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( २५ ) .९ योग और लेश्या
१ कषायोदयानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्वा लेश्या कषायाणमुदयेन अनुरञ्जिताकमप्यतिशयान्तरमुपनीतायोगप्रवृत्तिर्वा लेश्या।
गोजी० । गा ४८९ टीका कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन व काय की प्रवृत्ति लेश्या है। अथवा कषायों के उदय से अनुरंजित अर्थात् किसी भी अतिशयान्तर को प्राप्त योग प्रवृत्ति लेश्या है । २ यन्मतेन तु योगपरिणामो लेश्या, तदभिप्रायेण योगत्रयजनक कर्मोदयप्रभवाः ।
-चतुर्थ कर्म• गा ६६ टीका जिनके मत में लेश्या योगपरिणाम रूप है उसके अनुसार जो कर्म तीनों योगों के जनक हैं वह उन कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाली है।
लेश्या और योग में अविनाभावी सम्बन्ध है। जहाँ योग है वहाँ लेश्या है। जो जीव सलेशी है वह सयोगी है तथा जो अयोगी है वह अलेशी है । '३ अयोगे योगाभावात् लेश्या नास्ति ।
-गोजी० गा ७०४ । टीका अयोगी में योग का अभाव होने से लेश्या नहीं है। .४ णवरि य सुक्का लेस्सा सजोगिचरिमोत्ति होदिणियमेण गयजोगम्मि वि सिद्ध लेस्सा णस्थित्ति णिद्दिट्ट।
-गोजी० गा ६९३ टीका-अयोगिजिने सिद्ध च लेश्या न सन्तीति ।
शुक्ल लेश्या सयोगी गुणस्थान पर्यन्त होती है। अयोगी केवली में लेश्या नहीं होती है। '५ शेषस्थानेयु सुरगतौ x x x पंचेन्द्रियवसकाय योगत्रय x x x शेषमार्गणास्थानकेषु षडपि लेश्या
-चतुर्थ कर्म० गा ३७ । टीका मनो योगी, वचन योगी तथा काय योगी में कृष्णादि छओं लेश्या होती है । '६ सुक्काजाव सजोगी, निरुद्धलेसो अजोगित्ति।
-जिनवल्लभीय षडशीति गा ७३
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