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( २१२ )
एवं विहमणुस अपज्जत्ताणं संताणो सांतरो होज्ज तो मण-वचिजोगीणं संतानो सांत किण्ण हवे, विसेसाभावादो। ण दव्वपमाणकओ विसेसो, देवाणं संखेज्जभागमेत्तदव्वुलक्खि-वेउव्विय मिस्स कायजोगिसंताणस्स वि सव्वद्धप्प संगादो । एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं जहा - ण दव्वबहुत्तं संताणाविच्छेदस्स कारणं, संखेज्जमणुसपज्जत्ताणं संताणस्स वि वोच्छेदध्पसंगादो । ण सगद्धाथोवत्तं संताणवोच्छेदस्त कारणं, वेउव्विय मिस्सद्धादो संखेज्जगुणहीणद्ध वलक्खियमणजोगिसंताणस्स वि सांतरत्तप्पसं गावो । किंतु जस्स गुणट्टाणस्स मग्गणट्ठाणस्स वा एगजीवावद्वाणकालादो पवेसंतरकालो बहुगो होदि तस्सण्णयवोच्छेदो । जस्स पुण कयावि ण बहुओ तस्स ण संताणस्स वोच्छेदो त्ति घेत्तव्वं । मणजोगिर्वाच - जोगीणं पुण एगसमयो सुट्ट पविरलो त्ति एत्थ जहण्णकालत्तणेण ण गहिदो ।
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योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारि मिश्र काययोगी, वैक्रियकाययोगी और कार्मणकाययोगी जीव सर्वकाल में रहते हैं ।
अस्तु —- शंका - मनोयोगी और वचनयोगियों का काल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । परन्तु मनुष्य अपर्याप्तों का काल जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है । यदि इस प्रकार के मनुष्य अपर्याप्तों की संतान सान्तर है तो मनोयोगी और वचनयोगियों की सान्तर संतान क्यों नहीं होगी, क्योंकि उनमें कोई विशेषता नहीं है । यदि द्रव्यं प्रमाणकृत विशेषता मानी जाय तो वह भी नहीं बनती, क्योंकि देवों के संख्यातवें भाग मात्र द्रव्य से उपलक्षित वैक्रियमिश्रकाययोगी जीवों की संतान के भी सर्वकाल रहने की प्रसंग होगा ।
समाधान- द्रव्य की अधिकता संतान के अविच्छेद का कारण नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर संख्यात मनुष्य पर्याप्त जीवों को संतान के भी व्यवच्छेद का प्रसंग होगा । अपने काल की अल्पता भी संतानव्युच्छेद का कारण नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर वैक्रियमिश्रकाल में संख्यातगुणेहीन काल से उपलक्षित मनोयोगिसंतान के भी सान्तरता का प्रसंग आयेगा । किन्तु जिस गुणस्थान अथवा मार्गणास्थान के एक जीव के अवस्थानकाल से प्रवेशान्तरकाल बहुत होता है । उसकी संतान का व्युच्छेद होता है। जिसका वह काल कदापि बहुत नहीं है । उसकी संतान का व्युच्छेद नहीं होता, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । परन्तु मनोयोगी व वचनयोगियों का एक समय बहुत ही कम पाया जाता है । इस कारण यहाँ जघन्यकाल रूप से यह नहीं ग्रहण किया गया ।
• ०६ वैक्रियमिश्रकाययोगी को कालस्थिति
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बेव्यमिस्स कायजोगी केवचिरं कालादो होंति ।
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- षट्० खण्ड ० २ । ८ । सू १८ | पु ७ । पृष्ठ० ४६९
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