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योगरहित होने के कारण प्रथम समय सिद्ध की गति तिरछी नहीं होती है ।
तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि में तिर्यंचायु व मनुष्यायु का बंध संभव है, शेष देवायु-नरकायु और वैक्रियषटक् का बंध नहीं होता है। गोम्मटसार में कहा है कि द्वीन्द्रियादि असंज्ञी में सास्वादान समकित शरीर पर्याप्ति की पूर्णता के पूर्व होती है बाद में नहीं। मिश्रकाययोग के काल में लब्ध्यपर्याप्तक के सिवाय अन्य के आयुबंध नहीं होता है।' यह सास्वादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान की अपेक्षा कहा है ।
गोम्मटसार की मान्यता के अनुसार असंज्ञी जीव जब तक सास्वादान गुणस्थान में होते हैं तब उनके केवल औदारिकमिश्रकाययोग व कार्मणकाययोग होता है उस समय आयुध्य का बंधन नहीं करते हैं। कार्मणकाययोग में किसी भी प्रकार का आयु बध नहीं होता है। परन्तु औदारिकमिश्रकाययोग में देवायु व नरकायु का बंध नहीं होता है, मनुष्य व तिर्यंच का आयु बंध सकता है। आयु एक पर्याय में एक बार से आठ बार तक बंधती है।
उदय के अन्त को उदय व्युच्छित्ति कहते हैं। गोम्मटसार में कहा है --
(अपुन्वम्मि) छच्चेव णोकषाया अणियट्टी भागभागेसु ॥२६९।। टीका-अपूर्वकरणे हास्यरत्यरतिशोक भयजुगुप्साः षट्
-गोक० गा० २६९ । टीका
अपूर्वकरण में हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह नोकषाय उदय से व्युच्छिन्न होती है। उदय और उदीरणा के स्वामीपने में कोई अन्तर नहीं है। प्रमत्त, सयोगी और अयोगी-इन तीन गुणस्थानों को छोड़कर अन्य गुणस्थानों में उदय के समान ही उदीरणा जानना । संक्लेश परिणामों के बिना इनकी उदीरणा नहीं होती है।
बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीव के ही आतय नामकर्म का उदय होता है। उच्च गोत्र का उदय मनुष्य और सब प्रकार के देवों में होता है। विवक्षित भव के प्रथम समय में ही उस भव संबंधी गति, आनुपूर्वी और आयु का उदय एक साथ ही एक जीव के होता है। गोम्मटसार में कहा-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मिश्रमोहनीय व सम्यक्त्व मोहनीय का उदय नहीं होता है । मिश्रगुणस्थान में मिश्रमोहनीय का उदय होता है व चतुर्थ गुणस्थान में मिश्रमोहनीय व मिथ्यात्वमोहनीय का उदय नहीं होता है। दूसरे गुणस्थान में भी अनंतानुबंधीय कषाय चतुष्क का उदय होता है। १. मिश्रकाययोगकाले लब्ध्यपर्याप्तकान्यस्य आयुर्बधाभावात् नरकतिर्यगायुषोरपनयात् ।
-गोक० गा० ११७ । टीका
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