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पंचेन्द्रिय तियंचों के आश्रयी समझना चाहिए। परन्तु सामान्य तिर्यंचों की अपेक्षा नहीं जानना चाहिए। कार्मणशरीर-कायप्रयोमवाला तो तिर्यंच पंचेन्द्रिय भी कदाचित् एक भी नहीं होता है क्योंकि उनका उपपात-विरहकाल अन्तमुहूर्त का है। इस कारण जब एक भी कार्मणशरीरी नहीं होता है तब प्रथम भंग होता है। जब एक होता है तब द्वितीय भंग और जब बहुत होते हैं तब तीसरा भंग होता है । .९ सयोगी मनुष्य का विभाग ( एकक भंग)
__ १ मणूसा णं भंते ! कि सच्चमणप्पओगी जाव कि कम्मासरीरकायप्पओगी? गोयमा! मणसा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणजोगी वि जाव ओरालियसरीरकायप्पओगी वि वेउब्वियसरीरकायप्पओगी वि वेउध्वियमीसासरीरकायप्पओगी वि, अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगी य १ अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगिणो य २ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगी य ३ अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पओगिणो य ४ अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगी य ५ अहवेगे य आहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य ६ अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगी य ७ अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पओगिणो य ८, एते अट्ठ भंगा पत्तेयं ।
-पण्ण० प १६ । सू १०८३ । पृष्ठ० २६३-६४ टीका-मनुष्येषु मनश्चतुष्टयवाक्चतुष्टयौदारिकवत्रियद्विकरूपाप्येकादश पदानि सदेव बहुवचनेन लभ्यन्ते, वैक्रियमिश्रशरीरिणःकथं सदैव लभ्यन्ते इति चेत् ? उच्यते, विद्याधरापेक्षया, तथाहि-विद्याधरा अन्येऽपि केचिन्मिथ्याष्ट्यादयो वैक्रियलब्धिसम्पन्नाः अन्यान्यभावेन सदैव विकुर्वणायां लभ्यन्ते, आह च मूलटीकाकार:-"मनुष्या वैक्रियमिश्रसरीरप्रयोगिणः सदैव विद्याधरादीनां विकुर्वणाभावा" दिति, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी कार्मणशरीरकायप्रयोगी च कदाचित्सर्वथा न लभ्यते, द्वादशमौहूत्तिकोपपातविरहकालभावात्, आहारकशरीरी आहारकमिवशरीरी च कादाचित्कः प्रागेवोक्तः, तत औदारिकमिश्राद्यभावे पदैकादशबहुवचनलक्षण एको भंगः, तत औदारिकमिश्रपदेन एकवचनबहुबचनाभ्यां द्वौ भंगो, एवमेव द्वौ भंगो आहारकपदेन द्वौ चाहारकमिश्रयदेन द्वौ कार्मणपदेनेत्येकैकसंयोगे अण्टौ भंगाः।
मनुष्य सभी सत्यमनः प्रयोगी यावत् औदारिकशरीर कायप्रयोगी, वैक्रियशरीर कायप्रयोगी, वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोगी भी बहुवचन की अपेक्षा से सतत होते हैं । यहाँ पर वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोगी का बहुवचन की अपेक्षा से कथन विद्याधर की
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