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दीक्षा लेने के बाद में भगवान महावीर को ध्यानोपयोग में लीन आठ कर्मो का क्षय होने पर समग्र जगत् को प्रकाशित करनेवाला केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ।
१-शक्तिवान्, श्रद्धा में मजबूत, सत्यवादी, मर्यादावान्, विपुलज्ञान, कलहकारी न हो, धर्यवंत हो। दूसरों के गुणों को देख कर साधु को प्रफुल्लित होना चाहिए।
२-कलके भरोसे पर कार्य न छोड़े। निरंतर जागरुक रहे ।
उत्तराध्ययन अ० ११ में कहा है-मान, क्रोध, प्रमाद, राग और आलस्य-इन पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती है। आठ स्थानों से यह आत्मा-शिक्षा के योग्य कहा जाता है -१-अधिक नहीं हंसने वाला, २-इन्द्रियों का दमन करने वाला, ३-ममं वचन न कहने वाला, ४-चारित्र धर्म का पालन करने वाला सदाचारी–सर्वतः चारित्र की विराधना न करने वाला, ५-देशतः चारित्र की विराधना न करने वाला अर्थात् व्रतों का निरतिचार पालन करने वाला, ६-जो अतिशय लोलुप नहीं है, ७–तथा जो क्रोध रहित-८-सत्यानुरागी ( सत्यनिष्ठ) है-वह शिक्षाशील है।
चतुर्दश स्थानों में वर्तमान अविनीत कहा जाता है तथा वह निर्वाण प्राप्त नहीं करता है।
१-निरंतर क्रोध करने वाला अर्थात् निमित्तवश या बिना किसी निमित्त के भी क्रोध करता है।
२-और प्रबन्ध करता है। क्रोध को दीर्घकाल तक बनाये रखता है अथवा विकथा आदि में निरन्तर प्रवृत्त करता है।
३-मित्रता आदि होते हुए भी मित्रों को छोड़ देता है। मित्रता निभाता नहीं तथा मित्रों का उपकार नहीं मानता है।
४---जो शास्त्र ज्ञान पाकर अभिमान करता है।
५-जो आचार्यादि द्वारा समिति आदि में स्खलना रूप पाप हो जाने पर, उनका भी तिरस्कार करने वाला होता है अथवा अपने दोषों को दूसरों पर डालता है।
६-मित्रों पर भी कोप करता है । ७-अतिशय प्रिय मित्र की भी एकान्त में बुराई कहता है।
८-जो असंबद्ध वचन कहने वाला, पात्र-अपात्र का विचार न करते हुए शास्त्रों के गूढ रहस्यों को बतलानेवाला अथवा सर्वथा एकान्त पक्ष को लेकर बोलने वाला।
९-मित्र द्रोही, १०-अभिमानी, ११–रसादि में गृद्ध । १२-इन्द्रियों को वश में नहीं करने वाला।
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