव राशि भागाभाग में मृषा मनोयोगी सम्यग्दृष्टि का प्रमाण आने के अनन्तर जो एक भाग शेष रहता है, उसका संख्यातवां भाग है । यद्यपि इस विषय में सूत्र या व्याख्यान नहीं पाया जाता है, किन्तु आचार्यों के वचन ही केवल पाये जाते हैं, जिससे यह कथन जाना जाता है। सत्यमनोयोगी सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव राशि के अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग वैक्रियिक काययोगी सासादन सम्यगदृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग अनुभय वचनयोगी सासादन सम्यगदृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग उभय वचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव राशि है । शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग मृषा वचनयोगी सासादन-सम्यग्दृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग करने पर बहुभाग सत्य मनोयोगी सासादन सम्यगदृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग करने पर उनमें से बहुभाग औदारिक काययोगी असंयत सम्यगदष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग औदारिक काययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग औदारिक काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग औदारिक काययोगी संयतासयत जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग अनुभय वचनयोगी संयतासंयत जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग उभय वचनयोगी संयतासंयत जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग मृषा वचनयोगी संयतासंयत जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग सत्य वचनयोगी संयतासंयत जीव राशि है। शेष एक भाग के संख्यात खण्ड Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४५ ) करने पर बहुभाग अनुभव मनोयोगी संयतासंयत जीव राशि है । शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग उभय मनोयोगी संयतासंयत जीव राशि है । शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग मृषा मनोयोगी संयतासंयत जीव राशि है । शेष एक भाग के संख्यात खण्ड करने पर बहुभाग सत्य मनोयोगी संयतासंयत जीव राशि है । सूत्र के विना वैक्रियिक विश्व काययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि जीव राशि तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव राशि से लेकर तीन राशियों से असख्यातगुणी हीन है- यह कथन आचार्यों के वचन से जाना जाता है । चूंकि आचार्यों के वचनों में अनेकान्त है । सत्य मनोयोगी संयतासंयत राशि के अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग वैक्रियमिश्र काययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि जीव राशि है । शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग कामंणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव राशि है । शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर वहुभाग औदारिक मिश्र काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीव राशि है। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग वैयमिश्र काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीव है। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग कार्मण काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि जीव राशि है । शेष कथन समझकर ले जाना चाहिए । • ४ ६ सयोगी जीवों का द्रव्य ( संख्या ) प्रमाण - ०१ पाँच मनोयोगी तथा तीन वचनयोगियों का द्रव्य प्रमाण -- जोगाणुवादेण पंचमणजोगि तिष्णिवचिजोगीसु मिच्छा इट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया ? देवाणं संखेज्जदि भागो । - षट्० खण्ड ० १ । २ । सू १०३ । पु ३ । पृष्ठ० ३८६ टीका - एत्थ तिन्हं चैव वचिजोगाणं संगहो किमट्टो कदो ? णं एस दोसो । कुदो ? वचिजोग - असच्चमोसवचिजोगेहि सह एदेसि तिरहं वचिजोगाणं दव्वालाव पडि समाणत्ताभावादो । सामण्णालावाणमेगजोगो भवदि, ण भिण्णालावाणं । देवाणं जाणि दव्व-काल- खेत्त - पमाणाणि पुन्वं परुविदाणि तस संखेज्जदिभागो एसिमट्ठण्हं रासीणं पमाणं होदि । कुदो ? जदो एदे अट्ठ वि जोगा सण्णीणं चेव भवंति णो असण्णीणं, तत्थ पडिसिद्धत्तादो । सन्णीसु वि पहाणा देवा चेव, सेस दिसण्णीणं देवाणं संखेज्जदिभागत्तादो । तत्थ वि देवेसु पहाणो कायजोगरासी, मण वचिजोगरासीदो संखेज्जगुणत्तादो । तं पि कथं जाणिज्जदे ? जोगद्धप्पा Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) बहुगादो। तं जहा-'सव्वत्थोवा मणजोगद्धा। वचिजोगद्धा संखेज्जगुणा। कायजोगद्धा संखेज्जगुणा ति।' पुणो एदेसिमद्धाणं समासं काऊण तेण तिण्हं जोवाणं सण्णिरासिमोवट्ठिय अप्पप्पणो अद्धाहि पुध पुध गुणिदे मण-वचि-काय जोगरासीओ हवंति। तवो ट्ठिदमेदं एदे अट्ठ वि मिच्छाइटिरासोओ देवाणं संखेज्जदिभागो ति। सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति ओघ । -षट् • खण्ड ० १ । २ । सू १०४ । पु ३ । पृष्ठ• ३८७ टोका-पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागतं पडि ओघजीवेहि सह एदेसि समाणत्तमस्थि ति ओघमिदि उत्त। पज्जवट्टियणए पुण अवलंबिज्जमाणे तेहितो एदेसि अत्थि महंतो भेदो। कुदो ? एदेसिमोघरासिस्स संखेज्जदि. भागत्तादो। तं पि कंध णव्वदे ? पुव्वुत्तद्धप्पाबहुगादो । सेसं सुगमं । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि ति दवपमाणेण केवडिया, संखेज्जा। -षट् सू १ । २ । सू १०५ । पु ३ । पृष्ठ० ३८७ टीका-एत्थ ओघरासिणा संखेज्जत्तं पडि एदेसि रासीणं समाणत्ते संते किमट्ठमोघमिदि ण परविदं सुत्ते? ण, एत्थ अवलंबिदपज्जवट्ठियणयत्तादो। सो वि एत्थ किमट्ठमवलं बिज्जदे ? जोगद्धप्पाबहुगमस्सिऊण रासिविसेसपदुप्पायणटुं। कंध जोगद्धप्पाबहुगमिदि वुत्ते वुच्चदे–'सव्वत्थोवा सच्चमणजोगद्धा। मोसमणजोगद्धा संखेज्जगुणा। सच्चमोसमणजोगद्धा संखेज्जगुणा। असच्चमोसमणजोगद्धा संखेज्जगुणा। मणजोगद्धा विसेसाहिया। सच्चवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा। मोसवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा। सच्चमोसवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा। असच्चमोसवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा । वचिजोगद्धा विसेसाहिया। कायजोगद्धा संखेज्जगुणा त्ति'। योगमार्गणा के अनुवाद से पांचों मनोयोगियों और तीन वचनयोगियों में मिथ्यादष्टि जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा देवों के संख्यातवें भाग हैं। यहाँ वचनयोगियों और अनुभय वचनयोगियों के साथ इन तीन वचनयोगियों की द्रव्यालाप के साथ समानता नहीं पाई जाती है। समान्यालापों का ही एक योग ही होता है, भिन्नालापों का नहीं। अतः यहां तीन ही वचनयोगियों का संग्रह किया गया है । देवों का द्रव्य, क्षेत्र व काल की अपेक्षा जो प्रमाण पहले कह आये हैं। (देव असंख्यात है) उसके संख्यातवें भाग इन आठ राशियों का प्रमाण है । क्योंकि ये आठों योग संज्ञी जीवों के Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) ही होते हैं । असंज्ञी जीवों के नहीं। क्योंकि असंज्ञियों में ये आठों योग प्रतिषिद्ध है । संज्ञियों में भी प्रधान देव ही है, क्योंकि शेष तीन गति के संज्ञी जीव देवों के संख्यातवें भाग ही है । यहाँ देवों में भी प्रधान काययोगियों की राशि है, क्योंकि काययोगियों का प्रमाण मनोयोगियों व वचनयोगियों से संख्यातगुणा है । योगकाल के अल्पबहुत्व से यह जाना जाता है। वह इस प्रकार है-मनोयोग का काल सबसे स्त्रोक है, वचनयोग का काल उससे संख्यातगुणा है। काययोग का काल वचनयोग के काल से संख्यातगुणा है। अनन्तर इन कालों का जोड़ करके जो फल हो उससे तीन योगों की संज्ञी जीव-राशि को अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसे अपने-अपने काल से पृथक्-पृथक् गुणित करने पर मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव-राशि होती है। इसलिये यह निश्चित हुआ ये आठ ही मिथ्यादृष्टि जीव राशियां देवों के संख्यातवें भाग है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में पूर्वोक्त आठ योग वाले जीवों का प्रमाण सामान्य प्ररूपणा के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग है। पल्योपम के असंख्यातवें भाग के प्रति औघ जीवों के साथ इन आठ जीव-राशियों की समानता है। अतः सूत्र में 'ओघ' ऐसा कहा है। परन्तु पर्यायाथिक नय का अवलम्वन करने पर तो सासादनादि संयतासंयतान्त, गुणस्थानप्रतिपन्न ओघ-प्ररूपणा से गुणस्थानप्रतिपन्न इन आठ राशियों में महान भेद है, क्योंकि ये राशियां ओघ-राशि के संख्यातवें भाग है। पूर्वोक्त योगकाल के अल्पबहुत्व से यह जाना जाता है। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में पूर्वोक्त आठ जीवराशियाँ द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा संख्यात है। योगकाल का आश्रय लेकर राशि-विशेष का प्रतिपादन करने के लिए यहाँ पर पर्यायाथिकनय का अवलम्वन लिया गया है। योगकाल के आश्रय से अल्पबहुत्व :१-- सत्यमनोयोग का काल सबसे स्तोक है। २-मृषामनोयोग का काल उससे संख्यातगुणा है । ३-उभय मनोयोग का काल मृषामनोयोग के काल से संख्यातगुणा है । ४-अनुभय मनोयोग का काल उभय मनोयोग के काल से संख्यातगुणा है । ५-इससे मनोयोग का काल विशेष-अधिक है । ६-सत्यवचनयोग का काल मनोयोग के काल से संख्यातगुणा है । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) ७-मृषावचनयोग का काल उससे संख्यातगुणा है। ८-उभय वचनयोग का काल उससे संख्यातगुणा है । ९-अनुभय वचनयोग का काल उससे संख्यातगुणा है । १०-वचनयोग का काल उससे विशेषाधिक है । ११-काययोग का काल उससे संख्यातगुणा है । .०२ वचनयोगी तथा असत्यमृषा ( अनुभय ) वचनयोगियों का द्रव्य प्रमाण __वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा। -षट० सू १ । २ । सू १०६ । पु ३ । पृष्ठ० ३८८ टोका-एत्थ मिच्छाइट्ठी इदि एगवयणणिद्दिसो, केवडिया इति बहुवयणणिहिसो; कधमेदाणं भिण्णाहियरणाणमेयट्रपउत्ती ? ण, एयाणेयाणमण्णोण्णाजहत्तीणमेय?त्ताविरोहा । सेसं सुगमं । असंखेज्जा इदि सामण्णेण णवविहस्सासंखेज्जस्स गहणे पसत्ते अणिच्छिदासंखेज्जपडिसेहट्ठमुत्तरसुतं भणदिअसंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । -षट्० खण्ड • १ । २ । सू १०७ । पु ३ । पृष्ठ• ३८९ टीका-एदं सुत्तमइसुगम। अणिच्छिदासखेज्जासंखेज्जवियप्पपहिसेहणिमित्तमुत्तरसुत्तावदारो भवदि खेत्तण वचिचोगि-असच्चमोसचिजोगीसु मिच्छाइट्ठीहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स संखेज्जदिभागवग्गपडिभागेण । -षट् ० खण्ड ० १ । २ । सू १०८ । पु ३ । पृष्ठ० ३८९ टीका-वचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो च वीइ दियप्पहुडीणमुवरिमाण जीवसमासाणं भासापज्जत्तीए पज्जत्तयाण भवदि, तेण वि-ति-चरिदियअसणिपचिदियपज्जत्तरासीओ एगट्ठ करिय वचिजोग-कायजोगद्धासमासेण खडिय एगखडे वचिजोगद्धाए गुणिय पचिदियअसच्चमोसवचिजोगरासि पक्खित्ते अणच्चमोसवचिजोगरासी होदि। एत्थ सच्चादिसेसवचिजोगरासि पक्खित्त वचिजोगरासी होदि। अद्धासमासस्स आवलियाए गुणगारत्तेण टुविदसखेज्जरुवेहितो पदरंगुलस्स हेट्ठा भागहारत्तेण दृविदसखेज्जरुवाणि जेण संखेज्जगुणाणि तेण पदरगुलस्स संखेज्जादिभागो भागहारो भवदि । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४९ ) वचनयोगियों और असत्यमृषा अर्थात् अनुभय वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा असंख्यात है । 'असंख्यात है' इस प्रकार सामान्य वचन देने से नौ प्रकार के असंख्यातों का ग्रहण प्राप्त होता है । काल की अपेक्षा वचनयोगी और अनुभय वचनयोगी जीव असंख्याता संख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा अपहृत होते हैं । क्षेत्र की अपेक्षा वचनयोगियों और अनुभय वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा अंगुल के संख्यातवें भाग के वर्ग रूप प्रतिभाग से जगप्रतर अपहृत होता है । द्वीन्द्रिय से लेकर ऊपर के जीव समासों में भाषापर्याप्ति से प्राप्त हुए जीवों के वचनयोग और अनुभय वचनयोग पाया जाता है अतः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव राशि को एकत्रित करके और उसे वचनयोग और काययोग के काल के जोड़ रूप प्रमाण से खण्डित करके जो एक भाग लब्ध आवे उसे वचनयोग के काल से गुणित करके जो प्रमाण हो उसमें पंचेन्द्रिय अनुभय वचनयोगी राशि के मिला देने पर अनुभय वचनयोगी जीव राशि होती है । इसमें सत्य वचनयोगी जीव राशि आदि शेष वचनयोगी जीव राशियों के मिला देने पर वचनयोगी जीव-राशि होती है । यहाँ पर अद्धासमास के लिए आवली के गुणकार रूप से स्थापित संख्यात से प्रतरांगुल के नीचे भागहार रूप से स्थापित संख्यात चूंकि संख्यात गुणा है अतः प्रकृत में प्रतरांगुल का संख्यातवां भाग भागहार है । सेसाणं मणिजो गिभंगो । -- षट्० खण्ड ० १ । २ । सू १०९ । पु ३ । पृष्ठ० ३९० टीका - जधा मणजोगरासी ओघसासणादीणं संखेज्जदिभागो, तहा वचिजोगि असच्चमोसवचिजोगीसु सासणादओ ओघसासणादीणं संखेज्नदिभागो । सेसं सुगमं । संपहि अप्पाबहुगबलेण पुव्विल्लसुत्तेसु वुत्तरासीणमवहारकाला परुविज्जते । तं जहा संखेज्जरुवेहि सूचिअंगुले भागे हिदे लद्ध वग्गिदे वचिजोगिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरुवेहि खंडिय लद्ध तम्हि चेव पक्खित्ते असच्चमोसवचिजोगिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरुवेहि गुणिदे वेउन्थिकाय जो गिअवहार कालो होदि । तम्हि संखेज्जरुवेहि गुणिदे सच्चमोसवचिजोगिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरुवेहि गुणिदे मोसवचिजोगिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरुवेहि गुणिदे सच्चवचिजोगि अवहारकालो Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० ) होदि। तम्हि संखेज्जरवेहि गुणिदे मणजोगिअवहारकालो होदि। तं हि संखेज्जरवेहि खंडिय लद्ध तम्हि चेव पक्खित्ते असच्चमोसमणजोगिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेज्जरवेहि गुणिदे सच्चमोसमणजोगिअवहारकालो होदि। तम्हि सखेज्जरवेहि गुणिदे मोसमणजोगिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेज्जरुवेहि गुणिदे सच्चमोसमणजोगिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेज्ज रुवेहि गुणिदे वेउनियमिस्सअवहारकालो होदि। किं कारणं ? जेण अंतोमुत्तमेस वेविय मिस्सुवक्कमणकालादो संखेज्जवस्सा उवदेवाणमुवक्कमणकालो संखेज्जगुणो तेण देवाणं संखेज्जदिभागो वेउव्वियमिस्सरासी होदि। होतो वि सच्चमणरासिस्स संखेज्जदिभागो। कुदो ? सच्चमणजोगद्धोवट्टिदसयलद्धासमासअंतोमुत्तमेत्तद्वाए आवलियगुणगारसंखेज्जरवेहितो वेउध्वियमिस्सद्धोवट्टिदसंखेज्जवर सेसु संखेज्जगुणरुवोवलंभादो। ___ सासादन सम्यग्दृष्टि आदि शेष गुणस्थानवर्ती वचनयोगी और अनुभय वचनयोगी जीव सासादन सम्यग्दृष्टि आदि मनोयोगि-राशि के समान है। जिस प्रकार मनोयोगी जीव-राशि ओघसासादनसम्यग्दृष्टि आदि के संख्यातवें भाग है, उसी प्रकार वचनयोगियों और अनुभय वचनयोगियों में सासादनसम्यगदृष्टि आदि जीव-राशि ओघ सासादनसम्यग्दृष्टि आदि के संख्यातवें भाग है। शेष कथन सुगम है । अब अल्पबहुत्व के बल से पूर्वोत्त सूत्रों में कथित राशियों के अपहार काल कहे जाते हैं यथा-संख्यात से सूच्यंगुल के भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसके वगित करने पर बचनयोगियों का अवहारकाल होता है। इससे संख्यात् से खंडित करके जो लब्ध आवे उसे इसी वचनयोगियों के अवहारकाल में मिला देने पर अनुभय वचनयोगियों का अवहारकाल होता है। इसे संख्यात से गुणित करने पर वैक्रियिक काययोगियों का अवहार काल होता है। इसे संख्यात से गुणित करने पर उभय वचनयोगियों का अवहारकाल होता है। इसे संख्यात से गुणित करने पर मृषा-वचनयोगियों का अवहारकाल होता है । इसे संख्यात से गुणित करने पर सत्यवचनयोगियों का अवहारकाल होता है। इसे संख्यात से गुणित करने पर मनोयोगियों का अवहारकाल होता है। इसे संख्यात से खंडित करने पर जो लब्ध आवे उसे इसी मनोयोगियों के अवहारकाल में मिला देने पर अनुभय मनोयोगियों का अवहारकाल होता है। इसे संख्यात से गुणित करने पर उभय मनोयोगियों की अवहारकाल होता है। इसे संख्यात से गुणित करने पर मृषा मनोयोगियों का अवहार काल होता है। इसे संख्यात से गुणित करने पर सत्य मनोयोगियों का अवहारकाल होता है। इसे संख्यात से गुणित करने पर वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों का अवहारकाल होता है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) संपहि ओघ असंदसम्माइट्ठिअवहारकालं संखेज्जरुवेहि खंडिय लद्ध तम्हि चैव पविखते कायजोगिअसंजद- सम्माइट्ठिअवहार कालो होदि । तम्हि आवलियाए असं खेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्ध तम्हि चेव पक्खित्ते वेउव्वियअसं जदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरुवेहि गुणिदे वचिजोगिअसंजदसम्माइट्टि - अवहारकालो होदि । तं हि संखेज्जरुवेहि खंडिय लद्ध ं तम्हि चेव पक्खिते असच्चमोसवचिजोगिअसंजदसम्माइट्ठिअवहार कालो होदि । तम्हि संखेज्जरुवेहि गुणिदे सच्चमोसवचिजोगिअसं जदसम्माइट्ठिअवहार कालो होदि । तहि संज्जवेहि गुणिदे मोसवचिजोगिअसं जदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरुवेहि गुणिदे सच्चवचिजोगिअसंजदसम्माइट्ठिअवहार कालो होदि । तम्हि संखेज्जवेहि गुणिदे मणजोगिअवहारकालो होदि । तं हि संखेज्जरुवेहि खंडिय लद्ध तम्हि चेव पक्खित्ते असच्चमोसमणजोगिअवहार कालो होदि । ( तम्हि संखेज्जरवेहि गुणिदे सच्च मोसमणजोगिअवहारकालो होदि । ) तम्हि संखेज्जरुवेहि गुणिदे मोसमणजोगिअवहार कालो होदि । तम्हि संखेज्ज - वेहि गुणिदे सच्चमण जोगिअवहार कालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जवि - भाएण गुणिदे ओरालियकायजो गिअसंजदसम्माइट्ठिअवहार कालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे वेडव्वियमिस्सकायजोगिअसं जदसम्माइट्ठिअवहार कालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे कम्मइयकायजोगिअसं जदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । एवं सम्मामिच्छाइट्टिस्स । raft वेव्विमिस्स कम्मइयं च छोड्डिय वत्तव्वं । ओघसासणसमाइट्ठिअवहारकालं संखेज्जरुवेहि खंडिय लद्ध तम्हि चेव पक्खित्ते कायजोगिसासणसम्माइट्ठिअवहार कालो होदि । तं हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण खंडिय लद्ध तम्हि चेव पक्खिते वेडव्वियकाय जोगिसासणसम्माइट्ठि अवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरवेहि गुणिदे वचिजोगिसास सम्माइट्ठिअवहारकाली होदि । तहि संखेज्जरवेहि भागे हिदे लद्ध तम्हि चेव पक्खित्ते असच्चमोसवचिजोगिसासणसम्माट्ठिअवहार कालो होदि । तम्हि संखेज्जरुवेहि गुणिदे सच्चमोसवचिजोगिअवहारकालो होदि । एवं मोसवचिजोगि - सच्चवचिजोगिअवहारकालाणं जहाकमेण संखेज्जरुवेहि गुणेयव्वं । तम्हि संखेज्जरुवेहि गुणिदे मणजोगिसासणसम्माइट्ठिअवहार कालो होदि । तं हि संखेज्जरुवेहि खंडिय लद्ध तम्हि चेव पक्खित्ते असमोसमणजोगिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तदो सच्चमोसम जोगि मोसमणजोगि सच्चमणाणं जहाकमेण संखेज्जरुवहिं गुणिज्जदि । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे ओरालिकायजोगिसासणसम्माइट्टिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे ओरालियमिस्ससासणसम्माइटिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिवे वेउम्वियमिस्सजोगिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे कम्मइयसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि। एवं संजदासंजदाणं। णवरि ओघावहारकालसखेज्जरवेहि खंडिय लद्धतम्हि चेव पक्खित्ते ओरालियकायजोगिसंजदासजदाणं अवहार कालो होदि । तम्हि संखेज्जरवेहि गणिदे वचिजोगिसंजदासंजदअवहारकालो होदि। सेसं पुव्वं व वत्तव्वं । पमत्तादीणं बच्चदे। मणजोग-वचिजोग-कायजोगद्धाणं सामासेण अप्पप्पणो रासिम्हि भागे हिदे लद्ध तिप्पडिसि काऊण पुणो अप्पप्पणो अद्धाहि गुणिदे एक्केक्कम्हि गुणट्ठाणे मण-वचि-कायजोगरासीओ हवंति। पुणो सच्चमोस-असच्चमोसमणजोगद्धाणं समासेण मणजोगरासि खडिय लद्धच दुप्पडिरासि काऊण अप्पप्पणो अद्धाहिगुणिदे सच्चमोसअसच्चमोसमणजोगरासीओ हवंति । एवं वचिजोगरासिस्स वि वत्तव्वं । -षट्० खण्ड० १ । २ । सू १०९ । पु ३ । पृष्ठ० ३९० टीका .०१ मनोयोगी और वचनयोगी का द्रव्य प्रमाण .०२ वचनयोगी और असत्यमृषा वचनयोगी का द्रव्य प्रमाण जोगाणुवादेण पंचमणजोगी तिण्णिवचिजोगी दव्वपमाणेण केवडिया ? -षट• खण्ड० २। ५ । सू ८४ । पु ७ । पृष्ठ० २७६ टोका-सुगम। देवाणं संखेज्जदिभागो। -षट्० खण्ड ० २ । ५ । सू ८५ । पु ७ । पृष्ठ० २७७ टोका-देवाणमवहारकाले बेछप्पण्णंगुलसदवग्गे तप्पाओग्गसंखेज्जरवेहि गुणिदे एदेसिमवहारकाला होति। एदेहि जगपदरम्हि भागे हिदे पुवुत्तटुरासोओ होति । सेसं सुगमं । वधिजोगि-असच्चमोसवचिजोगी दव्वपमाणेण केवडिया ? -षट्० खण्ड ० २ । ५ । सू ८६ टीका । पु ७ । पृष्ठ० २७७ टीका-सुगमं । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३ ) असंखेज्जा। -षट् खण्ड० २ । ५ । सू ८७ । पु ७ । पृष्ठ० २७७ टीका-एदेण संखेज्जाणताणं पडिसेहो कदो। कुदो ? उभयसत्तिसंजुत्तत्तादो। असंखेज्ज पि तिविहं । तत्थेदम्हि एदेसिमवट्ठाणमिदि जाणावगट्ठमुत्तरसुत्तं भणदिअसंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण । .-षट्० खण्ड ० २ । ५ । मू ८८ । पु ७ । पृष्ठ० २७७ । ८ टीका-एदेण परित्त-जुत्तासंखेज्जाणं जहण्णसंखेज्जासंखेज्जस य पडिसेहोकदो, एदेसु असंखेज्जासंखेज्जाणं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो। सेसदोअसंखेज्जासंखेज्जेसु एक्कस्सावहारण?मुत्तरसुत्तं भणदि खेतेण वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स संखेज्जविभागवग्गपडिभाएण। -पट० खण्ड० २ । ५ । सू ८९ । पु ७ । पृष्ठ० २७८ टोका-एदेण उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जस्स पडिसेहो कदो, तस्स पदरस्स असंखेज्जविभागत्तविरोहादो। संखेज्जरूवेहि ओवट्टिदपदरंगुलेण जगपदरे भागे हिदे दो वि रासीओ आगच्छति । सेसं सुगमं । योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी और सत्य, असत्य व उभय- ये तीन वचनयोगी द्रव्यप्रमाण से देवों से संख्यातवें भाग प्रमाण है। ___ अस्तु दोसो छप्पन सूच्यंगुल्लों के वर्गरूप देवों के अवहारकाल को तत्प्रायोग्य संख्यात् रूपों से गुणित करने पर इनके अवहारकाल होते हैं। इनके जगप्रतर के भाजित करने पर पूर्वोक्त आठ राशियां होती है। शेष सूत्रार्थ सुगम है । वचनयोगी और असत्यमृषा अर्थात् अनुभय वचनयोगी द्रव्य प्रमाण से असंख्यात है। अस्तु इस सूत्र के द्वारा संख्यात व अनन्त का प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि, वह सूत्र संख्यात व अनन्त के प्रतिषेध तथा असंख्यात के विधान रूप उभय शक्ति से संयुक्त है । असंख्यात के तीन प्रकार है। उनमें से इस असंख्यात में इनका अवस्थान है, इसके ज्ञापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं। वचनयोगी और असत्यमृषा वचनयोगी काल की अपेक्षा असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिणियों से अपहृत होते हैं। अस्तु इस सूत्र के द्वारा परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और जघन्य असंख्यातासंख्यात का प्रतिषेध किया गया है ; क्योंकि इनमें असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिणियों का अभाव है। शेष दो असंख्यातासंख्यातों में से एक के अवधारणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) क्षेत्र की अपेक्षा वचनयोगी और असत्यमृषा वचनयोगियों द्वारा सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग वर्गरूप प्रतिभाग से जगप्रतर अपहृत होता है । अस्तु इस सूत्र के द्वारा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात का प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि उससे जगप्रतर के असंख्यातवें भागपने का विरोध है। संख्यातरूपों से अपवर्तित प्रतरांगुल का जगप्रतर में भाग देने पर दोनों ही राशियां आती है। शेष सूत्रार्थ सुगम है । ०३ काययोगी तथा औदारिक काययोगी का द्रव्य प्रमाणकायजोगि-ओरालियकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी मूलोघं । -षट्० खण्ड० १ । २। सू ११० । पु ३ । पृष्ठ० ३६५ टोका-एदे दो वि रासीओ अणंता। अणंताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण। खेत्तेण अणंताणंता लोगा इदि वुत्तं होदि। सेसं सुगमं । सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति जहा मणजोगिभंगो। --षट् ० खण्ड ० १ । २ । सू १११ । पु ३ । पृष्ट० ३९५ टीका-एदं सुत्तं सुगम। एत्थ धुवरासिविहाणं वच्चदे। तं जहा. सगुणपडिवण्णमणजोगि-वचिजोगिरासि सिद्ध-अजोगिरासि च कायजोगिभजिदंएदेसि वगं च सव्वजीवरासिम्हि पक्खित्ते कायजोगिधुवरासि होदि। तं पडिरासि काऊण तत्थेक्करासिम्हि संखेज्जरवेहि भागे हिदे लद्धतम्हि चेव पक्खित्ते ओरालियकायजोगिधुवरासि होदि। सासणादीणं सग-सगअवहारकाले संखेज्जरवेहि खंडिय लद्धतम्हि चेव पक्खित्ते कायजोगिसासणादिगुणपडिवण्णाणं अवहारकाला भवंति। एदे अवहारकाले आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे ओरालियकायजोगिसासणादीणमवहारकाला भवंति । कुवो? तिरिक्ख-मणुस्सगुणपडिवण्णरासीणं देवगुणपडिवण्णरासिस्स असंखेज्जदिभागत्तादो। संजदासंजदाणं पुण कायजोगिअवहारकालो चेव ओरालियकायजोगिअवहारकालो होदि, तत्थ तव्वदिरित्तकायजोगाभावादो। काययोगियों और औदारिककाययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव सामान्य प्ररूपणा के समान है। उपयुक्त ये दोनों राशियां भी अनंत है। काल की अपेक्षा काययोगी और औदारिक काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव अनंतानंत अवसर्पिणियों और उत्सपिणियों के द्वारा अपहृत नहीं होते हैं और क्षेत्र की अपेक्षा अनंतानंत लोक-प्रमाण है। यह इस कथन का तात्पर्य है। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५ ) सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक काययोगी और औदारिक काययोगी जीव मनोयोगियों के समान है। यह सुत्र सुगम है। अब यहाँ पर ध्र वराशि की विधि का कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-गुणस्थान-प्रतिपन्न मनोयोगराशि, वचनयोगराशि, सिद्धराशि और अयोगराशि को तथा इन चारों राशियों के वर्ग में काययोगराशि का भाग देने पर जो उपलब्ध हो उसे सर्व राशि में मिला देने पर काययोगियों की ध्र व-राशि होती है । अनन्तर इसकी प्रतिराशि करके उनमें से एक राशि में संख्यात का भाग देने पर जो उपलब्ध हो उसे उसी ध्र वराशि में मिला देने पर औदारिककाययोगियों की धू वराशि होती है । सासादान आदि गुणस्थानों के अपने-अपने अवहारकाल को संख्यात से खंडित करके जो लब्ध हो उसे उसी सामान्य अवहारकाल में मिला देने पर काययोगी सासादानसम्यगदृष्टि आदि गुणस्थान प्रतिपन्न जीवों के अवहारकाल होते हैं। इन अवहारकालों को आवली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर औदारिक काययोगी सासादान सम्यग्दृष्टि आदि जीवों के अवहारकाल होते हैं, क्योंकि गुणस्थान प्रतिपन्न तिर्यंच और मनुष्य राशियां गुणस्थान प्रतिपन्न देवराशि के असंख्यातवें भागमात्र है। औदारिक काययोग की अपेक्षा सयतासंयतों का अवहारकाल ही औदारिक-काययोगियों का अवहार काल है, क्योंकि संयतासंयत गुणस्थान में औदारिक काययोग को छोड़ कर और दुसरा कोई काययोग नहीं पाया जाता है। .०४ औदारिकमिश्रकाययोगी का द्रव्य प्रमाण ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी मूलोघं । -षट् खण्ड ० १ । २ । सू ११२ । पु ३ । पृष्ठ० ३९६ टीका-एदं पि सुत्तं सुगमं । एत्थ धुवरासी उच्चदे। ओरालिकायजोगिधुवरासि पुव्वं परूविदं संखेज्जरवेहि गुणिदे ओरालियमिस्सकायजोगधुवरासी होदि । कुदो? सुहमेईदियअपज्जत्तरासीए पज्जत्तरासिस्स संखेज्जदिभागत्तादो ? तं जहा-तिरिक्ख-मणुस-अपज्जत्तद्धादो पज्जत्तद्धा संखेज्जगुणा। ताणमद्धाणं समासेण तिरिक्खरासि खंडिय लद्धमपज्जत्तद्धाए गुणिदे ओरालियमिस्सरासी होदि। तमद्धाए गुणगारेण गुणिदे ओरालियकायजोगरासी हवदि। तेण ओरालियकायजोगरासीदो ओरालियमिस्सकायजोगरासी संखेज्जगुणहीणो। सासणसम्माइट्ठी ओघं। ----षट् सू ।। २ । सू ११३ । पु ३ । पृष्ठ० ३९७ टीका-सासणसम्माइट्ठिणो देव-गैरइया जेण तिरिक्ख-मणुस्सेसु उववज्जमाणा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता लब्भंति तेण एदेसि पमाणपरूवणाए Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) ओघभंगो हवदि । एदेसिमवहारकालो वुच्चदे। तं जहा-ओरालियकायजोगिसासणसम्माइटिअवहारकालमावलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे ओरालियमिस्सकायजोगिसासणमम्माइट्ठिअवहारकालो होदि। कुदो ? देव-जेर इएहितो तिरिक्खमणुस्सेसु उप्पज्जमाणरासिणो पुवट्टिदरासिस्स असंखेज्जविभागतादो। असंजदसम्माइट्ठी सजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा। -षट्० खण्ड० १ । २ । सू ११४ । पु ३ । पृष्ठ० ३९७ टीका-देव-णेरइयसम्माइट्ठिणो मणुसे सु उव्वज्जमाणा संखेज्जा चेव लभंति, मणुसपज्जत्तरासिस्स अण्णहा असंखेज्जत्तप्पसंगा। ओरालियमिस्सकायजोगम्हि सुत्ताविरुद्ध ण आइरिओवएसेण सजोगिकेवलिणो चत्तालीसं हवं ति । तं जहा-कवाडे आरुहंता बीस २०, ओदरंता वीसेत्ति २० । औदारिकमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव ओघ प्ररुपणा के समान है । यह सूत्र भी सुगम है। अब यहाँ ध्र व राशि का कथन करते हैं-पहले जो औदारिककाययोगियों की ध्रुव राशि कह आये हैं उसे संख्यात से गुणित करने पर औदारिकमिश्रकाययोगियों की ध्रुव राशि होती है। क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि पर्याप्त राशि के संख्यातवें भाग है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-तिर्यच और मनुष्यों के अपर्याप्तकाल से पर्याप्तकाल संख्यातगुणा है। पुनः उन कालों के जोड़ से तिथंच राशि को खंडित करके जो प्राप्त हो उसे अपर्याप्त काल से गुणित कर देने पर औदारिकमिश्रकाययोगी राशि होती है। इन औदारिकमिश्रकाययोगी जीव राशि को औदारिक काययोग के काल के गुणकार से गुणित कर देने पर औदारिक काययोग राशि होती है। अतः औदारिक काययोगी जीव राशि से औदारिकमिश्र काययोगी जीव राशि संख्यातगुणी हीन है, यह सिद्ध हुआ। औदारिकमिश्रकाययोगी सासादन-सम्यग्दृष्टि जीव सामान्य प्ररुपणा के समान है। चकि तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते हुए सासादन सम्यग्दृष्टि देव और नारकी पल्योपम के असंख्यातवें भाग पाये जाते हैं। इसलिये औदारि कमिश्रकाययोगी सासादन सम्यगदष्टियों के प्रमाण की प्ररुपणा सामान्य प्ररुपणा के समान होती है। अब इनका अवहारकाल कहते हैं। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है औदारिक काययोगी सासादन सम्यगदृष्टियों के अवहारकाल को आवली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर औदारिकमिश्रकाययोगी सासादन सम्यगदृष्टियों का अवहारकाल होता है। क्योंकि देव और नारकियों में से तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होने वाली राशियां पहले स्थित राशि के असंख्यातवें भागमात्र होती है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगी केवली औदारिकमिश्र काययोगी जीव संख्यात है। ११४ । सम्यग्दृष्टि देव और नारकी जीव मनुष्यों में उत्पन्न होते हुए संख्यात ही पाये जाते हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो मनुष्य पर्याप्त राशि को असंख्यातवें पने का प्रसंग आ जाता है। सूत्र के अविरुद्ध आचार्यों के उपदेशानुसार औदारिकमिश्रकाययोग में सयोगी केवली जीव चालीस होते हैं। यथा--कपाट समुद्घात में आरोहण करने वाले औदारिकमिश्रकाययोगी बील और उतरते हुए बीस होते हैं । .