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( 26 ) भाव चेतना का परिणाम है । ' 'भावः चित्परिणामः ' जीव का स्वरूप पंच भावात्मक है । योग परिणाम भी योगत्रय जनक कर्म के उदय का फल है । योग और लेश्या जीवोदय निष्पन्न भाव भी है |
वीर्यान्तराय कर्म के क्षय एवं क्षयोपशम और नाम कर्म के उदय से योगों की निष्पत्ति होती है । उनमें शुभ या अशुभ की विवक्षा करने पर मोह कर्म के क्षय, क्षयोपशम आदि और उदय का साहचर्य अवश्यंभावी है । मन, वचन और काय — ये तीन योग एक साथ शुभ या अशुभ होते हैं, उसी प्रकार एक शुभ और दो अशुभ, दो शुभ और एक अशुभ भी हो सकते हैं । अर्थात् व्यवहार या स्थूल दृष्टि से तीनों योग एक साथ अशुभ भी हो सकते हैं और शुभ भी । तथा एक योग शुभ और एक अशुभ - ऐसे भी हो सकते हैं । निश्चय दृष्टि से एक समय में दो योगों की प्रवृत्ति होती ही नहीं है, इसलिए एक साथ एक योग शुभ और एक योग अशुभ होने का प्रसंग नहीं आता । योग अशुभ होने मोह कर्म का उदय और शुभ होने में क्षयोपशमादि का साहचर्य अवश्यंभावी है ।
आचार्य भिक्षु ने विरत अविरत की चौपाई में कहा है
साधां ने वांदण जाता मारग में, करें जिसा फल सावद्य निरवद तीन जोगां सूं, पुन पाप न्यारा न्यारा वांदण जातां मन जोग सुध हुवे तो, एकंत निरजरा न्यारो रे । वचन ने काया असुध हुवें तो, तिण सूं पाप लागे छे आयो रे ॥१३॥
कदे काया 'वचन दोनू जोग सुध हुवे, त्यां सू पिण हुवे निरजराधर्मो रे । एक मनरो जोग असुध रहयों बाकी, तिणसू लागें पाप कर्मों रे ॥ १४ ॥
कदे तीनू जोग सुधहुवें तो, पाप न लागें लिगारो रे । इणविध वांदण जातां मारगमें, तीनों जोगां रो व्यापार न्यारो ॥१५॥
पाव रे ।
थायो रे || १२ ||
असुभ जोगांसू पाप सुभ जोगां सूं पुन, तिण मांहें म जांणो फेरो रे । सावध निरवद रा फल जुवा जुवाछे, दूध पांणी ज्यू जाणों निवेडो रे ।।१६।।
कोइ साधां ने असणांदिक आहार वेंहरावें, ते वोलें छे मुख उघाडे रे । काया रो जोग तो निरवद तिणरो, वचन सू वाउकाय ने मारे रे ॥२१॥
उधाड़ें मुख बोलें वाउकाय मारयां, तिणरो लागें पाप काया रा जोग सू जेंणा करनें वेंहरायों, तिणरो छे एकंत
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मन वचन तणा जोग दोनू असुध, एक काया तणों जोग चोखो रे । तिणरा हाथां सूं साध वेहरें तो, मूल नहीं छे दोसो रे ॥२५॥
१. गोम्मटसार, जीवकांड १६५, जीव तत्त्व प्रदीपिका पृ० २९४
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कर्मों रे । धर्मो रे ॥ २२ ॥
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