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इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना, किन्तु जिसके जितने-जितने शरीर इन्द्रिय और योग हो, उनके उतने जानने चाहिए।'
कहा हैनामकर्मण औदारिकादिदेहः योगोत्पादकत्वेन औदारिकादिदेहनिर्वतकत्वात् ।
-गोक० गा ७० । टीका
नाम कर्म का नो कर्म-औदारिक आदि शरीर है क्योंकि वह योग का उत्पादक होने से औदारिक आदि शरीर को उत्पन्न करता है ।
जैन साहित्य में 'योग' शब्द का प्रयोग अध्यात्म योग, संवर योग, ध्यान योग आदि अनेक रूपों में मिलता है। इन सभी योगों को जैन तत्त्व विद्या में समाविष्ट किया जा सकता है। इस दृष्टि से 'जैनयोग' योग विद्या का बहुआयामी लक्ष्य लेकर चलता है ।
__ 'योग' शब्द की निष्पत्ति यज् धातु से होती है । इस धातु का प्रयोग कई अर्थों में होता है। प्रस्तुत संदर्भ में इसके दो अर्थ अधिक उपयुक्त होते हैं-समाधि और जोड़ना। जिस प्रवृत्ति से मन शुद्धि और आत्मा को समाधान मिले-वह योग है। इसका दूसरा अर्थ 'जोड़ना' बहुत व्यापक होने पर भी एक विशेष योजना का प्रतीक है। जिसे अभिव्यक्त करते हुए आचार्य हरिभद्र ने लिखा है ---'मोक्खेण जोयमाओ जोगो सम्वोवि धम्मवावारो' धर्म की सारी प्रवृत्तियां व्यक्ति को मोक्ष के साथ जोड़ती है, इसलिए वे योग है।
जैन, बौद्ध और वैदिक सभी परम्पराओं में योग विद्या का प्रचलन है और उनके साहित्य में योग की विशद चर्चा है ।
जैन साधना पद्धति में योग के तीन अंग माने गये हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग् चारित्र। बौद्ध साधना पद्धति प्रज्ञा (ज्ञान ) शील ( यम-नियम ) और समाधि ध्यान-धारणा ) को और पातञ्जल योग दर्शन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि योग के अंम बताये हैं।
कार्मण काययोगी जीन व आहारकमिश्र आदि योगी आयुष्य का बंध नहीं करते हैं और सब योगों में आयुष्य का बंधन हो सकता है ।
मिथ्यात्य, असंयम, कषाय और योगों के निमित्त से कर्म उत्पन्न होते हैं और कर्मों के निमित्त से जाति, जरा, मरण, वेदना उत्पन्न होती हैं।
जो संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में स्थित जीवों को किसी एक निर्णय पर पहुँचाता है उसे निक्षेप कहते हैं या अप्रकृत अर्थ के निराकरण हुआ प्रकृत अर्थ का कथन
१. भग० श. २५ । उ २ ।
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