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अर्थात् सुख से भावित ज्ञान दुःख उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है, अतः योगी को यथाशक्ति अपने आपको दुःख से भावित करना चाहिए। सक्ष्म सम्पराय चारित्र में मोहनीय कर्म की भी उदीरणा हो सकती है। यद्यपि इस गुणस्थान में बादर कषायों का उदय नहीं है। आचारांग में कहा है-"पत्तेयं पुण्णपावं" अर्थात् पुण्य और पाप हर व्यक्ति के अपने-अपने होते हैं। पुण्य और पाप के भोग में निमित्तों का योग भी रहता है, पर उपादान व्यक्ति स्वयं होता है ।
__ योग शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है। इन अर्थों में दो अर्थ योग अर्थात् मिलन और समाधि अधिक प्रसिद्ध है। वर्तमान युग में योग एक प्रकार की साधना पद्धति अर्थात् आसन प्रयोग के अर्थ में काफी प्रचलित है। जैन शास्त्रों में योग शब्द इन सबसे भिन्न अर्थ में आता है। शास्त्र प्रचलित अर्थ के अनुसार योग को परिभाषित करते हुए तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा गया है-"कायवाङ्मनोव्यापारो योगः।" शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति का नाम योग है। जैन सिद्धांत दीपिका व कालूशतक में इसी अर्थ में योग शब्द का प्रयोग हुआ है।
___ योग शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का होता है। उसके सावद्य और निरवद्यये दो भेद भी उपलब्ध है। पर मूलतः उसके तीन भेद हैं-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। योग एक प्रकार का स्पन्दन है, जो आत्मा और पुद्गलवर्गणा के संयोग से होता है। अध्यवसाय, परिणाम और लेश्या भी एक प्रकार से स्पन्दन ही है। पर वे अतिसूक्ष्म स्पन्दन है। इसलिए सामान्यतः पकड़ में नहीं आते। योग स्थूल स्पन्दन है । शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार वीर्यान्तराय कर्म का क्षय या क्षयोपशम तथा नामकर्म के उदय से मन, वचन और कायवर्गणा के संयोग से आत्मा की जो प्रवृत्ति होती है वह योग कहलाता है।
पुदगलवर्गणा के संयोग से आत्मा में जो स्पन्दन होता है। वह मूलतः एक ही प्रकार का है पर विवक्षा या निमित्त भेद के आधार पर उसे तीन रूपों में विभक्त कर दिया गया है। मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति में जो पौद्गलिक शक्ति काम में आती है, वह योग नहीं किन्तु पर्याप्ति है । उस पौद्गलिक शक्ति में प्रयोग का नाम योग है।
मन, वचन और काययोग-इन तीनों योग में काययोग प्रत्येक प्राणी में होता है। संसार भर के प्राणी दो वर्गों में बंटे हुए हैं। स्थावर प्राणियों में केवल काययोग होता है । दो इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर चार इन्द्रिय वाले जीवों तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में काययोग और वचनयोग होते हैं। संज्ञी मनुष्य और तिर्यंच जीवों में काययोग, वचनयोग और मनोयोग तीनों योग होते हैं।
लेश्या का अर्थ है-तैजस शरीर के साथ काम करने वाली चेतना अथवा भावधारा। भाव और विचार ये दो अलग-अलग तत्त्व है। भाव अंतरंग तत्त्व है। उसके निर्माण में ग्रन्थितंत्र का सहयोग रहता है। विचार का सम्बन्ध कर्म से है। इसका
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