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हमने यहाँ योग को ग्रहण किया है। उपरोक्त सूत्र में जीव-लेश्या-योग आदि ग्यारह स्थानों में बंध का कथन किया गया है। १ सयोगी जीव और कर्म बंधन
( जीवे गं भंते ! ) १ पावकम्मं x x x अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ २ अत्थेगइए बंधी बंधइ ण बंधिस्सइ ३ अत्थेगइए बंधी ण बंधइ बंधिस्सइ ४ अत्थेगइए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सइ।
--भग० श० २६ । उ १ । सू १ सजोगिस्स चउभंगो, एवं मणजोगिस्स वि वयजोगिस्स वि कायजोगिस्स वि । अजोगिस्स चरिमोxxx
-भग० श० २६ । उ १ । सू १३
सयोगी जीव में बन्ध के चार भंग होते हैं। मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी इनमें से प्रत्येक के चार-चार भंग होते हैं, यथा
१–बाँधा था, बाँधता है और बाँधेगा। (यह प्रथम भंग अभव्य जीव की अपेक्षा से है)।
२-बांधा था, बांधता है और नहीं बाँधेगा। (यह दूसरा भंग क्षपक-अवस्था को प्राप्त करनेवाले भव्य जीव की अपेक्षा से है)।
३-बांधा था, नहीं बांधता है और बाँधेगा ( यह तीसरा भंग मोहनीय कर्म का उपशम कर, उपशान्त अवस्था को प्राप्त भव्य जीव की अपेक्षा से है )।
४-बाँधा था, नहीं बांधता है और नहीं बाँधेगा। ( यह चतुर्थ भंग क्षीणमोहनीय अवस्था को प्राप्त जीव की अपेक्षा से है)।
अयोगी जीवों में अन्तिम भंग पाया जाता है।
सयोगी में अभव्य, भव्य विशेष, उपशमक और क्षपक की अपेक्षा क्रमशः चारों भंग पाये जाते हैं। अयोगी को पाप-कर्म का बंध नहीं होता है और भविष्म में भी नहीं होगा, इसलिए एक चौथा भंग ही पाया जाता है । •२ सयोगी नारकी और कर्म-बंधन '३ सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार देव और कर्म-बंधन
सलेस्से णं भंते ! रइए पावकम्म ०? एवं चेव ( अत्थेगइए बंधी० पढम-बिइया भंगाx x x। एवं x x x सजोगी, मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी xxx एएसु सन्वेसु पएसु पढम-बिइया भंगा भाणियवा।
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