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बौद्ध दर्शन का अर्हत और जैन धर्म के वीतराग का जीवनादर्श परिपक्व व्यक्तित्व की सेर्वाङ्गीण व्याख्या देता है । कर्म की दश अवस्था में उदीरणा, संक्रमण, उद्वर्तना, अपवतन की प्रक्रिया द्वारा विपाक को बदला जा सकता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है
लेस्सासोधी अज्झवसाण विसोधीए होई जीवस्स । अज्झवसाणविसोधी
मन्दकसायरस
गादव्वा ||
- पंचास्तिकाय २ । १३१
अर्थात् जिसके मोह, राग-द्व ेष होते हैं उनके अशुभ परिणाम होते हैं और जिसके चित्तप्रसाद निर्मल चित्त होता है, उसके शुभ परिणाम होता है । लेश्या की शुद्धि अध्यावसाय से होती है और अध्यवसाय की शुद्धि मंद कषाय से है । अध्यवसाय लेश्या से सूक्ष्म होता है। परिणाम शब्द से योम और लेश्या दोनों का ग्रहण होता है । अध्यवसाय और परिणाम अलग-अलग है । तेरहवें गुणस्थान में भाव लेश्या है परन्तु भाव मनोयोग नहीं है । क्योंकि लेश्या का सम्बन्ध एकांततः भाव मनोयोग के साथ नहीं है । ध्यान से कषाय उपशमित होती है । योगों की चंचलता में कमी आती है । ध्यान से समय भाव धारा पवित्र होने से लेश्याओं का परिणमन शुभ होता है । ध्यान द्वारा लेश्या में बदलाव आसकता है। निर्वाण के अन्तर्मुहूर्त पूर्व जब सयोगी केवली के मन और वचन के योगों का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है । बादर काय योग का भी निरोध हो जाता है सिर्फ सूक्ष्म काययोग उच्छ्वासादि के रूप में होता है उस समय उनके सूक्ष्म क्रिया नियट्टी शुक्ल ध्यान होता है । इससे ऐसा मालुम होता है कि योग - लेश्या ध्यान का गहरा सम्बन्ध है । यद्यपि योग और लेश्या के दिना चतुर्दशवें गुणस्थान शुक्ल ध्यान का चतुर्थ भेद पाया जाता है ।
पढमं जोगे जोगेसु वा मयं बिइअमेगजोगम्मि | तइयं च कायजोगे सुक्कमजोगम्मि य चउत्थं ॥
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शुक्ल ध्यान के प्रथम प्रकार में एक ही योग या तीनों योग विद्यमान रह सकते हैं । दूसरे प्रकार में तीनों में से कोई एक योग विद्यमान रहता है। तीसरे प्रकार में केवल एक काययोग ही विद्यमान रहता है तथा चौथे प्रकार में कोई योग नहीं रहता है । अयोगी को ही प्राप्त होता है ।
वह
जोग मार्गणा का एक भेद है
इइ दिएस कायै जोगे वेदे कसायणाणे य । संजमदंसणलेस्सा भविया सम्मत्तसण्णि आहारे ॥
ध्याश० गा० ८३
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गोजी० ग० १४२
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