________________
( २३८ )
शरीर से उत्पन्न होने वाला नहीं मानना चाहिए ; क्योंकि सभी कर्मों का आश्रय होने के कारण कार्मणशरीर भी पुद्गलविपाकी ही है ।
यद्यपि कार्मणशरीर के उदय विनष्ट होते समय में ही योग का विनाश देखा जाता है तथापि योग को कार्मणशरीरजनित नहीं मानना चाहिए ; क्योंकि अघातिकर्मोदय के विनाश होने के अनन्तर ही विनष्ट होने वाला पारिणामिक भव्यत्व भाव है उसको भी औदयिक स्वीकार करने का प्रसंग उपस्थित हो जायगा।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर योग की पारिणामिकता सिद्ध हुई। अथवा योग औदयिक भाव है, क्योंकि शरीरनामकर्मोदय के विनष्ट होने के पश्चात् ही योग का विनाश देखा जाता है। ऐसा मानने पर भव्यत्व भाव के साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि कर्म सम्बन्ध के विरोधी पारिणामिक भाव की कम से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। •११ भावानुगम से संचित योगी जीवों के भाव .१ जोगमग्गणा वि ओदइया, णामकम्मस्स उदोरणोदयजणिदत्तादो।
-षट्० सू ४ । १ । ६६ । पु ९ । पृष्ठ० ३१६ योगमार्गणा भी औदयिक है, क्योंकि वह नामकर्म की उदीरणा व उदय से उत्पन्न होती है। .२ लेस्साभग्गणा ओदइया, कसायाणुविद्धजोगं मोत्तूण लेस्साभावावो।
---षट् सू४।१। ६६ । पु ९ । पृष्ठ० ३१७ लेश्या मार्गणा और्दायक है, क्योंकि कषायानुविद्ध योग को छोड़कर लेश्या का अभाव है, अर्थात् कषायानुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । अतः वह औदायिक है। .४४ सयोगी जीव का भागाभाग .०१ मनोयोगी और वचनयोगी का भागाभाग .०५ वक्रिय काययोगो का भागाभाग .०६ वैक्रियमिश्र काययोगी का भागाभाग .०७ आहारक काययोगी का भागाभाग .०८ आहारकमिश्र काययोगी का भागाभाग
जोगाणवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-वेउब्वियकायजोगि-वेउध्वियमिस्सकायजोगि-आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगी सध्वजीवाणं केवडिओ भागो?
--- बट० खण्ड ० २ । १० । सू ३५ । पु ७ । पृष्ठ० ५०७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org