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योग शब्द के दो अर्थ है-प्रवृत्ति और समाधि। इनकी निष्पत्ति दो भिन्न-भिन्न धातुओं से होती है। सम्बन्धार्थक 'युज्' धातु से निष्पन्न होने वाले योग का अर्थ हैप्रवृत्ति। समाध्यर्थक युज् धातु से निष्पन्न होने वाले योग का अर्थ है समाधि । उमास्वाति के अनुसार काय, वाङ् और मन के कर्म का नाम योग है ।' प्रस्तुत कोश में हमने योग का अर्थ प्रवृत्ति किया है। जीव के तीन मुख्य प्रवृत्तियों-कायिक प्रवृत्ति, वाचिक प्रवृत्ति और मानसिक प्रवृत्ति का हमने योग शब्द के द्वारा निर्देश किया है ।
कर्म-शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम तथा शरीर नाम कर्म के उदय से होने वाला वीर्य योग कहलाता है। भगवती सूत्र में एक प्रसंग आता है
सेणं भंते ! जोए किं पवहे ? गोयमा ! वीरियप्पवहे। सेणं भंते ! वीरिए कि पवहे ? गोयमा ! सरीरप्पवहे । सेणं भंते ! सरीरे कि पवहे ? गोयमा ! जीवप्पवहे।
-भग० १/१४३-१४५ अर्थात्-योग वीर्य से उत्पन्न होता है। वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है। शरीर जीव से उत्पन्न होता है।
इस कर्म-शास्त्रीय परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि योग जीव और शरीर के साहचर्य से उत्पन्न होनेवाली शक्ति है ।
वृत्ति में उद्धृत एक गाथा में योग के पर्यायवाची नाम इस प्रकार है
जोगो वीरयं थामो, उच्छाह परक्कमे तहा चेट्ठा । सत्ती सामत्थयन्ति य, जोगस्स हवंति पज्जाया ।
-स्थानांग वृत्ति पत्र १०१ अर्थात् १-योग, २-वीर्य, ३-स्थाम, ४-उत्साह, ५--पराक्रम, ६-चेष्टा, ७-शक्ति और सामर्थ। -ये योग के पर्यायवाची नाम है ।
___ योग के अनन्तर प्रयोग का निर्देश है। प्रज्ञापना (पद १६ ) के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि योग और प्रयोग-दोनों एकार्थक है । स्थानांग सूत्र में कहा है१. कायबाङ्मनः कर्मयोगः ।
-तत्त्वार्थ सूत्र अ ६ । सू १
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