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( २७१ ) अजोगी अबंधा। ---षट् खण्ड० २।१ । सू १५ । पु ७ । पृष्ठ० १८
टीका-जोगो णाम कि? मण-वयण-कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिपफंदो। जदि एवं तो पत्थि अजोगिणो, सरीरयस्स जीवदव्वस्स अकिरियत्तविरोहादो। एस दोसो, अट्टकम्मेसु खीणेसु जा उगमणवलंबिया किरिया सा जीवस्स साहाविया, कम्मोदएण विणा पउत्तत्तादो। सहिददेसमछंडिय छद्दित्ता वा जीवदव्वस्स सावयवेहि परिफ्फंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मक्खयत्तादो। तेण सक्किरिया वि सिद्धा अजोगिणो, जीवपदेसाणमद्दहिदजलपदेसाणं व उव्वत्तणपरियत्तणकिरियाभावादो। तदो ते अबंधा त्ति भणिदा।
योग मार्गणानुसार मनयोगी, वचनयोगी और काययोगी बन्धक हैं। अयोगी जीव अबन्धक है।
___ अस्तु-मन, वचन और काय सम्बन्धी पुद्गलों के आलम्बन से जो जीवप्रदेशों का परिस्पदन होता है वही योग है।
प्रश्न यह है कि यदि ऐसा है तो शरीरी जीव भयोगी हो ही नहीं सकते क्योंकि शरीरगत जीव द्रव्य को अक्रिय मानने में विरोध आता है ?
इसका समाधान यह है-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आठों कर्मों के क्षीण हो जाने पर जो ऊर्ध्वगमनोपलम्बी क्रिया होती है, वह जीव का स्वाभाविक गुण है, क्योंकि वह कर्मोदय के बिना प्रवृत्त होती हैं। स्वस्थित प्रदेश को न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीव द्रव्य का अपने अवयवों द्वारा परिस्पन्द होता है वह अयोग है। क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है। अतः सक्रिय होते हुए भी शरीरी जीव अयोगी जीव सिद्ध होते हैं, क्योंकि उनके जीवप्रदेशों के तप्तायमान जलप्रदेशों के सदृश उद्वर्तन और परिवर्तन रूप क्रिया का अभाव है। अत: अयोगियों को अबन्धक कहा है । •४८.१ आयुषकर्म के बंधन के समय जघन्य योग होता है
जदा जदा आउअं बंधदि तदा तदा तप्पाओग्गेण जहण्णएण जोगेण बंधदि ॥१०॥
टोका-अपज्जत-पज्जत्तववादेयंताणुवड्डिजोगाणं परिहरणट्ठमाउअबंधपाओग्गजहण्णपरिणामजोग्गहण्टु च तप्पाओग्गजहण्णजोगग्गहणं कदं। कम्मटिविपढमसमयप्पहुडि जाव तिस्से चरिमसमओ त्ति ताव गुणिदकम्मसियपाओग्गाणं जोगट्ठाणाणं पंतोए देखादिणियमेणावद्विदाए खग्गधारासरिसीए जहण्णुक्कस्स
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