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जैन साधना पद्धति में योग के तीन अंग माने गये हैं - सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग् चारित्र । बौद्ध साधना पद्धति प्रज्ञा ( ज्ञान ), शील ( यम-नियम ) और समाधि ( ध्यान धारणा ) को तथा पातंजल योगदर्शन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि को योग के अंग बताये हैं ।
जैन आगमों में साधु और श्रावक के तीन-तीन मनोरथों का उल्लेख है । प्रथम दो मनोरथ भिन्न-भिन्न है । तीसरा मनोरथ दोनों का एक है । उसका सम्बन्ध आजीवन अनशन से है । इसके लिए आगमों में 'अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना' शब्द का प्रयोग है । बोलचाल की भाषा में इसे संथारा कहा जाता है । प्रत्येक जागरूक साधु और श्रावक की यह भावना रहती है कि वह अपनी यात्रा की संपन्नता अनशन के साथ करें ।
भवस्थ केवली – सयोगी या अयोगी केवली के भाव मन (चित्त) का अभाव होने पर भी जीव का उपयोग रहता ही है । शुक्लध्यान - शुक्ललेश्या व लेश्यारहित होता है लेकिन योग- मनोयोग, वचनयोग, काययोग या योगरहित होता है । है — ध्यान, अतः ध्यान मोक्ष का हेतु है ।
तप का प्रधान अग
वचन, शरीर और श्वासोच्छ् वास का
।
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धर्मध्यान करने वालों से कुछ व्यक्ति मन का निरोध कर फिर श्वासोच्छ् वास का निरोध करते हैं और कुछ व्यक्ति शरीर, वचन और निरोध कर फिर मन का निरोध कर पाते हैं आवश्यक सूत्र में 'ठाणेणं मोणेणं झाणेणं' इन शब्दों द्वारा तौसरा क्रम प्रतिपादित है इसका अर्थ है - पहले शरीर की चेष्टा का विसर्जन, फिर वाणी का और फिर मन का । इस क्रम में श्वासोच्छ् वास का निरोध कायनिरोध के अंतर्गभित है । किन्तु भवकाल में शुक्लध्यान का प्रतिपत्ति क्रम इस प्रकार रहता है— पहले मनोयोग का, तदन्तर वाक्योग का और अन्त में काययोग का निरोध होता है ।
पढमं जोगे जोगेसु वा मयं बिइअमेगजोगम्मि | तइयं च कायजोगे सुक्कमजोगम्मि य चउत्थं ॥
शुक्लध्यान के प्रथम प्रकार में एक ही योग या तीनों योग दूसरे प्रकार में तीनों में से कोई एक योग विद्यमान रहता है । एक काययोग ही विद्यमान रहता है । तथा चौथे प्रकार में कोई योग नहीं रहता । वह अयोगी को ही प्राप्त होता है । कहा है
विवित्तं पेच्छ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे ।
विवेक है |
-ध्याश० गा० ९२
शरीर और आत्मा को तथा सभी संयोगों को आत्मा से भिन्न मानना - यह
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- ध्याश० गा० ८३
विद्यमान रह सकते हैं, तीसरे प्रकार में केवल
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