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मन से पूछते हैं तो उत्तर देने के लिए मन के पुद्गलों को ग्रहण कर मनोयोग का व्यापार करते हैं वे भी सत्य या असत्य-मृषा रूप मन का व्यापार करते हैं। मनुष्यादि के पूछने पर कार्यवश से वचनयोय के पुद्गलों को ग्रहण कर वचनयोग का व्यापार करते हैं और सत्य या असत्य मृषा रूप वचन का व्यापार करते हैं बाकी के मन और वचन के योग की क्रिया नहीं करते हैं क्योंकि उनके रागादि क्षीण हो गया है। गमनागमन में औदारिक काययोग का व्यापार करते हैं। इस प्रकार भगवन् कार्यनिमित्त विवक्षित स्थान से विवक्षित स्थान आते हैं। अथवा किसी स्थान पर जाते हैं, खड़े रहते हैं या बैठते हैं । उस प्रकार का श्रम दूर करने के लिए आलोटना अथवा विवक्षित स्थान में उस प्रकार के आकर पड़े हुए जीवों से व्याप्त भूमि को देख कर उनका त्याग करने के लिए प्राणियों की रक्षा के लिए उल्लंघन अथवा प्रलंघन करते हैं। उनमें स्वाभाविक पाद विक्षेप, गमन करते कांइक अधिक गमन करना-उल्लंघन, मोटे पैर भरना-प्रलंघन अथवा पास में रहे हए पीठ-आसन, फलक-पाटिया, आसन-वसति और संस्तारक वापस देवे अर्थात जिनके पास से लाये, उन्हें वापस सौंपें। यहाँ आर्यश्यामासूरि ने पास रहे हुए आसन, फलक आदि वापस सौंपने का कहा है। इससे जाना जाता है कि केवली समुद्धात से निवृत्त होने बाद उनका आयुष्य अन्तर्मुहूर्त का बाकी रहता है उस समय में आवर्जीकरणादि करते हैं परन्तु अधिक आयुष्य बाकी रहने पर नहीं करते हैं। यदि ऐसा न हो तो उनके ग्रहण करने का भी संभव होने से उन्हें ग्रहण भी करना पड़ता है। इस कथन को कोई आचार्य कहते हैंजघन्य से अंतमुहूर्त बाकी होता है और उत्कृष्टतः छः मास अवशेष रहे उस समय समुद्घात करते हैं। उसका निरास जानना चाहिए। क्योंकि छः मास के बीच में वर्षा काल भी संभव होने से -उस निमित्त से आसन, फलकांदि ग्रहण भी संभव है। परन्तु वह सूत्र से सम्मत नहीं है अतः वह प्ररूपणा उत्सूत्र जाननी चाहिए। तथा आवश्यक सूत्र में भी समूदधात करने के बाद तुरन्त शैलेशी कथन से यह उत्सूत्र प्ररूपणा जाननी चाहिए। वह सूत्र इस प्रकार है ---"दंड, कपाट, मंथन, आंतरा, पूर्ति, संहरण, शरीरस्थ, वचनयोग निरोध, शैलेशी और सिद्ध अनुक्रमतः जानना चाहिए। जो उत्कृष्ट से छः मास का अन्तर पड़ता है तो भी कहा जाता है परन्तु कथन नहीं किया है अतः वह अयुक्त है। इस प्रकार भाष्यकार ने कहा है-कर्म को न्यून करने के निमित्त ( समुद्घात ) शेष अन्तर्मुहूर्त का काल जानना चाहिए। अन्य आचार्यों ने इससे जघन्य काल कहा है और छः मास का उत्कृष्ट काल कहा है ( वह अयुक्त है । ) क्योंकि बाद में तुरन्त शैलेशी का कथन होने से और पास में हुए पीठ, फलकादि को वापस करने का सूत्र कहा है। अन्यथा उसे ग्रहण करने का भी कहा है। यहाँ इस प्रमाण से अन्तर्मुहूर्त तक यथा संभव तीन योग के व्यापार वाले केवली होकर, उसके बाद अत्यन्त स्थिरता रूप, लेश्या रहित और परम निर्जरा का कारण ध्यान को स्वीकार करने की इच्छा वाले. योग-निरोध करने के लिए प्रारम्भ करते हैं। क्योंकि योग होने के समय उक्त स्वरूप वाले ध्यान का होना असम्भव है। इस दृष्टि से योग परिणाम-लेश्या है क्योंकि योग के अन्वय और व्यतिरेक के अनुसार है। इस कारण जहाँ तक योग है वहाँ तक लेश्या है। इस कारण लेश्या रहित ध्यान संभव नहीं है। तथा जहाँ तक योग है वहाँ तक कमंबंध भी है क्योंकि योग से प्रकृति और प्रदेश बंध होता
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