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नोट-संसारी जीवों के और सयोगि-केवलियों के मन, वचन और काय के आलम्बन से प्रति समय आत्मप्रदेश-परिस्पन्द होता रहता है। आगम में इस प्रकार के प्रदेशपरिस्पन्दन को योग कहा जाता है। प्रकृत में इसे ही प्रयोग कर्म शब्द द्वारा सम्बोधित किया गया है। किन्तु वीरसेन स्वामी के अभिप्रायानुसार इतनी विशेषता है कि यहाँ जिन जीवों के यह योग होता है वे प्रयोग कर्म शब्द द्वारा ग्रहण किये गये हैं।
•१ योग और समवदानकर्म
समयाविरोधेन समवदीयते खंड्यत इति समवदानम्, समवदानमेव समवदानता। कम्मइयपोग्गलाणं मिच्छत्तासंजम-जोग-कसाएहि अट्रकम्मसरूदेण सत्तकम्मसरुवेण छकम्मसरुवेण वा भेदो समुदाणद त्ति वृत्तं होदि।
-षट्० खण्ड ० ५, ४ । सू २० । टीका । पु १३
जो यथा विधि विभाजित किया जाता है वह समवदान कहलाता है। और समवदान ही समवदानता कहलाती है। कार्मणपुद्गलों का मिथ्यात्व, असंयम, योग और कषाय के निमित्त से आठ कमरूप, सात कर्मरूप या छह कर्मरूप भेद करना समवदानता है। यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
•२ योग और ईर्यापथकर्म
__ ईर्या योगः सःपन्था मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म। जोगणिमित्तेणेव ज बज्झइ तमीरियावहकम्मति भणिदं होदि ।
-षट्० खण्ड० ५, ४ । सू २३ । टीका । पु १३
ईर्या का अर्थ योग है। वह जिस कार्मण शरीर का पथ, मार्ग हेतु है वह ईर्यापथकर्म कहलाता है। योग मात्र के कारण जो कर्म बंधता है वह ईर्यापथकर्म है।
__नोट-वह छद्मस्थवीतरागों के और सयोगि केवलियों के होता है। वह सब ईर्यापथ कम है।
.३ अनाहारक जीवों के प्रयोगकर्म काल
अणाहारएसु पओअकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? णाणा जीवं पडुच्च सव्वद्धा। एग जीवं पडुच्च जहण्णेणं एगसमओ। उक्कस्सेण तिण्णि समया।
-षट० खण्ड ० ५, ४ । सू ३१ । टीका । पु १३
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