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नामकर्म की एक प्रकृति आनुपूर्वी नाम है । इस प्रकृति में केवल कार्मणकाययोग मिलता है । हल और गोमूत्रिका के आकार अनुक्रमतः दो, तीन और चार समय प्रमाण विग्रहगति से दूसरे भव में उत्पत्ति स्थान में जाते हुए जीव की आकाश प्रदेश की श्रेणि के अनुसार नियत गमन की परिपाटी क्रम को आनुपूर्वी कहा जाता है । वह विपाक से वेदन करने योग्य नामकर्म की कारण में कार्य के उपचार से आनुपूर्वी नाम चार प्रकार का कहा है १ - नरयिकानुपूर्वीनाम, २ – तिर्यंचानुपूर्वीनाम, ३ – मनुष्यानुपूर्वीनाम और देवानुपूर्वीनाम |
आगम साहित्य में अकषायसमुद्घात का भी उल्लेख मिलता है । आहारकसमुद्घात करने वाले जीव उत्कृष्ट चार हो सकते हैं लेकिन केवल समुद्घात वाले उत्कृष्ट शतपृथक्त्व हो सकते हैं ( दो सौ से नव सौ तक की संख्या को शतपृथक्त्व कहते हैं । ) केवलिसमुद्घात
करने के एक समय पूर्व वेदनीयकर्म के प्रदेश से बहुप्रदेशी वाले व आयुष्यकर्म के प्रदेश सबसे थोड़े प्रदेश वाले होते हैं । नियनिगोद व इतरनिगोद की योनि सात-सात लाख है । आहारक मिश्र काययोग के समय आहारकमिश्रकाययोग नहीं होता है । सयोगकेवली के नाम और गोत्र कर्म की उदीरणा होती है । सूक्ष्म संपरायचारित्र में एक भी समुद्घात नहीं है ।
दिगम्बरमतानुसार पांच लोक है -ऊर्ध्वलोक, तिर्यग्लोक, नीचालोक, मनुष्यलोक व सामान्यलोक |
आठ कर्मों के क्षीण हो जाने पर जो ऊर्ध्वगमनोपलम्बी क्रिया होती है वह जीव का स्वाभाविक गुण है क्योंकि वह कर्मोदय के बिना प्रवृत्त होती है । स्वस्थित प्रदेश को न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीवद्रव्य का अपने अवयवों द्वारा परिस्पन्द होता है वह अयोग है । क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है । अतः सक्रिय होते हुए भी सशरीरी जीव अयोगी सिद्ध होते हैं । क्योंकि उनके जीवप्रदेशों के तप्तापमान जल प्रदेशों के सदृश उद्वर्तन और परिवर्तन रूप क्रिया का अभाव है अतः अयोगियों को अबंधक कहा है ।
क्षायिक लब्धि से जीव अयोगी होता है । दिगम्बर ग्रन्थों में चार प्रकार के (औषधिदान, शास्त्रदान, अभयदान और आहारदान ) दानों में शास्त्रदान की बड़ी महिमा है । कहा है
अत्ता दोसविक्को पुग्वापरदोसवज्जियं वयणं ।
अर्थात् जिसमें कोई दोष नहीं है वह आप्त है और जिसमें पूर्वा पर विरोधरूपी दोष न हो - वह वचन आगम है ।
आगम, सिद्धान्त - प्रवचन—ये एकार्थवाची है । आगम में निर्ग्रन्थों के प्रवचन करें सिद्धांत कहा है ।
षट्खण्डागमानुसार एकेन्द्रिय में चार समय की अन्तराल गति हो सकती हैं । उसमें प्रथम तीन समयों में कार्मणकाययोग उपलब्ध होता है । उनके मतानुसार छद्मस्थ का
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