०८ कार्मणकाययोगी का द्रव्य प्रमाण कम्मइयकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, मूलोघं । -षट्० खण्ड० १ । २ । सू १२१ । पु ३ । पृष्ठ० ४०२ टीका-जदो सव्वजीवरासी गंगापवाहो व्व णिरतरं विग्गहं काऊणुप्पज्जदि, तेण कम्मइयरासिस्स मूलोघपरुपवणा | विरुद्धा। एदस्स सुत्तस्स धुवरासी वुच्चदे। कायजोगिधुवरासिमतोमुहत्तण गुणिदे कम्मइयजोगिधुवरासी होदि। तं जहा-संखेज्जावलिमेत्तअंतोमुहुत्तकालेण जवि सव्वजीवरासिस्स संचओ होदि, तो तिण्ह समयाणं केत्तियं संचयं लभामो ति पमाणेण इच्छागुणिदफलमोवट्टिय अंतोमुत्तोवट्टिय सव्वजीवरासी आगच्छदि।। सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं । -षट्० खण्ड० १ । २ । सू १२२ । पु ३ । पृष्ठ• ४०३ टीका -जेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता तिरिक्खअसंजवसम्माइट्ठिणो विग्गहं काऊण देवेसुष्पज्जमाणा लमंति, देव-तिरिक्ख सासणसम्माइटिणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता तिरिक्ख-देवेसु विग्गहं करिय उववज्जमाणा लन्भंति, तेण एदेसि पमाणपरुवणा ओघपरुवणाए तुल्ला। एदेसिमवहारकालुप्पत्ती वुच्चदे। असंजदसम्मादिट्ठि-सासणसम्मादिट्टिवेउन्वियमिस्सअवहारकाले आवलियाए असंखेज्जविभाएण गुणिवे कम्मइयकायजोगिअसंजदसम्मादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिअवहारकाला भवंति। कुदो ? विग्गहं करिय मरमाणरासीए देवेसु उववज्जमाणरासिस्स असंखेज्जदिभागत्तादो। सजोगिकेवली दवपमाणेण केवडिया, संखेज्जा। --षट्० खण्ड• १ । २ । सू १२३ । पु ३ । पृष्ठ ० ४.४ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) टीका - एत्थ पुव्वाइरिओवएसेण सट्ठी जीवा हवंति । कुदो ? पदरे वीस, लोगपूरणे वीस, पुणरवि ओदरमाणा पदरे वीस चेव भवंति त्ति । कार्मणकाययोगियों में मिध्यादृष्टि जीव द्रव्य - प्रमाण की अपेक्षा ओघप्ररुणा के समान है । ओघेण मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, अनंता 1 - षट्० खण्ड ० १ । २ । २ । पु ३ | पृष्ठ० १० से मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा अनंत है । चूंकि सर्व जीवराशि गंगानदी के प्रवाह के समान निरंतर विग्रह करके उत्पन्न होती है, इसलिए कार्मण-कायराशि की प्ररूपणा मूलोघ प्ररूपणा के समान होती है । विरुद्ध नहीं । अस्तु कार्मणका योगियों के प्रमाण की ध्रुवराशि कहते हैं— काययोगियों की ध्रुवराशियों को अन्तर्मुहूर्त से गुणित करने पर कामंणकाययोगियों की ध्रुवराशि होती है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - संख्यात आवलीयात्र अन्तर्मुहूर्तकाल के द्वारा यदि सर्व जीवराशि का संचय होता है, तो तीन समय में कितना समय प्राप्त होगा, इस प्रकार इच्छा राशि से फल राशि को गुणित करके जो प्राप्त हो उसे प्रमाणराशि से भाजित करने पर अन्तर्मुहूर्तकाल से भाजित सर्व जीवराशि आती है । सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्दृष्टि कार्मणकाययोगी जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा सामान्य प्ररूपणा के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं । चूंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण तिर्यंच असंयत सम्यग्दृष्टि जीव विग्रह करके देवों में उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं । तथा पल्योपम के असंख्यातवें भाग-प्रमाण देव सासादन सम्यग्दृष्टि जीव, और उतने ही तिर्यंच सासादन जीव क्रम से तिर्यंच और देवों में विग्रह करके उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं, इसलिये सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि कार्मणकाययोगियों की प्ररूपणा सामान्य प्ररूपणा के तुल्य है । अब इनके अवहारकाल को उत्पत्ति को कहते हैं—असंयतसम्यग्दृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि farafar अवहारकाल को आवली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर क्रम से कार्मण काययोगी असंयत सम्यगदृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के अवहारकाल हो हैं, क्योंकि विग्रह करके मरने वाली राशि देवों में उत्पन्न होने वाली राशि के असंख्यातवें भाग मात्र पाई जाती है । • ०२ काययोगी का द्रव्य प्रमाण - ०३ औदारिक काययोगी तथा औदारिकमिश्र काययोगी का द्रव्य प्रमाण • ०९ कार्मण काययोगी का द्रव्य प्रमाण Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५९ ) कायजोगि-ओरालियकायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगि-कम्मइयकायजोगी दव्वपमाणेण केवडिया? -षट् ० खण्ड ० २ । ५ । सू ९० । पु ७ । पृष्ठ० २७८ टोका-सुगमं । अणंता। --षट्० खण्ड० २ । ५ । सू ९१ टीका । पु ७ । पृष्ठ० २७८ टोका—एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो। अणंतं पि तिविहं । तत्थ एदम्हि अणंते एदाओ रासीओ टिदाओ त्ति जाणावण?मुत्तरसुत्तं भणविअणंताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण। -षट् खण्ड० २ । ५ । सू ९२ । पु ७ । पृष्ठ० २७९ टीका-एदेण परित्त-जुत्ताणताणं जहण्णअणंताणतस्स य पडिसेहो कवो, तेसु अणताणताणमोसप्पिणि-उस्सप्पिणीणमभावादो। संपहि दोसु अणंताणतेसु एक्कस्स पडिसेहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि खेत्तेण अणंताणंता लोगा। -षट्० खण्ड ० २ । ५ । सू ९३ । पु ७ पृष्ठ० २७९ टोका-एदेण उक्कस्साणताणंतस्स पडिसेहो कदो, लोगवयणण्णहाणुववत्तीदो। सेसं सुगम। काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी द्रव्यप्रमाण से अनन्त हैं। अस्तु-इस सूत्र के द्वारा संख्यात व असंख्यात का प्रतिषेध किया गया है। अनन्त के भी तीन प्रकार है। उनमें से इस अनन्त में ये जीव-राशियां स्थित हैं ; इसके ज्ञापनार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं। उपर्युक्त जीव-काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी जीव काल की अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणी उत्सपिणियों से अपहृत नहीं होते हैं । ९२ ____ अस्तु-इस सूत्र के द्वारा परीतानन्त, युक्तानन्त और जघन्य अनन्त का प्रतिषध किया गया है। क्योंकि, उनमें अनन्तानन्त अवसर्पिणी-उत्सपिणियां का अभाव है। अब दो अनन्तानन्तों में से एक के प्रतिषेधार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) उपर्युक्त जीव क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तानन्त लोक-प्रमाण है। अस्तु-इस सूत्र के द्वारा उत्कृष्ट अनन्तानन्त का प्रतिषेध किया गया है, क्योंकि अन्यथा लोकनिर्देश की उपपत्ति नहीं बनती। शेष सूत्रार्थ सुगम है । काययोगी जीव की संख्या कार्मण काययोगी की संख्या औदारिकमिश्र काययोग की संख्या औदारिक काययोग की संख्या कम्मोरालियमिस्सय ओरालद्धासु संचिद अणंता। कम्मोरालियमिस्सय ओरालियजोगिणो जीदा॥ गोजी० गा० २६४ कामंणकाययोग, औदारिकमिश्र काययोग, औदारिककाययोग के आगे कहे कालों में संचित हुए कार्मणकाययोगी औदारिकमिश्र काययोगी और औदारिक काययोगी जीव प्रत्येक अनन्तानन्त है। .०५ वैक्रियकाययोगी का द्रव्य प्रमाण वेउविकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, देवाणं संखेज्जदिभागूणो। -षट्० खण्ड० १।२ । सू ११५ । पु ३ । पृष्ठ • ३९८ टीका-एदस्स सुत्तस्स अत्थो वच्चदे। देवाणं जो रासी अप्पप्पणो संखेज्जदिभाएण परिहीणो वेउब्वियकायजोगिमिच्छाइट्रीणं पमाणं होदि । कुदो ? देव-णेरइयरासिमेगट्ठ करिय मण-वचिकायजोगद्धासमासेण खंडिय लद्धतिप्पडिरासि काऊण अप्पप्पणो अद्धाहि गुणिदे सग-सगरासीओ हवंति। जेण मणवचिजोगरासीओ देवाणं संखेज्जदिभागो हवं ति, तेण वेउविकायजोगिमिच्छाइद्विरासिपमाणं संखेज्जदिभागपरिहीणदेवरासिणा समाणं भवदि। एत्थ अवहारकालो उच्चदे। देव णेरइयमिच्छाइद्विरासिसमासम्मि मणवधि-वेउन्विमिस्सकाय - कम्मइयकायजोगिदेव - जेरइयमिच्छाइट्ठिरासिसमासेण भागे हिदे संखेज्जरुवाणि लभंति। तेहि रुवर्णेहि संखेज्जपदरंगुलमेत्तं देव-णेरइयसमासअवहारकालं खंडिय लद्ध तम्हि चेव पक्खित्ते वेउब्वियकायजोगिमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ ) सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं। --षट्० खण्ड ० १ । २ । सू ११६ । पु ३ । पृष्ठ ० ३९९ ___ टोका-देवगुणपडिवण्णाणं रासिपमाणं अप्पप्पणो संखेज्जदिभाएण ऊणं वेउव्वियकायजोगिगुणपडिवण्णरासिपमाणं होदि। तं जहा-देव-णेरइयगुणपडिवण्णरासिम्हि अप्पप्पणो मण-वचि-वेउव्विय मिस्स-कम्मइयरासीहि भागे हिदे तत्थ लद्धसंखेज्जरवेहि रुवणेहि देवणेरइयसमासअवहारकालं खंडिय लद्ध तम्हि चेव पक्खित्ते वेउब्वियकायजोगिगुणपडिवण्णाणमवहारकाला भवंति। __ वैक्रियिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा देवों के संख्यातवें भाग कम है। ११५ अस्तु अपनी अपनी राशि के संख्यातवें भाग से न्यून देवों की जो राशि है उतना वैक्रियिक काययोगी मिथ्यादृष्टियों का प्रमाण है, क्योंकि देव और नारकियों की राशि को एकत्रित करके मनोयोग, वचनयोग और काययोग के काल के जोड़ से खंडित करके जो प्राप्त हो उसकी तीन राशियां करके अपने-अपने काल से गुणित करने पर अपनी राशियों का प्रमाण होता है। चंकि मनोयोगी जीव राशि और वचनयोगी जीव राणि दोनों के संख्यातवें भाग में है, इसलिए वैक्रियिक काययोगी मिथ्यादृष्टि राशि का प्रमाण संख्यातवें भाग कम देव राशि के समान होता है । अवहारकाल का कथन-देव मिथ्यादृष्टि और नारक मिथ्यादृष्टि का जितना योग हो, उसे मनोयोगी, वचनयोगी, वैक्रियिकमिश्र काययोगी और कार्मण काययोगी देव और नारकी मिथ्यादृष्टि राशि के योग से भाजित करने पर संख्यात प्राप्त होते हैं। एक कम उस संख्यात से संख्यात प्रतरांगुल मात्र देव और नारकियों के जोड़ रूप अवहारकाल को खंडित करके जो प्राप्त हो उसे उन्हीं दोनों के जोड़ रूप अवहारकाल में मिला देने पर वैक्रियिक काययोगी मिथ्यादृष्टियों का अवहारकाल होता है । सासादन सम्यगदृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यगदृष्टि वैक्रियिक काययोगी जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा ओघप्ररूपणा के समान है। गुणस्थान----प्रतिपन्न देवों की राशि का जो प्रमाण है, अपनी-अपनी उस राशियों से संख्यात भाग न्यून करने पर वैक्रियकाययोगी गुणस्थान प्रतिपन्न अपनी-अपनी राशि का प्रमाण होता है। वह इस प्रकार है-गुणस्थान-प्रतिपन्न देव और नारक राशि में से अपनी अपनी मनोयोगी, वचनयोगी, वैक्रियमिश्र काययोगी और कार्मणकाययोगी जीवों की राशियाँ का भाग देने पर वहाँ जो संख्यात प्राप्त हो उसमें से एक कम करके शेष से देव और नारकियों के योग रूप व्यवहारकाल को खंडित करके जो प्राप्त हो उसे उसी देव और Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) नारकियों के मिले हुए अवहारकाल में मिला देने पर वैक्रियकायोगी गुणस्थान प्रतिपन्न जीवों के अवहारकाल होते हैं। .०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी का द्रव्य प्रमाण वेउब्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छाइट्ठीदव्वपमाणेण केवडिया, देवाणं संखेज्जदिभागो। -षट् खण्ड० १ । २ । सू ११७ । पु ३ । पृष्ठ० ४०० टोका-एदस्स सुत्तस्स वक्खाणं वुच्चदे। संखेज्जवस्साउअन्भंतरआवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तउवक्कमणकालेण नदि देवरासिसंचाओ लब्भदि, तो एदम्हादो संखेज्जगुणहीण-वेउन्विमिस्सउवक्कमणकालम्हि केत्तियमेत्तरासिसंचयं लभामो त्ति इच्छारासिणा पमाणरासिम्हि भागे हिदे तत्थ लद्धसंखेज्जरवेहि देवरासिम्हि भागे हिदे तत्थेगभागो वेउव्वियमिस्सकायजोगिमिच्छाइटिपमाणं होदि । सेसं सुगम। सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, ओघ । -षट् • खण्ड ० १।२ । सू ११८ । पु ३ । पृष्ठ• ४०१ टीका-तिरिक्ख-मणुससासण-असंजदसम्माइट्ठिणो मेण देवेसुप्पज्जमाणा पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्ता लभंति तेणेदेसि पमाणपरुवणा ओघं, ओघेण समाणा त्ति वृत्तं होदि। एदेसिमवहारकालुप्पत्ती वुच्चदे। तं जहा.-ओरालियमिस्ससासणसम्माइट्ठिअवहारकालमावलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे वेउन्वियमिस्सकायजोगिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि। ओरालियकायजोगिअवहारकालमावलियाए असंखेज्जविभाएण गुणिवे वेउन्वियमिस्सकायजोगिअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । कि कारणं? तिरिक्खाणमसंखेज्जदिभागस्स देवेसुप्पत्तीदो। केण कारेणण वेउव्वियमिस्सकायजोगिसासणेहितो ओरालियमिस्सकायजोगिसासणसम्माइट्ठिणो असंखेज्जगुणा? ण एस बोसो, कुदो ? देवेसुष्पज्जमाणतिरिक्खसासहिंतों तिरिवखेसुप्पज्जमाणदेवसासणाणमसंखेज्जगुणत्तादो। वैक्रियमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादष्टि जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा देवों के संख्यातवें भाग हैं। १२७ अस्तु संख्यात वर्ष की आयु के भीतर आवली के असंख्यातवें भाग उपक्रमकाल से यदि देवराशि का संचय प्राप्त होता है तो इससे संख्यातगुणे हीन वैक्रियमिश्र उपक्रमण Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३ ) काल के भीतर कितनामात्र राशि का संचय प्राप्त होगा, इस प्रकार राशिक करके इच्छाराशि से प्रमाणराशि के भाजित करने पर वह जो संख्यात प्राप्त होगें उससे देव राशि के भाजित करने पर वहाँ तक भाग प्रमाण वैक्रियिकमिश्र काययोगी मिथ्याष्टियों का प्रमाण प्राप्त होगा। नोट-उत्पत्ति को उपक्रमण कहते हैं और इस सहित काल को सोपक्रम-काल कहते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि वैक्रियिकमिश्र काययोगी जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा ओघप्ररूपणा के समान है। चूंकि सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यगदष्टि तिर्यंच और मनुष्य देवों में उत्पन्न होते हुए पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण पाये जाते हैं। इसलिए इनके प्रमाण की प्ररूपणा ओघ अर्थात ओघप्ररूपणा के तुल्य होती है। यह इसका अभिप्राय है। अब इनके अवहारकाल की उत्पत्ति का कथन करते हैं, यथा-औदारिकमिश्र काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टियों के अवहारकाल को आवली के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर वैक्रियिकमिश्र काययोगी सासादन सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल होता है। असंयत सम्यग्दृष्टि औदारिक काययोगियों के अवहारकाल को असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर वैक्रियिकमिश्र काययोगी असंयत सम्यग्दृष्टियों का अवहारकाल होता है। क्योंकि तिर्यंचों के असंख्यातवें भाग प्रमाण राशि देवों में उत्पन्न होती है। प्रश्न है-वैक्रियमिश्र काययोगी सासादन सम्यगदृष्टियों से औदारिकमिश्र काययोगी सासादन सम्यगदष्टि जीव असंख्यात किस कारण से है। उत्तर-क्योंकि देवों में उत्पन्न होने वाले तिर्यंच सासादन सम्यगदृष्टियों से तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले देव सासादन सम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणे पाये जाते हैं । .०५ वैक्रिय काययोगो का द्रव्य प्रमाण .०६ वैक्रियमिश्र काययोगी का द्रव्य प्रमाण वेउन्वियकायजोगी दव्वपमाणेण केवडिया? -षट् ० खण्ड० २ । ५ । सू ९४ । पु ७ । पृष्ठ० २७९ टोका-सुगम। देवाणं संखेज्जविभागूणो। -षट् ० खण्ड ० २ । ५ । सू ९५ । पु ७ । पृष्ठ० २७९ टीका--देवेसु पंचमण-पंचवचि-वेउब्वियमिस्सकायजोगिरासिओ देवाणं संखेज्जदिभागमेत्ताओ देवरासीदो अवणिदे अवसेसं बेउन्वियकायजोगिपमाणं होदि। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) वेउब्धियमिस्सकायजोगी दव्वपमाणेण केवडिया ? --षट् ० खण्ड ० २ । ५ । सू ९६ । पु ७ 1 पृष्ठ० २८० टीका—सुगमं । देवाणं संखेज्जदिभागो। -षट्० खण्ड ० २ । ५ । सू ९७ । पु ७ । पृष्ठ० २८० टोका-देवरासि संखेज्जवाससहस्सुवक्कमणकालसंचिदसंखेज्जखंडे कदे एगखंडं वेउम्वियमिस्सरासिपमाणं होदि । वैक्रियकाययोगी द्रव्य प्रमाण से देवों के संख्यातवें भाग से कम है। अस्तु देवों में पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी और वैक्रियमिश्र काययोगी-इन देवों से संख्यातवें भाग मात्र राशियों को देव राशियों में से घटा देने पर अवशेष वैक्रियिक काययोगियों का प्रमाण होता है । वैक्रियमिश्र काययोगी द्रव्य प्रमाण से देवों के संख्यातवें भाग मात्र है। अस्तु-संख्यातवर्षसहस्र में होने वाले उपक्रमणकालों में संचित देव राशि के संख्यात खंड करने पर उनमें से एक खंड वैक्रियमिश्र काययोगी राशि का प्रमाण होता है । ( देखो-जीव स्थान द्रव्य प्रमाणानुगम पृ० ४०० का विशेषार्थ)। .०७ आहारक तथा आहारकमिश्र काययोगी का द्रव्य प्रमाण आहारकायजोगीसु पमत्तसंजदा दवपमाणेण केवडिया, चवणं । -षट् सू १ । २ । सू ११९ । पु ३ । पृष्ठ० ४०१ टोका-आहारसरीरमण्णगुणट्ठाणसु गस्थि ति जाणावणट्ठ पमत्तगहणं कदं । सेसं सुठ्ठ सुगमं । आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा दवपमाणेण केवडिया, संखेज्जा। -षट् खण्ड• १ । २ । सू १२० । पु ३ । पृष्ठ० ४०२ टोका-एत्थ आइरियपरंपरागदोवएसेण आहारमिस्सकायजोगे सत्तावीस २७ जीवा हवंति। अहवा आहारमिस्सकायनोगे जिणदिलुभावा संखेज्जजीवा हवंति, ण सतावीस, सुत्ते संखेज्जणिद्देसण्णहाणुववत्तीदो मिस्सकायजोगेहितो आहारकायजोगीणं संखेज्जगुणत्तादो च। ण च दोण्हमेत्थ गहणं, अजहण्णअणुकस्ससंखेज्जस्स सव्वगहणादो, सव्वअपज्जत्तद्धाहितो पज्जत्तद्धाणं जहण्णाणं पि संखेज्जगुणत्तदसणादो। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) आहारककाययोगियों में प्रमत्त संयत जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा चौवन है। चूंकि प्रमत्त संयत गुणस्थान को छोड़कर दूसरे गुणस्थान में आहारक शरीर नहीं पाया जाता है। इसका ज्ञात कराने के लिए प्रमत्तसंयत पद का ग्रहण किया है। आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा संख्यात है। यहाँ पर आचार्य परंपरा से आये हुए उपदेशानुसार आहारकमिश्रकाययोग में सत्तावीस जीव होते हैं। अथवा, आहारकमिश्रकाययोग में जिनदेवने जितनी संख्या देखी हो, उतने संख्यात जीव होते हैं, सत्तावीस नहीं, क्योंकि सूत्र में संख्यात यह निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता है। तथा मिश्रयोगियों में आहारककाययोगी जीव संख्यात गुणे हैं, इससे भी प्रतीत होता है कि आहारकमिश्र काययोगी जीव संख्यात है, सत्तावीस नहीं। कदाचित् कहा जाय कि दो भी तो संख्यात है। परन्तु दो यह संख्या संख्यात होते हुए भी उसका यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि सबके द्वारा अजघन्यानुत्कृष्ट रूप संख्यात का ही ग्रहण किया है। अथवा सर्व अपर्याप्त-काल से जघन्य पर्याप्त-काल भी संख्यातगुणा है, इससे भी यही प्रतीत होता है कि आहारकमिश्र काययोगी सत्तावीस नहीं लेना चाहिए। '०७ आहारक काययोगी का द्रव्य प्रमाण .०८ आहारकमिश्र काययोगी का द्रव्य प्रमाण आहारकायजोगी बव्वपमाणेण केवडिया ? -षट् खण्ड ० २ । ५ । सू ९८ । पु ७ । पृष्ठ० २८० टीका-सुगमं । चदुवण्णं । -षट्० खण्ड० २ । ५ । सू ९९ । पु ७ । पृष्ठ० २८० टोका-एवं पि सुगमं। आहारमिस्सकायजोगी दव्वपमाणेण केवडिया? -षट् • खण्ड० २ । ५ । सू १०.। पु७ । पृष्ठ० २८० टीका-सुगम। संखेज्जा। -षट्० खण्ड० २।५ । सू १.१ । पु ७ । पृष्ठ० २८०। ८१ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) टीका-संखेज्जा त्ति वयणेण असंखेज्जाणंताणं पडिसेहो कदो । संखेज्जं जदि वि अणेयपयारं तो वि चदुवण्णन्भंतरे चैव ते होंति, णो बहिद्धा, आहारमिस्सकालम्मि तिजोगावरुद्ध पज्जत्ताहारसरीरकालादो संखेज्जगुणहीणम्मि संचिदाणं जीवाणं चदुवण्णसंखाविरोहादो । आइरियपरंपरागदउवदेसेण पुण सत्तावीस जीवा होंति । आहारककाययोगी द्रव्य प्रमाण चौपन है । आहारकमिश्र काययोगी द्रव्य प्रमाण से संख्यात है । अस्तु – 'संख्यात है ।' इस वचन से असंख्यात और अनन्त का प्रतिषेध किया है । यद्यपि संख्यात के भी अनेक प्रकार है, तथापि वे चौपन के भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं, क्योंकि तीन योगों से अवरुद्ध पर्याप्त आहारक शरीरकाल से संख्यातगुणे हीन आहारक मिश्रकाल में संचित जीवों के चौपन संख्या का विरोध है । किन्तु आचार्य परम्परागत सत्ताइस जीव होते हैं । ( देखो जीवस्थान द्रव्यप्रमाणानुगम सूत्र १२० की टीका । ४७ योग और कर्मबंधन जोगाणुवादेण मणजोगी वचिजोगी कायजोगी णाम कथं भवदि ? - षट्० खण्ड० २ । १ । सू ३२ । पु ७ पृष्ठ ० ७४ टीका - किमोदइओ कि खओवसमिओ कि पारिणामिओ कि खइओ किमुवसमिओत्ति ? ण ताव खइओ, संसारिजीवेसु सव्वकम्माणं उदएण वट्टमाणे जोगाभावप्यसंगादो, सिद्धसु सव्वकम्मोदयविरहिदेसु जोगस्स अस्थित्त संगाद च । ण पारिणामिओ, खइयम्मि वृत्तासेसदोसप्पसंगादो | णोवसमिओ ओवस मियभावेण मुक्कमिच्छाइट्ठिगुणम्मि जोगाभावप्यसंगादो। ण घादिकम्मोदयसमुब्भूवो, केवलिम्हि खीणघादिकम्मोदए जोगाभावप्यसंगादो। णाघादिकम्मोदयसमुब्भूदो, अजोगिम्हि वि जोगस्स सत्तपसंगादो । ण घादिकम्माणं खओवसमजणिदो, केवलिम्हि जोगाभावप्पसंगा । णाघादिकम्मक्खओवसमजणिदो, तत्थ सव्व देसघादिफद्दयाभावादो खओवसमाभावा । एवं सव्वं बुद्धिम्हि काऊण मण वचि - कायजोगी कधं होवि त्ति वृत्तं । खओवसमियाए लद्धीए । - षट्० खण्ड० २ । १ । सू ३३ । पु ७ पृष्ठ ० ७५ टीका - जोगो णाम जोवपदेसाणं परिपफंदो संकोच-विकोचलक्खणो । सो चकम्माणं उदयजणिदो, कम्मोदयविरहिदसिद्धसु तदणुवलंभा । अजोगि Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) केवलिम्हि जोगाभावा जोगो ओदइओ ण होदि ति वोत्तुण जुत्तं, तत्थ सरीरणामकम्मोदयाभावा। ण च सरीरणामकम्मोदएण जायमाणो जोगो तेण विणा होदि, अइप्पसंगादो। एवमोदइयस्स जोगस्स कधं खओवसमियत्तं उच्चवे ? ण, सरीरणामकम्मोदएण सरीरपाओग्गपोग्गलेसु बहुसु संचयं गच्छमाणेसु विरियंत राइयस्स सव्वधादिफदयाणमुदयाभावेण तेसि संतोवसमेण देसघादिफयाण समुन्भवादो लद्धखओवसमववएसं विरियं वडदि, तं विरियं पप्प जेण जीवपदेसाणं संकोच-विकोचो वड्ढदि तेण जोगो खओवसमिओ त्ति वुत्तो। विरियंतराइयखओवसमजणिदबलवडिहाणीहितो जदि जीवपदेसपरिपफंदस्स वड्डि-हाणीओ होंति तो खीणंतराइयम्मि सिद्ध जोगबहुत्तं पसज्जदे ? ण, खओवसमियबलादो खइयस्स बलस्स पुधत्तदसणादो। ण च खओवसमियबलवधि-हाणीहितो वडिहाणोणं गच्छमाणो जीवपदेसपरिपफंदो खइयबलादो वडि-हाणीणं गच्छदि, अइप्पसंगादो। जवि जोगो वीरियंतराइयखओवसमजणिदो तो सजोगिम्हि जोगाभावो पसज्जदे ? ण, उवयारेण खओवसमियं भावं पत्तस्स ओदइयस्स जोगस्स तत्थाभावविरोहादो। सो च जोगो तिविहो मणजोगो वचिजोगो कायजोगो ति। मणवग्गणावो णिफ्फण्णदव्वमणमबलंबिय जो जीवस्स संकोच-विकोचो सो मणजोगो। भासावग्गणापोग्गलखंधे अवलंबिय जो जीवपदेसाणं संकोच-विकोचो सो पचिजोगो णाम। जो चउन्विह सरीराणि अवलंबिय जीवपदेसाणं संकोच-विकोचो सो कायजोगो णाम। दो वा तिणि वा जोगा जगवं किण्ण होंति ? ण, तेसि णिसिद्धाकमवुत्तीदो। तेसिमक्कमेण वुत्ती वुवलंभदे चे? ण, इंदियविसयमइकंतजीवपदेसपरिफ्फंदस्स इंदिएहि उवलं भविरोहादो। ण जीवे चलंते जीवपदेसाणं संकोच-विकोचणियमो, सिझंतपढमसमए एत्तो लोअग्गं गच्छंतम्मि जीवपदेसाणं संकोच-विकोचाणुवलंभा। कधं मणोजो खओवसमिओ? वुच्चदे। वोरियंतराइयस्स सव्वधादिफद्दयाणं संतोवसमेण देसघाविफद्दयाणमुदएण गोइंदियावरणस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदयक्खएण मणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स जेण मणजोगो समुप्पज्जवि तेणेसो खओवसमिओ। वीरियंतराइयस्स सव्वघादिफहयाणं संतोवसमेण देसघाविफयाणमुदएण जिभिदियावरणस्ससव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसि चेव संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) भासापज्जत्तीए पज्जत्तयदस्य सरणामकम्मोदइल्लस्स वचिजोगस्सुवलंभा खओवसमिओ वचिजोगो। वीरियंतराइयस्स सव्वधादिफयाणं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण कायजोगुवलंभादो खओवसमिओ कायजोगो। अजोगी णाम कधं भवदि ? -षट् खण्ड ० २ । १ । सू ३४ । पु ७ पृष्ठ० ७८ धोका-एत्थ णय-णिक्खेवेहि अजोगित्तस्स पुव्वं व चालणा कायव्वा । खइयाए नद्धीए। -षट् • खण्ड ० २ । १ सू ३५ । पु ७ । पृष्ठ ० ७८ टोका-जोगकारणसरीरादिकम्माणं णिम्मूलखएणुप्पण्णत्तादो खइया लद्धी अजोगस्स। योगमार्गणानुसार जीव मनोयोगी, वचनयोगी और वचनयोगी कैसे कहते हैं । शंका-क्या योग औदयिक भाव है, कि क्षायोपशमिक, कि परिणामिक, कि क्षायिक, कि औपशमिक ? योग क्षायिक तो हो नहीं सकता? क्योंकि वैसा मानने में तो सर्वकर्मों के उदय सहित संसारी जीवों के वर्तमान रहते हुए भी योग के अभाव का प्रसंग आजायेगा। तथा सर्व कर्मोदय से रहित सिद्धों के योग के अस्तित्व का प्रसंग आ जायेगा। योग पारिणामिक भाव भी नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर भी क्षायिक मानने से उत्पन्न होने वाले समस्त दोषों का प्रसंग आ जायेगा। योग औपशमिक भी नहीं है, क्योंकि औपशमिक भाव से रहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में योग के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। योग घातिकर्मों के उदय से उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि सयोगिकेवली में घातिकर्मों के उदयक्षीण होने के साथ ही योग के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। योग अघातिकर्मों के उदय से उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि वैसा मानने से अयोगिकेवली में भी योग की सत्ता का प्रसंग आ जायेगा। योग घातिकर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि इससे भी सयोगिकेवली में योग के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। योग अघातिकर्मों के क्षयोपशम से भी उत्पन्न नहीं है, क्योंकि अघातिकर्मों में सर्वघाती और देशघाती दोनों प्रकार के स्पर्धकों का अभाव होने से क्षयोपशम का भी अभाव है। यह सब मन में विचार कर पूछा गया है कि जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी कैसे होता है। क्षायोपशमिक लब्धि से जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होता Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६९ ) शंका-जीव प्रदेशों के संकोच और विकोच अर्थात् विस्तार रूप परिस्पंदन को योग कहते हैं। यह परिस्पन्द कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है, क्योंकि कर्मोदय से रहित सिद्धों के वह नहीं पाया जाता। अयोगिकेवली में योग के अभाव से यह कहना उचित नहीं है कि योग औदयिक नहीं होता, क्योंकि अयोगिकेवली के यदि योग नहीं होता तो शरीर नामकर्म का उदय भी तो नहीं होता। शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला योग उस कर्मोदय के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा मानने से अतिप्रसंग दोष उत्पन्न होगा। इस प्रकार जब योग औदायक होता है तो उसे क्षायोपमिक क्यों कहते हैं ? समाधान-ऐसा नहीं, क्योंकि जब शरीर नामकर्म के उदय से शरीर बनने के योग्य बहुत से पुद्गलों का संचय होता है और वीर्यान्तराय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाव से व उन्हीं स्पर्धकों के सत्वोपशम से तथा देशघाती स्पर्धकों के उदय से उत्पन्न होने के कारण क्षायोपशमिक कहलानेवाला वीर्य ( बल ) बढ़ता है, तब उस वीर्य को पाकर चंकि जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच बढ़ता है, अतः योग को क्षायोपशमिक कहा गया है। शंका-यदि वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए बल की वृद्धि और हानि से जीव प्रदेशों के परिस्पन्द की वृद्धि और हानि होती है तब तो जिसके अन्तराय कर्म का क्षीण हो गया है ऐसे सिद्ध जीव में योग की बहुलता का प्रसंग आता है। समाधान नहीं आता, क्योंकि क्षायोपमिक बल से क्षायिक बल भिन्न देखा जाता है। क्षायोपशमिक बल की वृद्धि-हानि से वृद्धि-हानि को प्राप्त होनेवाला जीवप्रदेशों का परिस्पन्द क्षायिक बल से वृद्धि-हानि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने से तो अतिप्रसंग दोष आ जायेगा। शंका-यदि योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, तो सयोगिकेवलौ में योग के अभाव का प्रसंग आता है ? समाधान – नहीं आता, क्योंकि योग में क्षायोपशमिक भाव तो उपचार से माना गया है। असल में तो योग औदयिक भाव ही है और औदयिक योग का सयोगिकेवली में अभाव मानने में विरोध आता है। वह योग तीन प्रकार का है-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्यमन के अवलम्बन से जो जीवका संकोच-विकोच होता है वह मनोयोग है। भाषावर्गणा सम्बन्धी पुद्गल स्कंधों के अवलम्बन से जो जीवप्रदेशों का संकोचविकोच होता है वह वचनयोग है। जो चतुर्विध शरीरों के अवलम्बन से जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच होता है वह काययोग है। शंका-दो या तीन योग एक साथ क्यों नहीं होते । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७० ) समाधान - नहीं होते, क्योंकि उनकी एक साथ वृत्ति का निषेध किया गया है । शंका- अनेक योगों की एक साथ वृत्ति पायो तो जाती है । समाधान- नहीं पायी जाती है, क्योंकि इन्द्रियों के विषय से परे जो जीवप्रदेशों का परिस्पन्द होता है उसका इन्द्रियों द्वारा ज्ञान मान लेनेमें विरोध आता है । जीवों के चलते समय जीव प्रदेशों के संकोच विकोच का नियम नहीं है, क्योंकि, सिद्ध होने के प्रथम समय में जब जीव यहाँ से, अर्थात् मध्य लोक से, लोक के अग्रभाग को जाता है तब उसके जीव प्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं पाया जाता है । शंका- मनोयोग क्षायोपशमिक कैसे हैं । समाधान — बतलाते हैं, चूंकि वीर्यान्तरायकर्म के सर्वधाति स्पर्धकों के सत्त्वोपशम से व देशघाति स्पर्धकों के उदय से, नोइन्द्रियावरण कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों के उदय-क्षय से व उन्हीं स्पर्धकों के उदय-क्षय से व उन्हीं स्पधंकों के सत्त्वोपशम से तथा देशघाति स्पर्धकों के उदय से मनपर्याप्ति पूरी करनेवाले जीव के मनोयोग उत्पन्न होता है, अतः उन्हें क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । उसी प्रकार, वीर्यान्तराय कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के सत्त्वोपशम से व देशघाती स्पर्धकों के उदय से, जिह्व न्द्रियावरण कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय-क्षय से व उन्हीं के सत्त्वोपशम से तथा देशघाती स्पर्धकों के उदय से भाषापर्याप्ति पूर्ण करने वाले स्वरनामकर्मों सहित जीव के वचनयोग पाया जाता है । वीर्यान्तरायकर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के सत्त्वोपशम से व देशघाती स्पर्धकों के उदय से काययोग पाया जाता है। अत: काययोग भी क्षायोपशमिक है । जीव अयोगी कैसे होता है ? । ३४ । यहाँ भी नयों और निक्षेपों के द्वारा अयोगित्व की पूर्ववत् चालना करना चाहिए । क्षायिक लब्धि से जीव अयोगी होता है । ३५ । योग के कारणभूत शरीरादिक कर्मों के निर्मूल क्षय से उत्पन्न होने के कारण अयोग की लब्धि क्षायिक है । ४८ योगी और बंधकत्व जोगाणुवादेण मणजोगि वचिजोगि कायजोगिणी बंधा । टीका - एदं पि सुगमं । - षट्० खण्ड ० २ । १ । सू १४ । पु ७ । पृष्ठ १७ • Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७१ ) अजोगी अबंधा। ---षट् खण्ड० २।