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औदारिककाययोगी के अविनाभावी दंडसमुद्घात से कपाटसमुद्घात को प्राप्त हुए योगी केवली जिनमें औदारिकमिश्र का एक समय पाया जाता है, क्योंकि, उस अवस्था में औदारिकमिश्र के बिना अन्य योग पाया नहीं जाता ।
मनोयोग या वचनयोग से वैक्रियिककाययोग को प्राप्त होने के द्वितीय समय में मृत्यु को प्राप्त हुए जीव के वैक्रियिककाययोग एक समय पाया जाता है। क्योंकि मर जाने के प्रथम समय में कार्मणकाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, और वैक्रियिकमिश्रकाययोग को छोड़कर वैक्रियिककाययोग नहीं पाया जाता है ।
मनोयोग अथवा वचनयोग से आहारककाययोग को प्राप्त होने के द्वितीय समय में मृत्यु को प्राप्त हुए या मूल शरीर में प्रविष्ट हुए जीव के आहारककाययोग का एक समय पाया जाता है । क्योंकि, मृत्यु को प्राप्त या मूल शरीर में प्रविष्ट हुए जीवों के प्रथम समय में आहारककाययोग नहीं पाया जाता है ।
अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्तकाल तक जीव औदारिकमिश्रकाययोगी आदि रहता है ।
क्योंकि मनोयोग अथवा वचनयोग से वैक्रियिक या आहारककाययोग को प्राप्त होकर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर अन्य योग को प्राप्त हुए जीव के अन्तर्मुहूर्तमात्र काल पाया जाता है । तथा अविवक्षित योग से औदारिक मिश्रयोग को प्राप्त होकर व सर्वोत्कृष्टकाल तक रहकर अन्य योग को प्राप्त हुए जीव के औदारिकमिश्र का अन्तर्मुहूर्त मात्र उत्कृष्टकाल पाया जाता है ।
शंका - सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तों में और बादरएकेन्द्रिय अपर्याप्तों में सात-आठ भव ग्रहण तक निरन्तर उत्पन्न हुए जीव के बहुत काल क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान- नहीं पाया जाता, क्योंकि, उन सब स्थितियों का इकट्ठा करने पर भी अन्तर्मुहूर्त मात्र काल पाया जाता है ।
०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी और कालस्थिति
- ०८ आहारकमिश्रकाययोगी और कालस्थिति
वेव्वियमस्तकायजोगी आहारमिस्सकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ?
- षट्० खण्ड० २ । २ । सू १०८ । पु ७ । पृष्ठ० १५५
टीका - सुगमं ।
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जहणेण अंतोमुहुत्तं ।
- षट्० खण्ड ० २ । २ । सू १०९ । पु ७ । पृष्ठ० १५५
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