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( ५९ ) इसके पश्चात् अपर्याप्त सूक्ष्मपनक ( फूलन ) जीव के जघन्य योग के नीचले स्तर से असंख्यात गुणहीन तीसरे काययोग का निरोध करते हैं।
___ इस उपाय से पहले मनोयोग की प्रवृत्ति को रोक करके वचनयोग की प्रवृत्ति को रोकते हैं। वचनयोग की प्रवृत्ति को रोककर काययोग की प्रवृत्ति का निरोध करते हैं काययोग की प्रवृत्ति को रोककर, योगनिरोध ( मन-वचन-काय से संबंधित होने वाली आत्मा की प्रवृत्ति को रोक) करते हैं।
टिप्पण- 'एएणं उवाएणं' शब्दों से यह अर्थ झलकता है कि-केवली तथा कथित (पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और अपर्याप्तपनक । ) जीवों की निम्नस्तरीय योग प्रवृत्ति के असंख्यातवें भाग जितनी रही हुई योग प्रवृत्ति को समय-समय में कमशः रोकते हुए, पूर्णतः योग निरोध करते हैं।
पज्जत्तमेत्त सनिस्स, जत्तियाई जइन्न जोगिस्स। होंति मनोदव्वाइ', तव्वाचारो य जम्मत्तो। तदसंखगुण विहीणं, समए समए निरुंभमाणो सो। मणसो सव्वनिरोह, करेअसंखेज्ज समएहि ॥ एवमन्यदपि सूत्रद्वयं नेयम् ।.....
-टोकायां उद्धृतगाथे
अर्थात् जघन्ययोगी अर्थात संज्ञी की जितनी मनोद्रव्य की और मनोयोग की प्रवृत्ति की मात्रा होती है, उससे भी असंख्यात गुणहीन मात्रा में मन का समय-समय पर निरोध करते हुए, केवली असंख्यात समय में मनका पूर्णतः निरोध करते हैं ।
इसी प्रकार मेष दो सूत्रों के विषय में भी यही समझना चाहिए।
___ काययोग के निरोध के बाद तो योगनिरोध हो ही जाता है। फिर अलग से योगनिरोध का कथन क्यों किया गया है ? -चूकि वीर्य के द्वारा योगों की प्रवृत्ति होती है। उस योग प्रवृत्ति के मूल करण वीर्य का निरोध जहाँ तक नहीं होता है वहाँ तक पूर्णतः योगनिरोध नहीं माना जाता। उस करणवीर्य का निरोध भी अकरण वीर्य से हो जाता है। अर्थात् काययोग के निरोध के बाद केवली करणवीर्य से हटकर, अकरणवीर्य में पूर्णतः स्थित हो जाते हैं। संभवतः यही दर्शाने के लिए योगनिरोध और अयोगता का कथन अलग से हुआ है।
योगनिरोध करके अयोगी अवस्था से प्राप्त होते हैं। अयोगी अवस्था ( मन, वचन और काय की क्रिया से रहित अवस्था को प्राप्त करके, ईषत्स्पृष्ट पांच ह्रस्व अक्षरों के
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