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अनाहारक जीवों के प्रयोग कर्म का काल-नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट तीन समय काल है।
नाम, स्थापना, और द्रव्य ये तीन द्रव्याथिक नय के निक्षेप है, किन्तु भाव पर्यायाथिक नय का निक्षेप है। यह परमार्थ से सत्य है । तैजस और कार्मण-इन दोनों शरीरों की अयोगिकेवली के परिशातन कृति होती है, कारण कि उनके योगों का अभाव हो जाने से बंध का भी अभाव हो चुका है। अयोगिकेवली को छोड़कर शेष सभी संसारी जीवों के इन दोनों शरीरों की एक संघातन-परिशातनकृति ही है क्योंकि, सर्वत्र उनके पुद्गल-स्कन्धों का आगमन और निर्जरा-दोनों ही पाये जाते हैं। कहा है
जं च कामसुहं लोए, जंच दिव्वं महासुहं । वीयरायसुहस्सेइ णंतचागं ण आघदे ॥
—मूला० १२, १०३ अर्थात् लोक में जो कामसुख है और दिव्य महासुख है वह वीतराग सुख के अनन्तवें भाग के योग्य भी नहीं है।
__ जो कषाय का अभाव होने से स्थिति बंध के योग्य है, कर्मरूप से परिणत होने के दूसरे समय में ही अकर्म को प्राप्त हो जाता है, और स्थिति बंध न होने से मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है ; ऐसे योग के निमित्त से आते हुए पुद्गल स्कन्ध के काल निमित्तक अल्पत्व देखा जाता है अतः ईर्यापथकर्म अल्प है।
देव और मनुष्यों के सुख से अधिक सुख का उत्पादक है अतः ईर्यापथ-कर्म का अत्यधिक सातरूप कहा गया है। प्रयोग कर्म का नाना जीव और एक जीव दोनों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता है, क्योंकि संघादस्थ जीव के कोई न कोई योग निरन्तर पाया जाता है। यद्यपि अयोगि-केवली गुणस्थान में योग का अभाव हो जाता है पर वह जीव पुनः सयोगी नहीं होता, अतः अन्तरकाल के प्रकरण में इसका ग्रहण नहीं होता। .६१ सयोगी जीव और कर्म-बंधन
जीवा य लेस्स पक्खिय दिट्ठि अण्णाण णाण सण्णाओ। वेय कसाए उवओग जोग एक्कारस वि ठाणा।
--भग० श० २६ । उ १ इस बंधी शतक में ग्यारह उद्देशक हैं । उनका विषय क्रमशः इस प्रकार है। १-जीव ४-दृष्टि ७-संज्ञा १०-योग २-लेश्या ५-अज्ञान -वेद ११-उपयोग ३–पाक्षिक ६-ज्ञान ९-कषाय
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