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वैक्रिय काय योग पर्याप्त देव नारकियों के मिथ्यादृष्टि आदि चार गुण स्थानों में होता है । वैक्रियमिश्र काय योग मिश्र गुणस्थान में नहीं होता, अतः देवनारकियों के मिथ्यादृष्टि सासादन और असंयत गुणस्थान में ही होता है ।
• १६ उवसंत खीणमोहो सजोग केवलिजिणो अजोगी य । चोद्दस जीवसमासा कमेण सिद्धाय णादव्वा ॥
— गोजी० गा १०
टीका-घातिकर्माणि जयति स्येति जिनः, केवलज्ञानमस्यास्तीति केवली, स चासौ, जिनश्च केवलिजिनः । योगेन स वर्तते इति सयोगः, स चासौ केवलिजिनश्च सयोगकेवलिजिनः । योगः अस्यास्तीति योगी, न योगी अयोगी, अयोगी केवलिजिनः इत्यनुवर्तनात् अयोगी चासौकेवलिजिनश्च अयोगिकेवलिजिनः ।
जिसने घातिकर्मों को जीत लिया है वह जिन है और जिसके केवल ज्ञान है वह केवली है । जो केवली वही जिन होने से केवली जिन है । जो योग सहित है । जो सयोग होने के साथ केवली जिन है वह सयोग केवली जिन है ।
वह सयोग
जिसके योग हैं वह योगी है । जो योगी नहीं है वह अयोगी है ।
• १७ योग और गुण स्थान की अपेक्षा पर्याप्त अपर्याप्त एक्कारसजोगाणं पुण्णगदाणं सपुण्ण मिस्सचउक्कस्स पुणो सगएकक अपुण्ण आलाओ ॥
आलाओ ।
टीका-पर्याप्तिगतानां
चतुर्मनश्चतुर्वागौदारिकर्वक्रियिकाहार कैकादशयोगानां स्वस्वपूर्णालापो भवति यथा सत्यमनोयोगस्य सत्यमनः पर्याप्तालापः । मिश्रयोगचतुष्कस्य पुनः स्वस्वैकायर्याप्तालापो भवति । यथा - औदारिक
मिश्रस्यः औदारिकापर्याप्तालापः ।
- गोजी० गा ७२३
पर्याप्त अवस्था में होने वाले चार मनो योग, चार वचन योग, औदारिक, वैक्रियिक, जैसे आहारक काययोग- इन ग्यारह योगों में अपना-अपना पर्याप्त आलाप होता है । सत्य मनो योग के सत्यमन पर्याप्त आलाप होता है । चार मिश्रयोगों में अपना-अपना एक अपर्याप्त आलाप होता है । जैसे औदारिक मिश्र के औदारिक अपर्याप्त आलाप होता है ।
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