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सम्मदिट्ठी सम्ममिच्छादिट्ठी, अविरए, असण्णी, अण्णाणी, आहारए, छउमत्थे, सजोगी, संसारत्थे, असिद्ध सेतं अजीवोदयनिष्फन्ने ।
-अणुओ० सू १२६ । पृ० ११११ अर्थात् जीवोदय निष्पन्न भाव अनेक प्रकार का है- यथा, नरक गति आदि चार गति, पृथ्वीकायादि छह काय, क्रोध आदि चार कषाय, कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या, मिथ्या दृष्टि आदि तीन दृष्टि, अविरति, असंज्ञी, अज्ञानी, आहारक, छमस्थ, सयोगी, संसारता, असिद्धता। योग वीयं से प्रवाहित होता हैसे गं भंते ! जोए किंपवहे, गोयमा ! वोरियप्पवहे ।
-भग. भ. १। उ४। सू १४३ अर्थात् योग–वीर्य से प्रवाहित होता है। किस और कितने योग में कौन से जीव एक योग वाले
औदारिक काय वाले जीव-दिखाई देने वाले अन्नकण में,
कामण काय वाले जीव–वक्रगति में, केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे, पांचवे समय में दो योग वाले
चलती हुई चीटी में औदारिक काय योग व व्यवहार वचन योग चलती हुई लट में
चलती हुई मक्षिका में तीन योग वाले...
(१) पृथ्वीकाय, (२) अपकाय, (३) अग्निकाय और (४) वनस्पतिकाय चार योग वाले जीव
(१) द्वीन्द्रिय, (२) त्रीन्द्रिय और (३) चतुरिन्द्रिय पांच योग वाले जीव
(१) वायुकाय में
छ: योग असंज्ञी में, सात योग केवली मैं, आठ योग तीसरै गुणस्थान की नियमा में, नौ योग परिहार विशुद्धि चारित्र में, दस योग तीसरे गुण स्थान में, ग्यारह योग देवो में, बारह योग श्रावक में, तेरह योग संज्ञी तियंच पंचेन्द्रिय में, चौदह योग मनोयोगी में व पंद्रह योग मनुष्य में होते हैं।
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