१ । सू १५ । पु ७ । पृष्ठ० १८ टीका-जोगो णाम कि? मण-वयण-कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिपफंदो। जदि एवं तो पत्थि अजोगिणो, सरीरयस्स जीवदव्वस्स अकिरियत्तविरोहादो। एस दोसो, अट्टकम्मेसु खीणेसु जा उगमणवलंबिया किरिया सा जीवस्स साहाविया, कम्मोदएण विणा पउत्तत्तादो। सहिददेसमछंडिय छद्दित्ता वा जीवदव्वस्स सावयवेहि परिफ्फंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मक्खयत्तादो। तेण सक्किरिया वि सिद्धा अजोगिणो, जीवपदेसाणमद्दहिदजलपदेसाणं व उव्वत्तणपरियत्तणकिरियाभावादो। तदो ते अबंधा त्ति भणिदा। योग मार्गणानुसार मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी बन्धक हैं। अयोगी जीव अबन्धक है। ___ अस्तु-मन, वचन और काय सम्बन्धी पुद्गलों के आलम्बन से जो जीवप्रदेशों का परिस्पदन होता है वही योग है। प्रश्न यह है कि यदि ऐसा है तो शरीरी जीव भयोगी हो ही नहीं सकते क्योंकि शरीरगत जीव द्रव्य को अक्रिय मानने में विरोध आता है ? इसका समाधान यह है-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आठों कर्मों के क्षीण हो जाने पर जो ऊर्ध्वगमनोपलम्बी क्रिया होती है, वह जीव का स्वाभाविक गुण है, क्योंकि वह कर्मोदय के बिना प्रवृत्त होती हैं। स्वस्थित प्रदेश को न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीव द्रव्य का अपने अवयवों द्वारा परिस्पन्द होता है वह अयोग है। क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है। अतः सक्रिय होते हुए भी शरीरी जीव अयोगी जीव सिद्ध होते हैं, क्योंकि उनके जीवप्रदेशों के तप्तायमान जलप्रदेशों के सदृश उद्वर्तन और परिवर्तन रूप क्रिया का अभाव है। अत: अयोगियों को अबन्धक कहा है । •४८.१ आयुषकर्म के बंधन के समय जघन्य योग होता है जदा जदा आउअं बंधदि तदा तदा तप्पाओग्गेण जहण्णएण जोगेण बंधदि ॥१०॥ टोका-अपज्जत-पज्जत्तववादेयंताणुवड्डिजोगाणं परिहरणट्ठमाउअबंधपाओग्गजहण्णपरिणामजोग्गहण्टु च तप्पाओग्गजहण्णजोगग्गहणं कदं। कम्मटिविपढमसमयप्पहुडि जाव तिस्से चरिमसमओ त्ति ताव गुणिदकम्मसियपाओग्गाणं जोगट्ठाणाणं पंतोए देखादिणियमेणावद्विदाए खग्गधारासरिसीए जहण्णुक्कस्स Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) जोगा अस्थि । तत्थ आउअबंधपाओग्गजहण्णजोगेहि चेव आउअंबंधदि ति उत्तं होदि। -षट् ० खण्ड० ४ । २ । ४ सू १० । पु १० । पृष्ठ• ३८ । ९ जब-जब जीव आयु को बांधता है तब-तब उसके योग्य जघन्य योग से बांधता है । अपर्याप्त व पर्याप्त भव सम्बन्धी उपपात और एकांतानुवृद्धि योगों का निषेध करने के लिए तथा आयुबंध के योग्य जघन्य परिणाम योग का ग्रहण करने के लिए उसके योग्य जघन्य योग का ग्रहण किया है। कर्मस्थिति के प्रथम समय से लेकर उसके अन्तिम समय तक गुणितकर्माशिक जीव के योग्य योगस्थानों की देशादि के नियम से खंङ्गधारा के समान एक पंक्ति में अवस्थित जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार के योग पाये जाते हैं। उनमें से आयुबंध के योग्य जघन्य योगों से ही आयु को बांधता है। यह उक्त अर्थ का तात्पर्य है। •४९ योग और कृति–नोकृति, अवक्तव्यकृति .१ x x x मणुसअपज्जत्त-वेउन्वियमिस्सहारदुग - सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदउवसमसासणसम्माइट्ठिसम्मामिच्छादिट्ठिजीया सियाकदी, तिप्पहुटिउपरिमसंखाए कदाचिदुवलंभादो। सिया णोकदी, एदेसुअट्ठसु कदाचि एगस्सेव जीवस्स दसणादो। सिया वत्तव्व कदी, कदाचि दोण्णं चेवुपलभादो। -षट्० सू ४ । १ । सू ६६ । पु ९ । पृष्ठ० २७७ मनुष्य अपर्याप्त, वैक्रियमिश्रकाययोग, आहारकद्विक (आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग ) सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीव कथंचित् कृति है, क्योंकि ये तीन आदि उपरिम संख्या में कभी नहीं पाये जाते हैं। कथंचित् वे नोकृति है, क्योंकि इन आठ स्थानों में कभी एक ही जीव देखा जाता है। कथंचित् अवक्तव्यकृति है, क्योंकि कभी वहां दो ही जीव पाये जाते हैं । xxx आहारदुग-विउव्वियमिस x x x कदिणोकदि अवक्तव्य संचिदा सिया अत्थि सिया णस्थि । -षट्० सू ४ । १ । सू ६६ । पु ९ । पृष्ठ० २८१ ___ आहारद्विक (आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग ) वैक्रियमिश्रकाययोगी जीव कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित् कथंचित् हैं और कथंचित नहीं है । •२ प्रथम-अप्रथम अपेक्षा योगी जीव और कृति औदारिक काययोगी औदारिकमिश्र काययोगी कार्मण काययोगी Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७३ ) औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी-ये प्रथम और अप्रथम समय में नियम से कृति है। क्योंकि इनमें सर्वकाल केवल एक ही जीवों का अभाव है। ___ x x x ओरालिय कायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगि-कम्मइयकायजोगि x x पढमा पढमा समएसु णियमा कदो। एदेसु एग-दोजीवाणं केवलाणं सव्वकालं पवेसामावादो। -षट् ० खण्ड० ४ । २ । सू ६६ । टीका। पु ९ पृष्ठ. २७९ '३ चरम-अचरमानुगम की अपेक्षा योगी जीव और कृति xx x एवं जहा पढमाणुगमो परुविदो तदा परुवेदवोxxx -षट् खण्ड० ४ । १ । सू ६६ । टीका । पु ९ । पृष्ठ• २८० जिस प्रकार-योगी जीवों की गणनकृति का प्रथम-अप्रथम अनुगम की अपेक्षा वर्णन किया गया उसी प्रकार चरमाचरम अनुगम की अपेक्षा करना चाहिए । .४ संचयानुगम में द्रव्यानुगम की अपेक्षा योगी-जीव और कृति मणुस-मणुस अपज्जत्त एसु कदि-णोकदि-अवत्तव्व-संचिदा केत्तिया ? असंखेज्जा।x x x एवं x x x पंचमणजोगि - पचवचिजोगि- वेउवियगित्थि xxx बत्तव्वं, भेदाभावादो। मणुसपज्जत्त x x x आहारदुग्गxxx कदि - णकदि - अवत्तव्वसंचिदा केत्तिया? संखेज्जा। ___ x x x काययोगि (सु) x x x कदि-णोकदि-अवत्तव्व-संचिदा कत्तिया? अणंता। ___xxx ओरालिय कायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगि-कम्मइयकायजोगि (सु) x x x कदि-संचिदा केत्तिया? अणंता। अंतरेण विणा गंगापवम्होच्च अणंतजीवपवेसादो। -षट्० खण्ड ० ४ । १ । सू ६६ । टीका । पु ९ । पृष्ठ० २८४ । ५ मनुष्य व मनुष्य अपर्याप्तों में कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीव असंख्यात है। इसी प्रकार पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, वैक्रियिकद्विक-जीवों में कहना चाहिए, क्योंकि इनके कोई विशेषता नहीं है । मनुष्य पर्याप्त, आहारकद्विक में कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित संख्यात है, क्योंकि ये राशियाँ संख्यात है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) काययोगी जीवों में कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित अनन्त है। औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी जीवों में कृति संचित जीव अनन्त है। क्योंकि, इनमें अन्तर के बिना गंगाप्रवाह के समान अनन्त जीवों का प्रवेश है। .५ संचयानुगम-सत्परुपणा की अपेक्षा योगी जीव और कृति तत्थ संतपरूपणवदाए अत्थि णिरयगदीए णेरइया कदि-नोकदि-अवत्तव्व संचिदा।x x x एवं x x x पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-कायजोगि-वेउव्वियकायजोगि x x x वत्तव्वं । एदेसु सांतरूवक्कमणवंसणादो। x x x आहारदुग्ग-वेउन्विमिस्स x कदि-गोकदि-अवत्तव्वसंचिदा सिया अस्थि सिया णत्थि। __x x x अवसेसासु मग्गणास्सु ( ओरालिय-कायजोगि-ओरालियमिस्स कायजोगि-कम्मइयकायजोगि ) अत्थि कतिसंचिदा, गोकदि-अवत्तवेहि एदेसु पवेसाभावादो।xxx -षट् खण्ड• ४ । १ सू ६६ । टीका । पु ९ । पृष्ठ० २८१ उनमें सत्प्ररुणा की अपेक्षा नरकगति में नारकी जीव कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित है। इसी प्रकार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, काययोगी, वैक्रियिककाययोगी जीवों में कहना चाहिए। क्योंकि इनमें सान्तर उपक्रमण देखा जाता है । आहारद्विक-आहारक-आहारकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीव कृति, नोकृति व अवक्तव्य कथंचित् है और कथंचित् नहीं है। शेष मार्गणाओं में (औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी) जीव कृति संचित है क्योंकि इनमें नोकृति संचित और अवक्तव्य संचितों के प्रवेश का अभाव है। .६ करणानुगम से संचित योगी जीवों में करणकृति __ पंचमणजोगीसु पंचवचिजोगीसु अत्थि ओरालियवेउब्धिय-आहारपरिसादणकदी संघादण-परिसादणकदी [च। संघादणकवी ] किण्ण उत्ता? ण संघादणकदीए कायजोगं मोत्तण अण्णजोगाभावादो। तेजा-कम्मइयाणं संघादणपरिसादणकदौ अस्थि । कायजोगीणमोघमंगो। गवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणं पत्थि, अजोगि मोत्तूण अण्णत्थ तस्सामावादो। ओरालिकायजोगीसु अत्थि ओरालियसरीरपरिसादणकदी संघावण-परिसादणकदी वेउब्धियतिष्णिपदा Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५ ) आहारपरिसादणकवी तेजाकम्मइयसंघावण-परिसादणकदीच। ओरालियमिस्सकायजोगीणं तसअपज्जतभंगो। वेउम्वियकायजोगीसु अत्थि वेउब्विय-तेजाकम्मइय-संघादण-परिसादणकदी। वेउवियमिस्सकायजोगीसु अस्थि वेउम्वियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघावणपरिसावणकदी च । आहारकायजोगीसु अत्थि ओरालियपरिसादणकदी आहार-तेजा-कम्मइयसंघावणपरिसादणकदी च। एवं आहारमिस्सकायजोगी। परि आहारसंघावण पि अत्थि। कम्मइयकायजोगीसु अस्थि ओरालियपरिसादणकदी, लोगमावरिदकेवलीसु तदुवलंभादो। तेजा-कम्मइयसघादण-परिसादणकदी च अत्यि। -षट् ० खण्ड० ४ । १ । सू ७१ । पु ९ । पृष्ठ० ३५६ । ७ पाँच मनोयोगियों और पाँच वचनयोगियों में औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर की परिशातन कृति और संघातन-परिशातनकृति होती है। इनके उक्त शरीरों की संघातनकृति क्यों नहीं कही है ? क्योंकि संघातनकृति में काययोग को छोड़कर दूसरा योग नहीं होता है। __पाँच मनोयोगी और पांच वचनयोगियों में तैजस और कार्मण शरीर की संघातनकृति होती है। काययोगियों को प्ररूपणा ओघ के समान है। विशेष इतना है कि उनमें तेजस और कार्मण शरीर की परिशातन कृति नहीं होती, क्योंकि अयोगी केवली को छोड़कर अन्य मार्गणाओं में इस कृति का अभाव है। औदारिककाययोगियों में औदारिकशरीर की परिशातन कृति व संघातन-परिशातन कृति, वैक्रियशरीर के तीनों पद, आहारक शरीर की परिशातनकृति, तथा तैजस और कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृति होती हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियों की प्ररुपणा त्रस अपर्याप्तों के समान है । वैक्रियिककाययोगियों में वैक्रियशरीर की तथा तैजस व कार्मण शरीर की संघातनपरिशातन कृति होती है। वैऋियिकमिश्रकाययोगियों में वैक्रियशरीर की संघातनकृति व संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातन कृति होती है। आहारककाययोगियों में औदारिक शरीर को परिशातनकृति तथा आहारक, तैजस व कार्मण शरीर की संघातन-परिशातनकृति होती है। इसी प्रकार आहरकमिश्रकाययोगियों में समझना चाहिए। विशेष केवल इतना है कि इनमें आहारक शरीर की संघातनकृति भी होती है। कार्मणकाययोगियों में औदारिक शरीर की परिशातनकृति होती है, क्योंकि लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त हुए केवलियों में उक्त कृति पायी जाती है। उनमें तैजस व कामंणशरीर की संघातन-परिशातनकृति भी होती है। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) - ७ करणकृति अनुगम में स्पर्शानुगम में क्षेत्रानुगम से कृतियुक्त संचित जीव पंचमणजोगि- पंचवचिजोगीणं ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा । एवं वेउव्वियपरिसारणकदीए वि । वेउब्वियतेजा - कम्मइयसंघादण - परिसादणकदीए लोगस्स असं खेज्जदिभागो अट्ठचोद्द सभागा देखणा सव्वलोगो वा । आहारदोष्णिपदाणं खेत्तभंगो । कायजोगीणमोघो । वरि तेजा - कम्मइयपरिसादणं णत्थि । ओरालियकायजोगीसु ओरालिय-तेजाकम्मइयसंघादण - परिसादणकदीए सव्वलोगो । ओरालिय परिसादणक दीए वेव्वियतिणिपदाणं तिरिक्खभंगो। आहारपरिसादणकदीए खेत्तभंगो । ओरालि मिस्स कायजोगीसु अप्पणो तिष्णिपदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो । वेउव्वियकायजोगीसु अप्पणो पदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? अट्ठ-तेरहचोहसभागा वा देसूणा । वेउव्वियमिस्सकायजोगीणं खेसभंगो । आहारदुगस्स खेत्तभंगो । कम्मइयकायजोगीणं ओरालियपरिसादणकदीए केवलिभंगो | तेजाकम्मइयसंघादणपरिसादणकटीए केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो । - षट्० खण्ड ० ४। १ । सू ७१ । पु ९ । पृष्ठ० ३७४ । ५ पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवों में औदारिक शरीर की संघातनपरिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोक का असंख्यातवाँ भाग अथवा सर्वलोक स्पर्श किया गया है । इसी प्रकार वैऋियिक शरीर को परिशातनकृतियुक्त जीवों की भी प्ररूपणा करना चाहिए । वैक्रियिक, तेजस व कार्मण शरीर की संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोक का असंख्यातवां भाग कुछ कम आठ बटे चौदह भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है । आहारक शरीर के दो पद युक्त जीवों की प्ररुपणा क्षेत्र प्ररूपणा के समान है । काययोगियों की प्ररूपणा ओघ के समान है । विशेष इतना है कि इनके तैजस और कार्मण शरीर की परिशातनकृति नहीं होती । औदारिक काययोगियों में औदारिक, तेजस व कार्मण शरीर की संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा सर्वलोक स्पर्श किया गया है । औदारिक शरीर की परिशातनकृति तथा वैक्रियशरीर के तीनों पद युक्त जीवों की प्ररूपणा तिर्यंचों के समान है । आहारक शरीर की परिशातनकृति युक्त जीवों की प्ररूपणा क्षेत्र प्ररूपणा के समान है । औदारिकमिश्रकाययोगियों में अपने तीनों पद युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया हैं । उक्त जीवों द्वारा सर्वलोक स्पर्श किया गया है । वैक्रियिककाययोगियों में अपने पदों द्वारा कितना स्पर्श किया गया है ? उक्त जीवों चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं । वैक्रियिकमिश्रकायसमान है । आहारक और आहारक मिश्रकाययोगियों द्वारा कुछ कम आठ व तेरह बटे योगियों की प्ररूपणा क्षेत्रत्ररूपणा के Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) की प्ररुपणा क्षेत्र प्ररुपणा के समान है । कार्मणकाययोगियों में औदारिक शरीर की परिशातनकृति युक्त जीवों की प्ररुपणा केवलियों के समान है। इनमें तैजस और कार्मण शरीर की संघातन-परिशातन कृति युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है ? उक्त जीवों द्वारा सर्वलोक स्पर्श किया गया है। .८ अंतरानुगमसे करण कृति की अपेक्षा योग पंचमजोगि-पंचवचिजोगीसु ओरालिय-वेउव्विय-परिसादण-संघादणपरिसंघादणकदीणं तेजा-कम्मइयसंघादण परीसादणकदीए णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरे। आहारपरिसादण-संघादणपरिसादणकदीणं गाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च गत्थि अंतरं। कायजोगोसु ओरालिय-वेउब्वियतिण्णिपदाणं एइंदियभंगो। णवरि वेउब्वियसंघादण-संघादणपरिसादणकदीणं जहण्णेण एगसमओ। आहारतिगस्स णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च णस्थि अतरं। तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदीए णत्थि अंतरं। ओरालियकायजोगीसु ओरालियपरिसादणकदीए वेउव्वियतिण्णिपदाणं णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण तिण्णिवाससहस्साणि देसूणाणि । णवरि वेउब्वियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं। ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आहारपरिसादणकदी गाणाजीवं पडुच्च ओघं। एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। तेजा-कम्मइयएगपदमोघं । ओरालियमिस्सकायजोगीसु ओरालियसंघादणकदी गाणाजीवं पडुच्च ओघं। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समऊणं। संघावण-परिसादणकदी गाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी ओघं। वेउन्वियकायजोगीसु सगपदाणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । वेउन्वियमिस्सकायजोगीसु सगपवाणं णाणाजीवं पड़च्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण बारसमुहुत्ता। एगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं। आहारकायजोगि-आहारमिस्स Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८ ) कायजोगी सगपदाणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उनकस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । कम्मइयकाय जोगी सु ओरालियपरिसादणकदीए णाणाजीवं पड़च्च जहष्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । तेजाकम्मइयएगपदस्स णत्थि अंतरं । - षट्० खण्ड ० ४ । १ । सू ७१ । पु ९ । पृष्ठ० ४१४ । ६ पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवों में औदारिक व वैक्रियशरीर की परिशातन व संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कामंण शरीर की संघातन परिशातन कृति का नाना व एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं होता । आहारक शरीर को परिशातन और संघातन-परिशातनकृति का अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृषं से वर्ष पृथक्त्व काल प्रमाण होता है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं होता । काययोगियों में औदारिक और वैक्रियिक शरीर के तीनों पदों की प्ररूपणा एकेन्द्रियों के समान है । विशेष इतना है कि वैक्रियिकशरीर की संघातन व संघातन-परिशातनकृति का अन्तर जघन्य से एक समय होता है । आहारक शरीर के तीनों पदों की प्ररूपणा नाना जीवों की अपेक्षा ओघ के समान है व एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं होता । तेजस - कार्मण शरीर की संघातन-परिशातनकृति का अन्तर नहीं होता । औदारिक काययोगियों में औदारिकशरीर की परिशातनकृति तथा वैक्रियशरीर के तीनों पदों का नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता । एक जीव की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ कम तीन हजार वर्ष प्रमाण होता है । विशेष इतना है कि वैयिक शरीर की संघातनकृति का अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण होता है । औदारिक शरीर की संघातन परिशातन कृति का नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य व उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण होता है । आहारक शरीर की परिशातनकृति का अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा ओघ के समान है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं होता । तेजस और कार्मणशरीर के एक पद अर्थात् संघातन-परिशातनकृति का अन्तर ओघ के समान है । औदारिक मिश्रका योगियों में औदारिकशरीर की संघातनकृति के अन्तर की प्ररूपणा नाना जीवों की अपेक्षा ओघ के समान है । एक जीव की जघन्य से चार समय कम क्षुद्रभवग्रहण-प्रमाण और उत्कर्ष से एक समय कम अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीर की संघातन-परिशातनकृति का अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा ओघ के समान है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य व उत्कर्ष से एक समय है। तेजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृति के अन्तर की प्ररूपणा ओघ के समान है । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७९) वैक्रियि कमिश्रकाययोगियों में अपने पदों का नाना व एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में अपने पदों का अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से बारह मुहूर्त प्रमाण होता है। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं होता। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियों में अपने-अपने पदों का अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वर्ष पृथक्त्व कालप्रमाण होता है। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं होता। कार्मणकाययोगियों में औदारिकशरीर की परिशातनकृति का अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वर्ष पृथक्त्व कालप्रमाण होता है। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं होता। तेजस व कार्मणशरीर के एक पद ( संघातनपरिशातनकृति ) का अन्तर नहीं होता है । •०९ भावानुगमसे करणकृति की अपेक्षा योग पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसु सव्वत्थोवा ओरालियवेउव्वियपरिसादणकदो। संघावण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, देवाणं संखेज्जभागत्तादो। सव्वत्थोवा आहारपरिसादणकदी। संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया। सुगमं। कायजोगीसु ओरालिय-वेउव्विय-आहारतिण्णिपदा ओघं। ओरालियकायजोगीसु सव्वत्थोवा ओरालियपरिसादणकदी। संघादण-परिसादणकदी अणंतगुणा। वेउम्वियतिण्णिपवाणं तिरिक्खमंगो। आहारम्मि पत्थि अप्पाबहुममेगपदत्तादो। ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा ओरालियसंघादणकवी, अपज्जत्तएसु एगसमयसंचिवत्तादो। संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, संघादणजीववदिरित्तअसेसापज्जत्तजीवगहणादो। वेउब्धिय-आहारकायजोगीसु णत्थि अप्पाबहुगं, एगपदत्तादो। वेउन्वियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा वेउब्वियसंघावणकदी। [ संघादण ] परिसादणकदो असंखेज्जगुणा। सुगमं । आहारमिस्सकायजोगिसु सव्वत्थोवा आहारसंघावण कदी। संघावण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा। सेसपदाणं णत्थि अप्पाबहुगं, एगत्तादो। कम्मइयकायजोगीसु गस्थि अप्पाबहुगं, एगपदत्तादो। -षट् खण्ड ० ४ । १ सू ७१ । पु ९ । पृष्ठ० ४३३ । ४ पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगियों में औदारिक और वैक्रियशरीर की परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक है। इनसे उनकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं क्योंकि वे देवों के संख्यातवें भाग हैं। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) आहारकशरीर की परिशातनकृति युक्त जीव सबसे कम है । इससे उसकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव विशेषाधिक है । कारण सुगम है । काययोगियों में औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीर के तीन पदों की प्ररूपणा ओघ के समान है । औदारिककाययोगियों से औदारिकशरीर की परिशातनकृति युक्त जीव सबसे कम है । इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव अनन्तगुणे हैं । वैक्रियशरीर के तीनों पदों की प्ररूपणा तिर्यचों के समान है । आहारकशरीर के आश्रित अल्पबहुत्व नहीं है । क्योंकि उसका यहाँ एक ही पद है । औदारिकमिश्रकाययोगियों में औदारिकशरीर की संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक है, क्योंकि वे अपर्याप्तों में एक समय मात्र में संचित है। इनसे उसकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे है । क्योंकि इनमें संघातनकृति युक्त जीवों को छोड़कर शेष सब अपर्याप्त जीवों का ग्रहण है । वैक्रिय और आहारककाययोगियों में अल्पबहुत्व नहीं है क्योंकि वे एक-एक पद से सहित हैं । वैक्रियमिश्रकाययोगियों में वैक्रियशरीर की संघातन युक्त जीव सबसे थोड़े हैं । उनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीब असंख्यातगुणे हैं । यह सुगम है । आहारकमिश्र काययोगियों में आहारकशरीर की संघातनकृति युक्त जीव सबसे कम है। उनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे है । शेष पदों के अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि वे एक-एक पद से सहित है । कार्मणकाययोगियों में अल्पबहुत्व नहीं है क्योंकि उनमें एक ही पद है । - १० करणानुगम में संचित योगी जीवों की संघातनादि कृति युक्त कितने क्षेत्र में अवस्थिति पंचमण जोगि पंचवचिजोगीसु ओरालिय- वेउब्विय- आहारपरिसादणकदी ओरालिय- वे उब्विय- आहारतेजा - कम्मइयसंघादण - परिसारणकदी के वडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। कायजोगीसु ओघो। णवरि तेजा - कम्मइयपरिसादणकदी णत्थि । ओरालियकायजोगीसु ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघावणपरिसादणकदी के वडिखेत्ते ? सव्वलोगे । वेजव्वियतिष्णिपदा ओरालियआहारपरिसादणकदी के वडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । ओरालियमिस्सकायजोगीणं सुहुमेइ दियभंगो । वेउव्वियकायजोगीसु अप्पणो दोपदा लोगस्स असंखेज्जदिभागे । वेउव्विय मिस्सकायजोगीणं देवभंगो । आहारआहारमिस्सतिचत्तारिपदा लोगस्स असंखेज्जदिभागे । कम्मइय कायजोगी सु ओरालियपरिसादणकदी केवलिभंगो | तेजा - कम्मइय- संघादणपरिसावणकदी सव्वलोगे । - पट्० खण्ड ० ४ । १ । सू ७१ । पु ९ पृष्ठ० ३६७ । ८ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) पाँच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवों में औदारिक, वैक्रियिक और आहारक परिशातनकृति तथा औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस व कार्मणशरीर की संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? उक्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । कायजोगी जीवों की प्ररूपणा ओघ के समान है । विशेष इतना है कि इनमें तेजस व कार्मणशरीर की परिशातनकृति नहीं होती । औदारिककाययोगी जीवों में औदारिक, तैजस व कार्मणशरीर की संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं । उक्त जीव सब लोक में रहते हैं । औदारिककाययोगियों में वैक्रियिकशरीर के तीन पद तथा औदारिक व आहारकशरीर की परिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं । उक्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । औदारिकमिश्रकाययोगियों की प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रिय के समान है । वैक्रियिककाययोगियों में अपने दो पद युक्त जीव लोक के असंख्मातवें भाग में रहते हैं । वैऋियिक मिश्र काययोगियों की प्ररूपणा देवों के समान है । आहारककाययोगियों में औदारिकशरीर की परिशातनकृति और आहारक, तेजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृति, इस प्रकार तीन पद, तथा आहारकमिश्रकाययोगियों में -- इन तीन पदों के साथ आहारकशरीर की संघातनकृति, इस प्रकार चार पद युक्त जीव असंख्यातवें भाग में रहते हैं । कार्मणकाययोगियों में औदारिकशरीर की परिशातनकृति युक्त जीवों की प्ररूपणा केवली जीवों के समान है। इनमें तेजस व कार्मणशरीर की संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव सब लोक में रहते हैं । • ११ करणानुगम में संचित योगी जीवों की संघातनकृति आदि कृति करते हुए कितनी संख्या पंचमणजो गि- पंचवचिजोगीणं ओरालिय- वेडव्वियपरिसादण संघावणपरिसादणकदी तेजा - कम्मइयसंघादण परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा । आहारदोपदा संखेज्जा । कायजोगी ओघं । णवरि तेजा - कम्मइयपरिसादणं णत्थि । [ ओरालियकायजोगीसु ] ओरालियसंघादण - [ संघादण ] परिसादण - कदी तेजा - कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? अनंता । ओरालियसादकी वेव्वियतिष्णिपदा असखेज्जा । आहारपरिसावणकदी संखेज्जा । ओरालिय मिस्सकायजोगीणं सुहुमेइ दियभंगो। वेउव्वियकाय जोगीसु दोण्णिपदा असंखेज्जा । एवं वेउव्वियमिस्सकायजोगीणं । णवरि संघादणकदी अस्थि । आहारकायजोगी आहारमिस्सकायजोगीणं तिणि चत्तारिपदा संखेज्जा । कम्मइयकायजोगीणं तेजा - कम्मइयसंघादण परिसावणकदी केसिया ? अनंता । ओरालियपरि सादणकदी । संखेज्जा । - षट्० खण्ड ० ४ । १ । सू ७१ । पु ९ । पृष्ठ० ३६१ । २ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२ ) पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगियों में औदारिक व वैक्रियिकशरीर की परिशातन व संघातन-परिशातन कृति तथा तैजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातन कृति युक्त जीव कितने हैं ? असंख्यात है। उक्त जीवों में आहारकशरीर के दो पद अर्थात् परिशातन व संघातन परिशातन कृति युक्त जीव संख्यात हैं ? काययोगियों की प्ररुपणा ओघ के समान है। विशेष इतना है कि इनमें तैजस और कार्मणशरीर की परिशातनकृति नहीं होती। [औदारिक काययोगियों में ] औदारिक शरीर को [ संघातन व ] संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इनमें औदारिकशरीर की परिशातन कृति व वैक्रियिकशरीर के तीनों पद युक्त जीव असंख्यात है। __ आहारकशरीर भी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यात है। औदारिकमिश्रकाययोगियों की प्ररुपणा सूक्ष्म एकेन्द्रियों के समान है। वैक्रियिककाययोगियों में दोनों पद युक्त जीव असंख्यात है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में कहना चाहिए । विशेषता इतनी है कि इनके संघातनकृति होती है। आहारककाययोगी और आहार कमिश्रकाययोगियों में तीन या चार पद युक्त जीव संख्यात है। कामंणकाययोगियों में तैजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इनमें औदारिक शरीर की परिशातनकृति युक्त जीव संख्यात हैं। .४९ उपपातयोग-परिणामयोग-एकान्तानुवृद्धियोग टीका-उववादजोगो णाम कत्थ होदि ? उप्पण्णपढमसमए चेव । केवडिओ तस्स कालो ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। उप्पण्णबिदियसमयप्पहुडि जाव सरीरपज्जत्तीए अप्पज्जत्तयवचरिमसमओ ताव एगंताणुवड्डिजोगो होदि । णवरि लद्धिअपज्जत्ताणमाउअबंधपाओग्गकाले सगजीविदतिभागे परिणामजोगो होदि। हेट्ठा एगंताणुवड्डिजोगो चेव। लद्धिअपज्जत्ताणमाउअबंधकाले चेव परिणामजोगो होदि त्ति के वि भणति । तण्ण घड़दे, परिणामजोगे टिदस्स अपत्तववादजोगस्स एयंताणुवड्डिजोगेण परिणामविरोहादो। एयंताणुवड्डिजोगकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। पज्जत्तपढमसमयप्पहुडि उवरि सव्वत्थ परिणामजोगो चेव। णिवत्तिअपज्जत्ताणं णत्थिपरिणामजोगो। एवं जोगअप्पाबहुगं समत्तं । संपहि चउण्णमप्पाबहुगाणमेवाओ संदिट्ठीओxxx। एदेसु सुहुमणिगोदादिसण्णिपंचिदिया त्ति लद्धिअपज्जत्ताणं जहण्णउववादजोगा। सो जहण्णउववादजोगो कस्स होदि ? पढमसमयतम्भवत्थस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण उक्कस्सेण य एगसमइओ। बिदियादिसु समएसु एगंताणुवडिजोगपउत्तीदो। सरीरगहीदे जोगो वड्डदि त्ति विग्गहगदीए सामित्तं विण जहण्णयं । