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सयोगी - मनोयोगी - वचनयोगी - काययोगी जीव में वेदनीयकर्म बांधा था दूसरा भंग होता है ।
अयोगी में एक चौथा भंग होता है ।
सयोगी नारकी जीव यादत् वैमानिकदेव के वेदनीय कर्म-बंधन
रइए णं भंते ! वेयणिज्जं कम्मं बंधी बंधइ ?
एवं रइय जाव वैमाणिया सि । जस्स जं अत्थि सव्वत्थ वि पढम बिइयावरं मस्से जहा जीवे ।
- भग० श० २६ । उ १ । सू १८
नैरयिक जीव ने वेदनीयकमं बांधा ? पहला और दूसरा भंग होता हैं । इसी प्रकार असुरकुमार से वैमानिक तक ( मनुष्य बाद देकर ) पहला- दूसरा भंग होता है ।
मनुष्य में सामान्य जीव की तरह तीन भंग होते हैं ( तृतीय भंग को बाद देकर ) अयोगी में चतुर्थ भंग होता है ।
अस्तु सयोगी नारकी यावत् वैमानिक देव तथा मनुष्य भी कोई प्रथम विकल्प से, कोई द्वितीय विकल्प से वेदनीयकर्म का बंधन करता है । जिसके जितने योग हो उतने पद करने । अस्तु सयोगी मनुष्य जीव पद की तरह द्वितीय व प्रथम विकल्प से वेदनीयकर्म का बंधन करता है ।
नोट- वेदनीयकर्म के बंधक में पहला भंग अभव्य जीव की अपेक्षा से है । जो भव्य जीव मोक्ष जाने वाला है उनकी अपेक्षा दूसरा भंग है । चौथा भंग अयोगी केवली की अपेक्षा से है ।
• १५ सयोगी जीव और मोहनीय कर्म का बंध
जीवेणं भंते! मोहणिज्जं कम्मं कि बंधी बंधइ० ?
जहेव पावकम्मं तहेव मोहणिज्जं पि णिरवसेसं जाव बेमाणिए ।
पापकर्म के समान मोहनीयकर्म भी है । तक कहना चाहिए |
पहला और
- १६ सयोगी जीव और आयुष्य कर्म का बंध
जीवे णं भंते! आउयं कम्म कि बंधी-वंधइ- पुच्छा ? सलेस्से जाव सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा।
अत्थेगइए बंधी - चउभं गो । चरिमो भंगो ।
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- भग० श० २६ । उ १ । सू १९
इस प्रकार नारकी से यावत् वैमानिक
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गोयमा ! अलेस्से
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