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मोहनीय कर्म का क्षयोपशम सातवें गुणस्थान तक है । वेदकसम्यक्त्व में एक समय की स्थिति रूप सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का प्रदेशोदय रहता है उसके बाद जौव क्षायिक सम्यक्त्वी बन जाता है । अयोगी केवली में उदीरणा नहीं है ।
अनुयोगद्वार में अजीवोदय निष्पन्न के ३० बोल कहे हैं - उनमें पांच शरीर, ५ शरीर के प्रयोग में परिणत पुद्गल द्रव्य, ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस और ८ स्पर्श है । प्रयोग परिणत पुद्गल का परिणमन मन, वचन और काययोग के द्वारा होता है । अनुयोगद्वार के टीकाकार ने कहा है- "शरीर पर्याप्ति का निर्माण होने के बाद प्रत्येक जीव क्षण-क्षण शरीर वर्गणा के नए पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन करता रहता है । पांच शरीरों द्वारा गृहीत और प्रयोग में लिए गये पुद्गल प्रयोग- परिणत पुद्गल है । विद्वानों की यह परंपरागत धारणा रही है कि नख, केश, रोम आदि शरीर के परिणत पुद्गल द्रव्य है - यह अर्थ शास्त्र सम्मत नहीं है ।
पदस्थ ध्यान यानी शब्दों का ध्यान । केवली, अतिशयधारी के शब्द पर ध्यान करना, मंत्र पर ध्यान यानी शब्दों का ध्यान - पदस्थ ध्यान में आता है | हमारा सारा श्रुत ज्ञान शब्द पर आधृत है । अपने स्वभाव में रमण करना, स्वभाव को स्मृति, चिन्तन करना – ये सब अमूर्त आत्मा के ध्यान की प्रक्रियाएं है । दो प्रकार के तत्त्व है— हेतुगम्य और अहेतुगम्य । हेतुगम्य तत्त्व वह होता है, जो युक्ति के द्वारा बोधगम्य हो सके । अहेतुगम्य तत्त्व के संदर्भ में न कोई तर्क चलता है और न कोई युक्ति काम में आती है ।
गणाधिपति पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने कहा है- "तीनों योगों के व्यापार अलगअलग है । जहाँ वचनयोग अशुभ होता है, वहां मनोयोग और काययोग शुभ हो सकते हैं । काययोग शुभ है, वहां मनोयोग और वचनयोग अशुभ हो सकते हैं। तीनों योग एक साथ शुभ या अशुभ ही हों, यह आवश्यक नहीं है । कोई श्रावक साधु को वंदन करने के लिए जाता है । उस समय उसका मनोयोग शुभ हो सकता है और वचनयोग और काययोग अशुभ हो सकते हैं। कभी काया और वचनयोग शुभ हो सकते हैं, मनोयोग अशुभ हो सकता है । कभी-कभी तीनों योग शुभ हो सकते हैं । शुभयोग की प्रवृत्ति एकांत निर्जराधर्म है और अशुभयोग की प्रवृत्ति पाप है । इस प्रकार एक क्रिया करते समय तीनों योगों की प्रवृत्ति अलग-अलग हो सकती है । अस्तु तीनों योगों के व्यापार को अलगअलग मानने में कोई आपत्ति नहीं है । सिद्धांततः तीनों योगों का व्यापार अलग-अलग हो सकता है ।" "
आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष प्राभृत में कहा है
"सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि । तम्हा जहा बलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए || '
१. बिज्ञप्ति - वर्ष १, अंक १४, २७ जुलाई १९९५
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