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उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्ट ।
— षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १७६ । पु ४ । पृष्ठ० ४१६ । ७
टीका - तं जधा -मिच्छादिट्ठी मण वचिजोगेसु अच्छिदो अद्धाखएण कायजोगी जादो, सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तमच्छिद्रण एइ दिएसु उप्पण्णी । तत्थ अनंतकालमसंखेज्ज पोग्गलपरियदृ कायजोगेण सह परियट्टिण आवलियाए असंखेज्जदिभागमे तपोग्गल परिय सुप्पण्णेसु तसेसु आगंतूण सव्बुक्कस्समं तो मुहुत्तमच्छिय वचिजोगी जादो । लद्धो कायजोगस्स उक्कस्सकालो ।
काययोगमों में मिथ्यादृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं । क्योंकि, सभी कालों में काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों के विरह का अभाव है । एक जीव की अपेक्षा काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवों का जघन्यकाल एक समय है ।
जैसे- - एक सासादनसम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा असंयत सम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत जीव काययोग के काल में विद्यमान था । उस योग के काल में एक समय अवशेष रहने पर वह मिथ्यादृष्टि हो गया । तब काययोग के साथ एक समय मिथ्यात्वदृष्टिगोचर हुआ । पुनः द्वितीय समय में अन्य योग को चला गया । अथवा, मनोयोग और वचनयोग में विद्यमान मिथ्यादृष्टि जीव के उन योगों के काल के क्षय से काययोग आ गया | तब एक समय काययोग के साथ मिथ्यात्वदृष्टिगोचर हुआ । पुनः द्वितीय समय में सम्यगु मिथ्यात्व को, अथवा असंयम के साथ सम्यक्त्व को, अथवा संयमासंयम को अथवा अप्रमत्त भाव के साथ संयम को प्राप्त हुआ । इस प्रकार एक समय लब्ध हो गया । यहाँ पर मरण और व्याघात की अपेक्षा एक समय नहीं है, क्योंकि मरण होने पर अथवा व्याघात होने पर भी काययोग को छोड़कर अन्य योग का अभाव है ।
एक जीव की अपेक्षा काययोगी मिथ्यादृष्टि जीबों का उत्कृष्टकाल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ।
जैसे - मनोयोग अथवा वचनयोग में विद्यमान एक मिथ्यादृष्टि जीव, उस योग के काल-क्षय हो जाने पर काययोगी हो गया । वहाँ पर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल तक रह करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ । वहाँ पर अनन्तकाल प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन काययोग के साथ परिवर्तन करके आवली के असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गल परिवर्तनों के शेष रहने पर त्रस जीवों में आकर और सर्वोत्कृष्ट अंतर्मुहूर्तकाल रह करके वचनयोगी हो गया। इस प्रकार से काययोग का उत्कृष्टकाल प्राप्त हुआ ।
सासणसम्मादिट्टिप्पहूडि जाव सजोगिकेवलि त्ति मणजोगिभंगो ।
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- षट्० खण्ड ० १ । ५ । सू १७७ । पु४ । पृष्ठ० ४१०
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