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( ३३९ ) सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी परंपरोपपन्नक नारकी पापकर्म का बंध प्रथमद्वितीय भंग से करता है।
इसी प्रकार ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का प्रथम-द्वितीय भंग से बंध करता है।
परंपरोपपन्नक सयोगी जीव दंडक के संबंध में वैसे ही कहना जैसा बिना परंपरोपपन्नक विशेषणबाले सयोगी जीव दंडक के संबंध में पाप कम तथा अष्ट कर्म के बंधन के विषय में कहा है। •३१ सयोगी अनंतरावगाढ़ नारको आदि दंडक और पापकर्म का बंध
सयोगी अनंतरावगाढ़ , ज्ञानावरणीय यावत् अंतराय कर्म का बंध
अणंतरोगाढए णं भंते ! गैरइए पावं कम्मं कि बंधी-पुच्छा।
गोयमा ! अत्थेगइए एवं जहेव अणंतरोववग्णएहि णवदंडगसंगहिओ उद्देसो भणिओ तहेव अणंतरोगाढएहि वि अहोणमहरित्तो भाणियव्यो रइयाईए जाव वेमाणिए।
-भग० श• २६ । उ ४ । सू १ सयोगी काययोगी अनन्तरावगाढ नारकी आदि के विषय में जैसा अनन्तरोपपन्नक नारकी आदि के विषय में नौ दंडक कहे हैं वैसा कहना ।
नोट-उत्पत्ति के द्वितीय समयवर्ती अनन्तरावगाढ और उत्पत्ति के तृतीयादि समयवर्ती परम्परावगाढ़ कहलाता है।
टीकाकार के अनुसार अनन्तरोपपन्नक तथा अनंतरावगाढ़ में एक समय का अन्तर होता है। उत्पत्ति के एक समय बाद फिर एक ही समय के अन्तर बिना उत्पत्ति स्थान की अपेक्षा करके जो रहता है वह अनंतरावगाढ़ कहा जाता है। •३२ सयोगी परंपरावगाढ़ नारकी आदि और पापकर्म का बंध
सयोगी परंपराधगाढ़ नारको आदि और ज्ञानावरणीय यावत अंतराय कर्म का बंध परंपरोगाढ़ए णं भंते ! गैरइए पावं कम्मं कि बंधी० ? जहेव परपरोववण्णएहि उद्देसो सो चेव गिरवसेसो भाणियव्यो।
-भग० श. २६ । उ ५ जिस प्रकार सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी परंपरोपपन्नक नारकी आदि के विषय में कहा उसी प्रकार सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी परंपरावगाढ़ नारकी मादि के विषय में नौ दंडक कहना।
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