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हैं, वे कर्मविलय से सहज निष्पन्न होने वाले है । प्राणातिपात आदि पन्द्रह आस्रव योग आस्रव है । इनके अशुभ योग आस्रवों के प्रत्याख्यान से विरति संवर निष्पन्न होता है । पन्द्रह आस्रव प्रवृत्ति रूप है अतः वे योग आस्रव के भेद है । अशुभ योग को रोकने से योग निरोध नहीं होता है । जब अशुभ योग की निवृत्ति के बाद शुभ योग की भी निवृत्ति हो- - तब अयोग संवर होता है ।
सम्यक्त्व, देश विरति, सर्व विरति की प्राप्ति के समय शुभयोग, विशुद्धमान लेश्या व अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं ।
मिश्र काययोगों में आयु का बंध नहीं होता है ।
आयुर्वन्ध मिश्रगुणस्थान मिश्र काय योग वर्जितेष्वप्रमत्तास्तेष्वेव ।
अर्थात् आयु का बंध मिश्रगुणस्थान और मिश्रकाययोगों को छोड़कर अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त ही होता है ।
नोट - मिश्र काययोग - आहारकमिश्र काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रियमिश्र काययोग और कार्मण काययोग है ।
गोम्मटसार में कहा है कि सातवीं नारकी में अपर्याप्त अवस्था में मिश्रकाययोग होने से मनुष्यायु और तिचायु का बंध नहीं होता है । "
- गोक० गा० ९२ । टीका
अपर्याप्त के दो भेद है-लब्धि अपर्याप्तक और निर्वृत्ति अपर्याप्तक । आहारिकमिश्र काययोग नियम से निवृत्ति अपर्याप्तक अवस्था में है । जब-जब जीव आयु को बाँधता है, तत्प्रायोग्य जघन्य योग के द्वारा ही बांधता है ।
सूक्ष्म एकेन्द्रियों के योग से बादर एकेन्द्रियों का योग असंख्यातगुणा है ।
अभयदेवसूरि ने कहा है
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"शरीरेन्द्रिययोगेषु क्रिया ।
- भग० श० १७ । उ १ । सू ११ । टीका
अर्थात् शरीर, इन्द्रिय और योग में क्रिया होती है। एजनादि यावत् चक्षुपद्मनिपात क्रियाओं को द्रव्य क्रिया कहते हैं । प्रयोग, उपाय, करणीय, समुदान, ऐर्यापथिकी, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व को भाव क्रिया कहते हैं । प्रयोग क्रिया को अक्रिया का एक भेद भी माना है
१. गोक० ग्रा० १०५ । टीका
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