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है तथा स्थिति और अनुभागबंध कषाय से होता है ऐसा शास्त्र का वचन है। केवल वह कर्मबंध मात्र योग निमित्तक होने से दो समय का है। वह इस प्रकार है-प्रथम समय कर्म बंधता है और दूसरे समय में वेदन होता है और तीसरे समय में कर्म अकर्मरूप होता है। उनमें जो कोई दो समय की स्थितिवाला कर्म करता है और पूर्व-पूर्व का कर्म नष्ट होता जाता है। तो भी समय-समय में निरन्तर कर्म का ग्रहण होता है तो मोक्ष नहीं होता और अवश्य मोक्ष जायेंगे। अतः वे योग निरोध करते हैं। वे लेश्या का निरोध करने की इच्छा करते हैं और योग निमित्त समस्थिति बंध को रोकने की इच्छा करते हुए योग निरोध करते हैं। समय-समय में कर्म-ग्रहण करने से तो कर्म प्रवाह लिए हुए मोक्ष नहीं होता है कि स्थिति के क्षय के पूर्व कर्म का छटकारा होता है। और कर्म रहित का योग द्रव्य से वीर्य नहीं होता है परन्तु योग के अवस्थान से समय स्थिति का बंध होता है। बंध का समय मात्र की स्थिति बंध के समय को छोड़ कर जाननी चाहिए । भाष्य भी इस पूर्वोक्त सर्व प्रमेय अर्थ को पुष्ट करते हैं। उस प्रकार उसका यह ग्रन्थ है"समुद्घात से निवृत्त होकर जिन तीन योग का व्यापार करते हैं। सत्य, असत्यमृषा मनोयोग, वचनयोग, और गमनादि में औदारिक काययोग का व्यापार करते हैं। उसी प्रकार पार्श्ववर्ती पीठ, फलकावि का प्रत्यर्पण-वापस देने की क्रिया कहते हैं और उसके बाद योग निरोध कहते हैं। सयोगी कैसे सिद्ध नहीं होते हैं क्योंकि बंध का हेतु योग है, उस योग से सयोगी परम निर्जरा का कारण परम शुक्ल ध्यान को प्राप्त नहीं होता है।
चूकि योग निरोध करते हुए सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करते हैं और उस पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के प्रथम समय जितने मनोद्रव्य और जितना उसका व्यापार होता है उससे असंख्यात गुण न्यून मनोयोग का प्रतिसमय निरोध करता हुआ असंख्यात समय से सर्वथा निरोध करता है। कहा है कि-"जघन्य योग वाला पर्याप्त मात्र संज्ञी के जितने मनोद्रव्य होते हैं और जितना उसका व्यापार होता है उससे असंख्यात गुण हीन समयसमय में रोकता हुआ असंख्यात समय में मन को सर्वथा निरोध करता है।
प्रस्तुत केवली योग का निरोध करने की इच्छा करते हुए सर्वप्रथम जघन्य योग वाले संजी पर्याप्त के (मनोयोग का यहाँ अध्याहार है ) अर्थात् उसके मनोयोग के नीचे असंख्यात गुण-हीन समय-समय में रोकता हुआ असंख्यात समय में सर्वथा प्रथम मनोयोग का निरोध करता है। मनोयोग को रोकने के बाद जघन्य योग वाले बेइन्द्रिय पर्याप्त के वचन योग के नीचे के ( यहाँ वचनयोग पद अर्थात् जान लेना ) वचनयोग को असंख्यात गुण हीन समय-समय में रोकता हुआ सर्वथा द्वितीय वचनयोग का निरोध करता है। इस सम्बन्ध में भाष्यकार ने कहा है-"पर्याप्त मात्र द्वीन्द्रिय के जघन्य वचन योग के जो पर्याप्त है उससे असंख्यात गुण-हीन वचनयोग को समय-समय में रोकता हुआ असंख्यात समय में सर्व वचनयोग निरोध करता है ।
- इसके बाद-प्रथम समय में उत्पन्न हुआ अपर्याप्त सूक्ष्म पनक ( निगोद ) जीव का जघन्य योग वाला -जो सबसे अल्प वीर्य वाला सूक्ष्मपनक जीव का जो काययोग है उसके
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