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प्रयोगगति, ततगति, बंधनछेदनगति, उपपातगति और विहायोगति के भेद से प्रयोगगति के मूल भेद औदारिककायप्रयोग आदि पन्द्रह भेद हैं,
गति के पांच भेद हैं ।
उतर भेद १४३ है ।
विहायगति के फुसमाणगति आदि सतरह भेदों में लेश्यागति और लेश्यानुपात - गति भी है ।
कृष्णादि लेश्या के द्रव्य परस्पर विरोधी लेश्या में परिणमन होते हैं उसे लेश्यानुपात - गति कहते हैं । उस समय लेश्या के साथ योग भी होता है ।
जिस लेश्या के पुद्गल अंतकाल में ग्रहण करे उसी लेश्या में आकर उत्पन्न होने को श्यानुपातगति कहते हैं उस समय भी योग होता है ।
समुच्चय जीव में योग १५ होते हैं । जिसमें तेरह योग शाश्वत तथा दो योग ( आहारक काययोग व आहारकमिश्र काययोग ) अशाश्वत है ।
नारकी का एक दण्डक तथा देवों के तेरह दण्डकों में योग ११ होते हैं जिसमें दस शाश्वत होते हैं तथा एक कार्मण काययोग अशाश्वत है। पृथ्वीकायादि चार स्थावर में ( वायुकाय बाद) ३ योग शाश्वत है । वायुकाय में पांच योग शाश्वत होते हैं । तीन विकलेन्द्रिय में ४ योग होते हैं जिसमें तीन योग शाश्वत और कार्मण काययोग अशाश्वत होता है । तिर्यंच पंचेन्द्रिय में तेरह योग होते हैं जिसमें बारह योग शाश्वत और एक कार्मण काययोग अशाश्वत होता है । मनुष्य में योग १५ होते हैं जिसमें चार योग अशाश्वत ( औदारिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र व कार्मण काययोग ) बाकी ग्यारह योग शाश्वत होते हैं ।
जिनमें भांगे ८० - असंजोगी ८, दो संजोगी २४, तीन संजोगी ३२, चार संजोगी १६ - सर्व मिलकर भांगे १४३ होते हैं ।
वचनयोग भाषा का भी व्यवहार होता है । इस प्रकार है ।
भाषा की अपेक्षा अल्पबहुत्व
१ - सबसे न्यून सत्य भाषा बोलने वाले २ – उससे मिश्र भाषा बोलने वाले असंख्यात गुणें । ३ – उससे असत्य भाषा बोलने वाले असंख्यात गुणे । ४ – उससे व्यवहार भाषा बोलने वाले असंख्यात गुणे तथा ५ – उससे अभाषक अनंतगुणे है । अभाषक में एकेन्द्रिय जीव, सिद्ध जीव आदि का समावेश है |
भाषा की उत्पत्ति औदारिक, वैक्रिय तथा आहारक शरीर से होती है ।
वही अनशन श्रेष्ठ हैं जिससे मन अमंगल चिन्तन न करे, योगों के आवश्यक कार्य में क्षति न हो । पांच संवर में अप्रमाद, अकषाय और अयोग संवर प्रत्याख्यान जन्य नहीं
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