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.१८ सयोगि केवली के प्रथम समय में चार कर्मों का अवसान
पढमसमयजिणस्स णं चत्तारिकम्मंसा खीणा भवंति, तंजहा- णाणावरणिज्ज, सणावरणिज्ज, मोहणिज्ज, अंतराइयं ।
- ठाण० स्था ४ । उ १ । सू १४२ टीका-'पढमे' त्यादि सूत्रत्रयं व्यक्तं, परं प्रथमः समयो यस्य स तथा स चासौ जिनश्च–सयोगिकेवली प्रथमसमयजिनस्तस्य कर्मणः-सामान्यस्यांशाः ज्ञानावरणीयादयो भेदाइति ।
प्रथम समय के सयोगी केवली के चार सत्कर्म क्षीण होते हैं१. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३. मोहनीय
४. आन्तरायिक .१९ सयोगी और जीव समास
.१ ( केवलज्ञानं ) सयोगायोगयोः सिद्धच । तत्र जीवसमासौ संजिपर्याप्तसयोगापर्याप्तौ द्वौ।
--गोजी० ६८८ । टीका केवल ज्ञान-सयोगी-अयोगी और सिद्धों में होता है। उसमें संज्ञी पर्याप्त तथा समुद्घातगत सयोगी की अपेक्षा संज्ञी अपर्याप्त ये दो जीव समास होते हैं। .२ योग और पर्जाप्त-अपर्याप्त सयोगिनि उभये। अयोगिनि पर्याप्ता एव ।
-गोजी• गा ७०३ । टीका सयोगी में पर्याप्त-अपर्याप्त दोनों होते हैं। अयोगी में पर्याप्त ही होते हैं । मोट- सयोगी केवली में केवल समुद्घात की अपेक्षा अपर्याप्त भी होते हैं। कहा है
सयोगे पर्याप्तः । समुद्घाते तुभयः । अयोगे पर्याप्त एव । सयोगी केवली में पर्याप्त है किन्तु समुद्घात में दोनों है। अयोगी में पर्याप्त है।
.३ मध्यमेषु असत्योभयमनो वचनयोगेषु x x x सत्यानुभय मनोयोगयोः सत्जवचनयोगे x x x जीवसमासः संजिपर्याप्त एवैकः ।
अनुभय वचन योगे xxx जीवसमासाः द्वित्रिचतुरिन्द्रिय संज्ञ यसंजी पर्याप्ताः पञ्च ।
-गोजी• गा ६७९ । टोका
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