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उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार शान्तिसूरि ने कहा है
__ कर्म द्रव्यलेश्या इति सामान्याऽभिधानेऽपि शरीरनामकर्म द्रव्यष्वेव कर्मद्रव्य लेश्या । कार्मणशरीरवत् पृथगेव कर्माष्टकात् कर्म वर्गणा निष्पन्नानि कर्म लेश्या द्रव्यानीति तत्त्वं पुनः।
-उत्तरा० अ ३४ । टौका । पृ० ६५० अर्थात् द्रव्यलेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है। यह द्रव्यलेश्या कर्मरूप है तथापि वह आठ कर्मों से पृथक् है, जैसे कार्मण शरीर। यदि द्रव्यलेश्या को कर्मवर्गणा निष्पन्न न माना जाय तो वह कर्म स्थिति विधायक नहीं बन सकती।
आभ्यन्तर परिग्रह के चौदह भेद है-मिथ्यात्व, नौ नोकषाय व चार कषाय ।
अस्तु मनोयोग में जितने अधिक संकल्प-विकल्प के द्वारा आवर्त होंगे वे उतने ही अधिक आत्मा के लिए अहितकर होंगे। एतदर्थ ध्यान और उपयोग व साधना के द्वारा विचारों को स्थिर करने का प्रयास किया जाता है। शुक्ललेश्यावाले व्यक्ति का चित्त प्रशान्त होता है । मन, वचन और काया पर पूर्ण नियन्त्रण करता है ।
कितनेक वाचार्यों का मंतव्य है कि औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र, कार्मण काय का योग-ये सात शरीर है तो उनकी छाया भी सप्तवर्णात्मिका होगी अतः लेश्या के सात भेद मानने चाहिए।'
एवं काऊण जिणो, पवत्तणं दाणवन्त चरियाए । सयडामुह उज्जाणे, पसत्थझाणं समारूढो ।। झायन्तस्स भगवओ, एवं घाइक्खएणं कम्माणं । खरेगाऽलोगपगासं, केवल नाणं समुप्पन्नं ।।
-पउच० अधि ४ । गा १६, १७ इस प्रकार दान धर्म का प्रवर्तन करके भगवान् शकटामुख उद्यान में गए और प्रशस्त ध्यान में लीन हुए। इस तरह ध्यान करते हुए भगवान् के चारों घाति कर्म का नाश होने पर लोक और अलोक को प्रकाशित करनेवाला केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। इस अवस्था में उनके तीव्र शुभ योग का परिणमन हुआ।
अह अट्ठकम्मरहियस्स तस्स झाणोवओगजुत्तस्स । सयल जगुज्जोयगरं, केवलनाणं समुप्पन्न ।।
-प्रउच० अधि २ । गा ३०
१. उत्तरा० अ ३४ । टीका-जयसिंह सूरि।
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