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( 53 ) उपवाद और एकांतानुवृद्धि योगों को छोड़कर पृथ्वीकायिकों में कुछ कम बाईस हजार वर्ष तक परिणाम योगों के साथ प्रायः अवस्थान पाया जाता है। अप्कायिक, वायुकायिक वनस्पतिकायिकों के पर्याप्त व अपर्याप्त योग से पृथ्वीकायिकों का पर्याप्त व अपर्याप्तयोग असंख्यातगुणा होता है। एकेन्द्रियों से त्रसों का योग असंख्यातगुणा होता है। बादर पृथ्वीकायिकों में पर्याप्तभव बहुत और अपर्याप्त भव थोड़े होते हैं।'
जो वह गणनकृति है वह अनेक प्रकार की हैयथा-१–एख संख्या नोकृति है।
२-दो संख्या कृति और नोकृति रूप से अवक्तव्य है। ३–तीन को आदि लेकर संख्यात, असंख्यात व अनंत कृति है। १–नोकृति संकलना-जैसे १, २, ३, ४, ५, ६, ७ आदि । २-अवक्तव्य संकलना-२, ४, ६, ८, १०, १२, १४ आदि । ३–कृति-संकलना-३, ६, ९, १२ आदि ; ४, ८, १२, १६ आदि ; ५, १०,
१५, २. आदि।
लेश्या मार्गणा औदयिक है, क्योंकि कषायानुविद्ध योग को छोड़कर लेश्या का अभाव है अर्थात् कषायानुरजित योग प्रवृत्ति को लेश्या कस्ते हैं ।
सम्यक्त्व मार्गणा कथंचित् औदयिक है क्योंकि दर्शन मोहनीय के उदय से मिथ्यात्व को उत्पत्ति होती है।
जो किया जाता है वह कृति है अथवा मूलकरण ही कृति है। विवक्षित शरीर के परमाणुओं की निर्जरा के बिना जो संचय होता है उसे संघातन कृति कहते हैं। उन्हीं विवक्षित शरीर के पुद्गल स्कंधों को संचय के बिना जो निर्जरा होती है वह परिशातन कृति है। तथा विवक्षित शरीर के पुदगल स्कंधों का आगमन और निर्जरा का एक साथ होना संघातन-परिशातनकृति है। अयोगी केवली के योगाभाव होने से बंध नहीं होता है अतः इनके दो शरीरों की परिशातनकृति होती है।
__सम्यक्त्ववेदनीय को मोहनीयकर्म क्यों कहा जाता है। क्योंकि वह प्रशमादि परिणाम का कारण होने से दर्शन में मोह उत्पन्न नहीं करता है। वस्तुतः सम्यक्त्ववेदनीय मिथ्यात्वमोहनीय की प्रकृति है परन्तु उनके पुदगल विशुद्ध होने से क्षयोपशम सम्यक्त्व को प्रतिबंध नहीं करते हैं। वस्तुतः उससे देश भंगरूप अतिचार का संभव है। तथा वह औपशमिक तथा क्षायिक सम्यग्दर्शन में मोह उत्पन्न करता है --- उनको रोकता है अतः दर्शनमोहनीय कहा जाता है । इस कर्म के उदय में योग पन्द्रह मिल सकते हैं।
१. षट्खंडागम ४ । २, ४ । ७ पुस्तक १०, पृ० ३३ २. षट्खंडागम ४ । १ । ६६ पुस्तक ९ पृ० ३१७
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