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सयोगी नारकियों यावत् स्तनितकुमारों में तीन भंग होते हैं, यथा- प्रथम, अथवा पंचम, अथवा षष्ठम । सयोगी पृथ्वी कायिकों यावत् वनस्पति कायिकों में छट्टा विकल्प होता है । योगी द्वीन्द्रियों यावत् वैमानिक देवों में प्रथम, अथवा पंचम, अथवा षष्ठम विकल्प होता है ।
मनोयोगी, वचन योगी और काययोगी में जीवादि तीन भंग (प्रथम, पंचम, षष्ठम ) कहने चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि केन्द्रिय जीव केवल काययोग वाले ही होते हैं । उनमें अभंग कहना चाहिए । अर्थात् उनमें छट्टा विकल्प होता है ।
अयोगी जीवों का कथन अलेशी जीवों के समान कहना चाहिए । अयोगी ( योग रहित ) जीव और सिद्धों के तीन भंग कहने चाहिए । और अयोगी मनुष्यों में छह भंग
भंग कहने चाहिए |
एक अयोगी जीव ( मनुष्य ) कदाचित् सप्रदेशी है और कदाचित् अप्रदेशी है । इसी प्रकार एक सिद्ध के विषय में जानना ।
- ५ सयोगी जीव और ज्ञानावरणीय आदि कार्मका बंध
बंधइ ॥
नाणावर णिज्जं णं भंते ! कम्मं कि मणजोगी बंधइ ?
जोगी बंधइ ? कायजोगी बंधइ ? अजोगी बंधइ ? गोया ! हेट्ठिल्ला तिष्णि भयणाए, अजोगी न बंधइ ? एवं वेदणिज्जवज्जाओ सत्तवि ? वेदणिज्ज हेट्ठिल्ला बंधति, अजोगी न
- भग० श ६ | उ ४ । सू ४७
मनोयोगी, वचनयोगी व काययोगी ज्ञानवरणीय आदि सात कर्म का बंधन भजना से करते हैं लेकिन अजोगी जीव कर्म बंधन नहीं करता है ।
नोट - बेदनीय कर्म का बंधन तीनों योग वाले नियमतः करते हैं ।
• ६ सयोगी जीव और विविध बंध -
कइविणं भंते ! बंधे पन्नत्ते ? गोयमा तिविहे बंधे पन्नत्ते, तंजहा जीवप्पओगबंधे अनंतरबंध, परंपरबंधे । xxx दंसणमोहणिज्जस्स णं भंते कम्मस्स कइविहेबंधे पन्नत्ते । एवं चेव, निरंतरं जावबेमाणियाणं, x x । एवं एएणं xxx एएस सव्वेसि पयाणं तिविहे बंधे पन्नत्ते सव्र्व्वे एएचउच्चीसं दंडगाभाणियव्वा, नवरं जाणियव्वं जस्सजइ अस्थि ।
- भग० ग २० उ ७ । सू १,८
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