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जीव का मन के साथ प्रयोग, वचन के साथ प्रयोग और काय के साथ प्रयोग--इस प्रकार प्रयोग तीन प्रकार का है। उसमें भी वह क्रम से ही होता है, अक्रम से नहीं ; क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है।
उसमें सत्य, असत्य, उभय और अनुभय मनः प्रयोग के भेद से मनः प्रयोग चार प्रकार का है।
उसी प्रकार सत्य, असत्य, उभय और अनुभय के भेद से वचन-प्रयोग भी चार प्रकार का है।
काय प्रयोग औदारिक आदि काय प्रयोग के भेद से सात प्रकार का है। (औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र तथा कार्मण काय प्रयोग)।
प्रश्न-इन प्रयोगों में कौन जीव स्वामी होते हैं ?
उत्तर-वह संसार अवस्था में स्थित और सयोगी-केवलियों के होता है ।
अस्तु-तीन प्रकार का प्रयोग कर्म संसार अवस्था में स्थित जीवों के होता है, इस कथन से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के जीव सयोगी सिद्ध होते हैं। क्योंकि आगे के जीवों के संसार अवस्था नहीं पाई जाती। कारण कि जिस घाति-कर्म-समूह के कारण जीव चारों गतियों में संसरण करते हैं वह घाति-कर्म-समूह संसार है। और इसमें रहने वाले जीव संसारथ अर्थात् छद्मस्थ है। ऐसी अवस्था में सयोगि-केवलियों के योगों का अभाव प्राप्त होता है। अतः सयोगियों के भी तीनों ही योग होते हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिए 'सयोगी' पद को अलग से ग्रहण किया है।
वह सब प्रयोग कर्म है।
शंका-संसार में स्थित जीव बहुत है। ऐसी अवस्था में 'त' इस प्रकार एक वचन का निर्देश कैसे किया है ?
समाधन-नहीं, क्मोंकि प्रयोग कर्म संज्ञावाले जितने भी जीव हैं, उन सब को जाति की अपेक्षा एक मानकर एक वचन का निर्देश बन जाता है।
प्रश्न --जीवों को प्रयोग कर्म संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ?
उत्तर-नहीं, क्योंकि 'प्रयोग को करता है' इस व्युत्पत्ति के आधार से प्रयोग-कर्म शब्द भी सिद्धि कर्ता कारक में करने पर जीवों के भी प्रयोग कम संज्ञा बन जाती हैं।
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