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( 25 ) सिद्धान्त ग्रन्थों में कहा गया है कि मात्र काययोग से मोहनीय जैसे कर्म का बंध उत्कृष्ट रूप से एक सागर की स्थिति का हो सकता है। वचनयोग मिलते ही पच्चीस सागर की स्थिति का उत्कृष्ट बंध हो सकता है। घ्राणेन्द्रिय यानी नासिका के मिलने पर पचास सागर, चक्षु के मिलते ही सौ सागर की स्थिति का बंध हो सकता है और जब अमनस्क पंचेन्द्रिय की दशा में कान मिलते हैं तो हजार सागर तक बंध संभव है लेकिन मनोयोग मिल गया और उत्कृष्ट मोहनीय कर्म का बंध होने लगा तो वह लाख और करोड़ सागर को पार कर सकता है। सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम का सर्वोत्कृष्ट मोहनीय कर्म का बंध मनोयोग मिलने पर होता है।
लेश्या का परिणाम व्यक्तित्व रूपान्तरण का संकेत है। निर्वाण के पूर्व सयोगी केवली के जब मन और वचनयोगों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है। बादर काययोग का भी निरोध हो जाता है-अस्तु उनके सूक्ष्म काययोग-सूक्ष्म कायिकी क्रिया-उच्छवासादि के रूप में होती है। उस स्थिति में शुक्ल लेश्या के साथ शुक्ल ध्यान का तीसरा भेद 'सुहुमकिरिए अनियट्टी' ध्यान होता है। ध्यान से योगों की चंचलता में कमी आती है। योगजनित चंचलता के नष्ट होने पर मिथ्यादृष्टि, आकांक्षा, प्रमाद और आवेश समाप्त हो जाते हैं। भगवती सूत्र में कहा गया है कि कांक्षा मोहनीय कर्म का बंध प्रमाद और योग से होता है। प्रमाद योग से उत्पन्न होता है तथा योग वीर्य, पराक्रम व प्रवृत्ति से उत्पन्न होता है। वीर्य शरीर से व शरीर जीव से उत्पन्न होता है।'
सामान्यत: समान गुण व जाति वाले समुदाय को वर्गणा कहते हैं। औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, मन, वचन एवं श्वासोच्छवास वर्गणा-ये आठ मुख्य वर्गणा के भेद हैं । इन वर्गणाओं का योग के साथ घनिष्ट सम्बन्ध है ।
मूलतः आगमों में योग ब लेश्या की परिभाषा औधिक रूप से उपलब्ध नहीं होती है। कर्म के उदय और क्षयोपशम से जैसे हमारे योगों में परिवर्तन आता है वैसे ही लेश्या भी सतत परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरती रहती है ।
__ कर्मबंध के दो हेतु हैं-कषाय और योग । प्रकृति बंध तथा प्रदेश बंध का संबंध योग से है और स्थिति बंध और अनुभाग बंध का संबंध कषाय से है। आत्मा के साथ कर्म पुदगलों को श्लिष्ट करने वाली प्रवृत्ति लेश्या है। ये योग के परिणाम विशेष है। योग का निरोध होने पर लेश्या का भी निरोध हो जाता है। आगम साहित्य में लेश्या के बाद योग परिणाम कहा है। दिगम्बर साहित्य में मार्गणाओं की ऋमिकता में योग के बाद लेश्या मार्गणा कही है। जैन दर्शन आठ आत्माएं मानता है। द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मादि। लेकिन लेश्या रूप आत्मा का उल्लेख इनमें नहीं है। आत्मा के आठ भेदों में से किसी एक में उसका अस्तित्व अन्तनिहित अवश्य होना चाहिए।
१. भग०१।१४०
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