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जोगा अस्थि । तत्थ आउअबंधपाओग्गजहण्णजोगेहि चेव आउअंबंधदि ति उत्तं होदि।
-षट् ० खण्ड० ४ । २ । ४ सू १० । पु १० । पृष्ठ• ३८ । ९ जब-जब जीव आयु को बांधता है तब-तब उसके योग्य जघन्य योग से बांधता है ।
अपर्याप्त व पर्याप्त भव सम्बन्धी उपपात और एकांतानुवृद्धि योगों का निषेध करने के लिए तथा आयुबंध के योग्य जघन्य परिणाम योग का ग्रहण करने के लिए उसके योग्य जघन्य योग का ग्रहण किया है। कर्मस्थिति के प्रथम समय से लेकर उसके अन्तिम समय तक गुणितकर्माशिक जीव के योग्य योगस्थानों की देशादि के नियम से खंङ्गधारा के समान एक पंक्ति में अवस्थित जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार के योग पाये जाते हैं। उनमें से आयुबंध के योग्य जघन्य योगों से ही आयु को बांधता है। यह उक्त अर्थ का तात्पर्य है। •४९ योग और कृति–नोकृति, अवक्तव्यकृति
.१ x x x मणुसअपज्जत्त-वेउन्वियमिस्सहारदुग - सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदउवसमसासणसम्माइट्ठिसम्मामिच्छादिट्ठिजीया सियाकदी, तिप्पहुटिउपरिमसंखाए कदाचिदुवलंभादो। सिया णोकदी, एदेसुअट्ठसु कदाचि एगस्सेव जीवस्स दसणादो। सिया वत्तव्व कदी, कदाचि दोण्णं चेवुपलभादो।
-षट्० सू ४ । १ । सू ६६ । पु ९ । पृष्ठ० २७७ मनुष्य अपर्याप्त, वैक्रियमिश्रकाययोग, आहारकद्विक (आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग ) सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीव कथंचित् कृति है, क्योंकि ये तीन आदि उपरिम संख्या में कभी नहीं पाये जाते हैं। कथंचित् वे नोकृति है, क्योंकि इन आठ स्थानों में कभी एक ही जीव देखा जाता है। कथंचित् अवक्तव्यकृति है, क्योंकि कभी वहां दो ही जीव पाये जाते हैं ।
xxx आहारदुग-विउव्वियमिस x x x कदिणोकदि अवक्तव्य संचिदा सिया अत्थि सिया णस्थि ।
-षट्० सू ४ । १ । सू ६६ । पु ९ । पृष्ठ० २८१ ___ आहारद्विक (आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग ) वैक्रियमिश्रकाययोगी जीव कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित् कथंचित् हैं और कथंचित नहीं है । •२ प्रथम-अप्रथम अपेक्षा योगी जीव और कृति
औदारिक काययोगी औदारिकमिश्र काययोगी कार्मण काययोगी
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