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क्रियते येन तत्करणं-मननादि क्रियासु प्रवर्तमानस्यात्मन उपकरणभूतस्तथा तथापरिणामवत्पुद्गलसंघात इति भावः ।
-स्थानांग वृत्ति पत्र १०१ अर्थात् करण का अर्थ है--मन, वचन और स्पदंन की क्रियाओं में प्रवर्तमान आत्मा का सहायक पुद्गल-समूह है।
वृत्तिकारने योग, प्रयोग और करण की व्याख्या करने के पश्चात् यह बतलाया है कि तीनों एकार्थक हैं। भगवई में योग के पन्द्रह प्रकार बतलाये गये हैं। वे हो पन्द्रह प्रकार प्रज्ञापनामें प्रयोग के नाम से तथा आवश्यक में करण के नाम से निर्दिष्ट है।
अथवा योगप्रयोगकरणशब्दानां मनःप्रभृतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरण-सूत्रेष्वंभिहितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः, त्रयाणामप्येषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्ति-दर्शनात, तथाहि योगः पंचदशविधः शतकादिषु व्याख्यातः प्रज्ञापनायां त्ववमेवायं प्रयोगशब्देनोक्तः ।
एक पूर्वकोटि वर्ष की आयु को भोगनेवाला कोई कर्मभूमिज मनुष्य परभव सम्बन्धी एक पूर्व कोटि वर्ष की जलचर सम्बन्धी आयु उसके योग्य सक्लेश और उसके योग्य उत्कृष्ट योग से बांधता है। फिर क्रम से एक पूर्व कोटि काल व्यतीत कर एक पूर्व कोटि आयु के साथ जलचरों में उत्पन्न हुआ। अन्तर्मुहूर्त में सब पर्याप्तियों को पूर्ण करके पर्याप्त हुआ फिर अन्तर्मुहूतं तक विश्राम किया। अन्तर्मुहूर्त में पुनः परभव संबंधी पूर्व कोटि की जलचर सम्बन्धी आयु बांधता है। वह भी उसके योग्य सक्केश और उसके योग्य उत्कृष्ट योग से बांधता है ।
अस्तु गोम्मटसार की मान्यता के अनुसार चक्रवर्ती में वैक्रिय शरीर भी होता है अतः वैक्रिय काय योग व वैक्रियमिश्र काय योग भी होते हैं।
दिगम्बर मान्यतानुसार वादर पर्याप्त अग्निकाय में वैक्रियकाय योग होता है। गोम्मटसार में योग मार्गणा में जीवों की संख्या के विषय में कहा हैं
बादर पर्याप्तक तेजस्कायिक जीवों में विक्रिया शक्ति से युक्त जीव अपनी राशि अर्थात् आवली के घन के असख्यातवें भाग में असंख्यात का भाग देने से जितना प्रमाण आता है उतने हैं। तथा बादर पर्याप्त वायुकायिक जीवों में जो कि लोक के असंख्यातवें भाग मात्र कहे हैं, विक्रिया शक्ति से युक्त जीव पल्य के असख्यातवें भाग मात्र होते हैं।
अशुभ लेश्याओं में मनुष्य का व्यक्तित्व विघटित, असन्तुलित, असमायोजित होता है। चिन्तन, भाषा और कर्म की दिशायें बदलती है। आचरण में बदलाव आता है। कषायों की तीव्रता के कारण सम्बन्धों पर नियन्त्रण नहीं कर पाता। जब भाव चेतना मलिन हो जाती है, तब मन, वचन और शरीर की क्रिया से भी स्थिर नहीं होती। योग प्रवृत्ति चंचल होने से लक्ष्य सिद्धि दुभंभ हो जाती है। व्यक्ति की भाव चेतना ही उसके ब्यक्तित्व के विघटन या संगठन की मुख्य घटक बनती है। गीता का स्थित प्रज्ञ,
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