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मनोयोगी, वचन योगी तथा काय योगी का बंध तीन प्रकार का होता है, जैसेजीव प्रयोग बंध, अनंतर बंध व परंपर बंध। मनोयोगी, वचन योगी, काय योगी नारकी का बंध तीन प्रकार का होता है यथा--जीवप्रयोग बंध, अनंतरबंध व परंपर बंध। इसी प्रकार यावत् वैभानिक दंडक तक तीन प्रकार का बंध कहनातथा जिसके जितने योग हो उसके उतने पद कहने।
विवेचन :-जीव के प्रयोग से अर्थात् मन, वचन, काया के व्यापार से कर्म पुद्गलों का आत्माओं के साथ संबंध होना जीव प्रयोग बंध कहलाता है। इस बध में योग का निमित्त है।
•७ सयोगी जीव और जन्म मरण योग और साधारण वनस्पति का जन्म-मरण
एकस्य साधारण जीवस्य कर्मादान शक्ति लक्षणयोगेन गृहीत पुद्गल गलपिण्डोपकारोऽनन्तानन्त साधारण जीवानां तस्य चानुग्रहणं भवति । पुनरपि अनन्तानन्त साधारण जीवानां योग शक्तिभिः गृहीतपुद्गल पिण्डोपकारः एकस्य अनन्तानन्त साधारण जोवानां चानुग्रहणं समासेन सपिन्डितत्वेन भवति ।
- गोजी० गा। १९३ । टीका
एक साधारण जीव के कर्मों को ग्रहण करने की शक्ति रूप योग के द्वारा गृहीत पुदगलपिण्ड अनन्तानन्त साधारण जीवों का भी उपकारी होता है उस जीव का उपकारी होता है। इस तरह अनन्तानन्त साधारण जीवों की योगशक्ति के द्वारा गृहीत पुइगल पिण्ड एक साथ संयुक्त रूप से एक जीव का भी उपकारी होता है और अनन्तानन्त साधारण जीवों का भी उपकारी होता है ।
'म योग स्थान की प्ररूपणा'८१ प्ररूपणा अनुयोग
टीका-तत्थ परूवणं वत्तइस्सामो। तं जहा—सत्तण्णं लद्धिअपज्जत्तजीव समाणमस्थि उववादजोगट्ठाणाणि एयंतावड्डि एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणिपरिणामजोगट्टाणाणि च । सत्तण्णं णिवत्तिअपज्जत्तजीवसमासाणमत्थि उववादजोगट्ठाणाणि एयंताणुवड्डिजोगट्ठाणाणि च। सत्तण्णं णिव्वत्तिपज्जत्तयाणमत्थि परिणामजोगट्टाणाणि चेव । परूवणा समत्ता।
-षट्० ४।२।४ सू १७३।पु० १०।पृष्ठ ४०३ प्ररूपणा अनुयोग द्वार का कथन इस प्रकार है-सात लब्ध्य पर्याप्त जीवसमासों के उपपादयोगस्थान, एकान्तानुवृद्धियोगस्थान और परिणामयोगस्थान होते हैं। सात
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