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८३ ) सुहुम-बादराणं णिव्वत्तिपज्जत्तयाणमेदे जहण्णया परिणामजोगा। सो जहण्णपरिणामजोगो तेसि कत्थ होदि ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स पढमसमए चेव होदि। केवचिरं कालादो ? जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारि समया। तस्सुवरि तेसि चेव उक्कस्सिया परिणामजोगा। सो कस्स होदि। परंपरपज्जत्तीए पजत्तयवस्स। सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया। तदुवरि सुहम-बादराणं लद्धिअपज्जत्तयाणमुक्कस्सया परिणामजोगा। ते कत्थ होंति ? आउअबंधपाओग्गपढमसमयादो जाव भवद्विदीए चरिसमओ त्ति एत्थुद्देसे होति। आउअबंधपाओग्गकालो केत्तिओ? सगजीविदतिभागस्स पढमसमयप्पहुडि जाव विस्समणकालअणंतरहेट्टिमसमओ ति। सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया। बेईदियादि जाव सण्णिपंचिदियणिव्यत्तिपज्जत्तमो त्ति एदेसि जहण्णपरिणामजोगा एदे xxx । सो कत्थ होदि ? पढमसमयपज्जत्तयदम्मि। सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारिसमओ होदि। बोई दियादि जाव सण्णिपंचिदियो ति एदेसि णिव्वत्तिअपज्जत्तयाणमेदे उक्कस्सया एगंताणुवड्डिजोगा। सो एयंताणुवड्डिजोगो उक्कस्सओ कत्थ घेप्पदि ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदो होहदि त्ति द्विदम्मि घेप्पइ। केवचिरं कालादो एयंताणुवड्डिजोगो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एगो समओ। बेइदियादि जाव सण्णिपंचिदियणिव्वत्तिपज्जओ त्ति एदेसिमेदे उक्कस्सपरिणामजोगाxxx। सो कस्स होवि ? परंपरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण बे समया। एसा मूलवीणा णाम। सुहुमाविसण्णिपंचिदिओ ति लद्धिअपज्जत्ताणं जहण्णया उववादजोगा एदे x xx। सो कस्स होदि ? पढमसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगस्स । केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णण उक्कस्सेण य एगसमओ। सुहमादिसण्णिपंचिदियणिन्वत्तिअपज्जत्ताणं एदे जहण्णया उववादजोगाx xx। एदे कस्स होंति ? पढमसमयतब्भवत्थस्स विग्गहगईए वट्टमाणस्स। केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। मुहुम-बादराणं लद्धिअपज्जत्तयाणमेदे जहण्णया एयंताणुवड्डिजोगाxxx Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) सो कस्स होदि ? बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स । सो केवचिरंकालादो होदि ? जहणेण उक्कस्सेण य एगसमओ भवदि । सुहुम- बादराणं णिव्वत्तिअपज्जत्तयाणमेदे जहण्णया एयंताणुवड्डिजोगा Xxx । सो फस्स होदि ? बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहष्णुक्कस्सेण एमसमओ । -- षट्० खण्ड ० ४ । २ । ४ । सू १७३ । पु १० पृष्ठ० ४२० से ४२५ उसका जघन्य व उत्पन्न होने के प्रथम समय में उपपाद योगस्थान होता है । उत्कृष्टकाल एक समय मात्र है । उत्पन्न होने के द्वितीय समय से लेकर शरीर पर्याप्ति से अपर्याप्त रहने के अन्तिम समय तक एकान्तानुवृद्धियोग होता है । विशेष इतना है कि लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबंध के योग्यकाल में अपने जीवित के विभाग में परिणामयोग होता है । उससे नीचे एकान्तानुवृद्धि योग ही होता है । लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबन्धकाल में ही परिणामयोग होता है ऐसा कितनेक आचार्य कहते हैं । किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि इस प्रकार से जो जीव परिणाम योग में स्थित है व उपपादयोग को नहीं प्राप्त हुआ है उसके एकान्तानुवृद्धियोग के साथ परिणाम के होने में विरोध आता है । एकान्तानुवृद्धियोग का काल जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है । पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर आगे सब जगह परिणामयोग ही होता है । निर्वृत्यपर्याप्तकों के परिणामयोग नहीं होता 1 इस प्रकार योग अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इसमें सूक्ष्म निगोद को. आदि लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त लब्ध्यपर्याप्तकों के जघन्य उपपादयोग होते हैं | अस्तु विग्रहगति में वर्तमान जीव के तद्भवस्थ होने के प्रथम समय में जघन्य उपपादयोग होता है । वह जघन्य व उत्कर्ष से एक समय रहता है, क्योंकि द्वितीयादि समयों में एकान्तानुवृद्धियोग प्रवृत्त होता है । शरीर ग्रहण कर लेने पर जघन्य स्वामित्व दिया गया है । योग है । होता है । चूंकि योग वृद्धि को प्राप्त होता है, अतः विग्रहगति में सूक्ष्क व बादर निर्वृत्तिपर्याप्तकों के जघन्य परिणाम वह जघन्य परिणामयोग शरीरपर्याप्त से पर्याप्त होने के प्रथम समय में ही वह परिणाम योग जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से चार समय रहता है । उससे भागे उनके ही उत्कृष्ट परिणाम योग होते हैं । वह उत्कृष्ट परिणामयोग परम्परा Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८५ ) पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के होता है। वह जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से दो समय होता है। उससे आगे सूक्ष्म और बादर लब्ध्यपर्याप्तकों के उत्कृष्ट परिणाम योग होते हैं। वे आयुबंध के योग्य प्रथम समय से लेकर भवस्थिति के अन्तिम समय तक इस उद्देश में होते हैं। अपने जीवित के तृतीय भाग के प्रथम समय से लेकर विश्रमणकाल के अनन्तर अधस्तन समय तक आयुबंध के योगकाल माना गया है । वह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय होता है । द्वीन्द्रिय को आदि लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्ति-पर्याप्तक तक इनके ये जघन्य परिणामयोग होते हैं। । संदृष्टि मूल में देखिये )। वह पर्याप्त होने के प्रथम समय में होता है। वह जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से चार समय होता है । द्वीन्द्रिय को आदि लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक इन निर्वृत्यपर्याप्तकों के ये उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योग होते हैं। वह उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होगा, इस प्रकार स्थित जीव में ग्रहण किया जाता है। वह एकान्तानुवृद्धियोग जघन्य व उत्कृष्ट से एक समय होता है । द्वीन्द्रिय को आदि लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तक तक इनके ये उत्कृष्ट परिणाम योग होते हैं । ( संदृष्टि मूल में देखिये )। वह परम्परा पर्याप्ति से पर्याप्त हुए जीव के होता है । बह जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से दो समय होता है। यह मूल वीणा कहलाती है। सूक्ष्म से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक लब्ध्यपर्याप्तकों के ये जघन्य उपपादयोग होते हैं। ( संदृष्टि मूल में देखिये ) वह तद्भवस्थ हुए जघन्य योग वाले जीव के प्रथम समय में होता है। वह जघत्य व उत्कृष्ट से एक समय होता है । सूक्ष्म को आदि लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्तकों के ये जघन्य उपपाद योग है। ( संदृष्टि मूल में देखिये )। ये विग्रहगति में वर्तमान जीव के तद्भवस्थ होने के प्रथम समय में होते हैं। वे जघन्य और उत्कर्ष से एक समय होते हैं। सूक्ष्म व बादर लब्ध्यपर्याप्तकों के जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग है ( मूल में )। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) वह तद्भवस्थ होने के द्वितीय समय में जघन्य योगवाले के होता है। वह जघन्य व उत्वर्ष से एक समय होता है । सूक्ष्म व बादर निवृत्त्यपर्याप्तकों के वे जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग है। (मूल में) वह तद्भवस्थ होने के द्वितीय समय में वर्तमान जघन्य योगवाले के होता है। वह जघन्य व उत्कृष्ट से एक समय होता है । .५० समय व संख्या की अपेक्षा सयोगी जीव की उत्पत्ति-मरण-अवस्थिति.१ नरक पृथ्वियों में गमक १-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढणीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता गोयमा! तीसं निरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता । ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा? असखेज्जवित्थडा? गोयमा! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि। इमीसे णं भंते ! रयणप्पयाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु नरएसु एगसमएणंx x x।३५-केवतिया मणजोगी उववज्जति ? ३६-केवतिया वयजोगी उववज्जति ? ३७–केवतिया कायजोगी उववज्जति x x x। गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं x x x ? मणजोगी न उववज्जति, एवं वइजोगी वि। जइण्णण एको वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेण संखेज्जा कायजोगी उववज्जति। -भग० श• १३ । उ १ । सू २, ३, ४ गमक १-नरक पृथ्वियाँ सात कही है-यथा-रत्नप्रभा, यावत् अधः सप्तम पृथ्वी । इस रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख नरकावास कहे गये हैं। वे नरकावास संख्येयविस्तृत भी है और असंख्येय-विस्तृत भी है । इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय ( योजन ) विस्तृत नरकावासों में एक समय में कितने मनोयोगी जीव उत्पन्न होते हैं, कितने बचन योगी जीव उत्पन्न होते हैं, कितने काययोगी जीव उत्पन्न होते हैं। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८७ ) हे गौतम ! इस रत्नप्रभा-पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय विस्तृत नरकावासों में एक समय में मनोयोगी और वचनयोगी जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। जघन्य एक अथवा दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात काययोगी जीव उत्पन्न होते हैं । नोट-आगम में रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में लेश्यादि ३९ प्रश्न किये गये हैं। हमने योग को ही ग्रहण किया है। उत्पत्ति के समय अपर्याप्त होने में मन और वचन, इन दोनों योगों का अभाव है। इसलिये ऐसा कहा गया है कि मनोयोगी और वचन उत्पन्न नहीं होते हैं। च कि सभी सयोगी जीवों के काययोग सदैव रहता है। इसलिए ऐसा कहा गया है कि-काययोगी उत्पन्न होते हैं । गमक १–इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं केवतिया नेरइया उववज्जति जाव केवतिया अणागारोघउत्ता उववज्जति ? ( केवतिया मणजोगी उववज्जति ? केवतिया वइजोगी उववज्जति, केवतिया कायजोगी उववज्जति )। गोयमा! इसीसे रयणप्पयाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएण जहण एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं असंखेज्जा नेरइया उववज्जति ? एवं जहेव संखेज्जवित्थडेसू तिष्णिगभगा तहा असंखेज्जवित्थडेसु वि तिण्णि गमगा भाणियव्या, नवरं असंखेज्जा भाणियन्वा, सेसं तं चेव जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता, नवरं-संखेज्जवित्थडेसु असखेज्जवित्थडेसु वि ओहिनाणी, ओहिदसणी य संखेज्जा उव्वट्टावेयव्वा, सेसं तं चेव । -भग० श० १३ । उ १ सू ७ गमक १ इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तारवाले नरकावासों में एक समय में कितने मनोयोगी जीव, कितने वचनयोगी जीव व कितने काययोगी जीव उत्पन्न होते हैं। हे गौतम ! जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में ( उत्पाद, उदवर्तन और सत्ता ) ये तीन आलाप कहे गये हैं उसी प्रकार असंख्यात योजन वाले नरकावासों के विषय में भी तीन आलापक कहने चाहिए। इनमें विशेषता यह है कि यहां संख्यात के स्थान पर असंख्यात पाठ कहना चाहिए। शेष सब पहले के समान कहना चाहिए। नोट -असंख्यात योजन विस्तृत नरकावासों में एक समय में मनोयोगी और वचन योगी जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। जघन्य एक या दो या तीन अथवा उत्कृष्ट असंख्यात काययोगी उत्पन्न होते हैं। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८८ ) गमक २ – इसीसे णं भंते ! रयणप्पयाए पुढवीए तौसाए निरयावास - सयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस एगसमएणं केवतिया नेरइया उववइंति x x x गोयमा ! इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरया वासस्यसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस एगसमएणं x x x । मणजोगी न उब्वट्टति, एवं वइजोगी वि । जहणेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्ना कायजोगी उववट्टति | - भग० श० १३ । उ १ । सू ४ गमक २ - इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से जो संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावास है उनमें से एक समय में कितने मनोयोगी जीव उद्वर्तते ( मरण ) हैं, कितने वचनयोगी जीव और कितने काययोगी जीव उद्वर्तते हैं । हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से जो संख्यात योजन विस्तारवाले नरकावास है उनमें से एक समय में मनोयोगी और वचनयोगी जीव नहीं उद्वर्तते हैं । काययोगी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं । पाठ ऊपर देखो । इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं। उनमें एक समय में मनोयोगी और वचनयोगी नहीं उद्वर्तते हैं । काययोगी जीव जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात उद्वर्तते हैं । नोट - अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी तीर्थंकर आदि ही उद्वर्तते हैं और वे स्वल्प होते हैं । अतः उनके उद्वर्तन के विषय में संख्यात ही कहना चाहिए । इनमें विशेषता यह है कि संख्यात योजन और असंख्यात योजन विस्तारवाले नरकावालों में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी संख्यात ही उद्वर्तते हैं । नोट - उद्वर्तना परभव के प्रथम समय में होती है । नैरयिक जीव असंज्ञी जीवों में उत्पन्न नहीं होते हैं अतः वे असंज्ञी नहीं उद्वर्तते । यही बात चूणि में भी कही है । असणणो य विभंगिणो य, उव्वट्टणाइ वज्जेज्जा । दोसु विय चक्खुदंसणी, मणवइ तह इंदियाई वा ॥ अर्थात् असंज्ञी, विब्भंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, मनोयोगी, वचनयोगी और क्षोत्रेन्द्रियादि पांचों इन्द्रियों के उपयोगवाले जीव नहीं उद्वर्तते । अतः नरक में इनकी उद्वर्तना का निषेध किया गया है । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८९ ) गमक ३-इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावास. सयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु केवतिया नेरइया पणता? केवतिया काउलेस्सा जाव केवतिया अणागारोवउत्ता पण्णता?xxx। ___गोयमा! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु संखेज्जा नेरइया पण्णता?xxx। संखेज्जा मणजोगी पण्णत्ता। एवं जाव ( संखेज्जा वइजोगी पण्णत्ता। संखेज्जा कायजोगी पण्णत्ता ) अणागारोवउत्ता। भग० श. १३ । उ १ । सू ५ गमक ३-इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तारवाले नरकावासों में संख्यात मनोयोगी होते हैं. संख्यात, वचनयोगी होते हैं व संख्यात काययोगी होते हैं । नोट-असंज्ञी जीव कदाचित् होते हैं व कदाचित् नहीं होते हैं। नोइन्द्रिय के उपयोगवाले नारकी असंज्ञी नारकी जीवों की तरह कदाचित् होते हैं व कदाचित् नहीं होते हैं। जो असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय मरकर नरक में नरयिकपने उत्पन्न होते हैं वे अपर्याप्त अवस्था में कुछ काल तक असंज्ञी होते हैं। ऐसे नैरयिक अल्प होते हैं अतः कहा गया है कि रत्नप्रभा पृथ्वी में असंज्ञी कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते हैं । पाठ ऊपर देखो। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं उनमें एक समय में असंख्यात मनोयोगी होते हैं, असंख्यात वचनयोगी व असंख्यात काययोगी होते हैं। कभी कभी ऐसा होता है कि रत्नप्रभा नारकी में सम्यगमिथ्यादृष्टिवाला कोई भी नारकी नहीं रहता है परन्तु मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि नारकी की नियमा है। इसी प्रकार शर्कराप्रभा यावत् तमतमप्रभा नारकी के सम्बन्ध में जानना चाहिए। यद्यपि सातवी नारकी में सम्यग्दुष्टि जीव न मरते हैं न उत्पन्न होते हैं परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव वहाँ नियमतः होते हैं परन्तु सम्ममिथ्यादृष्टि जीव कदाचित् होते हैं, कदाचित् न भी होते हैं। यद्यपि कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक में योग तीनों हो सकते हैं। पन्द्रह योगों की विवक्षा से कृष्णपाक्षिक में १३ योग ( आहारक-आहारकमिश्रकाययोग बाद ) व शुक्ल पाक्षिक में १५ योग होते हैं । कहा है "जेसिमावड्ढोपोग्गलपरियट्टो, सेसओ उ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिगे पुण कण्हपक्खिया ॥" Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९० ) अर्थात् जिन जीवों का संसार परिभ्रमणकाल अर्द्धपुद्गलपरावर्तन से कुछ कम शेष रह गया है, वे 'शुक्लपाक्षिक' कहलाते हैं । इससे अधिककाल तक जिन जीवों का संसार में परिभ्रमण करना शेष रह गया है वे 'कृष्णपाक्षिक' कहलाते हैं । जिन नारकियों में उत्पन्न हुए अभी एक ही समय हुआ है उन्हें अनन्तरोपपन्नक कहते हैं। और जिनको उत्पन्न हुए दो, तीन आदि समय हो गये हैं उन्हें परंपरोपन्नक कहते हैं । किसी एक विश्रित क्षेत्र में प्रथम समय में रहे हुए जीवों को अनन्तरावगाढ़ कहते हैं और विवक्षित क्षेत्र में द्वितीयादि समय में रहे हुए जीवों को परंपरावगाढ़ कहते हैं । आहार ग्रहण करने में जिन्हें प्रथम समय हुआ है उन्हें अनन्तराहारक और द्वितीयदि समय हुआ है उन्हें परंपराहारक कहते हैं । जिन जीवों को पर्याप्त हुए प्रथम समय ही हुआ है उन्हें अनन्तर पर्याप्तक और जिनको पर्याप्त हुए द्वितीयादि समय हो गये हैं उन्हें परंपर- पर्याप्तक कहते हैं । जिन जीवों का वही अन्तिम नारकभव है रहे हुए हैं उन्हें चरम नैरयिक कहते हैं और कहते हैं । अथवा जो नारकभव में अन्तिम समय में इससे विपरीत को 'अचरम' नारकी -२ सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! पणवीसं निरयावास सय सहस्सा पण्णत्ता । ते भंते कि संखेज्जवित्थडा ? असंखेज्जवित्थडा ? एवं जहा रयणप्पभाए तहा सक्करप्पभाए वि, नवरं असण्णी तिसु वि गमएसु न भण्णंति, सेसं तं चेव । वालुयप्पभाए णं पुच्छा 1 गोयमा ! पनरस निरयावासस्यसहस्सा पण्णत्ता, सेसं जहा सक्करप्पभाए, नाणत्तं लेसासु, जहा पढमसए । पंकष्पभाए णं पुच्छा । गोयमा ! दस निरयावासस्यसहस्सा पण्णत्ता, एवं जहा सक्करष्पभाए, नवरं ओहिनाणी, ओहिदंसणी य न उब्वट्टति, सेसं तं चेव । धूमभाए णं पुच्छा । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९१ ) गोयमा ? तिणि निरयावाससयसहस्सा, एवं जहा पंकप्पभाए ॥ तमाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता० ? गोयमा ! एगे पंचूणे निरयावाससयसहस्से पण्णत्ते। सेसं जहा पंकप्पभाए। अहेसत्तमाए गं भंते ! पुढवीए कति अणुसरा महतिमहालया महानिरया पण्णत्ता? गोयमा! पंच अणुत्तरा महतिमहालया महानिरया पण्णत्ता, तंजहाकाले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अपइट्ठाणे। ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा ? असखेज्जवित्थडा। गोयमा ! संखेज्जवित्थडे य असंखेज्जवित्थडा य । अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महानिरएसु संखेज्जवित्थडसु नरए एगसमएणं केवतिया नेरइया उववज्जति ? एवं जहा पंकप्पभाए, नवरं-तिसु नाणेसु न उववज्जति, न उव्वट्ट ति, पण्णत्तएसु तहेव अत्थि। एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि, नवरं असंखेज्जा भाणियत्वा। -भग० श० १३ । उ १ । सू ७ से १३ २-शर्कराप्रभा पृथ्वी में पचीस लाख नरकावास कहे हैं। हे भगवान् ! नरकावास क्या संख्यातयोजन विस्तारवाले हैं या असंख्यातयोजन विस्तारवाले हैं। हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में कहा गया है उसी प्रकार शर्कराप्रभा पृथ्वी के विषय में भी कहना चाहिए। परन्तु उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ताइन तीनों ही आवापकों में असंज्ञी नहीं कहना चाहिए। शेष सब कथन पूर्व की तरह कहना चाहिए। ३-बालुकाप्रभा पृथ्वी में पन्द्रह लाख नरकावास कहे गये हैं। शेष सभी कथन शर्कराप्रभा के समान कहना चाहिए। यहां लेश्या के विषय में विशेषता है। लेश्या का कथन प्रथम शतक के दूसरे उद्देशक के समान कहना चाहिए। ( कापोत-नील लेश्या )। ४-पंकप्रभा पृथ्वी में दस लाख नरकावास कहे हैं। जिस प्रकार शर्करा पृथ्वी के विषय में कहा है उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी नहीं उद्वर्तते। शेष सभी कथन पूर्व के समान कहना चाहिए। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-धूमप्रभा पृथ्वी में तीन लाख नरकावास कहे गये हैं। जिस प्रकार पंकप्रभा के विषय में कहा-उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। ६-तमःप्रभा पृथ्वी में पाँच कम एक लाख नरकावास कहे गये हैं। शेष सभी वर्णन पंकप्रभा के समान कहना चाहिए । ७- अधःसप्तम पृथ्वी में अनुत्तर और बहुत बड़े पाँच महा नरकावास कहे गये हैं यथा-काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान । मध्य का अप्रतिष्ठान नरकावास संख्यातयोजन विस्तार वाला है और शेष चार नरकावास असंख्यातयोजन के विस्तार वाले हैं। अस्तु अधःसप्तम पृथ्वी के पाँच अनुत्तर और बहुत बड़े यावत् महानरकावासों में से संख्यातयोजन के विस्तार वाले अप्रतिष्ठान नरकावास में एक समय में कितने नरयिक ( मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी) नारकी उत्पन्न होते हैं । हे गौतम ! जिस प्रकार पंकप्रभा के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यहाँ तीन ज्ञान वाले न तो उत्पन्न होते हैं और न उद्वर्तते हैं, परन्तु इन पाँच नरकावासों में रत्नप्रभा आदि के समान तीनों ज्ञान वाले पाये जाते हैं। जिस प्रकार संख्यातयोजन विस्तारवाले नरकावासों के विषय में कहा, उसी प्रकार असंख्यातयोजन विस्तारवाले नरकावासों के विषय में भी कहना चाहिए। इसमें संख्यात के स्थान पर असंख्यात कहना चाहिए। नोट- असंज्ञी जीव प्रथम नरक में ही उत्पन्न होते हैं उससे आगे नहीं। इसलिए द्वितीयादि नरकों में उनका उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता, ये तीनों बातें नहीं कहनी चाहिए। चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में कहा गया है कि यहाँ से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी नहीं उदवर्तते हैं। इसका कारण यह है कि अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी प्रायः तीर्थंकर ही होते हैं। चौथी नरक से निकले हुए जीव तीर्थंकर नहीं हो सकते और वहां से निकलने वाले अन्य जीव भी अवधिज्ञान, अवधिदर्शन लेकर नहीं निकलते । सातवीं नरक में मतिज्ञानी, श्रतिज्ञानी और अवधिज्ञानी उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि वहाँ मिथ्यात्वी और समकित से पतित जीव ही उत्पन्न होते हैं तथा वहाँ से इन तीनों ज्ञानों में उद्वर्तना भी नहीं होती। यद्यपि सातवीं पृथ्वी में मिथ्यात्वी जीव ही उत्पन्न होते हैं तथापि वहाँ उत्पन्न होने के बाद जीव समकित प्राप्त कर सकता है। समकित प्राप्त कर लेने पर वहाँ मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी पाये जा सकते हैं। अतः सातवीं Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक में इन तीन ज्ञान वाले जीवों का उत्पाद और उद्वर्तना तो नहीं है किन्तु सत्ता है। .३ देवावासों में गमक १-केवतिया गं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। गोयमा! चोट्टि असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ते गं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा ? असखेज्जवित्थडा ? गोसमा ! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि । चोसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु असुरकुमारवासेसु एगसमएण केवतिया असुरकुमारा उववज्जति, जाव केवतिया तेउलेस्सा उववज्जति, केवइया कण्हपक्खिया उववज्जति ? x x x ( केवइया मणजोगी उववज्जति, केवइया वइजोगी उवज्जति, केवइया कायजोगी उववज्जति ? ) एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा, तहेव वागरणं, णवरं दोहि वेएहि उववज्जति, गपुसगवेयगा ण उववज्जति, सेसं तंचेव । गमक २-उव्वट्टता वि तहेव, णवरं असण्णी उन्वट्ट ति। ओहिनाणी ओहिवंसणी य णं उन्वट्टति, सेसं तं चेव । गमक ३ –पण्णत्तएसु तहेव, नवरं संखेज्जगा इत्थिवेदगा पण्णत्ता, एवं पुरिसवेदगा वि, नपुसगवेदगा नत्थि x x x सेसं तं चेव। तिसु वि गमएसु चत्तारि लेस्साओ भाणियव्वाओ। एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि, नवरं तिसु वि गमएसु असंखेज्जा भाणियव्वाxxx। -भग० श० १३ । उ २ । सू २६, २७ केवतिया णं भंते, नागकुमारावाससयसहस्सा पण्णता? एवं जाव थणियकुमारा, नवरं-जत्थ जत्तिया भवणा? -भग० श० १३ । उ २ । सू २८ असुरकुमार देवों के चौसठ लाख आवास कहे गये हैं। असुरकुमार देवों के वे आवास संख्यात योजन विस्तारवाले भी हैं और असंख्यात योजन विस्तारवाले भी है। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९४ ) असुरकुमार के चौसठ लाख आवासों में ये संख्यात योजन विस्तारवाले असुरकुमारा वासों में एक समय में मनोयोगी और वचनयोगी नहीं उत्पन्न होते हैं। जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात काययोगी जीव उत्पन्न होते हैं ( गमक-१)। उद्वर्तना के विषय में भी उसी प्रकार जानना चाहिए अर्थात् मनोयोगी और वचनयोगी नहीं उद्वर्तते हैं। काययोमी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं (गमक-२)। सत्ता के विषय में पहले कहे अनुसार ही कहना चाहिए। अर्थात् मनोयोगी, वचनयोगी तथा काययोगी संख्यात होते हैं। ( ममक-३)। इसी प्रकार असंख्येययोजनविस्तृत असुरकुमारावासों में कहना चाहिए। परन्तु इनमें संख्यात के स्थान पर असंख्यात कहना चाहिए। अर्थात् असंख्येय योजन विस्तृत असुरकुमारावासों में एक समय में मनोयोगी व वचनयोगी उत्पन्न नहीं होते हैं। जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात काययोगी उत्पन्न होते हैं। (गमक-१) मनोयोगी व वचनयोगी नहीं उद्वर्तते हैं। काययोगी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात उद्वर्तते हैं । ( गमक-२)। सत्ता -- मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी असंख्यात होते हैं । ( गमक-३)। इसी प्रकार ( तीनों गमक ) नागकुमार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। विशेषता यह है कि जहाँ जितने लाख भवन हो, वहाँ उतने लाख कहने चाहिए। नोट-कहा है जंबूद्दीवसमा खलु भवणा जे हुँति सव्वखुड्डागा। संखेज्जवित्थडा मज्झिमा उ सेसा असंखेन्जा। अर्थात् भवनयति देवों के जो सबसे छोटे आवास ( भवन ) होते हैं, वे जम्बुद्वीप के समान होते हैं। मध्यम संख्यात योजन के विस्तारवाले होते हैं और शेष अर्थात बड़े आवास असंख्यात योजन के विस्तारवाले होते हैं। वहाँ से निकले हुए जीव तीर्थंकर तो होते ही नहीं हैं और जो निकलते हैं वे भी अवधिज्ञान-अवधिदर्शन लेकर नहीं निकलते हैं। असुर कुमार के ६४ लाख, नागकुमारों के ८४ लाख, सुवर्णकुमारों के ७२ लाख, वायुकुमारों के ९६ लाख और द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्यु तकुमार, स्तनित कुमार और अग्निकुमार-इन प्रत्येक युगल के ७६ लाख ७६ लाख भवन होते हैं। कुल ७ करोड ७२ लाख भवन हुए। केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सा पण्णता? गोयमा! असंखेज्जा वाण मंतरावाससयसहस्सा पण्णत्ता। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २९५ ) ते णं भंते ! कि संखेन्जवित्थडा ? असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा, नो असंखेज्जवित्थडा ? संखेज्जेसु णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सेसु एगसमएणं केवतिया वाणमंतरा उववज्जति ? एवं जहा असुरकुमाराणं संखेज्जवित्थडेसु तिण्णि गमगा तहेव भाणियध्वा । वाणमंतरा वि तिणि गमगा। -भग० श० १३ । उ २ सू २९, ३० वाणमंतर देवों के असंख्यात लाख आवास कहे हैं। वे आवास ( नगर ) संख्येय योजन विस्तृत है, असंख्येय विस्तृत नहीं है। __ वाणव्यंतर देवों के संख्येयविस्तृत आवासों में एक समय में कितने वाणव्यंतर देव उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार असुरकुमार देवों के संख्येयविस्तृत आवासों के विषय में तीन गमक कहे हैं, उसी प्रकार वाणव्यंतर देवों के विषय में भी तीन गमक कहने चाहिए। अर्थात् एक समय में मनोयोगी व वचनयोगी नहीं उत्पन्न होते हैं। जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात काययोगी उत्पन्न होते हैं । (गमक-१) मनोयोगी व वचनयोगी नहीं उद्वर्तते हैं। काययोगी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं । ( गमक-२) सत्ता - मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी संख्यात होते हैं । ( गमक-३) नोट-कहा है --- जंबूद्वीवसमा खलु उक्कोसेणं हवंति ते णगरा। खुड्डा खेत्तसमा खलु विदेहसमगा उ मज्झिमगा। अर्थात वाणव्यंतर देवों के सब से छोटे नगर ( आवास ) भरतक्षेत्र के समान होते हैं। मध्यम महाविदेह के समान होते हैं और सबसे बड़े आवास जंबूद्वीप के समान होते हैं। केवतिया णं भंते ! जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। गोयमा! असंखेज्जा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६ ) एवं जहा वाणयंतराणं तहा जोइसियाणं वि तिष्णि गमगा भाणियव्वा, नवरं -एगा तेउलेस्सा । उववज्जंतेसु पण्णत्तेसु य असण्णी नत्थि, सेसं तं चैव । भग० श० १३ । उ २ । सू ३१ ज्योतिषी देवों के असंख्यात लाख विमानावास कहे गये हैं । वे विमानावास संख्येय विस्तृत हैं, असंख्येय विस्तृत नहीं है । जिस प्रकार वाणव्यंतरदेवों के विषय में कहा— उसी प्रकार ज्योतिषी देवों के विषय में भी तीन गमक ( उत्पाद, च्यवन-सत्ता कहने चाहिए । ( गमक १-२-३ ) । इसमें इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियों में केवल एक तेजो लेश्या ही होती है उत्पाद, चवन ( उद्वर्तना ) और सत्ता में असंज्ञी नहीं होते हैं । नोट- उनके विमान एक योजन से भी कम विस्तृतवाले होते हैं । सोहम्मे णं भंते! कप्पे बत्तीसार विमाणावास सय सहस्सेसु संखेज्ज - वित्थडे विमाणे एगसमएणं केवइया x x x । तेउलेस्सा उववज्जंति ? × × × एवं जहा जोइसियाणं तिन्नि गमगा तहेव तिन्नि गमगा भाणियव्वा नवरं तिसुवि सखेज्जा भाणियव्वा । x x x 1 असंखेज्जवित्थडेसु एवं चेव तिन्नि गमगा, नवरं तिसु वि गमएसु असंखेज्जा भाणियव्वा । x x x एवं जहा सोहम्मे बत्तव्वया भणिया तहा ईसाणेसु वि छ गमगा भाणियव्वा । सणकुमारे ( वि ) एवं चेव । x x x एवं जाव सहस्सारे, नाणत्तं विमाणेसु लेस्सासु य, सेसं तं चेव । - भग० श० १३ । उ२ । सू ३२, ३३ सौधर्म देवलोक के बत्तीस लाख उनमें उत्पत्ति, च्यवन तथा अवस्थिति के लेकर ज्योतिषी विमानों की तरह कहने विमानों में जो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, तीन गमक मनोयोग, बचनयोग व काययोग को ( गमक १, २, ३ ) । । सौधर्म देवलोक के बत्तीस लाख विमानों में जो असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं उनमें उत्पत्ति, च्यवन तथा अवस्थिति के तीन गमक-मनोयोग, वचनयोग व काययोग को लेकर कहने । इन तीनों गमकों में उत्कृष्ट में असंख्यात कहना । ईशान कल्पदेवलोक के विमानों के सम्बन्ध में सौधमं कल्प की तरह तीन संख्यात तथा तीन असंख्यात के, इस प्रकार छः गमक कहने । इसी प्रकार सनत्कुमार से सहस्रार देवलोक तक के विमानों के सम्बन्ध में तीन संख्यात तथा तीन असंख्यात के, इस प्रकार छः गमक कहने । लेकिन लेश्या में नानात्व कहना अर्थात् सनत्कुमार से ब्रह्मलोक तक पद्म तथा लांतक से कहनी । सहस्रार तक शुक्ल लेश्या Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९७ ) [ आणत-पाणएसु ] एवं संखेज्जवित्थडेसु तिन्नि गमगा जहा सहस्सारे। असंखेज्जवित्थडेसु उववज्जतेसु य चयंतेसु य एवं चेव 'संखेज्जा' भाणियव्वा । पन्नत्तेसु असंखेज्जा।