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मनोयोग में १६ दण्डक की पृच्छा करनी चाहिए। ( पाँचस्थावर तीन विकलेन्द्रिय । छोड़कर । )
वचनयोग में १९ दण्डक की पृच्छा करनी चाहिए - ( पांच स्थावर को छोड़कर ) ।
काययोग में २४ दण्डक की पृच्छा करनी चाहिए ।
प्रशस्त कायविनय के सात प्रकार में एक प्रकार " आउत्तं सव्विदियजोगजु जणयाआयुक्त सर्वेन्द्रिय योग युं जनता (सभी इन्द्रिय और योगों की सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करना) विनय है । इसके विपरीत अप्रशस्त काय विनय का एक भेद - अनायुक्त सर्वेन्द्रिय-योग'जनता ( असावधानी से सभी इन्द्रियों और योगों की प्रवृत्ति करना ) है ।
भावयोग की विशुद्धि - आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है ।
तन्निमित्तो भावयोगो बीर्यान्तरायज्ञानदर्शनावरणक्षय क्षयोपशम आत्मनः प्रसादश्चात्मभूत इत्याख्यामर्हति ।
- तत्त्व० अ २ । सू८ । वा १ । व्याख्या
द्रव्ययोगनिमित्तिक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा आत्मा की विशुद्धि आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है ।
तत्र मनोवाक्कायवर्गणा लक्षणो द्रव्ययोगः चिन्तावालम्बनभूतः अन्तरभिनिविष्टत्वादाभ्यन्तर इति ।
- तत्त्व० अ २ । सू ८ । वा १ । व्याख्या
मन, वचन और काय की वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप द्रव्ययोग अन्तः प्रविष्ट होने से आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है ।
केवली में शुक्ललेश्या होती है । जिनके अपर्याप्त नामकर्म का उदय है उनके एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही होता है । संज्ञी लब्ध्यपर्याप्त में एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप है । पृथ्वी आदि सपर्यंन्त लब्ध्यपर्याप्तकों में एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही होता है ।
पर्याप्त अवस्था में होनेवाले चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक, वैक्रियिक व आहारक काययोग में अपना-अपना पर्याप्त आलाप होता है । जैसे सत्यमनोयोग के सत्यमनपर्याप्त आलाप होता है ।
अवशेष चार मिश्र योगों में अपना-अपना एक अपर्याप्त आलाप होता है । जैसे औदारिकमिश्र के औदारिकमिश्र अपर्याप्त आलाप होता है । अस्तु पर्याप्त योग ग्यारह व अपर्याप्तयोग चार होते हैं—ऐसी गोम्मटसार की मान्यता है ।
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