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सो कस्स होदि ? बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स । सो केवचिरंकालादो होदि ? जहणेण उक्कस्सेण य एगसमओ भवदि ।
सुहुम- बादराणं णिव्वत्तिअपज्जत्तयाणमेदे जहण्णया एयंताणुवड्डिजोगा Xxx । सो फस्स होदि ? बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहष्णुक्कस्सेण एमसमओ ।
-- षट्० खण्ड ० ४ । २ । ४ । सू १७३ । पु १० पृष्ठ० ४२० से ४२५
उसका जघन्य व
उत्पन्न होने के प्रथम समय में उपपाद योगस्थान होता है । उत्कृष्टकाल एक समय मात्र है ।
उत्पन्न होने के द्वितीय समय से लेकर शरीर पर्याप्ति से अपर्याप्त रहने के अन्तिम समय तक एकान्तानुवृद्धियोग होता है । विशेष इतना है कि लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबंध के योग्यकाल में अपने जीवित के विभाग में परिणामयोग होता है । उससे नीचे एकान्तानुवृद्धि योग ही होता है ।
लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबन्धकाल में ही परिणामयोग होता है ऐसा कितनेक आचार्य कहते हैं । किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि इस प्रकार से जो जीव परिणाम योग में स्थित है व उपपादयोग को नहीं प्राप्त हुआ है उसके एकान्तानुवृद्धियोग के साथ परिणाम के होने में विरोध आता है । एकान्तानुवृद्धियोग का काल जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है । पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर आगे सब जगह परिणामयोग ही होता है । निर्वृत्यपर्याप्तकों के परिणामयोग नहीं होता 1 इस प्रकार योग अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
इसमें सूक्ष्म निगोद को. आदि लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त लब्ध्यपर्याप्तकों के जघन्य उपपादयोग होते हैं |
अस्तु विग्रहगति में वर्तमान जीव के तद्भवस्थ होने के प्रथम समय में जघन्य उपपादयोग होता है । वह जघन्य व उत्कर्ष से एक समय रहता है, क्योंकि द्वितीयादि समयों में एकान्तानुवृद्धियोग प्रवृत्त होता है ।
शरीर ग्रहण कर लेने पर जघन्य स्वामित्व दिया गया है । योग है ।
होता है ।
चूंकि योग वृद्धि को प्राप्त होता है, अतः विग्रहगति में सूक्ष्क व बादर निर्वृत्तिपर्याप्तकों के जघन्य परिणाम
वह जघन्य परिणामयोग शरीरपर्याप्त से पर्याप्त होने के प्रथम समय में ही
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वह परिणाम योग जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से चार समय रहता है । उससे भागे उनके ही उत्कृष्ट परिणाम योग होते हैं । वह उत्कृष्ट परिणामयोग परम्परा
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