xx x आरणच्युएसु एवं चेव जहा आणयपाणएसु नाणतं विमाणेसु एवं गेवेज्जगा वि। -भग० श० १३ । उ २। सू ३४ आनत तथा प्राणत के जो संख्यात-योजन-विस्तारवाले विमान है उनमें सहस्रार देवलोक की तरह शुक्ल लेश्या को लेकर उत्पत्ति, च्यवन और अवस्थिति के तीन गमक कहने । जो असंख्यात-योजन-विस्तारवाले विमान है, उनमें एक समय में एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात काययोगी उत्पन्न होते हैं, मनोयोगी-वचनयोगी उत्पन्न नहीं होते हैं। (गमक-१) एक समय में जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात काययोगी च्यवन को प्राप्त होते हैं, मनोयोगी व वचनयोगी का च्यवन नहीं होता है ( गमक-२) एक समय में असंख्यात अवस्थित रहते हैं (गमक-३)। आरण तथा अच्युत विमानवासों में, जैसे आनत और प्राणत के विषय में कहा, वैसे ही छः छः गमक कहने । इसी प्रकार वेयक विमानों के सम्बन्ध में शुक्ललेश्या पर छः गमक आनतकी तरह कहने। पंचसु णं भंते ! अणुत्तरविमाणेसु संखेन्जवित्थडेसु विमाणे एगसमएणंxxx केवइया सुक्कलेस्सा उववज्जति, पुच्छा तहेव । गोयमा! पंचसुणं अणुत्तरविमाणेसु संखेज्जवित्थडेसु अणुत्तरविमाणे एगसमएणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा अणुत्तरोववाइया देवा उववज्जति, एवं जहा गेवेज्जविमाणेसु संखेज्जवित्थडेसु x x x। असंखेज्जवित्थडेसु वि एए न भन्नति नवरं अचरिमा अत्थि, सेसं जहा गेवेज्जएसु असंखेज्जवित्थडेसु । -भग० श. १३ । उ २ । सू ३५ पंच अनुत्तर विमानों में जो चार (विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित) असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं उनमें एक समय में मनोयोगी व वचनयोगी उत्पन्न नहीं होते हैं। जघन्य एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात काययोगी अनुत्तर विमानवाली देव उत्पन्न होते हैं। (गमक-१) मनोयोगी ब वचनयोगी च्यवन को प्राप्त नहीं होते हैं। जघन्य एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात काययोगी च्यवन को प्राप्त होते हैं । (गमक-२) तथा मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी चार अनुत्तरविमानवासी देव असंख्यात अवस्थित रहते हैं । ( गमक-३)। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९८ ) सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान जो संख्यात योजन विस्तारवाला है ( एक लाख योजन) उसमें एक समय में मनोयोगी-वचनयोगी उत्पन्न नहीं होते हैं। जघन्य एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात काययोगी अनुत्तर विमानवासी देव उत्पन्न होते हैं । (गमक-१) मनोयोगी-वचनयोगी च्यवन को प्राप्त नहीं होते हैं। जघन्य एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात काययोगी च्यवन को प्राप्त होते हैं। ( गमक-२) तथा मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी अनुत्तर-विमानवासी देव संख्यात अवस्थित है। नोट १-अनुत्तरविमान का सर्वार्थसिद्ध विमान एक लाख योजन विस्तारवाला है तथा बाकी चार अनुत्तरविमान असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं। देखो-जीवा० प्रति ३ । उ २ । सू २१३ पृ० २३७ तथा ठाण० स्था ४ । उ ३ । सू ३२९ । पृ० २४६ । नोट २-सौधर्म देवलोक से च्यवे हुओं में तीर्थंकर आदि अवधिज्ञान और अवधिदर्शन युक्त होते हैं अतएव च्यवन में अवधिज्ञानी और अधविदर्शनी भी कहने चाहिए। सौधर्मईशान देवलोक तक ही स्त्रीवेदी जीव उत्पन्न होते हैं । इनसे आगे सनत्कुमारादि में स्त्रीवेदी जीव उत्पन्न नहीं होते हैं । वहाँ से चवे हुए स्त्रीवेदी हो सकते हैं। सहस्रार देवलोक तक तिर्यंच भी उत्पन्न आदि होते हैं अतः तीनों आलापको में 'असंख्यात' पद घटित हो सकता है। आनतादि देवलोकों में असंख्यात-योजन-विस्तारवाले विमानों में उत्पाद और च्यवन में संख्यात और सत्ता में असंख्यात देव होते हैं। क्योंकि गर्भज मनुष्य ही मरकर आनतादि देवों में उत्पन्न होते हैं और वे देव वहाँ से च्यवनकर गर्भज मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं और गर्भज मनुष्य संख्यात ही होते हैं अतः एक समय में संख्यात का ही उत्पाद और संख्यात का ही च्यवन हो सकता है। विमानों की संख्या इस प्रकार हैं बत्तीसे अट्ठवीसा बारस अट्ट चऊरो य सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा, छच्च सहस्सा सहस्सारे ॥ आणय पाणय कप्पे, चत्तारी सया आरणच्युए तिण्णि । सत्त विमाण सयाइ', चउसु वि एयसु कप्पेसु ॥ -पण्ण प० २ । म २२ अर्थात् सौधर्मादि देवलोक में क्रमशः विमान संख्या इस प्रकार है १-बत्तीस लाख, २-अट्ठाईस लाख, ३-बारह लाख, ४-आठ लाख, ५-चार लाख, ६-पचास हजार, ७-चालीस हजार ८-छह हजार, ९-१० चार सौ, ११-१२ तीन सौ-कुल मिला कर ८४९६७०० विमान है। वेयक की पहलीत्रिक में १११, दूसरी त्रिक में १०७ और तीसरी त्रिक में १०० विमान होते हैं। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९९ ) पांच अनुत्तर विमानवासी देवों के पांच विमान होते हैं। इस प्रकार वैमानिक देवों के कुल ८४९७०२३ विमान होते हैं । .५१ तयोगी जीव और अल्पकर्मतर-बहुकर्मतर ___ सयोगी-मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी नारकी अल्पकर्मवाले भी होते हैं तथा बहुकर्मवाले भी होते हैं। यह परस्पर नारकियों की तुलना की अपेक्षा कहा है। इसी प्रकार असुरकुमार यावत् वैमानिक देव तक सभी दंडक जानने चाहिए। जिसके जितने योग हो उतने योग कहना ।-लेश्या कोश नोट-कतिपय प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकाय, बादर पृथ्वीकाय, बादर अपकाय के जीव अनन्तर भव में ( मनुष्य हो कर ) मोक्ष प्राप्त कर अन्तक्रिया करते हैं । अतः वे तुलना में अल्प कर्मतरवाले हैं। '५२ सयोगी जीव और अल्पऋद्धि-महाऋद्धि अशुभयोगी जीव से शुभयोगी जीव महाऋद्धिवाला होता है। सबसे अल्पऋद्धिवाला अशुभयोगी जीव तथा सबसे महाऋद्धिवाला शुभयोगी जीव है । दंडक के सभी जीवों के सम्बन्ध में ऐसा ही कहना जिसके जितने योग हो उतने योग कहना । नारकी से वैमानिक देव तक सभी दंडक कहना।—लेश्या कोश केइ भणंति-चउवीसं दंडएण इड्डी भाणियन्वा । -पण्ण० ५० १७ । उ २ । सू २५ कोई आचार्य कहते हैं कि ऋद्धि के आलापक चौबीसों ही दंडकों में कहना चाहिए। .५३ सयोगी क्षुद्रयुग्म जीव । युग्म शब्द से टीकाकार अभयदेव सूरि ने 'राशि' अर्थ लिया है युग्मशब्देन राशयो विवक्षिताः । राशि की समता-विषमता की अपेक्षा युग्म चार प्रकार का होता है, यथा-कृतयुग्म, त्र्योज, द्वापरयुग्म तथा कल्योज युग्म । जिस राशि में चार का भाग देने पर शेष चार बचे उसे राशि को कृतयुग्म कहते हैं। जिस राशि में चार का भाग देने पर तीन बचे उसको योजयुग्म कहते हैं। जिस राशि में चार का भाग देने पर दो बचे उसको द्वापरयुग्म कहते हैं। तथा जिस राशि में चार का भाग देने पर एक बचे उसको कल्योज (युग्म ) कहते हैं । अन्य अपेक्षा से भगवती सूत्र में तीन प्रकार के युग्मों का विवेचन है, यथा-क्षुद्र युग्म, (श ३१, ३२) महायुग्म (श ३५ से ४०) तथा राशियुग्म (श ४१ )। सामान्यतः छोटी संख्यावाली राशि को क्षुद्रयुग्म कहा जा सकता है। इसमें एक से लेकर असंख्यात तक भी संख्या निहित है। महायुग्म वृहद संख्यावाली राशि का द्योतक है तथा Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) इसमें पांच से लेकर अनन्त तक संख्या निहित है तथा इसमें गणना के समय और संख्या दोनों के आधार पर राशि का निर्धारण होता है। राशियुग्म इन दोनों को सम्मिलित करती हुई संख्या होनी ही चाहिए तथा इसमें एक से लेकर अनन्त तक का संख्या निहित है । क्षुद्र युग्म में केवल नारकी जीवों का अट्ठारह पदों से विवेचन है । इन्द्रियों के आधार पर सर्व जीवों (एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय) का तैंतीस पदों का राशियुग्म में जीवदंडक के क्रम से जीवों की तरह तेरह पदों से विवेचन है । ] क्षुद्र युग्म में केवल नारकी जीवों का नौ उपपात के तथा नौ उद्वर्तन ( मरण ) के पदों से विवेचन किया गया है। तथा विस्तृत विवेचन औधिक क्षुद्रकृतयुग्म नारकी के पद में है । अवशेष तीन युग्मों में इसकी भुलावण है तथा जहाँ भिन्नता है वहाँ भिन्नता बतलाई गई है । इसमें भगवती श २५ । उ ८ की भी भुलावण है । (१) कहाँ से उपपात, (२) एक समय में कितने का उपपात, (३) किस प्रकार से उपपात, (४) उपपात की गति की शीघ्रता, (५) परभव के आयु के बन्ध का कारण, (६) परभव गति का कारण, (७) आत्म- ऋद्धि या पर ऋद्धि से उपपात, (८) आत्मकमं या परकर्म से उपपात, (९) आत्मप्रयोग था परप्रयोग से उपपात । महायुग्म में विवेचन है । इस प्रकार उद्वर्तन ( मरण ) के भी उपर्युक्त नौ अभिलाप समझने औधिक भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक, समदृष्टि, मिथ्यादुष्टि, सममिथ्यादृष्टि, कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक नारकी जीवों का चार क्षुद्रयुग्मों से तथा चार-चार उद्ददेशक से विवेचन किया गया है । हमने यहाँ पद 'योग' सम्बन्धित पाठों का संकलन किया हैं । • ५३.१ सयोगी क्षुद्रयुग्म नारको का उपपात ( खुड्डाकडजुम्मेण नेरइया ) आयप्पओगेणं उववज्जंति णो परप्पओगेणं उववज्जति ॥४॥ एवं जाव ओहियरइयाणं वत्तव्वया सच्चेव रयणप्पभाए वि भाणियत्वा जाव णो परप्पओगेणं उववज्जंति । एवं सक्करप्पभाए वि जाव अहेसत्तमाए ॥५॥ ते णं भंते ! जीवा कहं परभवियाउयं पकरेंति । × × × - भग० श० ३१ उ१ । सू ४ से ६ क्षुद्रकृत युग्म - राशि परिमाण नारकी आत्मप्रयोग ( जोगरुप व्यापार ) से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०१ ) औषिक नारकी की तरह रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी यावत् सप्तम पृथ्वी के नारकी आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते हैं । वे जीव अपने अध्यवसाय रूप और जोग आदि के व्यापार से करणोपाय द्वारा परभव की आयु बांधते हैं । •५३.२ ( खुड्डागतेओगणेरइया ) xxx सेसं जहा कडजुम्मस्स, एवं जहा अहे सत्तमाए । - भग० श० ३१ । उ १ । सू ७ -५३.३ ( खुड्डागदावरजुम्मणेरइया) सेसं तं चैव जाव अहेसत्तमाए । - भग० श० ३१ । उ १ । सू८ -५३.४ ( खुड्डागकलिओगणेरइया ) एवं जहेव खुड्डागकडजुम्मे । Xxx । सेसं तं चेव । एवं जाव अहेसत्तमाए । - भग० श० ३१ । उ १ । सू ९ जैसा क्षुद्रकृतयुग्मराशि का उपपात, आयुष्यबंध, आदि के विषय में कहा वैसा ही क्षुद्रत्रयोज युग्मराशि, क्षुद्रद्वापर युग्मराशि तथा क्षुद्रकल्योज राशि के विषय में जानना ( विषयांक ५३.१ ) । • ५३.५ कृष्णलेशी क्षुद्रकृत युग्म प्रमाण राशि का योग रूप व्यापार से उपपात तथा परभव के आयुष्य का बंधन । ( कण्हलेस्स खुड्डागकडजुम्मणेरइया ) एवं चेव जाब ओहियगमो जाव णो परप्पओगेण उववज्जंति । x x x ॥१॥ (धूमप्पभापुढविकण्हलेस्सखडागकडजुम्मणेरइया) एवं चैव णिरवसेसं । एवं तमाए वि, अहेतत्तमाए । - भग० श० ३१ । उ २ । सू १, २ क्षुद्रकृत राशि प्रमाण कृष्ण लेश्यावाले नारकी का उपपात तथा परभव के आयुष्य के बंधन के सम्बन्ध में जैसा औधिक गमक के विषय में कहा- जैसा ही कहना । क्षुद्रकृत युग्म राशि प्रमाण कृष्ण लेश्यावाले धूमप्रभा नारकी, समः प्रभा नारकी तथा अधः सप्तम नारकी के विषय में इसी प्रकार कहना । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२ ) .५३ ६ क्षुद्रव्योज राशि प्रमाण कृष्ण लेशीवाले नारकी का उपपात व परभव का आयुष्य बंध। ( कण्हलेस्म खुडागतेओगरनेरइया) एवं चेवx x x सेसं तं चेव । एवं जाव अहेसत्तमाए। भग० श. ३१ । उ २ । सू ३ क्षुद्रत्र्योज राशि प्रमाण कृष्णलेशी नारकी का उपपात तथा परभव के आयुष्य के बंध के विषय में इसी प्रकार कहना ( '५३.५ ) धूमप्रभा से अधःसप्तम नारकी का इसी प्रकार विवेचन करना। .५३.७ कृष्णलेशी क्षुद्रद्वापर-राशि प्रमाण नारकी का उपपात व परभव के आयुष्य का बंध ( कण्हलेस्स खुडागदावरजुम्मनेरइया) एवं चेव x x x सेसं तं चेव, धूमप्पभावि, जाव अहेसत्तमाए। -भग० श० ३१ । उ २ सू ४ कृष्णलेशी क्षुद्रद्वापर राशि नारकी तथा धूमप्रभा से अधःसप्तम नारकी के विषय में ( उपपात व परभव के आयुष्य के बंध ) इसी प्रकार कहना "५३ ५ । .५३.८ कृष्णलेशी क्षुद्रकल्योज राशि प्रमाण नारकी का उपपात तथा परभव के आयुष्य का बंधन। ( कण्हलेस्सखुडागलिओग रइया ) एवं चेव x x x सेसं तं चेव । एवं धूमप्पभाए वि, तमाए वि, अहेसत्तमाए वि। --भग. श. ३१ । उ२।सू ५ कृष्णलेशी क्षुद्र कल्योज राशि प्रमाण नारकी का उपपात व परभव का आयुष्य बंध इसी प्रकार कहना ('५३ ५ ) इसी प्रकार धूमप्रभा, तमः प्रभा, अधःसप्तम पृथ्वी तक कहना। नोट-कृष्शलेशी नारकी-इनमें असंज्ञी, परिमृप, पक्षी और सिंहादि। (सभी चतुष्पाद ) उत्पन्न नहीं होते हैं। .५३.९ नोल लेशी नारकी का उपपात तथा परभव के आयुष्य का बंध आत्मप्रयोग ( जोग रुप व्यापार ) से होता है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०३ ) ( नीललेस्सखुड्डाग कडजुम्मणेरइया ) एवं जहेव करहलेस्सखड्डाग कडजुम्मा | णवरं उववाओ जो वालुयप्पभाए, सेसं तं चेव । वालुयप्पभापुढविणीललेस्सखुडागकडजुम्मणेरहया एवं चेव । एवं पंक पाए वि, एवं धूमप्पभाए वि, एवं चउसुवि जुम्मेसु x x x - भग० श० ३१ । उ ३ । सू १ कृष्ण लेश्यावाले क्षुद्रकृतयुग्म नैरयिक के विषय में जैसा कहा, वैसा ही नीललेश्या । और अध्यववाले क्षुद्रकृत युग्म नारकी आत्म प्रयोग (जोग रुप व्यापार) से उत्पन्न होते साय - जोग-करण से परभव के आयुष्य का बंध करते हैं । वालुकाप्रभा, पंकप्रभ व धूमप्रभा नारकी के विषय में भी चारों युग्म का कथन कहना चाहिए । नोट - इसमें असंज्ञी व सरीसृप उत्पन्न नहीं होते हैं । ५३.१० कापोतलेशी क्षुद्र कृत युग्म नारकी का उपपात आत्म प्रयोग से तथा अध्यवसाय-जोग- -करण से आयुबंध । ( काउलेस्सखडागकडजुम्मणेरइया ) एवं जहेब कण्हलेस्सखुडागकडजुम्म० णवरं उववाओ, सेसं तं चैव । ( रणप्पभापुढवि काउलेस्सबुड्डाग कडजुम्मणेर इया ) एवं चेव । एवं सक्करप्पभाए वि, एवं वालुयप्पभाए वि एवं चउसु वि जुम्मेसु । - भग० श० ३१ । उ ४ । सू १ ।२ कापोत लेशी क्षुद्रकृत युग्म राशि प्रमाण नारकी आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं । अध्यवसाय - जोग-करण से परभव का आयुष्य बाँधते हैं । इसी प्रकार रत्नप्रभा नारकी, शर्कराप्रभा नारकी तथा वालुकाप्रभा नारकी में चारों युग्म का निरुपण करना चाहिए । • ५३.११ क्षुद्रकृत युग्म राशि नारकी के योग से परभव का आयुष्य बंध व्योज नारकी द्वापर काल्योज 91 11 नारको नारकी "1 99 "" भवसिद्धियखुद्दागकडनुम्मणेरइया णं भंते! कओ उववज्जं ति कि रइया ? एवं जहेव ओहिओ गमओ तहेव णिरवसेसं जाव णो परप्पओगेणं उववज्जति । 17 रयणप्पभापुढविभवसिद्धियखुड्डाकडजुम्मेणेरइया णं भंते । O एवं चेव, णिरवसेस, एवं जाव अहेसत्तमाए । एवं भवसिद्धियखुड्डागतेओगणेरइया वि । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं जाव कलिओगत्ति। णवरं परिमाणं जाणियव्वं, परिमाणं पुव्वमणियं नहा पढमुद्देसए। -भग० श० ३१ । उ ५ क्षुद्रकृत युग्म राशि प्रमाण भवसिद्धिक नारकी यावत् कल्योज भवसिद्धिक नारकी के विषय में औधिक गमक के अनुसार आयुष्य बंध के विषय में चानना चाहिए। ( अज्झवसाणजोगणिव्वत्तिएणं करणोवाएणं x x x।) वे अपने अध्यवसाय रुप, योग के व्यापार से व करणोपाय द्वारा परभव का आयुष्य बांधते हैं। •५३.१२ कृष्णलेशी भवसिद्धिक क्षुद्रकृतयुग्म नारकी के योग से परभव का आयुष्य बंध व्योज द्वापरयुग्म कल्योज कण्हलेस्सभवसिद्धियखुड्डागकडजम्मणेरइया गं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं जहेव ओहिओ कण्हलेस्सउद्देसओ तहेव गिरवसेसं चउसु वि जुम्मेसु भाणियव्वो जाव-अहेसत्तमपुढविकाहलेस्सखुड्डागकलिओगणेरइयाणं भंते ! कओ उववज्जति। तहेव । -भग० श० ३१ । ६ कृष्णलेशी-भवसिद्धिक क्षुद्रकृत युग्म प्रमाण नारकी यावत् कल्योज नारकी-धूम प्रभा से अधःसप्तम नारकी योग आदि के द्वारा परभव का आयुष्य बांधते हैं । औधिक कृष्ण लेश्या के अनुसार चारों युग्म का कथन कहना । .५३.१३ क्षुद्रयुग्मराशिप्रमाणनीललेशी भवसिद्धिक नारकी का योग आदि से परभव का आयुष्य बंध योज " " " " द्वापरयुग्म " " " " " कल्योज " " णोललेस्सभवसिद्धिया चउसुवि जुम्मेसु सहेव भागियव्वा नहा ओहिए णीललेस्सउद्देसए। -भग० श० ३१ । उ ७ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५ ) नीलेश्यावाले भवसिद्धिक नारकी के चारों युग्म का कथन नीललेशी औधिक उद्देशक के अनुसार कहना । ५३.१३ क्षुद्रयुग्म आदि कापोत लेशी भवसिद्धिक नारकी के योग आदि से परभव का आयुष्य बंध काउलेस्सा भवसिद्धिया चउसुवि जुम्मेसु तहेव उववाएयव्वा जहेव ओहिए काउले उद्देस | - भग० श० ३१ । उ८ कापोत लेश्यावाले भवसिद्धिक नारकी के चारों युग्म का निरुपण औधिक कापोत लेशी उद्देशक के अनुसार कहना । - ५३.१४ अभवसिद्धिक कृतयुग्म आदि चार युग्म के आयुष्य-बंधन योग आदि से जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि उद्देगा भणिया एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्देगा भाणियव्वा जाव काउलेस्सा उद्देसओ ति । - भग० श० ३१ । उ९ से १२ • ५३.१५ सम्यग्दृष्टि कृतयुग्म आदि चार युग्म और सयोगी आयुष्य बंध मिथ्यादृष्टि 11 एवं सम्मदिट्ठीहि वि लेस्सा संजुतेह चत्तारि उद्देसगा कायव्वा, नवरं सम्मदिट्ठी पढमबिएसु वि दोसु वि उद्देसएस अहेसत्तमापुढवीए ण उववाgraat | एवं भवसिद्धिएहि । मिच्छादिट्ठीहि विचसारि उद्देसगा कायव्वा जहा भवसिद्धियाणं । 11 - भग० श० ३१ । उ १३ से १६ '५३ १६ कृष्णपाक्षिक कृतयुग्म आदि के आयुष्य बंध योग आदि से शुक्लपाक्षिक 11 – भग० श० ३१ । उ १७ से २० 99 पक्खिहि वि लेस्सासंजुतेहि चत्तारि उद्देसगा कायव्या जहेव — भग० श० ३१ । उ २१ से २४ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुक्कपक्खिएहि एवं चेव चत्तारिउद्देसगा भाणियव्या। जाव वालुयप्पभापुढविकाउलेस्ससुक्कपक्खियखुड्डागकलिओगणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? तहेव जाव णो परप्पओगेणं उववज्जति । -भग० श० ३१ । उ २४ से २८ जैसा भवसिद्धिक के चार उद्देशक कहे वैसे ही अभवसिद्धिक के चार उद्देशक ( औधिक, कृष्णलेशी, नीललेशी, कापोतलेशी ) जानने । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि के लेश्या संयोग से चार उद्देशक जानने । लेकिन सम्यगदृष्टि के प्रथम-द्वितीय उद्दशक में तमतमाप्रमा पृथ्वी में उपपात न कहना। मिथ्यादृष्टि के भी लेश्या-संयोग से चार उद्देशक भवसिद्धिक की तरह जानने । इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक के लेश्या संयोग से चार उद्दशक भवसिद्धिक की तरह कहने। इसी प्रकार शुक्लपाक्षिक के भी चार उद्देशक कहने। यावत् बालुकाप्रभा पृथ्वी के कापोत लेशी, शुक्लपाक्षिक क्षुद्रकल्योज नारकी कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं-यावत् परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते हैं-तक कहना। '५३.१७ सयोगी क्षुद्रयुग्म नारको का उद्वर्तन (खुड्डागकडजुम्मनेरइया ) ते णं भंते ! से जहाणामए पवए. एवं तहेव । एवं सो चेव गमओ जाव आयप्पओगेणं उव्वट्टति, णो परप्पओगेणं उव्वट्ट ति। रयणप्पभापुढविखुड्डागकड० ? एवं रयणप्पभाए वि, एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं खुड्डामतेओगखुड्डागदावरजुम्मखुड्डागकलिओगा। गवरं परिमाणं जाणियव्वं, सेसं तं चेव। कण्हलेस्सकडजुम्मणेरइया-एवं एएणं कमेणं जहेत उववायसए अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया तहेव उवट्टणासए वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियवाणिरवसेसा। णवरं 'उब्वट्टति' त्ति अभिलावो भाणियन्वो, सेसं तं चेव। --भग० श० ३२ । सू १ से ५ .५३.१ से १५३-१६ में जैसे उपपात के २८ उद्देशक कहे उसी प्रकार उद्वर्तन के २८ उद्देशक कहने लेकिन उपपात के स्थान पर उद्वर्तन कहना। अस्तु वे सब आत्म-प्रयोग से उद्वर्तते हैं, परप्रयोग से नहीं । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०७ ) ५४ सयोगी महायुग्म जीव ५४.१ सयोगी महायुग्म एकेन्द्रिय जीव ( कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया ) जीवा x x x णो मणजोगी, णो वइजोगी, कायजोगी।xxx। एवं एएसु सोलससु महाजुम्मेसु एक्को गमओ। -भग० श० ३५ । श• १ । उ १ । सू ९ । १९ ___ कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीव मनोयोगी और वचनयोगी नहीं है, काययोगी होते हैं। इसी प्रकार सोलह महायुग्मों के जीव काययोगी होते हैं, मनोयोगी, वचनयोगी नहीं होते हैं। एवं एए ( णं कमेणं ) एक्कारस उद्देसगा। - भग० श० ३५ । श० १ । उ ११ । सू ९ इसी क्रम से निम्नलिखित ग्यारह उद्देशक कहने । ग्यारह उद्देशक इस प्रकार है- इन ग्यारह उद्देशकों में प्रत्येक उद्देशक में सोलह महायुग्म होते हैं। १-कृतयुग्म-कृतयुग्म ७–प्रथमअप्रथम समय० कृतयुग्म-कृतयुग्म २-पढमसमय० कृतयुग्म० ८-प्रथमचरम समय० ॥ ३-अपढम समय० कृतयुग्म० ९-प्रथमअचरम समय० ॥ ४-चरम समय० कृतयुग्म० १०-चरमचरम समय० ॥ ५-अचरम समय० कृतयुग्म० ११-तथा चरमअचरम समय० कृतयुग्म० ६-प्रथमप्रथम समय० कृतयुग्म० सयोगी महायुग्म एकेन्द्रिय जीव ( कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया)।xxx। एवं जहा ओहिउद्देसए।xxx। एवं सोलस वि जुम्मा भाणियन्वा। -भग० श० ३५ । श० २ कृष्णलेश्यावाले कृतयुग्म-कृतयुग्म राशि एकेन्द्रिय के जीव मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं, काययोगी होते हैं। इस प्रकार सोलह महायुग्मों के जीव मनोयोगी, वचनयोगी नहीं होते हैं, काययोगी होते हैं । ( पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्म-एगिदिया ) जहा पढमसमयउद्देसओ।xxx। एवं जहा ओहियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया तहा कण्हलेस्ससए वि एक्कारस उद्देसगा भाणियव्वा ।xxx। -भग० श० ३५ । श. २ sc Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०८ ) प्रथम समय के कृष्णलेश्यावाले कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीव मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं, काययोगी होते हैं। औधिकशतक के ग्यारह उद्देशक के समान कृष्णले श्यावाले शतक के भी ग्यारह उद्देशक कहने । सब एकेन्द्रिय जीव काययोगी होते हैं। एवं नीललेस्सेहि वि सयं कण्हलेस्ससयसरिसं। एक्कारस उद्देसगा तहेव। एवं काउलेस्सेहि वि सयं कण्हलेस्ससयसरिसं। -भग० श० ३५ । श० ३ । ४ नीललेशी एकेन्द्रिय महायुग्मशतक के कृष्णलेशी एकेन्द्रिय महायुग्मशतक के समान ग्यारह उद्देशक कहने, सिर्फ काययोगी होते हैं । कापोतलेशी एकेन्द्रिय महायुग्मशतक के कृष्णलेशी एकेन्द्रिय महायुग्म के समान ग्यारह उद्देशक कहने, वे सब काययोगी होते हैं । ( भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया ) जहा ओहियसयं तहेव। णवरं एक्कारससु वि उद्देसएसु ।xxx। सेसं तहेव । -भग० श. ३५ । शतक ५ भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीव औधिकशतक के अनुसार कहना । इनके ग्यारह उद्देशकों में काययोगी कहना, मनोयोगी व वचनयोगी नहीं कहना । कण्हलेस्सभवसिद्धिय-कडजुम्मकडजुम्म-एगिदिया) एवं कण्हलेस्स भवसिद्धियएगिदियएहि वि सयं बिइयसयकण्हलेस्ससरिसं भाणियध्वं । एवं णीललेस्सभवसिद्धियएगिदियएहि वि सयं । एवं काउलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि तहेव एकारस-उद्देसगसंजुत्तं xxx। -भग. श० ३५। श० ६ । ७ । ८ कृष्णलेशी भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय के विषय में कृष्णलेश्या के दूसरे शतक के समान यह शतक भी कहना चाहिए। सोलह महायुग्म सहित इग्यारह उद्देशक के जीव काययोगी होते हैं। इसी प्रकार नीललेश्या वाले भबसिद्धिक एकेन्द्रिय का शतक कहना। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०९ ) इसी प्रकार कापोतलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के भौ ग्यारह उद्देशक सहित यह शतक है । सब काययोगी होते हैं 1 जहा भवसिद्धिएहि चत्तारि सयाई भणियाइ एवं अभवसिद्धिएहि वि चारि साणि लेस्सासंजुत्ताणि भाणियव्वाणि x x x 1 - भग० श० ३५ । श० ९ से १२ जैसे भवसिद्धिक के चार शतक कहे वैसे ही अभवसिद्धिक के भी चार शतक लेश्या सहित कहते । सब काययोगी होते हैं । • ५४-२ सयोगी महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव ( कडजुम्मकडजुम्म बेइ दिया णं भंते ! ) x x x | णो मणजोगी वयजोगी वा कायजोगी वा । x x x एवं सोलससुवि जुम्मेसु । - भग० श० ३६ । श ० १ । उ १ 1 सू १, २ कृतयुग्म - कृतयुग्म द्वीन्द्रिय के जीव मनोयोगी नहीं होते हैं, किन्तु वचनयोगी और काययोगी होते हैं । इसी प्रकार सोलह युग्मों में कहना । ( पढमसमय कडजुम्मकडजुम्म बेइ दिया ) णो मणजोगी णो वयजोगी, कायजोगी । x x x । एवं एए वि जहा एगिदियमहाजुम्मेसु एक्कारस उद्देगा तहेव भाणियव्वा । x x x - भग० श० ३६ | श ० १ । उ २ से ११ । सू १ दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छट्ट, सातवें, आठवें, नववें, दसवें, ग्यारहवें उद्दे शकों में मनोयोग नहीं होता है, वचनयोग और काययोग होता है । प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म कृतयुग्म राशि द्वीन्द्रिय के जीव मनोयोगी और वचनयोगी नहीं होते हैं, परन्तु काययोगी होते हैं । सोलह महायुग्मों का इसी प्रकार जानना चाहिए । ( कण्हलेस कडजुम्मकडजुम्मबेइ दिया ) कण्हलेस्सेसु वि एक्कारसउद्देगसंत्तं स्यं । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१० ) एवं गीललेस्सेहि वि सयं । एवं काउलेस्सेहि वि॥ भवसिद्धिय-कडजुम्मकडजुम्म-बेईदिया णं भंते ! एवं भवसिद्धियसया वि चत्तारि तेणेव पुव्वगमएणं णेयव्वा, णवरं सत्वे पाणा० ? णो इण? सम8। सेसं तहेव ओहियसयाणि चत्तारि। जहा भणसिद्धियसयाणि चत्तारि एवं अभवसिद्धियसयाणि चत्तारि भाणियन्वाणि । गवरं सम्मत्त-णाणाणि पत्थि, सेसं तं चेव । -~-भग० श० ३६ । श० २ से १२ कृष्णलेशी कृतयुग्म-कृतयुग्म द्वीन्द्रिय जीवों के योग के सम्बन्ध में कृतयुग्म-कृतयुग्म औधिक द्वीन्द्रिय शतक की तरह ग्यारह उद्देशक सहित महायुग्म शतक कहना। लेकिन लेश्या, कायस्थिति तथा आयुस्थिति एकेन्द्रिय कृष्णलेशी शतक की तरह कहने। इसी प्रकार सोलह महायुग्म शतक कहने । इसी प्रकार नीललेशी तथा कापोतलेशी शतक भी कहने । भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म द्वीन्द्रिय के सम्बन्ध में भी पूर्व गमक की तरह चार शतक कहते । विशेष में सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्व यावत् अनंतवार उत्पन्न हुए हैं ऐसा नहीं है। जिस प्रकार भवसिद्धिक बेइन्द्रिय जीवों के चार शतक कहे. उसी प्रकार अभवसिद्धिक बेइन्द्रियों के भी चार शतक कहते । इनमें सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होता है । ५४.३ सयोगी महायुग्म वीन्द्रिय जीव _____ कडजुम्मकडजुम्मतेइ दिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं तेइंदिएसु वि बारससया कायव्वा बेइदियसयसरिसा। णवरं ओगाहणा जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। ठिई जइण्णण एक्कं समयं, उक्कोसेणं एकूणवण्ण राई दियाई, सेसं तहेव । ---भग० श० ३७ । सू १ महायुग्म द्वीन्द्रिय शतक की तरह महायुग्म द्वीन्द्रिय जीवों के विषय में- योग के विषय में कहना । बारह शतक कहना। __ अस्तु.-द्वितीय शतक में प्रथम समयोत्पन्न कृतयुग्म-कृतयुग्म राशि त्रीन्द्रिय मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं परन्तु काययोगी होते हैं। बाकी ग्यारह शतक में Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३११ ) वचनयोगी व काययोगी होते हैं परन्तु मनोयोगी नहीं होते हैं । सोलह महायुग्म का इस प्रकार ही कहना । - ५४·४ सयोगी महायुग्म चतुरिन्द्रिय जीव चरिदिएहि वि एवं चेव बारस सया कायव्वा, नवरं ओगाहणा जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई । समयं, उक्कोसेणं छम्मासा । सेसं जहा बेइ दियाणं । ठिई जहणेणं एक्कं - भग० श० ३८ । सू १ इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय के भी बारह शतक सोलह महायुग्म के साथ कहने चाहिए । द्वितीय शतक में काययोगी होते हैं, परन्तु मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं । ग्यारह शतकों में वचनयोगी व काययोगी होते हैं, परन्तु मनोयोगी नहीं होते हैं । • ५४. ५ सयोगी असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ( कडजुम्मकडजुम्म असष्णिपंचिदिया ) जहा बेई दियाणं तहेव असण्णिसु वि बारस सया कायव्वा । - भग० श० उ ३९ । स १ कृतयुग्म - कृतयुग्मराशि असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के भी ( बेइन्द्रिय शतक के समान ) बारह शतक कहते । प्रथम समय कृतयुग्म कृतयुग्म असंज्ञी पंचेन्द्रिय में काययोग होता है, परन्तु वचनयोग- मनोयोग नहीं होते हैं । बाकी ग्यारह शतक में वचनयोगी- काययोगी होते हैं, परन्तु मनोयोगी नहीं होते हैं । सोलह महायुग्म कहने - बारह शतक सहित । नोट - असंज्ञी मनुष्य व असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय इन दोनों का असंज्ञी पंचेन्द्रिय में आविर्भाव है । - ५४.६ सयोगी महायुग्म संज्ञो पंचेन्द्रिय कडजुम्मकडजुम्मसणिपंचिदिया णं भंते ! x x x मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी xxx एवं सोलसु वि जुम्मेसु भाणियव्वं । पढमसमय कडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिदिया णं बेदियाणं पढमसमइयाणं जाव अनंतक्खुत्तो x x x वयजोगी, कायजोगी ) x x x एवं सोलसु वि जुम्मेसु भाणियत्वं । भंते ! x x x सेसं जहा ( णो मणजोगी, जो एवं एत्थवि एक्कारस उद्देगा तहेव । - भग० श० ४० । श० १ सू २, ५, ६ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१२ ) कृतयुग्म- कृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में सोलह महायुग्मों के जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं । इस प्रकार सोलह महायुग्मों के जीवों के विषय में जानना चाहिए । प्रथम समय कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सोलह महायुग्मों के जीव काययोगी होते हैं, मनोयोगी, वचनयोगी नहीं होते हैं । यहाँ भी ग्यारह उद्ददेशक है बाकी सब उद्देदेशक के जीव मनोयोगी-वचनयोगी व काययोगी होते हैं । कण्हलेस कडजुम्मकडजुम्म-सणिपंचिदिया णं भंते ! x x x सेसं जहा एएस चेव पढमे उद्देसए जाव अनंतक्खुत्तो । ( मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी एवं सोलसु वि जुम्मेसु । > पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसष्णिपंचिदिया णं भंते ! x x x जहा सणिपंचिदियपढम समयउद्देसए तहेव णिरवसेसं xxx एवं सोलसु वि जुम्मे । एवं एए वि एक्कारस वि उद्देसगा कण्हलेस्ससए । - भग० श० ४० । श० २ । सू १, २ कृष्णलेशी वाले कृतयुग्म कृतयुग्मराशि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी होते हैं । प्रथम समय के कृष्णलेशी कृतयुग्म कृतयुग्मराशि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव काययोगी होते हैं, मनोयोगी, वचनयोगी नहीं होते हैं । इस प्रकार सोलह महायुग्मों के विषय में I जानना । यहाँ भी ग्यारह उद्दे शक है । बाकी सब उद्देशक के जीव मनोयोगी, वचनयोगी क काययोगी होते हैं । एवं गोललेस्सेसु विसयं । इसी प्रकार नीललेश्यावाले जीवों के विषय में जानना चाहिए । एवं काउलेस्सस्यं वि । --भग० श० ४० श० ३ भग० श० ४० । श०४ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३ ) इसी प्रकार कापोतलेश्या के विषय में भी शतक है । एवं तेउलेस्सेसु वि सयं। -भग. श. ४० । श. ५ इसी प्रकार तेजोलेश्या में भी शतक हैं । जहा तेउलेस्सासयं तहा पम्हलेस्सासयं वि। भग. श. ४० । श.६ तेजोलेश्या शतक के समान पद्मलेश्या का शतक है। सुक्कलेस्ससयं जहा ओहियसमं । -भग. श. ४० । श० ७ शुक्ललेश्या के शतक भी औधिक शतक के समान है। भवसिद्धियक जुम्मकडजुम्मसणिचिविया x x x जहा पढम सण्णिसयं तहा णेयव्वं भवसिद्धियाभिलावेणं ।xxx। -भग० श. ४० । श. ८ प्रथम संज्ञी शतक के अनुसार भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय के विषय में जानना। सोलह महायुग्मों के विषय में जानना चाहिए। सभी जीव मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी होते हैं। लेकिन प्रथम समय के सभी महायुग्मों के जीव केवल काययोगी होते है। ( कण्हलेस्समवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिदिया) एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहियकण्हलेस्ससयं । एवं गोललेस्सभवसिद्धिए वि सयं । एवं जहा ओहियाणि सण्णिपंचिदियाणं सत्त सयाणि भणियाणि, एवं भवसिद्धिएहि वि सत्त सयाणि कायब्वाणि । -भग० श. ४० । श० ९ से १४ कृष्णलेशी-भवसिद्धिक-कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि-संज्ञी-पंचेन्द्रिय जीव के विषय में कृष्णलेश्या वाले औधिक शतक के अनुसार कहना। नौललेश्या वाले भवसिद्धिक शतक भी इसी प्रकार है। अस्तु-संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सात औधिक शतक कहे हैं उसी प्रकार भवसिद्धिक जीवों के भी सात शतक कहने चाहिए। