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उसके बाद के समय में औदारिक, तेजस और कार्मण रूप तीन शरीर का सर्व प्रकार से त्याग करने योग्य त्याग करता है अर्थात् सर्व प्रकार से त्याग करता है । शरीर का देश से त्याग करता था वैसा त्याग नहीं करता है, परन्तु सर्व करता है । कहा है- औदारिकादि शरीर को सर्व प्रकार से त्याग ( वैक्रियमिश्र काययोग में किसी भी प्रकार का समुद्घात नहीं होता है । होता है । ) जैसे बंधन के विच्छेद से प्रेरित हुआ एरंड फल जाता है वैसे ही कर्म बंध के विच्छेद से प्रेरित हुआ सिद्ध भी होता है । आवश्यक चूर्ण में कहा है- जितने आकाश प्रदेशों में जीव स्थित है उतनी अवगाहना से ऊपर ऋजु गति से जाता है । साकार उपयोगवाला एक समय में सिद्ध होता है ।
तथा न मरण
वे सिद्ध औदारिकादि शरीर रहित है । त्याग होता है ।
चूंकि रागादि की उत्पत्ति में परिणामी कारण आत्मा है और सहकारी कारण रागादि मोहनीय कर्म है सिद्धों के रागादि मोहनीय कर्म नहीं है उसको पूर्व ही ध्यानाग्नि से भम्मसात् किया है । धर्म संग्रहणी में कहा है-क्षीण हुए उस रागादि सहकारी कारण के अभाव से वापस उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि रागादि रहित को संक्लेश नहीं होता है । कहा है - जैसे बीज अत्यन्त दग्ध होने से अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है वैसे ही कर्म रूपी बीज के दग्ध होने से अकुर उत्पन्न नहीं होता है । वे सिद्ध जाति, जन्म, जरा, वृद्धावस्था, मरण और बंधन ज्ञानावरणीयादि कर्मों से मुक्त है ।
.०६ मनोयोगी और वचनयोगी का समुद्घात क्षेत्र
जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी सत्थाणेण समुग्धादेण केवड़िखेत्ते ?
वेयण
क्योंकि सिद्धों के प्रथम समय में उनका
- षट० खं २ । ६ । सू ५२ । पु ७ । पृष्ठ ० ३४०
टीका - एत्थ सत्थाणे दो वि सत्याणाणि अत्थि, समुग्धादे वेयणकसायवेव्विय तेजाहार मारणंतियसमुग्धादा अस्थि, उट्ठाविदउत्तरसरीराणं मारणंतियगदाणं पि मण वचि - जोगसंभवस्स विरोहाभावादो । उववादो णत्थि, तत्य कायजोग मोत्तणण्णजोगाभावादो ।
जिस प्रकार पूर्व प्रकार से त्याग छोड़ता है ।
- कसाय
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लोगस्स अस खेज्जदिभागे ।
टीका- एदस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा - सत्याणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- बेउव्वियसमुग्धादगदा एदे दस वि तिष्हं लोगाणमसंखेज्ज दिभागे,
- षट० खं २ । ६ । सू ५३ | ७ | पृष्ठ० ३४०
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