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( ३४४ ) सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी अचरम मनुष्य ( अठारह पदों में ) ज्ञानावरणीय कर्म बंध की अपेक्षा अन्तिम भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग कहना चाहिए।
इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के विषय में जानना चाहिए ।
इसी प्रकार वेदनीय कर्म के विषय में दो भंग (पहला दूसरा भग ) कहना चाहिए । किन्तु अचरम मनुष्य में अयोगी नहीं होता है। •४० सयोगी अचरम नारको आदि और मोहनीय कर्म का बंध
अचरिमे णं भंते ! णेरइए मोहणिज्ज कम्मं किं बंधी-पुच्छागोयमा! जहेव पावं तहेव णिरवसेसं नाव बेमाणिए।
-भग० श. २६ । उ ११ । सू ५ जिस प्रकार सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी अचरम नारकी के विषय में पाप कर्म बंध का कहा उसी प्रकार सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी अचरम नारकी मोहनीय कर्म प्रथम-द्वितीय-दो भंग से बंध करता है।
बाकी अचरम दंडक जैसा पापकर्म बंधन के सम्बन्ध में कहा-वैसा ही निरवशेष कहना। .४१ सयोगी अचरम नारको व आयुष्य कर्म-बंधन
अचरिमे णं भंते ! रइए आउयं कम्म कि बंधी—पुच्छा।
गोयमा! पढम-तइया भंगा। एवं सवपएसु वि। रइयाणं पढम-तइया भंगा, णवरं सम्मामिच्छत्ते तइओ भंगो, एवं जाव थाणियकुमाराणं ।
-भग• श० २६ । उ ११ । मू ६ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी अचरम नारकी में आयुष्य कर्म के बंध की अपेक्षा पहला और तीसरा भंग कहना चाहिए। नारकियों में बहुवचन की अपेक्षा पहलातीसरा भंग कहना चाहिए। सयोगी भवनपतिदेव व आयुष्य बंध
सयोगी असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार भवनपतिदेव व आयुष्य बंध
प्रथम-तृतीय भंग से आयुष्य कर्म का बंधन करता है। सयोगी-काययोगी अचरम पृथ्वीकायिक और आयुष्य बंध
पुढविक्काइय-आउक्काइय-वणस्सइकाइयाण, तेउलेस्साए तइओ भंगो, सेसेसु पए सव्वत्थ पढम-तइया भंगा।
-भग• T०२६ । उ ११ । सूई
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