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) अस्तु — उनमें प्रथम समय के सोलह महायुग्मों के जीव केवल काययोगी होते हैं, बाकी सब मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी होते हैं । अभवसिद्धियषडजुम्मकडजुम्मसणिपंचिदिया णं भंते! कओ उवव ज्जति ? उयवाओ तहेव सए । xxx । एवं सोलससु वि जुम्मेसु । - भग० श० ४० । श० १५ । सू १ अभवसिद्धिक- कृतयुग्म कृतयुग्म-संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव के विषय में कृष्ण लेशी शतक के अनुसार जानना । वे मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी होते हैं । इस प्रकार सोलह महायुग्म को जानना । अणुत्तरविमाणवज्जो । x x x जहा पढमसमयअभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसष्णिपंचिदिया णं मंते ! कओ उववज्जंति ? जहा सण्णिणं एकसमयउद्देसए तहेव । x x x । एवं एत्थ वि एक्कारस उद्देसगा कायव्वा xxx भग० श ४० । श० १५ । सू २ प्रथम समय के अभवसिद्धिक कृतयुग्म - कृतयुग्म राशि संज्ञी पंचेन्द्रिय के विषय में प्रथम समय के संज्ञी उद्देशक के समान कहना । अस्तु वे मनोयोगी व वचनयोगी नहीं होते हैं परन्तु काययोगी होते हैं । यहाँ भी ग्यारह उद्देशक है। बाकी सबके उद्दे शक में तीनो योग होते हैं । उववज्जं ति ? कहना | कण्हलेस अभवसिद्धिय - कडजुम्मकडजुम्मसणि-पंचिदिया णं भंते! कभ कण्हलेस - जहा एएस चेव ओहियसयं तहा कण्हलेस्ससयं विxxx कृष्णलेशीअभवसिद्धिककृतयुग्म कृतयुग्म राशि संज्ञी शतक की तरह कहना । प्रथम समय के काययोगी होते हैं, हैं। बाकी सब तीनो योगवाले होते हैं । - भग० ४० । श० १६ पंचेन्द्रिय के विषय में औधिक मनोयोगी वचनयोगी नहीं होते एवं छहि वि लेस्साहि छ सया कायव्वा जहा कण्हलेस सयं x x x -भग० श० ४० । श० १७-२१ जिस प्रकार कृष्णलेश्या का शतक कहा उसी प्रकार छओं लेश्या का शतक Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१५ ) .५५ सयोगी राशियुग्म जीव .५५.१ योग और कृतयुग्म-राशि (राशिजुम्मकडजुम्मणेरइया ) ते णं भंते ! जीवा कहिं उववज्जति । गोयमा! से जहाणामए पवए पवमाणे-एवं जहा उववायसए जाव को परप्पओगेणं उववज्जति। --भग० श.४१ । उ१। सू ८ कृतयुग्मराशि नारकी-जिस प्रकार कोई पुरुष कूदता हुआ अध्यवसाय निर्वर्तित क्रिया-साधन द्वारा उस स्थान को छोड़ कर भविष्यत् काल में अगले स्थान को प्राप्त होता है उसी प्रकार नारकी आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं। (राशिजुम्मकडजुम्मअसुरकुमारा) जहेव णेरइया तहेव गिरवसेसं । एवं नहा पंचिदियतिरिक्खजोणिया ।x x x मणुसा वि एवं चेव xxx। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा परइया। -भग० श० ४१ । उ १ सू १४, २३ कृतयुग्म राशि असुरकुमार के विषय में नारकी के समान जानना चाहिए। यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक के विषय में ऐसा ही जानना चाहिए। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकदेव का कथन भी नारकी के समान जानना चाहिए। .५५:२ सयोगी राशि युग्म जीव ( रासीजुम्मतेओयणेरइया) सेसं तं चेव जाव बेमाणिया। गवरं उववाओ सन्वेसि जहा वक्कतोए। --भग• श. ४१ । उ २ ( रासीजुम्मदावरजुम्मणेरइया ) सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया। -भग० श० ४१ । उ ३ ( रासीजुम्मकलिओगणेरइया ) सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया। -भग० श० ४१ । उ ४ राशियुग्म में त्र्योज राशि नारकी यावत् वैमानिक देव प्रथम उद्देशक की तरह आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं परन्तु परप्रयोग से नहीं। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राशियुग्म में द्वापर युग्म राशि नारकी यावत् वैमानिक देव प्रथम उद्देशक के अनुसार आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं । राशियुग्म में कल्पोज राशि नारकी यावत् वैमानिक देव प्रथम उद्देशक के अनुसार आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं। ( कण्हलेस्सरासीजुम्मकडजुम्मणेरइया ) कओ उववज्जति ? उववाओ जहा धूमप्पभाए, सेसं जहा पढमुद्देसए। असुरकुमाराणं तहेब, एवं जाव वाणमंतराणं। -भग० श० ४१ । उ ५ कृष्णलेशी राशि युग्म कृतयुग्म नारकी यावत् वाणव्यंतरदेव आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं। कण्हलेस्सतेओएहि वि एवं चेव उद्देगओ। कन्हलेस्सदावरजुम्मेहिं एवं चेव उद्देसओ। कण्हलेस्सकलिओएहि वि एवं चेव उद्देसओ। -भग. श ४१ श. ६, ७, ८ कृष्णलेशी राशि युग्म में व्योजराशि, कृष्णलेशी राशि युग्म में द्वापर युग्म तथा कृष्णलेशी राशि युग्म में कल्योज राशि दंडक के जीवों के ( ज्योतिषी-वैमानिक को छोड़कर ) विषय में प्रथम उद्देशक की तरह आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं। जहा कण्हलेस्सेहिं एवं नीललेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा भाणियन्वा जिरवसेसा। णवरं रइयाणं उववाओ जहा वालु यप्पभाए, सेसं तं चेव । -भग• श ४१ श० ९ से १२ कृष्णलेश्यावाले जीवों के अनुसार नीललेश्यावाले जीवों के भी चार उद्देशक सम्पूर्ण कहना चाहिए। अस्तु नारकी यावत् वाणव्यंतरदेव आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं। काउलेस्सेहि वि एवं चेव चत्तारि उद्देसगा कायव्वा। णवरं रइयाणं उववाओ जहा रयणप्पभाए, सेसं तं चेव । -भग० श ४१ श० १३ से १६ कापोत लेश्या के भी इसी प्रकार चार उद्देशक कहना । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७) तेउलेस्सराशिजुम्मकडजुम्मअसुरकुमाराराणं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं चेव गवरं जेसु तेउलेस्सा अत्थि तेसु भाणियव्वं । एवं एए वि कण्हलेस्सासरिसाचत्तारि उद्देसगा कायव्वा । -भग. श. ४१ । श०१७ से २० राशियुग्म में कृतयुग्म राशि तेजोलेश्यावाले असुरकुमार का कथन पूर्ववत् है । किन्तु जिनमें तेजो लेश्या पाई जाती हो, उन्हीं के कहना। इस प्रकार कृष्णलेश्या के समान चार उद्देशक कहना । एवं पम्हलेस्साए वि चत्तारि उद्दसगा कायव्वा। पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वेमाणियाण य एएसि पम्हलेस्सा, सेसाणं पत्थि। -भग० श० ४१ । श० २१ से २४ ____ इसी प्रकार पद्मलेश्या के भी चार उद्देशक जानो। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य और वैमानिकदेव में पद्मलेश्या होती है, शेष में नहीं होती है । जहा पम्हलेस्साए एवं सुक्कलेस्साए घि चत्तारि उद्देसगा कायवा। णवरं मणुस्साणं गमओ जहा ओहिउद्देसएसु, सेसं तं चेव। ~भग० श. ४१ । श० २५ से २८ पद्मलेश्या के अनुसार शुक्ललेश्या के भी चार उद्देशक कहना चाहिए। परन्तु मनुष्य के लिए औधिक उद्देशक के अनुसार है। शेष पूर्ववत् । अस्तु शुक्ललेशी राशि युग्म में कृतयुग्म राशि आदि चारों राशि के जीव ( मनुष्य-तिर्यंच-पंचेन्द्रिय-बैमानिकदेव) आत्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं। भवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मणरइया णं भते! को उववजंति ! जहा ओहिया पढमगा चत्तारि उद्देसगा तहेव गिरवसेसं एए, चत्तारि उद्देसगा। -भग० श० ४१ । श० २९ से ३२ भवसिद्धिक राशि युग्म में कृतयुग्म राशि नारकी आदि के विषय में पहले चार उद्देशक के अनुसार यहाँ भी चार उद्देशक सम्पूर्ण कहना चाहिए । कण्हलेस्सभवसिद्धियरासोजुम्मकडजुम्मणेरइया णं मंते! को उववज्जति ? जहा कण्हलेस्साए चत्तारि उद्देसगा भवंति तहा इमे वि भवसिद्धियकण्हलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा । -भग.व. ४१ । श०३३ से ३६ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१५ ) राशि युग्म में कृतयुग्म राशि कृष्णलेशी भवसिद्धिक नारकी आदि के विषय में कृष्ण लेश्या के चार उद्देशक के समान भवसिद्धिक कृष्णलेशी जीवों के चार उद्देशक कहना चाहिए | एवं जीलले सभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा । एवं काउलेस्सेहि विचत्तारि उद्देगा। तेउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देगा ओहियसरिसा पहले सेहि वि चत्तारि उद्दसगा । चाहिए। - भग० श० ४१ । म० ३७ से ४ - भग० श० ४१ । श० ४१ से ५६ इसी प्रकार नीललेश्यावाले भवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक जानना सुक्कलेस्सेहि कि चत्तारि उहसगा ओहियसरिसा चाहिए । इसी प्रकार कापोतलेश्यावाले भवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक जानना इसी प्रकार तेजोलेश्यावाले भवसिद्धिक जीवों के भी ओधिक के समान चार उद्देश हैं। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले भवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक हैं। शुक्ललेश्यावाले भवसिद्धिक जीवों के भी अधिक के समान चार उद्देशक जानो । १- अभवसिद्धिय रासीजुम्मकडजुम्मणेरइया गं भंते ! कओ उववज्जंति ? जहा पढमोउद्देगो । णवरं मणुस्सा णेरइया य सरिसा भाणियत्वा । सेस तहेव । सेवं भंते ! एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देगा । - भग० श० ४१ । श० ५७ से ६० कृतयुग्म राशि अभवसिद्धिक नारकी आदि का प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए । लेकिन मनुष्य और नारकी का कथन समान जानो । २ - कण्हलेस - अभवसिद्धिय रासीजुम्मकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं चेव चत्तारि उद्देसगा । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१९ ) ३ – एवं पोललेस्श - अभदसिद्धिय-रासीजुम्मकडजुम्मणेरइयाणं चत्तारि उद्देगा । जानो । ४ - काउलेस्सेहि विचत्तारि उद्देगा । ५ - तेउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देगा । ६ – पम्हलेस्सेहि बि चत्तारि उद्देगा । ७ - सुक्कलेस्सअभवसिद्धिए वि चत्तारि उद्देगा । राशियुग्म में कृतयुग्म राशि कृष्णलेशी अभवसिद्धिक नारकी आदि का प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए । इसी प्रकार नीललेश्यावाले कृतयुग्म राशि अभवसिद्धिक जीव के चार उद्देशक इसी प्रकार कापोतलेशी अभवसिद्धिक जौवों के भी चार उद्दे शक है । तेजोलेशी अभवसिद्धिक जीवों के भी ऐसे ही चार उद्देशक जानो । पद्मलेशी अभवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्दे शक हैं । शुक्ललेशी अभवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्दे शक है 1 सम्मदिट्ठीरासो जुम्मकडजुम्मरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? एवं जहा पढमो उद्देओ । एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्देगा भवसिद्धियसरिसा कायव्वा । - भग० श० ४१ । श० ८५ से ८० राशियुग्म में कृतयुग्म राशि सम्यग्दृष्टि नारकी आदि प्रथम उद्देशक के समान यह उद्देशक भी है। ऐसे ही चारों युग्म में भवसिद्धिक के समान चार उद्ददेशक कहना । कण्हले स्ससम्मदिट्ठीरासोजुम्मकडजुम्मणेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? एए वि कण्हलेस्ससरिसा चत्तारि वि उद्देसना कायन्वा । एवं सम्मदिट्ठीसु वि भवसिद्धिय सरिसा अट्ठावीस उद्देसगा कायव्वा । - भग० श० ४१ । श० ५९ से ११२ राशियुग्म में कृतयुग्म राशि कृष्णलेशी सम्यग्दृष्टि नारकी आदि कृष्णलेश्याषाले के समान चार उद्देशक जानना चाहिए । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२० ) इस प्रकार सम्यगदृष्टि जीवों के भी भवसिद्धिक जीवों के समान अट्ठाईस उद्देशक कहना। मिच्छादिट्ठीरासीजुम्मकडजुम्मणेरइया मंते ! को उववज्जति ? एवं एत्थ वि मिच्छादिट्ठीअभिलावेण अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीस उद्देसगा कायव्वा । -भग श० ४१ । श० ११३ से १४० राशियुग्म में कृतयुग्मराशि मिथ्यादृष्टि नारकी आदि के विषय में अभवसिद्धिक जीवों के समस्त अट्ठावीस उद्देशक जानना चाहिए। कण्हपक्खियरासीजुम्मका जुम्मणेरइया गं मंते ! को उववज्जति ? एवं एत्थ वि अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायवा। -भग• श• ४१ । श• १४१ से १६८ सुक्कपक्खियरासीजुम्मकडजुम्मणेरइया गं मंते। कओ उववज्जति ? एवं एत्थ वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्दसगा भवंति। एवं एए सके वि छण्णउत्तं उद्दसगसयं भवंति रासोजुम्मसयं । जाव सुक्कलेस्सा सुक्कपक्खिय रासीजुम्मकलिओगवेमाणिया जाव जइ सकिरिया तेगेव भवग्गहणेगं सिझंति नाव अंतं करेंति ? मो इण8 सम8। -भग० श.४१। श. १८९ से १९६ कृष्णपाक्षिक राशिजुम्म कृतयुम्म नारकी आदि के विषय में अभवसिद्धिक के समान अट्ठावीस उद्देशक जानना। राशियुग्म में कृतयुग्मराशि शुक्लपाक्षिक नारकी आदि के विषय में भवसिद्धिक के समान अट्ठावीस उद्देशक जानना चाहिए। .५६ सयोगी जीव और पापकर्म आदि का करना जीवे णं भंते ! पावं कम्मं किं करिसु करेति करेस्सति ? करेसु करेति न करिस्सति ? करिसु न करेति करेस्सति ? करितु न करेति न करेस्सति ? गोयमा! अत्थेगतिए करिसु करेति करेस्सति, अत्यंगतिए करिसु करेति न करेस्सति, अत्थेगतिए करिसुनकरेति करेस्सति, अत्थेगतिए करिसु न करेति न करेस्सति । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२१ ) .५६ १ सयोगी जीव और पापकर्म आदि का करना सलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं एएणं अभिलावेणं जच्चेव बंधिसए वत्तव्वया सच्चेव गिरवसेसा भाणियब्वा, तहेव णवदंडगसंगहिया एक्कारस उद्देसगा भाणियवा। -भग० श० २७ । उ १ से ११ पाप-कर्म बंधन की तरह सयोगी जीवों में चार भंग कहना। मनोयोगी-वचनयोगी और काययोगी जीवों में चार भंग पाये जाते हैं। अयोगी जीवों में अन्तिम एक भंग पाया जाता है। सयोगी जीव ने पाप-कर्म तथा अष्ट कर्म किया है इत्यादि उसी प्रकार कहने जैसे कर्म बंध (६३) नव दंडक सहित ग्यारह उद्देशक कहे हैं। नोट-चार भंग १-किसी जीव ने पाप-कर्म किया था, करता है और करेगा। २.-किसी जीव ने पाप-कर्म किया था, करता है और नहीं करेगा। ३-किसी जीव ने पापकर्म किया था, नहीं करता है और करेगा। ४ – किसी जीव ने पापकर्म किया था, नहीं करता है और नहीं करेगा। छन्वीसवें शतक में बंध का, सताइसवें शतक में 'करण' का कथन किया। यद्यपि बंध और करण में कोई अन्तर नहीं है। तथापि यहाँ जो पृथक् कथन किया है इसका कारण यह बताया है कि जीव की जो कर्मबंध क्रिया है वह जीव कृत ही है। अथवा बंध का अर्थ है -सामान्य रूप में कर्म को बांधना और करण का अर्थ हैकर्मों को निधत्तादि रूप में बांधना, जिससे विपाकादि रूप से उसका फल अवश्य भोगना पड़े। .५७ सयोगी जीव और पाप कर्मों का समर्जन-समाचरण सयोगी जीव और ज्ञानावरणीय आदि अंतराय कर्म का समर्जन-समाचरण १ सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्म कहिं समजिणिसु कहिं समायरिंसु । ___ एवं चेव ( गोयमा ! १-सव्वेवि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा। २–अहवा तिरिक्खजोणिएसु य गैरइएसु य होज्जा। ३- अहवा तिरिक्खजोणिएसु य मणुस्सेसु य होज्जा। ४-अहवा तिरिक्खजोणिएसु य देवेसु य होज्जा । ५–अहवा तिरिक्खजोगिएसु य रइएसु य मणुस्सेसु य होज्जा Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२ ) ६-अहवा तिरिक्खजोणिएसु य रइएसु य देवेसु य होज्जा। ७-अहवा तिरिक्खजोणिएसु य मणुस्सेसु य देवेसु य होज्जा। -अहवा तिरिक्खजोणिएसु य रइएसु य मणुस्सेसु य देवेसु होज्जा )।x x x एवं जाव अणागारो वउत्ता। -भग० श०२८ । उ १ । सू २ सयोगी, मनोयोगी-वचनयोगी और काययोगी जीव ने किस गति में पाप कर्मों का समर्जन (ग्रहण ) किया था और किस गति में आचरण किया था ? हे गौतम ! (१) सभी सयोगी जीव यावत् काययोगी जीव तिर्यंच गति में थे। (२) अथवा सभी सयोगी जीव तिर्यंच-योनि और नरक-योनि में थे। (३) अथवा सभी सयोगी जीव लियंच योनि और मनुष्य योनि में थे। (४) अथवा सभी सयोगी जीव तिर्यंच योनि और देव में थे। (५) अथवा सभी सयोगी जीव तिर्यंच योनि, नरयिक और मनुष्य में थे। (६) अथवा सभी सयोगी जीव तिर्यंच योनि और नैरयिक और देव थे । (७) अथवा सभी सयोगी जीव तिर्यंच योनि, मनुष्य और देव थे। (८) अथवा सभी सयोगी जीव तिर्यच योनि, नैरयिक, मनुष्य और देव थे। उस-उस गति में सयोगी यावत् काययोगी जीवों ने पाप-कर्म का समर्जन और समाचरण किया था। नोट-पाप कर्मों का समर्जन और समाचरण अर्थात् पाप-कर्म का हेतु भूत पापक्रिया का आचरण । जीव ने पाप-कर्म के समाचरण से पाप-कर्म का उपार्जन किया था। अथवा समर्जन और समाचरण शब्द पर्यायवाची है। अथवा दोनों शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं। .५७.१ सयोगी तारकी आदि के दंडक के जीव और पाप कर्मों का समन समाचरण रइया णं भंते ! पावं कम्मं कहिं समज्जिणिसु, कहिं समारसु । गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्ज त्ति-एवं चेव अट्ठ भंगा भाणियब्धा । एवं सव्वत्थ अट्ठ भंगा, एवं जाव अणागारोवउत्ता वि। एवं जाव वैमाणियाणं। -भग० श. २८ । उ १ । सू ३ सभी सयोगी नारकी तिर्यंच योनिक थे इत्यादि पूर्ववत् आठ भंग । (पाप कर्म का समर्जन-समाचरण की अपेक्षा ) यावत् वैमानिक देवों तक कहना। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२३ ) - ५७ २ सयोगी जीव और ज्ञानावरणीय कर्म आदि अष्ट कर्म का समर्जन समाचरण xxx एवं णाणावरणिज्जेण वि दंडओ | एवं जाव अंतराइएणं । एवं एए जीवादीया वैमाणियपज्जवसाणा णव दंडगा भवंति । - भग० श० २८ । उ १ । सू ३ इसी प्रकार सयोगी नारकी में ज्ञानावरणीय कर्म के समर्जन समाचरण की अपेक्षा आठ भंग कहना | सयोगी-मनोयोगी - वचनयोगी- काययोगी-अयोगी जीवों ने ज्ञानावरशीय कर्म यावत् अंतराप कर्म - अष्ट कर्मों का समर्जन तथा समाचरण आठ विकल्पों में किया था । इसी प्रकार नारकी यावत् वैमानिक जीवों ने पाप कर्म तथा अष्ट कर्मों का समर्जन- समाचरण आठ विकल्पों में किया था । पाप कर्म तथा अष्ट कर्म के अलग-अलग नौ दंडक कहने । • ५७.३ सयोगी अनंतरोपपन्नक नारकी और पापकर्म का समर्जन- समाचरण अनंतवणगाणं भंते । णेरड्या पावं कम्म कहिं समजिणसु कहि समायरंसु ? गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिवखजोणिएसु होज्जा । एवं एत्थ वि अट्ठ भंगा । एवं अनंतरोववण्णगाणं णेरइयाईणं जस्सं जं अस्थि लेस्साईयं अणागारोवओगपज्जवसाणं तं सव्वं एयाए भयणाए भाणियव्वं जाव वेमाणियाणं । वरं अणंतरेसु जे परिहरियव्या ते जहा बंधिसए तहा इहंपि । - भग० श० २८ ।उ २ । सू १ सयोगी-काययोगी अनंतरोपपन्नक नारकी सभी तिर्यचयोनिक थे मनोयोग-वचनयोग नहीं होता है । आठ भंग यहाँ भी कहना चाहिए । अनंतरोपपन्नक वैमानिक देवों तक जानना । • ३ सयोगी अनंतरोपपन्नक नारकी और ज्ञानावरणीय कर्म का बंध सयोगी अनंतरोपपन्नक नारकी और दर्शनावरणीय से अंतराय कर्म का बंध इत्यादि पूर्वोक्त यावत् सयोगी एवं णाणावर णिज्जेण वि दंडओ, एवं जाव अंतराइएणं णिरवसेसं । एसो वि णवदं डगसंगहिओ उद्देसओ माणियत्वो । - भग० श० २८ । उ२ । सू १ सयोगी और काययोगी अनंतरोपपन्नक नारकी ज्ञानावरणीय कर्म का आठ स्थानों से पापकर्मों का समाचरण किया था । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४ ) इसी प्रकार दर्शनावरणीय यावत् अंतराय कर्म के सम्बन्ध में जानना चाहिए। इसी प्रकार यावत् वैमानिक देव तक जानना । नोट-मनोयोग-वचनयोग का प्रश्न नहीं करना चाहिए। .५७.४ सयोगी परंपरोपपन्नक नारकी और पापकर्म का समर्जन-समाचरण , ज्ञानावणीयसे अंतरायकर्म का , एवं एएणं कमेणं जहेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी तहेव इह पि अट्ठसुभंगेसु णयब्वा। णवरं जाणियन्वं जं जस्स अत्थि तं तस्स भाणियध्वं जाव अचरिमुद्देसो। सव्वे वि एए एक्कारस उद्देसगा। -भग ० श० २८ । उ ३ से ११ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी परंपरोपपन्नक नारकी आठ भंग से पापवर्म का समर्जन और समाचरण किया था। यावत् वैमानिक तक जानना । इसी प्रकार क्रम से सयोगी परंपरोपपन्नक यावत् सयोगी अचरम जीवों के नव उद्देशक ( नोट ११ उद्देशक ) कहने । जिस जीव में जितने योग हो उतने पद कहते । .५८ सयोगी जीव और कर्म प्रकृति को सत्ता-बंधन-उदय __ सयोगी मिथ्यादृष्टि यावत् उपशांत मोह गुणस्थान में आठ कर्मों की सत्ता है। सयोगी क्षीण-मोह गुणस्थान में सात कर्म ( मोहनीय कर्म को बाद ) की सत्ता है । सयोगी केवली तथा अयोगी केवली गुणस्थान में चार अघातिक कर्म ( वेदनीय-नाम-गोत्रअंतराय ) की सत्ता है। सिद्ध अयोगी होते हैं लेकिन सत्ता किसी भी कर्म की नहीं है क्योंकि वे कर्म युक्त होते हैं। सयोगी मिथ्यादृष्टि यावत् अप्रमत्त गुणस्थानवाले ( सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को छोड़ कर ) सात अथवा आठ कर्म का बंधन करते हैं। सयोगी सम्यगमिथ्यादृष्टि, निवृत्ति वादर गुणस्थान व अनिवृत्ति वादर गुणस्थानवाले सात कर्म (आयुष्यकर्म बाद देकर ) का बंधन करते हैं। सयोगी सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में छः कर्म ( मोहनीय-आयुष्य बाद देकर ) का बंध करते हैं। सयोगी उपशांत मोह, सयोगी क्षीण मोह गुणस्थान व सयोगी केवली एक साता वेदनीय कर्म का बंध करते हैं। अयोगी केवली के किसी भी प्रकार का बंध नहीं होता है। -झीणी चर्चा ___ सयोगी मिथ्यादृष्टि यावत् सयोगी सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में आठ कर्म का उदय है। सयोगी उपशांत मोह तथा क्षीण मोहनीय गुणस्थान में सात कर्मों का उदय है । ( मोहनीय कर्म को बाद ) सयोगी केवली व अयोगी केवली के चार अघातिक कर्म का उदय है। -झीणी चर्चा Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२५ ) .५९ जीव दंडक और समपद दो भंते ! रइया पढ मसमयोववण्णगा कि समजोगी, कि विसमजोगी ? गोयमा ! सिय समजोगी, सिय विसमजोगी ? से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय समजोगी, सिय विसमजोगी ? गोयमा ! आहारयाओ वा से अणाहारए, अणाहारयाओ वा से आहारए सिय हीण, सिय तुल्ले, सिय अम्महिए। जइ होणे असंखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्जइभागहीणे वा असंखेज्जइभागहीणे वा, सखेज्जगुणहीणे वा। अह अभहिए असंखेज्जइभागममहिए वा, संखेज्जइभागमभहिए वा, संखेज्जगुणमहिए वा, असखेज्जगुणमब्भहिए वा, से तेण?णं जाव सिय विसमजोगी। एवं जाव वेभाणियाणं। - भग० श० २५ । उ १ । सू ४ प्रथम समय उत्पन्न दो नारकी कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषमयोगी होते हैं। क्योंकि आहारक नारकी से अनाहारक नारकी और अनाहारक से आहारक नारकी कदाचित् हीनयोगी, कदाचित तुल्य-योगी और कदाचित अधिक-योगी होता है। यदि वह हीनयोगी होता है तो असंख्यातवें भागहीन, संख्यातवें भागहीन, संख्यातगुणहीन या असंख्यातगुणहीन होता है। यदि अधिक योगी होता है तो असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक संख्यात गुण अधिक या असंख्यात गुण अधिक होता है। इस कारण कहा गया है कि कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषययोगी होता है । प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। विवेचन-प्रथम क्षेत्र में प्रथम समय में उत्पन्न नैरयिक 'प्रथम समयोत्पन्नक' कहाता है। इस प्रकार के दो नैरयिक जीव जिनकी उत्पत्ति विग्रह गति से अथवा ऋजुगति से आकर अथवा एक की विग्रह गति से और दूसरे की ऋजुगति से आकर हुई है, वे 'प्रथम समयोत्पन्नक' कहाते हैं। जिन दोनों के योग समान हो, वे समयोगी कहाते हैं और जिनके विषम हो वे विषमयोगी कहाते हैं । आहारक नारकी की अपेक्षा अनाहारक नारकीहीन योगवाला होता है, क्योंकि जो नारकी ऋजु गति से आकर आहारक रूप में उत्पन्न होता है, वह निरन्तर आहारक होने के कारण पुद्गालों से उपचित होता है ( बढा हुआ) होता है। इसलिये वह अधिक योग वाला होता है। जो लारकी विग्रहगति से आकर अनाहारकपने उत्पन्न होता है, वह अनाहारक होने से पुद्गलों से अनुपचित होता है अतः हीन योगवाला होता है। जो समान समय की विग्रह गति से आकर अनाहारकपने उत्पन्न होते हैं वे दोनों एक-दूसरे की अपेक्षा समान योगवाले होते हैं। जो ऋजुगति से आकर आहारक उत्पन्न हुआ है और Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) दूसरा विग्रहगति से आकर अनाहारक उत्पन्न हुआ है। यह उसकी अपेक्षा उपचित होने से अत्यधिक विषम योगी होता है । .६० प्रयोग कर्म जं तं पओअकम्मं णाम । १५ तं तिविहं-मण पओअकम्म, वचिपओअकम्म, कायपओअकस्म । १६ जीवस्य मनसा सह प्रयोगः, वचसा सह प्रयोगः, कायेन सह प्रयोगश्चेति एवं पओओ तिविहो होदि। सो वि कमेण होदि, ण अक्कमेण, विरोहादो। तत्थ मणपओओ चउव्विहो सच्चासच्च-उहयाणुहयमणपओअभेएण । तहा पचिपओओ वि चउन्विहो सच्चासच्च-उहयाणुहयवचिपओअभेएण। कायपओओ सत्तविहो ओरालियादिकायपओअभेएण। एदेसि पओआणं सामिभूदजीवपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि। तं संसाराबत्थाणं वा जीवाणं सजोगिकेवलीणं वा । १७ तं तिविहं पओअकम्म संसारावत्थाणं जोवाणं होदि त्ति उत्ते मिच्छाइट्रिप्पहडिखीणकसायंताणं सजोगत्तं सिद्ध, उवरिमाणं संसारावत्थत्ताभावादो। कुदो? संसरंति अनेन घातिकम्मकलापेन चतसृष गतिष्विति घातिकमकलापः संसारः। तस्मिन् तिष्ठन्तीति संसारस्थाः छद्मस्थाः भवन्ति। एवं संते सजोगिकेवलौणं जोगाभावे पत्ते सजोगीणं च तिष्णि वि जोगा होति ति जाणावणट्ठपुध सजोगिगहणं कदं। तं सव्वं पओअकम्मं णाम । १८ संसारत्थाणं बहूणं जीवाणं कधं तमिदि एयवयणणिद्देसो ? ण, पओअकम्मसण्णिदजीवाणं जादिदुवारेण एयत्तं दठूण एयवयणणिद्देसोववत्तीदो। . कधंजीवाणं पओअकम्मक्वएसो? ण, पओअं करेवि त्ति पओअकम्मसहणिप्पत्तीए कत्तारकारए कौरमाणाए जीवाणं पि पओअकम्मत्त सिद्धीवो। - षट्० खण्ड० ५ । ४ । सू १५-१८ । पु० १३ । पृष्ठ० ४३-४५ कर्म निक्षेप दस प्रकार का है-नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तपः कर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म । प्रयोगकर्म तीन प्रकार का है-मनः प्रयोगकर्म, वचन प्रयोगकर्म और काय प्रयोगकर्म। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२७ ) जीव का मन के साथ प्रयोग, वचन के साथ प्रयोग और काय के साथ प्रयोग--इस प्रकार प्रयोग तीन प्रकार का है। उसमें भी वह क्रम से ही होता है, अक्रम से नहीं ; क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है। उसमें सत्य, असत्य, उभय और अनुभय मनः प्रयोग के भेद से मनः प्रयोग चार प्रकार का है। उसी प्रकार सत्य, असत्य, उभय और अनुभय के भेद से वचन-प्रयोग भी चार प्रकार का है। काय प्रयोग औदारिक आदि काय प्रयोग के भेद से सात प्रकार का है। (औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र तथा कार्मण काय प्रयोग)। प्रश्न-इन प्रयोगों में कौन जीव स्वामी होते हैं ? उत्तर-वह संसार अवस्था में स्थित और सयोगी-केवलियों के होता है । अस्तु-तीन प्रकार का प्रयोग कर्म संसार अवस्था में स्थित जीवों के होता है, इस कथन से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के जीव सयोगी सिद्ध होते हैं। क्योंकि आगे के जीवों के संसार अवस्था नहीं पाई जाती। कारण कि जिस घाति-कर्म-समूह के कारण जीव चारों गतियों में संसरण करते हैं वह घाति-कर्म-समूह संसार है। और इसमें रहने वाले जीव संसारथ अर्थात् छद्मस्थ है। ऐसी अवस्था में सयोगि-केवलियों के योगों का अभाव प्राप्त होता है। अतः सयोगियों के भी तीनों ही योग होते हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिए 'सयोगी' पद को अलग से ग्रहण किया है। वह सब प्रयोग कर्म है। शंका-संसार में स्थित जीव बहुत है। ऐसी अवस्था में 'त' इस प्रकार एक वचन का निर्देश कैसे किया है ? समाधन-नहीं, क्मोंकि प्रयोग कर्म संज्ञावाले जितने भी जीव हैं, उन सब को जाति की अपेक्षा एक मानकर एक वचन का निर्देश बन जाता है। प्रश्न --जीवों को प्रयोग कर्म संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि 'प्रयोग को करता है' इस व्युत्पत्ति के आधार से प्रयोग-कर्म शब्द भी सिद्धि कर्ता कारक में करने पर जीवों के भी प्रयोग कम संज्ञा बन जाती हैं। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८ ) नोट-संसारी जीवों के और सयोगि-केवलियों के मन, वचन और काय के आलम्बन से प्रति समय आत्मप्रदेश-परिस्पन्द होता रहता है। आगम में इस प्रकार के प्रदेशपरिस्पन्दन को योग कहा जाता है। प्रकृत में इसे ही प्रयोग कर्म शब्द द्वारा सम्बोधित किया गया है। किन्तु वीरसेन स्वामी के अभिप्रायानुसार इतनी विशेषता है कि यहाँ जिन जीवों के यह योग होता है वे प्रयोग कर्म शब्द द्वारा ग्रहण किये गये हैं। •१ योग और समवदानकर्म समयाविरोधेन समवदीयते खंड्यत इति समवदानम्, समवदानमेव समवदानता। कम्मइयपोग्गलाणं मिच्छत्तासंजम-जोग-कसाएहि अट्रकम्मसरूदेण सत्तकम्मसरुवेण छकम्मसरुवेण वा भेदो समुदाणद त्ति वृत्तं होदि। -षट्० खण्ड ० ५, ४ । सू २० । टीका । पु १३ जो यथा विधि विभाजित किया जाता है वह समवदान कहलाता है। और समवदान ही समवदानता कहलाती है। कार्मणपुद्गलों का मिथ्यात्व, असंयम, योग और कषाय के निमित्त से आठ कमरूप, सात कर्मरूप या छह कर्मरूप भेद करना समवदानता है। यह उक्त कथन का तात्पर्य है। •२ योग और ईर्यापथकर्म __ ईर्या योगः सःपन्था मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म। जोगणिमित्तेणेव ज बज्झइ तमीरियावहकम्मति भणिदं होदि । -षट्० खण्ड० ५, ४ । सू २३ । टीका । पु १३ ईर्या का अर्थ योग है। वह जिस कार्मण शरीर का पथ, मार्ग हेतु है वह ईर्यापथकर्म कहलाता है। योग मात्र के कारण जो कर्म बंधता है वह ईर्यापथकर्म है। __नोट-वह छद्मस्थवीतरागों के और सयोगि केवलियों के होता है। वह सब ईर्यापथ कम है। .३ अनाहारक जीवों के प्रयोगकर्म काल अणाहारएसु पओअकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? णाणा जीवं पडुच्च सव्वद्धा। एग जीवं पडुच्च जहण्णेणं एगसमओ। उक्कस्सेण तिण्णि समया। -षट० खण्ड ० ५, ४ । सू ३१ । टीका । पु १३ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२९ ) अनाहारक जीवों के प्रयोग कर्म का काल-नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट तीन समय काल है। नाम, स्थापना, और द्रव्य ये तीन द्रव्याथिक नय के निक्षेप है, किन्तु भाव पर्यायाथिक नय का निक्षेप है। यह परमार्थ से सत्य है । तैजस और कार्मण-इन दोनों शरीरों की अयोगिकेवली के परिशातन कृति होती है, कारण कि उनके योगों का अभाव हो जाने से बंध का भी अभाव हो चुका है। अयोगिकेवली को छोड़कर शेष सभी संसारी जीवों के इन दोनों शरीरों की एक संघातन-परिशातनकृति ही है क्योंकि, सर्वत्र उनके पुद्गल-स्कन्धों का आगमन और निर्जरा-दोनों ही पाये जाते हैं। कहा है जं च कामसुहं लोए, जंच दिव्वं महासुहं । वीयरायसुहस्सेइ णंतचागं ण आघदे ॥ —मूला० १२, १०३ अर्थात् लोक में जो कामसुख है और दिव्य महासुख है वह वीतराग सुख के अनन्तवें भाग के योग्य भी नहीं है। __ जो कषाय का अभाव होने से स्थिति बंध के योग्य है, कर्मरूप से परिणत होने के दूसरे समय में ही अकर्म को प्राप्त हो जाता है, और स्थिति बंध न होने से मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है ; ऐसे योग के निमित्त से आते हुए पुद्गल स्कन्ध के काल निमित्तक अल्पत्व देखा जाता है अतः ईर्यापथकर्म अल्प है। देव और मनुष्यों के सुख से अधिक सुख का उत्पादक है अतः ईर्यापथ-कर्म का अत्यधिक सातरूप कहा गया है। प्रयोग कर्म का नाना जीव और एक जीव दोनों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता है, क्योंकि संघादस्थ जीव के कोई न कोई योग निरन्तर पाया जाता है। यद्यपि अयोगि-केवली गुणस्थान में योग का अभाव हो जाता है पर वह जीव पुनः सयोगी नहीं होता, अतः अन्तरकाल के प्रकरण में इसका ग्रहण नहीं होता। .