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( ५८ ) पदार्थों की प्ररूपणा करते हुए सत्य वचनयोग की प्रवृत्ति करते हैं और आमन्त्रणादि में असत्य-अमृषा वचनयोग की प्रवृत्ति करते हैं । ऐसा टीकाकार ने कहा है।
काययोग की प्रवृत्ति करते हुए आते हैं, ठहरते हैं, बैठते हैं, सोते हैं, लांघते हैं, विशेष लांघते हैं, उत्क्षेपण ( उछालना), अवक्षेपण ( नीचे डालना) और तिर्यक्षेपण (आजु-बाजु या आगे पीछे रखना)। अथवा ऊँची, नीची और तिरछी गति करते हैं और लौटाने योग्य पटिये, शय्या और संस्तारक लौटाते हैं।
टिप्पण-केवलि समुद्घात के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में योग निरोध होता है। .३ योग निरोध और सिद्धि
से णं भंते ! तहासजोगी सिझति जाव अंतं करेति ? गोयमा ! णो इण? सम?। से णं पुवामेव सण्णिस्स पंचेदियस्स पज्जत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहोणं पढम मणजोगं णिरुंभइ, ततो अणंतरं च णं बेइंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहीणं दोच्चं वइजोगं णिरुंभति, तसो अणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहोणं तच्चं कायजोगं णिरुंभति।
_ से णं एतेणं उवाएणं पढमं मणजोगं णिरंभइ, मणजोगं णिरुंभित्ता वइजोगं णिरुंभति, वइजोगणिरुभित्ता कायजोगं णिरुंभति, कायजोगं णिरुभित्ता जोगणिरोहकरेति, जोगणिरोहकरेत्ता अजोगय पाउणति, अजोगयं पाडणित्ता ईसीहस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसी पडिवज्जइ xxx। एगसमएणं अविग्गहेणं उड्ड गंता सागारोवउत्ते सिज्झति बुज्झति० । २१७
-पण्ण पद ३६
- ओव० सू १८१ से १८२ भंते । क्या सयोगी ( मन, वचन और काय से सक्रिय ) सिद्ध होते हैं ?.... यावत् सर्व दुःखों का अंत करते हैं। ऐसा आशय ठीक नहीं है।
वे सबसे पहले पर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय के जघन्य मनोयोग के नीचे स्तर से असंख्यात गुणहीन मनोयोग का निरोध करते हैं। अर्थात् योगनिरोध का आरंभ करने वाले केवली सबसे पहले पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के अल्पतम मानसिक योग के असंख्यातवें भाग जितने मनोयोग रहता है, शेष सबका निरोध कर देते हैं।
___ इसके बाद पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव के जघन्य वचनयोग के नीचले स्तर से भी असंख्यात गुणहीन दूसरे वचनयोग का निरोध करते हैं। अर्थात् उस जीव का निम्नतम स्तरीय वाचिक प्रवृत्ति असंख्यातवें भाग जितनी वाचिक प्रवृत्ति रहती है, शेष सबका निरोध करते हैं ।
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