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( 66 ) भोधेमिच्छदुगेवि य अयदपमत्ते सजोगठाणम्मि । तिण्णेव य आलावा ससेसिक्को हवे णियमा ॥७०९।।
अपर्यात आलाप के दो भेद है-लब्ध्यपर्याप्त और निवृत्त्यपर्याप्त। दोनों ही प्रकार का अपर्याप्त आलाप सामान्य मिथ्यादृष्टि में ही होता है। सासादन, असंयत व प्रमत्त संयत में नियम से निवृत्त्यपर्याप्त ही होता है। सयोगी जिनमें नियम से योग की अपेक्षा ही अपर्याप्त आलाप होता है। शेष नौ गुणस्थानों में एक पर्याप्त आलाप ही होता है ।' तियंच लब्ध्यपर्याप्तक में एक अपर्याप्त आलाप ही होता है ।
मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक में एक लब्धमपर्याप्त आलाप ही होता है। द्रव्य से पुरुष और भाव से स्त्री रूप प्रमत्त विरत में आहारक शरीर व आहारक अंगोंपांग का उदय नियम से नहीं होता है। अपर्याप्त अवस्था में मरण प्रथम गुणस्थान में हो सकता है अन्य गुणस्थानों में नहीं। योग की प्रवृत्ति निरन्तर होती रहती है। प्रवृत्ति के साथ कर्म-बंधन का अविनाभावी संबंध है।
योग और क्रिया
जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं णिव्वत्तेमाणे कइ किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए, एवं पुढविकाइए वि, एवं जाव मणुस्से ।
___ जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरं णिवत्त माणा कइ किरिया' गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि, एवं पुढविकाइया वि, एवं जाव मणुस्सा xxx।
एवं मणजोगं, वयजोगं, कायजोगं, जस्स जं अत्थि तं भाणियव्वं, एए एगत्तपहुत्तणं छठवीसं दंडगा।
-भग० १७ । उ १ । सू १४, १५
मनोयोग, वचनयोग, काययोग के विषय में जिसके जो हो उसके उस विषय में कहना
तीन योग का एक वचन-बहुवचन सम्बन्धी पाठ कहना ।
नोट- मनोयोग-वचन-काययोग बनाता हुआ जीव जबतक दूसरे जीवों को परिताप उत्पन्न नहीं करता, तब तक उसे कायिकी, आधिकरणिकी प्राषिकी-ये तीन क्रियाएं लगती है। जब दूसरे जीवों को परिताप आदि उत्पन्न करता है तब पारितापनिकी सहित चार क्रियाएं लगती है और जब जीव का हिंसा करता है तब प्राणातिपातिकी सहित पाँच क्रिया लगती है।
१. गोम्मटसार, जीवकाण्ड गा. ७०९ से ७११ ।
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