६१ सयोगी जीव और कर्म-बंधन जीवा य लेस्स पक्खिय दिट्ठि अण्णाण णाण सण्णाओ। वेय कसाए उवओग जोग एक्कारस वि ठाणा। --भग० श० २६ । उ १ इस बंधी शतक में ग्यारह उद्देशक हैं । उनका विषय क्रमशः इस प्रकार है। १-जीव ४-दृष्टि ७-संज्ञा १०-योग २-लेश्या ५-अज्ञान -वेद ११-उपयोग ३–पाक्षिक ६-ज्ञान ९-कषाय Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३० ) हमने यहाँ योग को ग्रहण किया है। उपरोक्त सूत्र में जीव-लेश्या-योग आदि ग्यारह स्थानों में बंध का कथन किया गया है। १ सयोगी जीव और कर्म बंधन ( जीवे गं भंते ! ) १ पावकम्मं x x x अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ २ अत्थेगइए बंधी बंधइ ण बंधिस्सइ ३ अत्थेगइए बंधी ण बंधइ बंधिस्सइ ४ अत्थेगइए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सइ। --भग० श० २६ । उ १ । सू १ सजोगिस्स चउभंगो, एवं मणजोगिस्स वि वयजोगिस्स वि कायजोगिस्स वि । अजोगिस्स चरिमोxxx -भग० श० २६ । उ १ । सू १३ सयोगी जीव में बन्ध के चार भंग होते हैं। मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी इनमें से प्रत्येक के चार-चार भंग होते हैं, यथा १–बाँधा था, बाँधता है और बाँधेगा। (यह प्रथम भंग अभव्य जीव की अपेक्षा से है)। २-बांधा था, बांधता है और नहीं बाँधेगा। (यह दूसरा भंग क्षपक-अवस्था को प्राप्त करनेवाले भव्य जीव की अपेक्षा से है)। ३-बांधा था, नहीं बांधता है और बाँधेगा ( यह तीसरा भंग मोहनीय कर्म का उपशम कर, उपशान्त अवस्था को प्राप्त भव्य जीव की अपेक्षा से है )। ४-बाँधा था, नहीं बांधता है और नहीं बाँधेगा। ( यह चतुर्थ भंग क्षीणमोहनीय अवस्था को प्राप्त जीव की अपेक्षा से है)। अयोगी जीवों में अन्तिम भंग पाया जाता है। सयोगी में अभव्य, भव्य विशेष, उपशमक और क्षपक की अपेक्षा क्रमशः चारों भंग पाये जाते हैं। अयोगी को पाप-कर्म का बंध नहीं होता है और भविष्म में भी नहीं होगा, इसलिए एक चौथा भंग ही पाया जाता है । •२ सयोगी नारकी और कर्म-बंधन '३ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देव और कर्म-बंधन सलेस्से णं भंते ! रइए पावकम्म ०? एवं चेव ( अत्थेगइए बंधी० पढम-बिइया भंगाx x x। एवं x x x सजोगी, मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी xxx एएसु सन्वेसु पएसु पढम-बिइया भंगा भाणियवा। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३१ ) एवं असुरकुमारस्स वि वत्तव्वया भाणियव्वा x x x सेसं जं चेव, सम्वत्थ पढम-बिइया भंगा। एवं थणियकुमारस्स। -भग० श० २६ । उ १ । सू १४ सयोगी, मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी नारकी में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है, यथा १-पापकर्म बाँधा था, बाँधता है और बाँधेगा। (यह प्रथम भंग अभव्य जीव की अपेक्षा है)। २-पापकर्म बांधा था, बाँधता है और नहीं बाँधेगा। (यह दूसरा भंग क्षपक अवस्था को प्राप्त होनेवाले भव्य जीव की अपेक्षा है)। इसी प्रकार सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार तक प्रथम और द्वितीय दो भंग मिलते हैं। •४ सयोगी पृथ्वीकायिक, सयोगी अप्कायिक, सयोगी अग्नि कायिक और कर्म-बंधन .५ सयोगो वायुकायिक, सयोगी वनस्पतिकायिक , .६ सयोगी द्वीन्द्रिय वीन्द्रिय व सयोगी चतुरिन्द्रिय , •७ सयोगी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय योनिक और कर्म बंधन __ एवं पुढविक्काइयस्स वि, आउकाइयस्स वि जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स वि सव्वत्थ वि पढम-बिइया भंगा, णवरं जस्स जा लेस्सा।xxx जोगो य अस्थि तं तस्स भाणियव्वं, सेसं तहेव । -भग० श. २६ । उ १ । सू १५ सयोगी पृथ्वीकायिक, सयोगी अप्कायिक यावत् सयोगी पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक तक सभी के इसी प्रकार पहला-दूसरा भंग है। जिस जीव में जो योग हो वही योग कहना चाहिए। '८ सयोगी मनुष्य और कर्म-बंधन ९ सयोगी वाणव्यंतरदेव और कर्म-बंधन १० सयोगी ज्योतिषीदेव और कर्म-बंधन .११ सयोगी वैमानिक देव और कर्म-बंधन मणूस्सस्स जच्चेव जीवपए वत्तन्वया सच्चेव गिरवसेसा भाणियन्वा । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२ ) वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स। जोइसियस्स वेमाणियस्स एवं चेव । णवरं लेस्साओ जाणियवाओ, सेसं तहेव भाणियव्वं । -भग० श० २६ । उ १ सू १५ सयोगी मनुष्य के लिए जीव पद की वक्तव्यत्ता के अनुसार कहना चाहिए। चारों भंग मिलते हैं । अयोगी मनुष्य में सिर्फ चतुर्थ भंग मिलता है । सयोगी वाणव्यंतरदेव, सयोगी ज्योतिषीदेव और सयोगी वैमानिक देव में प्रथम और और द्वितीय दो भंग है। •१२ सयोगी जीव और ज्ञानावरणीय कर्म का बंध .१३ सयोगी जीव और दर्शनावरणीय कर्म का बंध जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्म कि बंधी बंधइ बंधिस्सइ ? एवं जहेव पावम्मस्स वत्तव्वया तहेव णाणावणिज्जस्स वि भाणियव्वा, णवरं जीवपए मणुस्सपए य सकसायी जाव लोभकसाइंमि य पढम-बिइया भंगा, अवसेसं तं चेव जाव वेमाणिया। एवं दरिसणावरणिज्जेण वि दंडगो भाणियन्वो णिरवसेसो। -भग• श० २६ । उ १ । सू १६ पापकर्म की वक्तव्यता की तरह ज्ञानावरणीय कर्म के विषय में जानना चाहिए । नारकी से वैमानिक पर्यंत कहना। सयोगी में चार भग। इसी प्रकार मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी में चार भंग पाये जाते हैं । अयोगी में एक चतुर्थ भंग पाया जाता है । देखो .६१) नारकी से वैमानिक तक ( मनुष्य को छोड़कर ) प्रथम और द्वितीय दो भंग और मनुष्य में चार भंग मिलते हैं । इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के सम्बन्ध में जानना चाहिए। नोट-जिस दंडक में जो-जो योग हो वह-वह कहना। .१४ सयोगी जीव और वेदनीयकर्म का बंध जीवेणं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं कि बंधी-पुच्छा।= x x गोयमाx x x अजोगिम्मि य चरिमो, सेसेसु पढम-बिइया। -भग० श. २६ । उ १। सू १७ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३३ ) ? सयोगी - मनोयोगी - वचनयोगी - काययोगी जीव में वेदनीयकर्म बांधा था दूसरा भंग होता है । अयोगी में एक चौथा भंग होता है । सयोगी नारकी जीव यादत् वैमानिकदेव के वेदनीय कर्म-बंधन रइए णं भंते ! वेयणिज्जं कम्मं बंधी बंधइ ? एवं रइय जाव वैमाणिया सि । जस्स जं अत्थि सव्वत्थ वि पढम बिइयावरं मस्से जहा जीवे । - भग० श० २६ । उ १ । सू १८ नैरयिक जीव ने वेदनीयकमं बांधा ? पहला और दूसरा भंग होता हैं । इसी प्रकार असुरकुमार से वैमानिक तक ( मनुष्य बाद देकर ) पहला- दूसरा भंग होता है । मनुष्य में सामान्य जीव की तरह तीन भंग होते हैं ( तृतीय भंग को बाद देकर ) अयोगी में चतुर्थ भंग होता है । अस्तु सयोगी नारकी यावत् वैमानिक देव तथा मनुष्य भी कोई प्रथम विकल्प से, कोई द्वितीय विकल्प से वेदनीयकर्म का बंधन करता है । जिसके जितने योग हो उतने पद करने । अस्तु सयोगी मनुष्य जीव पद की तरह द्वितीय व प्रथम विकल्प से वेदनीयकर्म का बंधन करता है । नोट- वेदनीयकर्म के बंधक में पहला भंग अभव्य जीव की अपेक्षा से है । जो भव्य जीव मोक्ष जाने वाला है उनकी अपेक्षा दूसरा भंग है । चौथा भंग अयोगी केवली की अपेक्षा से है । • १५ सयोगी जीव और मोहनीय कर्म का बंध जीवेणं भंते! मोहणिज्जं कम्मं कि बंधी बंधइ० ? जहेव पावकम्मं तहेव मोहणिज्जं पि णिरवसेसं जाव बेमाणिए । पापकर्म के समान मोहनीयकर्म भी है । तक कहना चाहिए | पहला और - १६ सयोगी जीव और आयुष्य कर्म का बंध जीवे णं भंते! आउयं कम्म कि बंधी-वंधइ- पुच्छा ? सलेस्से जाव सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा। अत्थेगइए बंधी - चउभं गो । चरिमो भंगो । - भग० श० २६ । उ १ । सू १९ इस प्रकार नारकी से यावत् वैमानिक गोयमा ! अलेस्से Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३४ ) अनोगिम्मि चरिमो, सेसेसु पएसु चत्तारिभंगा जाव अणागारोवउत्ते। -भग० श० २६ । उ १ । सू २०, २३ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी जीव ने आयुष्यकर्म बांधा था ? चारों भंग होते हैं । अयोगी में चतुर्थ भंग होता है। १७ सयोगी नारकी और आयुष्य कर्म का बंध सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमारदेव और आयुष्य कर्म का बंध सयोगी पृथ्वीकायिक और आयुष्य बंध रइए णं भंते ! आउयं कम्म कि बंधी-पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइए चत्तारि भंगा, एवं सम्वत्थ वि गैरइयाणं चत्तारि भंगाxxx असुरकुमारे एवं चेवxxx। एवं जाव थणियकुमाराणं। पुढविक्काइयाणं चत्तारि भंगाxxx। सेसेसु सव्वत्थ चत्तारि भंगा। -भग० श० २६ । उ १ । सू २४, २५ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी काययोगी में चारों भंग होते । नारकी से असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार, पृथ्वीकायिक जीव में चारों भंग होते हैं। लेकिन वे सयोगी व काययोगी होते हैं। नोट-तेजोलेशी पृथ्वीकायिक जीव के आयुष्य का बंध नहीं होता है। ( वर्तमानकाल की अपेक्षा)। .१८ सयोगी जीव और अपकायिक जीवों के आयुष्य बंध सयोगी जीव और वनस्पतिकायिक जीवों के आयुष्य बंध ( आउयं कम्मं कि बंधी-पुच्छा ) एवं आउक्काइय--वणस्सइकाइयाणं वि गिरवसेसं। -भग० श. २६ । उ १ । सू २५ इसी प्रकार यह अप्कायिक व वनस्पतिकायिक जीवों में चार भंग कहने । ( आयुध्यबंध की अपेक्षा)। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३५ ) नोट-तेजोलेशी अपकायिक व वनस्पतिकायिक जीव आयुष्य का बंध नहीं करता। ( वर्तमानकाल को अपेक्षा )। सयोगी जीव और अग्निकायिक व वायुकायिक जीवों के आयुष्य बंध तेउकाइय-वाउक्काइयाणं सम्वत्थ वि पढम-तइया भंगा। -भग० श. २६ । उ १ । सू २५ सयोगी, काययोगी तेउकायिक व वायुकायिक जीव में आयुष्य की अपेक्षा प्रथमतृतीय भंग से बंध होता है। .१९ सयोगी द्वीन्द्रिय, व्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जीव, तिर्यश्च पंचेन्द्रिय और मनुष्य और आयुष्य बंध बेइदिय-तेइ दिय-चरिदियाणं वि सव्वत्थ पि पढम-तइया भंगा। णवरं सम्मत्ते णाणे, आभिणिबोहियणाणे, सुयणाणे तइओ भंगो। पंचिदियतिरिक्खजोणियाणंxxx सेसेसु चत्तारि भंगा।x x x मणुस्साणं जहा जीवाणं। -भग० श० २६ । उ १ । सू २५ सयोगी-वचनयोगी-काययोगी द्वीन्द्रिय में प्रथम-तृतीय दो भंग होते हैं । नोट-सम्यक्त्व, ज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान-इनमें केवल तीसरा भंग ही पाया जाता है। क्योंकि उनमें सम्यक्त्व आदि सास्वादान भाव से अपर्याप्त अवस्था में ही होते हैं। इनके चले जाने पर आयुष्य का बंध होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य चारों भंग से आयुष्य कर्म बांधते हैं । सयोगी वाणव्यंतर-ज्योतिषी व वैमानिकदेव और आयुष्य-बंध वाणमंतर-जोइसिय वेमाणिय जहा असुरकुमारा। -भग• श० २६ । उ १ सू २५ सयोगी, मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी वाणव्यंतर में ज्योतिषी-बैमानिकदेव चारों भंग होते हैं। •२० सयोगी औधिक जीव दंडक और नाम कर्म का बंधन •२१ सयोगी औधिक जीव दंडक और-गोत्रकर्म-अंतरायकर्म का बंधन णाम गोयं अंतरायं च एयाणि जहा णाणावरणिज्ज । -भग० श. २६ । उ १ सू २५ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी जीव नामकर्म-गोत्रकर्म-अंतरायकर्म का चार भंग की वक्तव्यत्ता ज्ञानावरणीय कर्म के बंधन की वक्तव्यत्ता की तरह कहना । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) २२ सयोगी अनन्तरोपपन्नक नारकी और कर्म-बंध सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववण्णए णेरइए पावं कम्मं कि बंधी-पुच्छा। गोयमा! पढम-बिइया भंगा। एवं खलु सव्वत्थ-पढम-बिइया भंगा, णवरं सम्मामिच्छत्तं मणजोगो वइजोगो य ण पुच्छिज्जइ एवं जाव थणियकुमाराणं। - भग० श० २६ । उ २ । सू २ अनंतरोपपन्नक सयोगी-काययोगी नारकी प्रथम द्वितीय भंग से पापवम का बंध करता है । इस अवस्था में सम्यग्मिथ्यात्व मनोयोग-वचनयोग नहीं होता है । इसी प्रकार असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त जानना । नोट-जिसकी उत्पत्ति का प्रथम समय है उसे अनन्तरोपपन्नक कहते हैं । •२३ सयोगी अनंतरोपपन्नक पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीव और पापकर्म का बंध एगिदियाणं सव्वत्थ पढम-बिइया भंगा। -भग० श० २६ । उ २ । सू २ सयोगी-काययोगी अनंरोपपनक एकेन्द्रिय-पृथ्वीकायिक आदि प्रथम-द्वितीय विकल्प से पापकर्म का बंध करते हैं । .२४ सयोगी अनंतरोपपन्नक द्वीन्द्रिय जीव आदि तथा पाप कर्म का बंध बेइंदिय-तेइ दिए-चरिदियाणं वयजोगो ण भण्णइ । -भग श० २६ । उ २ । सू २ ___ सयोगी-काययोगी अनंतरोपपन्नक द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव प्रथय-द्वितीय भंग से पाप कर्म का बंध करता है इसका अवस्था में द्वीन्द्रिय के वचन योग नहीं होता है। •२५ सयोगी अनंतरोपपत्रक पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीव तथा पापकर्म बंध पाँचदिय-तिरिक्ख-जोणियाणं पि सम्मामिच्छत्तं, ओहिणाणं, विभंगणाणं, मणजोगो-वयजोगो-एयाणि पंच पयाणि ण भण्णं ति। -भग० श० २६ । उ २ । सू २ सयोगी-काययोगी अनंतरोपपन्नक तिर्यंच पंचेन्द्रिय योनिक प्रथम-द्वितीय भंग से पापकर्म बांधता है। मनोयोग-वचनयोगी इस अवस्था में नयीं होता है अतः इनकी पृच्छा नहीं करनी चाहिए। नोट-अनंतरोपपन्नक तिर्यच पंचेन्द्रिय में सम्यगमिथ्यादृष्टि, अवधिज्ञान, विचंगज्ञानमनोयोग व वचनयोग नहीं होते हैं। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३७ ) २६ सयोगी अनंतरोपपत्रक मनुष्य तथा पापकर्म का बंध मनुस्साणं अलेस्स सम्मामिच्छत्त-मणपज्जवणाण केवलणाण-विभंगणाणपोसण्णोवउत्त-अवेयग-अकसायी-मणजोग-वय जोग- अजोगी- एयाणि एक्कारस पयाणि न भग्णंति । - भग० श० २६ । उ २ । सू २ सयोगी, काययोगी अनंतरोपपत्रक मनुष्य पापकर्म का प्रथम द्वितीय भंग से बंध करते हैं । मनोयोग-वचनयोग- अयोग अवस्था उस अवस्था में नहीं होती है । अतः ये पद नहीं कहने त्राहिए | नोट - अनंत रोपपन्नक मनुष्य में अलेशीपन, सम्यग्मिथ्यात्व मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान, विभंगज्ञान, नोसंज्ञोपयुक्त, अवेदक, अकषायी, मनोयोग, वचनयोग, अयोगीपन- ये ग्यारह पद नहीं कहने चाहिए । अलेस्स सम्मामिच्छत्त-मणपज्जवणाण केवलणाण बिभंगणाण-पोसण्णोवउत्त-अवेयग-अकसायी मणजोगवयजोग अजोगी- एयाणि (अलेशी- सम्यग्मिथ्यात्व मनः पर्यवज्ञान केवलज्ञान - विभंगज्ञान-नोसंज्ञोपयुक्त-अवेदक-अकषायी मनोयोगवचनयोग- अयोगीपन । ) ( अनंत रोववण्णए ) मणुस्साणं अलेस्स xxx एयाणि एक्कारस पयाणिन भण्णंति । अनंत रोपपन्नक मनुष्य - भग० २६ उ २ । सू २ में अलेशोपन x x x और अयोगीपन- ये ग्यारह पद नहीं कहने चाहिए । • २७ सयोगी अनंतरोपपन्नक वाणव्यंतर-ज्योतिषी वैमानिक देव तथा पापकर्म का बंध वाणमंतर - जोइसिय- वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं तहेव ते तिष्णि ण भति । सव्र्व्वेस जाणि सेसाणि ठाणाणि सव्वत्थ पढम- बिइया भंगा । भग० श० २६ । उ २ । सू २ सयोगी-काययोगी अनंतरोपपन्नक वाणव्यंतर ज्योतिषी और वैमानिक प्रथम द्वितीय विकल्प से बंध करते हैं । पूर्वोक्त तीन पद- सम्यग्मिथ्यात्व मनोयोग - वचनयोग नहीं कहना चाहिए । २८ सयोगी अनन्तरोपपन्नक जीव दंडक और ज्ञानावरणीय आदि सात कर्मबंधन ( आयुष्य छोड़कर ) Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८ ) जहा पावे एवं पाणावरणिज्जेण वि दंडओ, एवं आउयवज्जेसु जाव अंतराइए दंडओ। -भग० श० २६ । उ २ । सू ३ __ आयु को छोड़कर बाकी ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों के संबंध में पापकर्म-बंधन की तरह ही सब अनंतरोपपन्नक सयोगी-काययोगी दंडकों का विवेचन करना। नोट-पहले उद्देशक में अधिक जीव नारकादि पच्चीस दंडक कहे हैं किन्तु इस उद्देशक में नैरयिकादि चौबीस दंडक ही कहने चाहिए। क्योंकि औधिक जीव के साथ अनंतरोपपन्नकादि विशेषण नहीं लगाये जा सकते। परम्परोपपन्नक इत्यादि विशेषण भी नहीं लगते। २९ सयोगी अनंतरोपपन्नक जीव दंडक और आयुष्य कर्म का बंधन अणंतरोववन्नए णं भंते ! नेरइए आउयं कम्मं कि बंधी० पुच्छा ? गोयमा बंधी, नबंधइ बंधिस्सइ ।xxx एवं चेव तइओ भंगोएवंजाव अणागारोवउत्ते। सव्वत्थ वि तइओ भंगो। एवं मणुस्सवज्जं जाव वेमाणियाणं। मणुस्साणं सव्वत्थ तइय-चउत्था भंगा, नवरं कण्हपविखएसु तइओ भंगो, सव्वेसि नाणत्ताई ताई चेव। ----- भग० श. २६ । उ ३। सू ३-४ अनंतरोपपन्नक सयोगी नारकी तीसरे भंग से ( कोई एक बांधा है, नहीं बांधता है, बांधेगा) आयुष्य कर्म का बंधन करता है। मनुष्य को छोड़ कर दंडक में वैमानिक देव तक ऐसा ही कहना। मनुष्य कोई तीसरे तथा कोई चौथे भंग से आयुष्य कर्म को बांधता है। __ नोट-आयु कर्म के विषय में अनंतरोपपन्नक मनुष्य में तीसरा-चौथा भंग पाया जाता है। यदि वह चरम शरीरी है तो आयु कर्म नहीं बांधता है, नहीं बांधेगा । इस प्रकार चौथा भंग घटित होता है। .३० सयोगी परंपरोपपन्नक नारको आदि दंडक और पापकर्म का बंध सयोगी परंपरोपपन्नक नारकी आदि दंडक और ज्ञानावरणीय यावत् अतराय कर्मबंध परंपरोववण्णए णं भंते ! णेरइए पावं कम्मं कि बंधी-पुच्छा। गोयमा! अत्यंगइए पढम-बिइया। एव जहेव पढमो उद्देसओ तहेव परंपरोववणहि वि उद्दसओ भाणियन्वो रइयाइओ तहेव णवदंडगसहिओ।। अट्ठण्ह वि कम्मप्पगडीणं जा जस्स कम्मरस बत्तवया सा तस्स अहीणमइरिता यन्वा जाव वेमाणिया अणागारोबउत्ता। --भग० श २६ उ ३ । मू १ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३९ ) सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी परंपरोपपन्नक नारकी पापकर्म का बंध प्रथमद्वितीय भंग से करता है। इसी प्रकार ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का प्रथम-द्वितीय भंग से बंध करता है। परंपरोपपन्नक सयोगी जीव दंडक के संबंध में वैसे ही कहना जैसा बिना परंपरोपपन्नक विशेषणबाले सयोगी जीव दंडक के संबंध में पाप कम तथा अष्ट कर्म के बंधन के विषय में कहा है। •३१ सयोगी अनंतरावगाढ़ नारको आदि दंडक और पापकर्म का बंध सयोगी अनंतरावगाढ़ , ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का बंध अणंतरोगाढए णं भंते ! गैरइए पावं कम्मं कि बंधी-पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइए एवं जहेव अणंतरोववग्णएहि णवदंडगसंगहिओ उद्देसो भणिओ तहेव अणंतरोगाढएहि वि अहोणमहरित्तो भाणियव्यो रइयाईए जाव वेमाणिए। -भग० श• २६ । उ ४ । सू १ सयोगी काययोगी अनन्तरावगाढ नारकी आदि के विषय में जैसा अनन्तरोपपन्नक नारकी आदि के विषय में नौ दंडक कहे हैं वैसा कहना । नोट-उत्पत्ति के द्वितीय समयवर्ती अनन्तरावगाढ और उत्पत्ति के तृतीयादि समयवर्ती परम्परावगाढ़ कहलाता है। टीकाकार के अनुसार अनन्तरोपपन्नक तथा अनंतरावगाढ़ में एक समय का अन्तर होता है। उत्पत्ति के एक समय बाद फिर एक ही समय के अन्तर बिना उत्पत्ति स्थान की अपेक्षा करके जो रहता है वह अनंतरावगाढ़ कहा जाता है। •३२ सयोगी परंपरावगाढ़ नारकी आदि और पापकर्म का बंध सयोगी परंपराधगाढ़ नारको आदि और ज्ञानावरणीय यावत अंतराय कर्म का बंध परंपरोगाढ़ए णं भंते ! गैरइए पावं कम्मं कि बंधी० ? जहेव परपरोववण्णएहि उद्देसो सो चेव गिरवसेसो भाणियव्यो। -भग० श. २६ । उ ५ जिस प्रकार सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी परंपरोपपन्नक नारकी आदि के विषय में कहा उसी प्रकार सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी परंपरावगाढ़ नारकी मादि के विषय में नौ दंडक कहना। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४० ) सयोगी परंपरावगाढ़ जीव दंडक के संबंध में वैसा ही कहना, जैसा परंपरोपपन्नक विशेषणवाले सयोगी जीव दंडक के संबंध में पाप कर्म तथा अष्ट कर्म बंध के विषय में कहा । - ३३ सयोगी अनन्तराहारक नारकी आदि दंडक और पापकर्म का बंध ज्ञानावरणीय कर्म यावत् अंतराय कर्म सयोगी का बंध 31 अनंतराहारए णं भंते ! णेरइए पावं कम्म कि बंधी - पुच्छा ? एवं जहेव अणंतरोवबण्णएहि उद्दसो तहेव णिरवस से । नोट - आहारकत्व के प्रथम समयवर्ती को अनन्तराहारक कहते हैं । योगी अनंतराहारक जीव दंडक के संबंध में वैसा ही कहना, जैसा अनंतरोपपन्नक विशेषणवाले सयोगी - काययोगी जीव दडक के संबंध में पाप कर्म तथा अष्ट कर्म-बंधन के विषय में कहा है । जानना । " * ३४ सयोगी परंपराहारक नारको आदि और पापकर्म का बंध सयोगी परंपराहारए णं भंते ! णेरइए पावं कम्मं कि बंधी - पुच्छा । गोयमा ! जहेव परंपरोववण्णएहि उद्देसो तहेव णिरवसेसो भाणियव्वो । - भग० श० २६ । उ ७ परंपरोपपन्नक की तरह परम्पराहारक के विषय में सभी दंडको का विवेचन 29 ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का बंध नोट – आहारकत्व के द्वितीयादि समयवर्ती को परंपराहारक कहते हैं । नोट – सयोगी - मनोयोगी - वचनयोगी - काययोगी परम्पराहारक होते हैं । • ३५ सयोगी अनन्तर पर्याप्तक नारको आदि दंडक और पापकर्म का बंध सयोगी 17 ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का बंध अतरपज्जत णं भंते! नेरइए पावकम्मं कि बंधी- कुच्छा ? गोयमा ! जहेव अनंत रोववन्न एहि उद्देसो तहेव निरवसेसं । - भग० श० २६ । उ ८ । सू १ सयोगी - काययोगी, सयोगी अनन्तर पर्याप्तक नारकी के विषय में नौ दंडक सहित सयोगी - काययोगी-अनंतरोपपन्नक की तरह जानना चाहिए । मनोयोग-वचनयोग न कहना चाहिए । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४१ ) नोट-पर्याप्तकत्व के प्रथम समयवर्ती को अनंतर पर्याप्तक कहते हैं। सयोगी अनंतरपर्याप्त जीव दंडक के संबंध में वैसा ही कहना जैसा अनंतरोपपन्नक विशेषण वाले जीव दंडक के सम्बन्ध में पाप कर्म तथा अष्ट कर्म बंधन के विषय में कहा है। ‘३६ सयोगी परम्पर पर्याप्तक नारकी आदि और पापकर्म का बंध सयोगी , ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय फर्म-बंध परंपरपज्जत्तए णं भंते ! गरइए पाव कम्मं कि बंधी-पुच्छा । गोयमा ! एवं जहेव परंपरोववण्णएहि उद्देसो तहेव गिरवसेसो भाणियव्वो। -भग० श. २६ । उ ९ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी परम्पर पर्याप्तक नारकी आदि का विवेचन परंपरोपपन्नक नारकी आदि की तरह जानना चाहिए । सयोगी परंपरोपपन्नक जीव दंडक के संबंध में वैसा ही कहना जैसा परंपरोपपन्नक विशेषणवाले सयोगी जीव दंडक के सम्बन्ध में पाप कर्म तथा अष्ट कर्म बंधन के विषय में कहा है। ३७. सयोगी चरम नारको आदि तथा पापकर्म का बंध सयोगी चरम नारको आदि तथा ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का बंध चरिमे णं भंते ! जेरइए पावं कम्मं कि बंधी-पुच्छा । गोयमा ! एवं जहेव परंपरोववण्णएहि उद्देसो तहेव चरमेहि णिरवसेसो। -भग० श. २६ । उ १० सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी नारकी आदि का विवेचन सयोगी-मनोयोगी वचनयोगी काययोगी परंपरोपपन्नक नारकी आदि की तरह जानना चाहिए । सयोगी चरम दंडक के सम्बन्ध में वैसा ही कहना, जैसा परंपरोपपन्नक विशेषणवाले सयोगी जीव दंडक के सम्बन्ध में पाप कर्म तथा अष्ट कर्म बंधन के विपय में कहा है । टीकाकार के अनुसार सयोगी चरम मनुष्य के आयुकर्म का बंधन की अपेक्षा से केवल चतुर्थ भंग ही घट सकता है, क्योंकि जो सयोगी चरम मनुष्य हैं उसके पूर्व में आयु बांधा है लेकिन वर्तमान में नहीं बांधता है तथा भविष्यत् काल में नहीं बांधेगा। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२ ) .३८ सयोगी अचरम नारकी आदि और पापकर्म का बंध (क) अचरिमे णं भंते ! गैरइए पावकम्मं किं बंधी-पुच्छा। गोयमा ! अत्यंगइए एवं जहेव पढमोद्देसए, पढमबिइया भंगा भाणियन्या सम्वत्थ जाव पाँचदियतिरिक्खजोणियाणं। -भग० श. २६ । उ ११ । सू १ सयोगो-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी नारकी में पापकर्म-बंध की अपेक्षा प्रथमद्वितीय-दो भंग होते हैं। ___ इसी प्रकार असुरकुमार यावत् तिर्यंच पंचेन्द्रय जीवों तक के जीव पाप कर्म का बंधन प्रथम-द्वितीय भंग से करते हैं। सयोगी अचरम मनुष्य और पापकर्म-बंध (ख) अचरिमे णं भंते ! मणुस्से पावं कम्मं कि बंधी-पुच्छा। गोयमा। अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी बंधइ ण बंधिस्सइ, अत्थेगइए बंधी ण बंधइ बंधिस्सइ। xxx एवं जहेव पढमुद्देसे। गवरं जेसु तत्थ वीससु चत्तारि भंगा तेसु इह आदिल्ला तिण्णि भंगा भाणियव्वा चरिमभंगवज्जा। अलेस्से केवलणाणी य अजोगी य एए तिणि वि ण पुच्छिज्जति, सेसं तहेव । -भग• श० २६ । उ ११ । सू २, ३ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी (बीस पदों में है) मनुष्य के पापकर्म बंध में तीन भंग ( चतुर्थ भंग बाद देकर ) मिलते हैं। अयोगी अचरम नहीं है अत: अयोगी अचरम मनुष्य का प्रश्न नहीं करना चाहिए। (ग) सयोगी अचरम वाणव्यंतर देव तथा पापकर्म का बंध वाणमतर-जोइसिय-वेमाणिए जहा परइए। -भग ० श० २६ । उ ११ । सू३ सयोगी अचरम मनोयोगी-वचनयोगी-कायोगी अचरम वाणव्यंतर प्रथम दो भंग से पापकर्म का बंध करते हैं। (घ) सयोगी अचरम ज्योतिषी तथा पापकर्म-बंध (च) सयोगी अचरम वैमानिक तथा पापकर्म.बंध Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४३ ) अचरम सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी ज्योतिषी तथा वैमानिकदेव प्रथम दो भंग से पापकर्म बांधते हैं। ३९ सयोगी अचरम नारको यावत् वैमानिकदेव ( मनुष्य बाद देकर ) तथा ज्ञानावरणीय कर्म का बंध सयोगी अचरम लारको यावत् वैमानिकदेव तथा दर्शनावरणीय कर्म का बंध सयोगी अचरम नारकी यावत् वैमानिकदेव तथा वेदनीय कर्म का बंध अचरिमे णं भंते ! णेरइए णाणावरणिज्ज कम्म कि बंधी-पुच्छा। गोयमा ! एवं जहेव पावं० x xx। दरिसणावरणिज्ज पि एवं चेव गिरवसेसं । वेयणिज्जे सव्वत्थ वि पढम-बिइया भंगा जाव वेमाणियाणं । -भग० श० २६ । उ ११ । सू ३ अचरम सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी नारकी आदि ज्ञानावरणीय कर्म का बंध पापकर्म बंध की तरह प्रथम-द्वितीय भंग से बंध करता है। मनुष्य को छोड़कर यावत् वैमानिक देवों तक इस प्रकार जानना चाहिए । इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म तथा वेदनीय कर्म के सम्बन्ध में जानना चाहिए। मनुष्य को बाद देकर सब दंडक कहना। सयोगी अचरम मनुष्य तथा ज्ञानावरणीय कर्म-बंध " दर्शनावरणीय , " वेदनीय ॥ अचरिमे णं मंते ! णेरइए णाणावरणिज्ज कम्म कि बंधी-पुच्छा। गोयमा! एवं जहेव पावं। णवरं मणुस्सेसु सकसायीसु लोभकसायीसु य पढम-बिइया भंगा, सेसा अद्वारस चरमविहणा, सेसं तहेव जाव वेमाणियाणं। दरिसणावरणिज्ज पि एवं चेव गिरवसेसं। वेयणिज्जे सव्वत्थ वि पढम-बिइया भंगा जाव वेमाणिया, णवरं मणुस्सेसु अलेस्से, केवली अजोगी य पत्थि । '- भग० श०२६ । उ ११ । सू ३ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४४ ) सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी अचरम मनुष्य ( अठारह पदों में ) ज्ञानावरणीय कर्म बंध की अपेक्षा अन्तिम भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग कहना चाहिए। इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के विषय में जानना चाहिए । इसी प्रकार वेदनीय कर्म के विषय में दो भंग (पहला दूसरा भग ) कहना चाहिए । किन्तु अचरम मनुष्य में अयोगी नहीं होता है। •४० सयोगी अचरम नारको आदि और मोहनीय कर्म का बंध अचरिमे णं भंते ! णेरइए मोहणिज्ज कम्मं किं बंधी-पुच्छागोयमा! जहेव पावं तहेव णिरवसेसं नाव बेमाणिए। -भग० श. २६ । उ ११ । सू ५ जिस प्रकार सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी अचरम नारकी के विषय में पाप कर्म बंध का कहा उसी प्रकार सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी अचरम नारकी मोहनीय कर्म प्रथम-द्वितीय-दो भंग से बंध करता है। बाकी अचरम दंडक जैसा पापकर्म बंधन के सम्बन्ध में कहा-वैसा ही निरवशेष कहना। .४१ सयोगी अचरम नारको व आयुष्य कर्म-बंधन अचरिमे णं भंते ! रइए आउयं कम्म कि बंधी—पुच्छा। गोयमा! पढम-तइया भंगा। एवं सवपएसु वि। रइयाणं पढम-तइया भंगा, णवरं सम्मामिच्छत्ते तइओ भंगो, एवं जाव थाणियकुमाराणं । -भग• श० २६ । उ ११ । मू ६ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी अचरम नारकी में आयुष्य कर्म के बंध की अपेक्षा पहला और तीसरा भंग कहना चाहिए। नारकियों में बहुवचन की अपेक्षा पहलातीसरा भंग कहना चाहिए। सयोगी भवनपतिदेव व आयुष्य बंध सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार भवनपतिदेव व आयुष्य बंध प्रथम-तृतीय भंग से आयुष्य कर्म का बंधन करता है। सयोगी-काययोगी अचरम पृथ्वीकायिक और आयुष्य बंध पुढविक्काइय-आउक्काइय-वणस्सइकाइयाण, तेउलेस्साए तइओ भंगो, सेसेसु पए सव्वत्थ पढम-तइया भंगा। -भग• T०२६ । उ ११ । सूई Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४५ ) सयोगी-काययोगी अचरम पृथ्वीकायिक आयुष्य कर्म का बंध प्रथम-तृतीय भंग से करता है। सयोगी-काययोगी अचरम अपकायिक और आयुष्य बंध " , वनस्पतिकायिक . सयोगी-काययोगी अचरम अपकायिक तथा वनस्पतिकायिक आयुष्य कर्म का बंध प्रथम-तृतीय भंग से करते हैं। सयोगी अचरम अग्निकायिक और आयुष्य बंध " वायुकायिक , अचरिमे x x x आउयं कम्मं कि बंधी-पुच्छा x x x। तेउकाइय वाउक्काइयाणं सम्वत्थ पढम-तइया भंगा। -भग• श• २६ । उ ११ । सू ६ सयोगी-काययोगी अचरम अग्निकायिक तथा वायुकायिक आयुष्य कर्म का प्रथमतृतीय भंग से बंध करता है। सयोगी अचरम द्वीन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रिय और आयुष्य बंध बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाण एवं चेव । -भग० श. २६ । उ ११ । सू ६ सयोगी-काययोगी अचरम द्वीन्द्रिय जीव यावत् चतुरिन्द्रिय जीव आयुष्य कर्म को प्रथम-तृतीय भंग से बांधता है। सयोगी अचरम तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और आयुष्य बंध पंचिवियतिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते तइओ भंगो, सेसेसु पएसु सम्वत्थ पढम-तइया भंगा। -भग० श० २६ । उ ११ । सू ६ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी अचरम पंचेन्द्रिय तिर्यंच-आयुष्य कर्म-बंधप्रथम-तृतीय भंग से करता है। सयोगी अचरम मनुष्य और आयुष्य बंध मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अधेयए, अकसायम्मि य तइयो भंगो, अलेस्सकेवलणाण-अजोगी य ण पुच्छिज्जति । सेसपएसु सव्वत्थ पढम तइया भंगा। -भग० श० २६ । उ ११ । सू ६ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोगी मनुष्य अचरम नहीं होता है अतः इसकी पुच्छा नहीं करनी चाहिए। सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी मनुष्य प्रथम-तृतीय-दो भग से आयुष्य बाँधता है । सयोगी अचरम वाणव्यंतर देव व आयुष्य बंध वाणमंतर जोइसिय-वेमाणिया जहा गेरइया। सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी वाणव्यन्तर देव प्रथम-तृतीय भंग से आयुष्य बांधता है। सयोगी अचरम ज्योतिषी व वैमानिक देव और आयुष्य बंध सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी ज्योतिषी व वैमानिकदेव प्रथम-तृतीय भंग से आयुष्य बांधता है। .४२ सयोगी अचरम नारकी तथा नाम कर्म .