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शुक्लध्यान में शुभयोग व योग न भी हो ।
शुक्लध्यान के पहले दो प्रकारों में शुक्ललेश्या और तीसरे प्रकार में परम शुक्ललेश्या होती है । चतुर्थं प्रकार लेश्यातीत होता है । भवस्थ सयोगी और अयोगी केवली के चित्त का अभाव होने पर भी उपयोग रहता ही है ।
अनाहारक अयोगी जीवों के शरीर से जो औदारिक परमाणु निर्जीर्ण होते हैं उनका यह जघन्य व उत्कृष्टकाल कहना चाहिए । दिगम्बर मतानुसार सकषायी के शुक्लध्यान नहीं होता है अर्थात् अकषायी में शुक्लध्यान होता है । अभिनिष्क्रमण के समय भगवान महावीर जब श्रेष्ठ पालकी में आरोहण किया, उस समय उनके दो दिन का उपवास था, उनके अध्यवसाय शुभ थे, लेश्या विशुद्धमान थी । कहा है
भी शुभ
छ उ भत्ते अकवसाणेणं सोहणेण जिणो । लेस्साहि विसुज्तो आरुहई उत्तमं सीयं ॥
- आया० श्रु० २ । अ १५ । गा० १२१
अस्तु जब भगवान के अध्यवसाय शुभ थे तथा लेश्या विशुद्धमान थी - तब जोग थे | जैन सिद्धान्तदीपिका में कहा है
"परिणामविशेषः करणम् ।"
-प्र० ५।७
अर्थात् आत्मा के परिणाम विशेष को करण कहते हैं । यह करण की अन्य परिभाषा है । संयमी साधुओं के ध्यान आदि के द्वारा जो शुभ योग का निरोध होता है। यह अयोग संवर का ही एक अंश है ।" अयोग संवर शैलेशी अवस्था ( शैल - ईश ) मेरुउसकी तरह अडोल अवस्था चौदहवें गुणस्थान में होती है ।
यह ध्यान
योगनिरोध - मनोवाक्काय के निरोध को भी ध्यान कहा जाता है । केवली के होता है । शुक्लध्यान के चार भेद हैं जिसमें सूश्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान में एक काययोग होता है तथा समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति ध्यान में योग नहीं होता है ।
विवित्सं पेच्छ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे ।
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शरीर और आत्मा को तथा सभी संयोगों को आत्मा से भिन्न मानना यह विवेक है ।
१. जैन सिद्धांतदीपिका ५ । १२
- ध्याश० गा० ९२
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