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( 27 ) साधु वेहरें काया रो सुध जोग हुवें तो, जब वेहरयां वेहरायां धर्म निसंकधर्मी रे । मन वचन रा जोग असुध हुवे तो, तिणरो तिणनें इज लागे कर्मों रे ॥२६॥
-विरत अविरत री चौपइ : ढाल ९
अर्थात् मन, वचन और काया- इन तीनों योग सावद्य-निरवद्य दोनों है। यदि मनोयोग शुद्ध है तो एकांत निर्जरा होती है। यदि वचन और काय के योग अशुद्ध है तो उनसे पाप लगता है। साधु को वंदन करने के लिए जाता है तो तीनों योगों की प्रवृत्ति अलग-अलग है। कदाचित् काय और वचन के योग शुद्ध हो तो उनसे निर्जरा होती है। एक मनोयोग अशुद्ध हो तो उससे पापकर्म का बंध होता है। यदि तीनों योग शुद्ध हो तो पापकर्म का बंध नहीं होता है। निष्कर्ष यह है कि अशुभ योग से पापकर्म व शुभ योग से पुण्यकर्म लगता है। सावध व निरवद्य का फल दूध-चीनी की तरह अलग-अलग है। खुले मुह बोलने से वचन का योग सावध है। काययोग का अयतना पूर्वक व्यवहार करना निरवद्य है। कभी-कभी ऐसा भी संभव है मन, वचन का योग अशुभ है व एक काय योग शुभ होता है। कदाचित् ऐसा भी संभव है तीनों योग शुद्ध होते हैं। जैसे सलेशी जीव आरंभी और अनारंभी दोनों होते हैं, वैसे सयोगी जीव आरंभी और अनारंभी दोनों होते हैं। जीव के प्रयोग अर्थात् मन आदि के व्यापार से जो बंध होता है वह जीव प्रयोग बंध है। अनंतरबंध एवं परस्पर बंध का भी विवेचन आगम में मिलता है।
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जीव और पुद्गल का प्रथम समय का बंध अनंतरबंध एवं उनके आगे के समयों का बंध परस्पर बंध कहलाता है। प्रतिसंलीनता तप में योग और इन्द्रियों का निग्रह होता है। साधक के लिए इन्द्रियजय व मनोविजय से बढ़कर और कोई गौरव नहीं होता है। अध्यवसाय की प्रशस्तता-अध्यवसाय का एक परिणाम है।
व्यक्तित्व के तीन पहलू है-भाव, विचार और व्यवहार । व्यवहार कायिक प्रवृत्ति ( काययोग ) है। विचार मानसिक प्रवृत्ति ( मनोयोग ) है। दोनों स्नायुओं से संबंधित है। अतः इनका नियंत्रण संभव है। लेकिन भाव लेश्या से जुड़ा है, अतः वह नियंत्रण नहीं, शोधन जरूरी है। योगजन्य प्रवृत्ति अर्थात् क्रियात्मक आचरण का त्याग किया जा सकता है, पर आन्तरिक-प्रमाद व कषाय का कभी प्रत्याख्यान नहीं होता है। धर्म, गुरु, इष्टदेव के प्रति उत्पन्न राग को प्रशस्त कहा गया है। 'धम्माणुराग' शब्द इसी का निर्वाहक है। भाव लेश्या आत्मा का परिणाम विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है। द्रव्य लेश्या पुद्गलात्मक होती है। योग यानी मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति । कतिपय आचार्यों की यह मान्यता है कि योग लेश्या की भूमिका बनाता है और कषाय उस पर रग चढ़ाता है। द्रव्य योग के परिस्पन्दन के सहकार से आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन भाव योग है और द्रव्य लेश्या के सहकार से आत्मभाव का परिणमन भाव लेश्या है। अतः योग को परिस्पन्दन एवं लेश्या को परिणमन कहा जा सकता है।
जितने समय में अयोगी केवली जितने कर्म क्षीण करता है उतने कर्म सयोगी केवली संख्येयगुण काल अधिक में क्षीण करता है।
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