४३ " " गोत्रकर्म •४४ , , अंतराय कर्म णामं गोयं अंतराइयं च जहेव णाणावरणिज्जं तहेव गिरवसेसं। -भग० श० २६ । उ ११ । सू ६ ज्ञानावरणीय कर्म बंध की तरह अचरम सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगीनारकी पहले-दूसरे भंग से नाम-गोत्र-अंतराय कर्म का बंधन करता है । सयोगी अचरम असुरकुमार यावत् वैमानिक देव और नाम कर्म-गोत्र-अंतराय कर्म का बंध नाम, गोत्र व अन्तराय सम्बन्धी पद ज्ञानावरणीय कर्म की वक्तव्यत्ता की तरह जानना। •४५ कार्मण काययोगी जीव आयुष्य नहीं बांधता है कार्मणकाययोगिनां औदारिकमिश्रकाययोगिवद् भवति । तत्रापि विग्रहगता वायुबंधो नेति। -गोक० गा० ११९ । टीका कार्मण काययोगी जीव आयु का बंधन नहीं करता है। •४६ माहारकमिश्रकाययोगी जीव आयुष्य नहीं बांधता ( आहारककाय ) तन्मिश्रकाययोगिनांxxx तम्मिस्सेणत्थि देवाऊ । इति वचनात् अबन्धः। –गोक० गा० ११८ । टीका Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४७ । आहारकमिश्रकाययोगी जीव देवायु का बंध नहीं करता है। नोट-नारकादि तीन आयु का भी बंध नहीं होता है। योग और कर्म बंध औदारिकमिश्रकाययोग और कर्म-बंध औदारिकमिश्रकाययोगिषु औदारिककाययोगिवद् बन्धप्रकृतयो व्युच्छित्यादयश्च ज्ञातव्याः। औदारिकमिश्रकाययोगिनोहि लब्ध्यपर्याप्ताः निवृत्त्यपर्याप्ताश्च तेन देवनारकायुषी आहारकद्वयं नरकद्वयं च तत्र बन्धयोग्यं नेति चतुर्दशोत्तरशतम् । तथापि सुरचतुष्कं तीथं च मिथ्यादृष्टिसासादनयोर्न बध्नाति । अविरते च बध्नाति। -गोक० गा० ११५ । टीका औदारिकमिश्रकाययोगियों में औदारिककाययोगियों की तरह बन्ध प्रकृतियाँ और व्युच्छित्ति आदि जानना। औदारिकमिश्र काययोगी लब्ध्यपर्याप्त और निवृत्यपर्याप्त होते हैं, अतः उनके देवायु, नरकायु, आहारकद्धिक और नरकद्विक-बंध योग्य नहीं है। इसमें ११४ बंधयोग्य है। उनमें से भी सुरचतुष्क और तीर्थङ्कर, मिथ्यादृष्टि और सासादन में नहीं बंधती है। असंयत सम्यग्दृष्टि में बंधती है। मोहनीय कर्म में रति-अरति प्रतिपक्षी है, हास्य-शोक प्रतिपक्षी है, तीनों वेद परस्पर प्रतिपक्षी है। साता-असातावेदनीय प्रतिपक्षी है। नोट-प्रकृति बंध और प्रदेश बंध का कारण योगस्थान है। वक्रियमिश्रकाययोगी जीव आयुष्य नहीं बांधया वैक्रियिकमिश्रकाययोगिनां बन्धप्रकृतयः तत्र नरतिर्यगायुषो बन्धो नास्तीति । -गोक० गा० ११८ । टीका वैक्रियमिश्रकाययोगी जीव आयुष्य का बंधन नहीं करता है। मनुष्यायु व तिर्यंच आयुष्य को नहीं बांधता है। ___ नोट-गोम्मटसार के अनुसार वैक्रियकाययोग व वैक्रिय मिश्र काययोग–देव व नारकी के होता है। मनुष्य-तिर्यंच में नहीं होता है । योग और बंध •४७ कार्मणशरीरनामकर्मोदयापादितजीवप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणयोगहेतुना कार्म__णवर्गणायातपुद्गलस्कन्धाः मूलोत्तरोत्तरोत्तरप्रकृतिरूपेणआत्मप्रदेशेषु अन्योन्यप्रवेशानुप्रवेशलक्षणबंध रूपेणावस्थिताःx xx। -गोक० गा० १२५ । टौका Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४८ ) कार्मण शरीरनामक नामकर्म के उदय से और जीव के प्रदेशों की चंचलता रूप योग के निमित्त से कार्मण वर्गणारूप से आये पुद्गलस्कन्ध मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति रूप होकर आत्मा के प्रदेशों में परस्पर प्रवेश करते हैं उसी को बंध कहते हैं । ४८ वेदनीय कर्म का बंधन तथा योग-लेश्या जीवेणं भंते! वेrणिज्जं कम्मं कि बंधी ० पुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंध बंधिस्स १, अत्थेगइए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २, अत्थेगइए बंधी न बंधइ न बंधिस्स ४, सलेस्से वि एवं चेव तइयविहूणा भंगा। कण्हलेस्से जाव पहले से पढम- बिइया भंगा, सुक्कलेस्से तइयविहुणा भंगा, अलेस्से चरिमो भंगो । कण्हपक्खि पढमबिइया । सुक्कपक्खिया तइयविहुणा । एवं सम्मदिहिस्स वि, यमिच्छादिट्टिस्स सम्मामिच्छादिट्टिस्स य पढमबिइया । णाणिस्स तयविहुणा, आभिणिबोहिय जाव मणपज्जवणाणी पढम-बिइया, केवलणाणी तइयविणा । एवं नोसम्नोवउत्ते, अवेदए, अकसायी । सागारोवउत्तं अणागारोवते एएसुतइयविहुणा । अजोगम्मि य चरिमो, सेसेसु पढमबिइया । - भग० श० २६ । उ १ । सू १७ वेदनीय कर्म ही एक ऐसा कम है जो अकेला भी बंध सकता है । यह स्थिति ग्यारवें बारहवें व तेरहवें गुणस्थान के जीवों में होती है । इन गुणस्थानों में वेदनीय कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्मों का बंधन नहीं होता है । इनमें से ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में चतुर्थ भंग लागू नहीं हो सकता है। चौदहवें गुणस्थान के जीव के निर्विवाद चतुर्थ भंग लागू होता है । उपरोक्त पाठ से यह ज्ञात होता है कि सलेशी - शुक्ललेशी जीवों में कोई एक जीव ऐसा होता है जिसके चतुर्थ भंग से वेदनीय कर्म का बंधन होता है अर्थात् वह शुक्ल लेशी जीव वर्तमान में न तो वेदनीय कर्म का बंधन करता है और न भविष्यत् में करेगा । चौदहवें गुणस्थान का जीव लेशी शुक्ललेशी हो नहीं सकता है । अतः उपरोक्त शुक्ललेशी जीव तेरहवें गुणस्थान वाला ही होना चाहिए । जीव के साता वेदनीय कर्म का बंधन ईर्यापथिक रूप में होता रहता है । का जीव वेदनीय कर्म का अबंधक नहीं होता है । लेकिन तेरहवें गुणस्थान के तेरहवें गुणस्थान टीकाकार का कहना है- "सलेशी जीव अन्य भंगों से वेदनीय कर्म का बंधन करता है क्योंकि चतुर्थ भंग लेश्या रहित अयोगी को तक होती है तथा वहाँ तक वेदनीय कर्म का पूर्वोक्त हेतु से तीसरे भंग को बाद देकर लेकिन उसमें चतुर्थ भंग नहीं घट सकता घट सकता है । बंधन होता रहता है ही लेश्या तेरहवें गुणस्थान । कई आचार्य इसका प्रथम समय में घण्टा इस प्रकार समाधान करते हैं कि इस सूत्र के वचन से अयोगीत्व के लाला न्याय से परम शुक्ललेश्या संभव है तथा इसी अपेक्षा से सलेशी- शुक्ललेशी जीव के चतुर्थ भंग घट सकता है । तत्त्व बहुश्रुतगम्य है ।" Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४९ ) नोट - हमारे विचार में इसका एक यह समाधान भी हो सकता है कि लेश्या परिणामों की अपेक्षा अलग से वेदनीय कर्म का बंधन होता है तथा योग की अपेक्षा अलग से वेदनीय कर्म का बंधन होता । तब तेरहवें गुणस्थान में कोई एक जीव ऐसा हो सकता है जिसके लेश्या की अपेक्षा वेदनीय कर्म का बंधन रूक जाता है लेकिन योग की अपेक्षा चालू रहता है । • ४९ योग और लेश्या लेसा तिनि पमत्तं, तेऊपम्हा उ अप्पमत्तंता । सुक्का जाव सजोगी, निरुद्धलेसो अजोगित्ति ॥ योग रहित जीव अलेशी है, सयोगी गुणस्थान में केवल शुक्ल लेश्या है । छसु सव्वा तेउतिगं, इगि छसु सुक्का अजोगिअलेस्सा । - चतुर्थ कर्म० गा ५० | पूर्वार्ध अहक्खाय सुहुम केवलदुगि सुक्का छावि सेसठाणेसु । - जिनवल्लभीय षडशीति गा ७३ टोका-यथाख्यातसंयमे सूक्ष्मसंपरायसंयमे च 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे शुक्ललेश्यैव न शेषलेश्या:, यथाख्यातसंयमादी एकांतविशुद्धपरिणामभावात् तस्य य शुक्ललेश्याऽविनाभूतत्वात् । 'शेषस्थानेषु' सुरगतौ x x x पंचेन्द्रियत्र स काययोगत्रय वेदत्रय x x x शेषमार्गणास्थानकेषु षडपिलेश्याः । - चतुर्थ कर्म० गा ३७ । पूर्वार्ध तीन योग - मन, वचन काययोग में कृष्णादि छओं लेश्या होती है । •५० योगस्थान और प्रकृति बंध और प्रदेश बंध प्रकृतिप्रदेशबन्धनिबन्धनयोगस्थानानां चतसृपि x x x - ५१ योग और बंधक - अबंधक प्रकृति बंध और प्रदेश बंध का कारण योगस्थान है । - गोक० गा० १२६ । टीका जोगाणुवादेण मणजोगि वचिजोगि. कायजोगिणी बंधा ॥ १४ ॥ टीका - एदं पि सुगमं । अजोगी अबंधा ॥१५॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५० ) टीका--जोगो णाम कि ? मण-वयण-कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिप्फंदो। जदि एवं तो पत्थि अजोगिणो, सरीरयस्स जीवदव्वस्स अकिरियत्तविरोहादो। ण एस दोसो। -षट० २, १, १४, १५ । पु० ७ । पृ० १७ योग मार्गणानुसार मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी बंधक है। अयोगी जीव अबंधक है। मन, वचन और काय संबंधी पुद्गलों के आलम्बन से जो जीव प्रदेशों का परिस्पन्दन होता है वही योग है। अध्ययन, गाथा, सूत्र आदि की संकेत सूची अध्ययन, अध्याय प्राभृत अधिकार प्रतिप्राभृत उद्देश, उद्देशक भाष्य गाथा चरण लाइन वर्ग चलिका वातिक टीका वृत्ति शतक द्वार शीलांका शीलांकाचार्य नियुक्ति श्रुतस्कन्ध पद श्लो श्लोक पंक्ति समवाय प्रा प्रपा भाग चूर्णी दशा सम पृष्ठ पैरा स्था सिद्ध स्थान सिद्धसेन हारीभद्रीय संधि प्रश्न प्रकीर्णक प्रतिपत्ति प्रकी हा संधि प्रति - - संकलन सम्पादन अनुसंधान में प्रमुख ग्रन्थों की सूची १ से ४ अंगसूत्ताणि आयारो-सूयगडो-ठाणं-समबाओ वाचना प्रमुख-आचार्य (वर्तमान नाम-गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी) संपादकमनि नथमल (वर्तमान नाम-आचार्य श्री महाप्रज्ञ)। प्रकाशक-जैन विश्वभारती, लाडणू। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ वाचना प्रमुख – आचार्य तुलसी, संपादक - मुनि नथमल ( वर्तमान नाम – आचार्य श्री महाप्रज्ञ ) प्रकाशक - जैन विश्वभारती, लाडणू । ६ से ११ अंगसूत्ताणि अंगसूत्ताणि भगवई - संकेत - भग० णायाधम्मक हाओ - उवासगदसाओ - अंतगडदसाओ - अणुत्तरोववाइदसाओपावागराण- विवागसूथं । वाचना प्रमुख - आचार्य तुलसी, संपादक- मुनि नथमल ( वर्तमान नाम – आचार्य श्री महाप्रज्ञ ) प्रकाशक - जैन विश्वभारती, लाडणू । ( ३५१ ) १२ से १४ उवसगसूत्ताणि ( खंड १ ) वाचना प्रमुख - आचार्य तुलसी, संपादक - आचार्य श्री महाप्रज्ञ । प्रकाशकजैन विश्वभारती लाडणू । १५ से २३ उवसगसूत्ताणि ( खंड २ ) पण्णवणा जंबुदीवपण्णत्ती-चंदपण्णत्ती-सूरपण्णत्ती-निरयावलियाओ कप्पवडिसियाओ पुफियाओ - पुप्फच लियाओ वहिदसाओ । वाचना प्रमुख – आचार्य तुलसी, संपादक - आचार्य श्री महाप्रज्ञ, प्रकाशक - जैन विश्वभारती लाडणू ३४ ओवाइयं-रायपसेणियं जीवाजीवाभिगमे २४ से ३२ आवस्सयं - दसवेआलिय उत्तरज्भयाणी- नंदी - अणुओगदाराइ' दसाओ- कप्पो ववहारो - निसीहज्झयण । ३५ वाचना प्रमुख – आचार्य तुलसी, संपादक – आचार्य श्री महाप्रज्ञ, प्रकाशक - जैन विश्वभारती, लाडणू । ३३ ३६ कप्पत्तं संकेत कप्पसु० प्रकाशक -- साराभाई मणिलाल, अहमदाबाद | सभाष्यतत्त्वार्थ सूत्र- संकेत-तत्त्व ० प्रकाशक-परमश्रुत प्रभावक मंडल, खाराकुआ, बम्बई- २ तत्वार्थ सर्वार्थसिद्धि-संकेत तत्त्वसर्व ० प्रकाशक- भारतीय ज्ञान पीठ, वाराणसी । तत्त्वार्थवार्तिक ( राजवार्तिक ) संकेत-तत्त्वराज • प्रकाशक - भारतीय ज्ञान पीठ, वाराणसी, भाग-२ । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ૪. ( ३५२ ) तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकार-संकेत-तत्त्वश्लो० प्रकाशक - रामचन्द्र नाथारंग, बम्बई । तत्त्वार्थसिद्धसेन टीका संकेत-तत्त्वसिद्ध ० भाग- २ प्रकाशक - जीवचन्द साकेरचंद जवेरी, बम्बई । कर्म ग्रन्थ- संकेत - कर्म० भाग - ६ प्रकाशक - श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर । गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) संकेत- गोजी ० प्रकाशक - परमश्रुत प्रभावक मंडल, बम्बई । गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ) संकेत- गोक O प्रकाशक - परमश्रुत प्रभावक मंडल, बम्बई । अभिधान राजेन्द्र कोश- संकेत - अभिधा ० प्रकाशक - श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय, जैन श्वेताम्बर समस्त संघ, रतलाम । पाइअसहमहण्णवो संकेत पाइअ० प्रकाशक- हरगोविन्दलाल त्री • सेठ, कलकत्ता । महाभारत- संकेत- महा० प्रकाशक - गीता प्रेस, गोरखपुर, टीका बेंकटेश्वर, बम्बई । पातञ्जल योगदर्शन- संकेत-पायोग ० अंगुत्तरनिकाय संकेत- अंगु प्रकाशक - बिहार राज्यपालि प्रकाशन मंडल, नालंदा, पटना । समयसार - सम्पादक - प्रा० ए० चक्रवर्ती, प्रकाशक- भारतीय ज्ञान पीठ, काशी १९५० । ज्ञानसार - भाग १ से २ सम्पादन - मुनि श्री भद्रगुप्त विजय, प्रकाशन - श्री विश्व कल्याण, प्रकाशन - हारीज, उत्तर गुजरात, १९६७ । लेश्या कोश पर विद्वानों की सम्मति लेश्या कोश - सम्पादक श्री मोहनलाल वांठिया, श्री श्रीचंद चोररिया, प्रकाशक मोहनलाल बांठिया, १६ / सी, डोवर लेन, कलकत्ता ७०० ०२९ प्रथम वर्ष १९६६ । मूल्य १०) रुपये । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५३ ) इस कोश का संपादन करने में ४६ ग्रन्थों व सूत्रों का सहारा लिया गया है। संपादक द्वय का परिश्रम सराहनीय है। जैन दर्शन गहन है। सब विषयों पर कोश तैयार होना बहुत कठिन है परन्तु यदि ऐसे कुछ खास विषयों के कोश तैयार हो सके तो उन जैन स्कालरों को बड़ी सुविधा हो जाय । इस प्रकार का लेश्या कोश प्रथम बार ही प्रगट हुआ है। संपादकों ने बहुत परिश्रम करके जनता के हितार्थ यह पुस्तक लिखी और प्रकाशित की है। इसमें लेश्या शब्द के अर्थ, पर्यायवाची शब्द, परिभाषा के उपयोगी पाठ, लेश्या के भेद, लेश्या पर विवेचन गाथा, लेश्या संबंधी फुटकर पाठ विद्वानों को पढ़ने और समझने योग्य है। सारांश यह है कि लेश्या परिणामों का विस्तृत विवेचन जानना हो तो यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है। -श्वेताम्बर जैन-जनवरी १९६९ Prof. Dr. K. L. Janert, Director, Institut fur Indologie Der Universitat zu Koln. “I have received your book Lesya Kosa, I also owe you a valuable addition to my Library. It is always a matter of great satisfaction to me to see a scholar not recoil from the arduous task of compiling dictionaries, indexes etc.--even that great English Critic and Lexicographer, Dr. Samuel Johnson, called it drudgery some two hundred years ago. And it is of course only diligent collection and comparison of all relevent material that genuine advance in knowledge is based on. So we shall have to thank you for having made work easier for those who come after you. Prof. Padamanath S. Jain Dept. of Buddhist Studies, University of California, Berkiley, U.S. A. "Please forgive me for the delay in acknowledging the receipt of your excellent gift of the Lesya-Kosa. This is an extraordinary work and you deserve our gratitude for publishing it. You have opened a new field of research and have established a new model for all future Jain studies. The subject is fascinating not only for its antiquity but also for its value in the study of Indian Psychology." क्रिया-कोश पर प्राप्त समीक्षा Pranjnachakshu Pandit Sukhlal D. Litt., Ahmedabad. After Lesya-Kosa, I have received your Kriya-Kosa. Thanks. I have heard the Editorial, Fore word, Preface in full and certain portions Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 348 ) thereafter. I am surprised to find such dilligence, such concentration and such devotion to learning. Particularly so, because such person is rarely found in business community who dedicates himself to learning like a BRAHMIN. Dr. Adinath Neminath Upadhye D. Litt. Shivaji University, Kolhapur. I am in receipt of the copy of the 'Kriya-Kosa', so kindly sent by you. It is a remarkable source book which brings in one place so systematically, the references and extracts which shed abundant light on the usage of the term Kriya in Jainism. The Kosas that are being brought out by you will prove of substantial help to the future compliation of an Encyclopaedia on Jainism. I shall eagerly look forth to the publication of your DHYAN KOSA. With felicitations on your scholarly achievements. Dr. P. L. Vaidya, D. Litt. Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona-4. I am very grateful to you for your sending me a copy of your Cyclopaedia of Kriya. I have read a few pages already and find it as useful as your Lesya-Kosa. Please do bring out similar volumes on different topics of Jain Philosophy, of course, this may not bring you any material wealth, but I am sure students of Jain Literature will surely bless you for having offered them a real help in their study. Prof. Hiralal Rasikdas Kapadiya, Surat, Bombay. This work (Kriya Kosa ) will be very useful to scholars interested in Jajnology. The learned editors deserve hearty congratulations for having undertaken such a laborious and tedious task. मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास पर अभिमत [na **** ettfşar, Facuater, #T# ofa aria afufa psov 979 ?X) 692 ] मिथ्यात्वी के आध्यात्मिक विकास पर श्रीचन्द चोरडिया ने अति परिश्रम से बहत सुन्दर विवेचन किया है। अनेक उद्धरणों से सिद्ध किया है कि मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास हो सकता है। इस विषय में चोरडिया की पूरी जानकारी है। -मुनिश्री राजकरण Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५५ ) Golory of India, ferant 'मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' यह पुस्तक अनेक विशिष्टताओं से युक्त हैं । एक मिथ्यात्वी भी सद्-अनुष्ठानिक क्रिया से अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है। साम्प्रदायिक मतभेदों की बातें या तो आई ही नहीं है अथवा भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों का समभाव से उल्लेख कर दिया गया है। श्री चोरडियाजी ने विषय का प्रतिपादन बहुत ही सुन्दर और तत्तस्पर्षी ढंग से किया है विद्वज्जन इसका मूल्यांकन करें। निःसन्देह दार्शनिक जगत के लिए चोरड़ियाजी की यह एक अप्रतिम देन है। मुनिश्री जशकरण, सुजानगढ़ ____ अनुमानतः लेखक ने इस ग्रन्थ को लिखने के लिए अनेकानेक ग्रन्थों का अवलोकन किया हैं । टीका, भाष्यों के सुन्दर संदर्भो से पुस्तक अतीव आकर्षक बनी है। डॉ० भागचन्द्र जैन, नागपुर विद्वान् लेखक ने यह स्पष्ट करने का साधार प्रयत्न किया है कि मिथ्यात्वी का कब और किस प्रकार विकास हो सकता है । लेखक और प्रकाशक इतने सुन्दर ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए बधाई के पात्र हैं। डॉ. दामोदर शास्त्री लेखक ने अपने इस ग्रन्थ में शोधसार समाविष्ट कर शोधार्थी विद्वज्जनों के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। यत्र-तत्र पेचीदे प्रश्नों को उठाकर उसका सोदाहरण व शास्त्र सम्मत समाधान भी किया गया है । मुनिश्री राकेशकुमार, कलकत्ता श्रीचन्द चोरडिया के विशिष्ट ग्रन्थ 'मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' में शास्त्रीय दार्शनिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण प्रतिपादन हुआ है। जैन धर्म के तात्विक चिन्तन में रूचि रखनेवालों के लिए तो यह पुस्तक ज्ञानवर्द्धक और रसप्रद है ही, किन्तु साम्प्रदायिक अनाग्रह और वैचारिक उदारता के इस युग में हर बौद्धिक और चिन्तनशील व्यक्ति के लिए इसका स्वाध्याय उपयोगी भी है। भंवरलाल जैन न्यायतीर्थ, जयपुर पुस्तक में नौ अध्याय है -विभिन्न दृष्टिकोणों से मिथ्यात्वी अपना आत्म विकास किस रूप में किस प्रकार कर सकता है-यह दर्शाया है। जैन सिद्धान्त के प्रमाणों के आधार पर इस विषय को स्पष्टतया पाठकों के समक्ष लेखक ने सरल सुबोध भाषा में रखा Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५६ ) है। जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। शास्त्रीय चर्चा को अभिनय रूप में प्रस्तुत करने में लेखक सफल हुए हैं। ( वीर वाणी )। रामसूरी ( डेलावाला), कलकत्ता 'मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास' पुस्तक में आलेखित पदार्थों के दर्शन से जैन दर्शन व जैनागमों की अजनों की तरफ उदात्त भावना और आदरशीलता प्रकट होती है । एवं जैन धर्म को अप्राप्त आत्माओं में कितने प्रमाण में आध्यात्मिक विकास हो सकता हैइत्यादिक विषयों का आलेखन बहुत सुन्दरता से जैनागमों के सूत्रपाठों से दिखाया गया हैं। इसलिए विद्वान् श्रीचन्द चोरड़िया का प्रयास बहुत प्रशंसनीय है और यह ग्रन्थ दर्शनीय है। डॉ. नरेन्द्र भणावत, जयपुर लेखक की यह कृति पाठकों का ध्यान एक नई दिशा की ओर खींचती हैं। शास्त्र मर्मज्ञ विद्वानों को विविध विषयों पर गहराई से चिन्तन करने की ओर प्रवृत्ति करने में यह पुस्तक सहायक बनेगी। डॉ. ज्योति प्रसाद जन, लखनऊ प्रायः यह समझा जाता है कि मिथ्यात्वी व्यक्ति धर्माचरण का अधिकारी नहीं है और उसका आध्यात्मिक विकास नहीं हो सकता। भ्रान्ति का निरसन विद्वान लेखक ने सरल-सुबोध किन्तु विवेचनात्मक शैली में और अनेक शास्त्रीय प्रमाणों की पुष्ठिपूर्वक किया है। जमनालाल जैन, वाराणसी यह अपने विषय की अपूर्वकृति है। मनीषी लेखक ने लगभग दो सौ ग्रन्थों का गम्भीर परायण एवं आलोडन करके शास्त्रीय रूप में अपने विषय को प्राप्त किया है । परिभाषाओं और विशिष्ट शब्दों में आबद्ध तात्त्विक प्ररूपणाओं एवं परम्पराओं को उन्मुक्त भाव से समझने के लिए यह कृति अतीव मूल्यवान है । (श्रमण पत्रिका) भंवरलाल नाहटा, कलकत्ता शास्त्र प्रमाणों से परिपूर्ण इस ग्रन्थों में विद्वान लेखक ने नौ अध्यायों में प्रस्तुत बिषय पर अच्छा प्रकाश डाला है। पं० चन्द्रभूषणमणि त्रिपाठी, राजगृह लेखक ने काफी विस्तार के साथ उस चर्चा को पुन: चिन्तन का आयाम दिया है। पुस्तक एक अच्छी चिन्तन सामग्री उपस्थित करती है । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५७ ) वर्धमान जीवनकोश, प्रथम खण्ड पर प्राप्त समीक्षा वर्धमान जीवन कोश ( प्रथम खण्ड ) : सम्पादक - मोहनलाल बांठिया श्रीचन्द चोरड़िया, प्रकाशक - जैन दर्शन समिति, १६ / सौ डोवर लेन, कलकत्ता - ७००० २९ । पृष्ठ ५१+ ५८४, मूल्य ५०) रुपये 1 प्रस्तुत ग्रन्थ में चौवीसवें तीर्थङ्कर भगवान महावीर के जीवन से सम्बन्धित च्यवन से परिनिर्वाण तक की शास्त्रीय सामग्री संकलित की गई है । इस सामग्री चयन के लिए मूल श्वेताम्बर जैन आगमों, उनकी टीकाओं, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी, कसायपाहुड़ और दिगम्बर पुराणों, ग्रन्थों तथा संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में लिखे महावीर चरित्रों आदि का सहारा लिया गया है । यह ग्रन्थ जैन आगम तथा आगमेतर साहित्य पर शोध कर रहे छात्रों के लिए विशेष उपयोगी होगर । इसमें भगवान महावीर के च्यवन से परिनिर्वाण तक हुआ है। जैन दशमलव प्रणाली से विवेचन अतिगम्भीरता से किया है । - श्रमण, जुलाई १९८१ विवेचन बहुत सुन्दर ढंग से डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ वर्धमान जीवनकोश, द्वितीय खण्ड पर प्राप्त समीक्षा - मुनिश्री राजकरण यह युग विधिवद्ध खोज व शोध का है । अन्वेषक कार्य को सहज और सुगम करने के लिए ही विभिन्न प्रकार के संदर्भ ग्रन्थों की बड़ी उपयोगिता है । इन संदर्भ ग्रन्थों से भी अधिक उपयोगिता है वर्गीकृत कोषों की । वर्गीकृत कोश ग्रन्थ जैसा कि वर्धमान जीवन कोश द्वितीय खण्ड, पूर्व प्रकाशित सभी ग्रन्थों से भिन्न है । इस कार्य के लिए आगम ग्रन्थ उनकी टीकायें, श्वेताम्बर व दिगम्बर आगमेतर ग्रन्थ, कुछ बौद्ध एवं ब्राह्मण्य ग्रन्थ एवं परवर्तीकालीन कोश, अभिधान आदि का भी उपयोग किया है । इस खण्ड में उनके ३३ या २७ भवों का विवरण जो कि श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा से लिया गया है। इससे तुलनात्मक अध्ययन सुगम हो हो जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें भगवान् महावीर के पाँचों कल्याणक, नाम एवं उपनाम, उनकी स्तुतियाँ, समवसरण, दिव्यध्वनि, संघविवरण, इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों का पृथक् विवरण आदि संकलित है । आर्या चन्दना का भी विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है । इस भाग में संकलित अनेक विषय बहुधा प्रथम भाग में संकलित विषयों के परिपूरक है । विषयों को इसमें अंतर्जातीय दशमलव के रूप में विभाजित व संकलित किया गया है जैसा कि सम्पादकों ने उपरोक्त वर्गीकृत कोश ग्रन्थों में किया है । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५८ ) विद्वानों व अन्वेषकों के लिए तीर्थङ्कर भगवान महावीर के इस भाँति के वर्गीकृत कोष ग्रन्थों की उपादेयता के विषय में कोई दो मत नहीं हो सकता। परिश्रम साध्य व समय सापेक्ष इस कार्य को इतने सुचारु रूप से संपादन करने के लिए हम विद्वान पण्डित श्रीचन्द चोरड़िया का आन्तरिक भाव से अभिनन्दन करते हैं। साथ ही जैन दर्शन समिति और उनके कार्यकर्ताओं को भी इसके प्रकाशन के लिए धन्यवाद देते हैं। मुनिश्री जसकरण, सुजान, बोरावड़ ( सुजानगढ़ वाले ) ता. ९-५-८७ वर्धमान जीवन कोश (द्वितीय खण्ड ) में भगवान महावीर के जीवन सम्बन्धित अनेक भवों की विचित्र एवं महत्वपूर्ण उपलब्धि है। यह कार्य अति उत्तम एवं प्रशंसनीय है। इसके लेखक मोहनलालजी बांठिया तथा श्रीचन्दजी चोरड़िया के श्रम का ही सुफल है। यह ग्रन्थ इतना सुन्दर एवं सुरम्य बन सका है। शोधकर्ताओं के लिए यह ग्रन्थ काफी उपयोगी होगा-ऐसा विश्वास है। रिसर्च करने वालों को भगवान् वर्धमान के सम्बन्ध में सारी सामग्री इस ग्रन्थ में उपलब्ध हो सकेगी। वर्धमान जीवन कोश (द्वितीय खण्ड )-संपादक मोहनलाल बांठिया, श्रीचन्द चोरडिया, प्रकाशक जैन दर्शन समिति, १६/सी, डोवर लेन, कलकत्ता-७०० ०२९ पृष्ठ ४६ + ३४४ = ३९• मूल्य ६५) रुपये। प्रस्तुत ग्रन्थ उपलब्ध जैन वाङ्मय से भगवान महावीर की जीवनी से सम्बन्धित मूल पाठ एवं अनुवाद प्रकाशित कर शोधार्थियों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण सामग्री का यह दूसरा भाग है। ऐसे ग्रंथों के संपादन में बहुश्रुतत्व और धैर्यपूर्वक सम्पन्न करने में विद्वान् संपादक अवश्य ही सफल हुए हैं। --कुशल निर्देश मार्च १९९२ वर्धमान जीवनकोश तृतीय खण्ड पर प्राप्त समीक्षा वर्धमान जीवन कोश, तृतीय खण्ड । -संपादक मोहनलाल बांठिया, श्रीचंद चोरड़िया, १६/सी, डोवर लेन, कलकत्ता-७०. ०२९ । पृष्ठ ८० + ४४८ । मूल्य ७५) रुपये। यह सब आपके परिश्रम का परिणाम है। हर पुस्तक का अलग-अलग विवरण दिया है। मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। -जबरमल भंडारी, जोधपुर प्रस्तुत ग्रन्थ जैनागमों व ग्रन्थों के मंथन द्वारा संकलित भगवान महावीर के जीवन सामग्री को सानुवाद संग्रह करने का भगीरथ प्रयत्न है। जैन धर्म से सम्बन्धित शोध करने वालों के लिए यह बहुत ही सहायक और वर्षों से निष्ठापूर्वक किये गये परिश्रम का सुखद परिणाम है। संपादक महोदय ने कृत पूर्व दो खण्डों में एतद् विषयक सामग्री Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५९ ) पुस्तक करने के अतिरिक्त लेश्या कोश, क्रिया कोश और मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास संस्था द्वारा प्रकाशित कर जैन समाज का ही नहीं अनुसंधेत्सु छात्रों विद्वानों का भी बड़ा उपकार किया है । — भँवरलाल नाहटा इस कोश में भगवान महावीर के चतुविध संघ के प्रमाण का निरूपण, भगवान महावीर के शासन में पार्श्वनाथ की परंपरा, सर्वज्ञ अवस्था के विहार स्थल आदि का सांगोपांग विवेचन है । 'योगकोश' प्रथम खण्ड पर प्राप्त समीक्षा योग कोश ( प्रथम खण्ड ) – सम्पादक श्रीचन्द चोरड़िया, न्याय तीर्थं । प्रकाशक जैन दर्शन समिति, १६ / सी, डोवर लेन, कलकत्ता ७०००२९ । सजिल्द मूल्य १०० ) । - डा० ज्योतिप्रसाद जैन आज से अड़तीस वर्ष पूर्व आचार्य श्री तुलसी ने आगम संपादन के कार्य करने की घोषणा की थी । संपादन का एक अंग कोश है । तत्त्वज्ञ श्रावक श्री मोहनलालजी बांठिया ने इस कार्य को अपने ढंग से करना शुरु किया । कोश का निर्माण दृढ़ और स्थिर अध्यक्षसाथ से ही होता है । वे मनोयोग से लगे । उन्हें सहयोगी मिले श्री श्रीचन्द चोरड़िया ( न्यायतीर्थ ) अस्वस्थ रहते हुए श्री बांठियाजी इस कार्य को करते रहे । उनके देहान्त ( २३-९-१९७६ ) होने के बाद उनके अधुरे कार्य को पूरा करने में लगे हुए हैं - श्री श्रीचन्द चोरड़िया । सीमित साधन सामग्री में वे जो कुछ कर पा रहे हैं, वह उनके दृढ़ संकल्प का ही परिणाम है । क्रिया कोश, लेश्या कोश, मिध्यात्वी का आध्यात्मिक विकास, वर्धमान जीवन कोश ( खण्ड १, २, ३ ) के पश्चात् अब योग कोश को सम्पन किया है । स्तुत्य है । आगमों के इन अन्वेषणीय विषयों पर कोई भी चले अनुमोदनीय है, अनुकरणीय है । फिर भी जैन दर्शन समिति का यह प्रकाशन विशेष संग्रहणीय बन पड़ा है । श्रम का उपयोग कितना होता है- यह तो शोधकर्ताओं पर निर्भर करता है । कोश की श्रृंखला विराम न ले, चोरड़िया में स्वाध्याय व सृजन दोनों की वृद्धि हो - इसी शुभाशंषा के साथ | कलकत्ता- माघ शुक्ला ५, २०५० मुनि सुमेर ( लाडणू ) प्रस्तुत पुस्तक स्व० मोहनलाल जी बांठिया द्वारा प्रारंभित जिनागम समुद्र अवगाहन कर विभिन्न जीवन आदि विषयों की श्रृंखला का दशमलव वर्गीकरण द्वारा पुष्प ग्रन्थ रहन Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। शोध छात्रों व वाङ्मय रसिकों के लिए बड़ा उपयोगी है। ऐसे ग्रन्थों का अध्ययन अध्येता के लिए बहुश्रुतत्व में वृद्धि करता है। फिर भी संशोधनादि में पर्याप्त सतर्कता आवश्यक है। इसका प्रकाशन कर उच्चस्तरीय जैन साहित्य में अवश्य ही विद्वान संपादक ने बड़ा उपकार किया है। सहायक ग्रन्थ सूची में अधिकांश लाडणू में प्रकाशित ग्रन्थ है जबकि कई दिगम्बर व जैनेतर ग्रन्थों का भी उपयोग किया है पर जैन साहित्य अति विशाल है। जितना इस प्रथम खण्ड में आया है, अवशिष्ट द्वितीय खण्ड में अपेक्षित है। शोध और स्वाध्याय रुचि वालों के लिए यह संदर्भ ग्रन्थ अवश्य पठनीय है। -कुशल निर्देश १९९४ “योग कोश पर प्राप्त समीक्षा" Srichandra Chorariya (ed)--Cyclopaedia of Yoga ( Yoga-Kosa ), Jain Darsan Samiti, 16-C, Dover Lane, Calcutta, 1993, p.p. 90-+-336. Price Rs. 100.00. It is a great pleasure in introducing the first part of the Cyclopaedia of Yoga (Yoga-Kosa) by Srichand Chorariya who has been known to the scholarly world for his contributions to the different Cyclopaedias of Jainism. Sri Chorariya in his own scholastic way has divided the text into several divisions as followed normally in the library science. As this is a Cyclopaedia it contains all the references found in the Jain literature. The most important aspect of his collection is that he has given all the references from the Jain texts and not from his own fanciful mind. He has made this book an authentic one. Those who are familiar with his works on Cyclopaedias know that his method is very scientific and lofty. This book will also give us a hint of how to do research on a particular topic of Jainism. R. L. William's Jaina Yoga ( London, 1962) is a book of Jaina Yoga, but Chorariya's book is a Cyclopaedia on the Jaina Yoga. And naturally the latter will be more exhaustive than the former one. This Yoga-Kosa is well-printed and carefully hard bound. There are exceptionally few printing mistakes which the author himself has pointed out separately. It has elaborate introduction containing about 75 pages. I hope, in future, we will get similar other works from him. Sri Chorariya is a good scholar on Jainism and an outstanding Jaborious researcher for the cause of Jainism. I hope this book will be received well by the scholars of the world. ---Satya Ranjan Banerjee Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________