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इसी प्रकार दर्शनावरणीय यावत् अंतराय कर्म के सम्बन्ध में जानना चाहिए।
इसी प्रकार यावत् वैमानिक देव तक जानना ।
नोट-मनोयोग-वचनयोग का प्रश्न नहीं करना चाहिए। .५७.४ सयोगी परंपरोपपन्नक नारकी और पापकर्म का समर्जन-समाचरण
, ज्ञानावणीयसे अंतरायकर्म का , एवं एएणं कमेणं जहेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी तहेव इह पि अट्ठसुभंगेसु णयब्वा। णवरं जाणियन्वं जं जस्स अत्थि तं तस्स भाणियध्वं जाव अचरिमुद्देसो। सव्वे वि एए एक्कारस उद्देसगा।
-भग ० श० २८ । उ ३ से ११
सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी परंपरोपपन्नक नारकी आठ भंग से पापवर्म का समर्जन और समाचरण किया था। यावत् वैमानिक तक जानना ।
इसी प्रकार क्रम से सयोगी परंपरोपपन्नक यावत् सयोगी अचरम जीवों के नव उद्देशक ( नोट ११ उद्देशक ) कहने । जिस जीव में जितने योग हो उतने पद कहते । .५८ सयोगी जीव और कर्म प्रकृति को सत्ता-बंधन-उदय
__ सयोगी मिथ्यादृष्टि यावत् उपशांत मोह गुणस्थान में आठ कर्मों की सत्ता है। सयोगी क्षीण-मोह गुणस्थान में सात कर्म ( मोहनीय कर्म को बाद ) की सत्ता है । सयोगी केवली तथा अयोगी केवली गुणस्थान में चार अघातिक कर्म ( वेदनीय-नाम-गोत्रअंतराय ) की सत्ता है। सिद्ध अयोगी होते हैं लेकिन सत्ता किसी भी कर्म की नहीं है क्योंकि वे कर्म युक्त होते हैं।
सयोगी मिथ्यादृष्टि यावत् अप्रमत्त गुणस्थानवाले ( सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को छोड़ कर ) सात अथवा आठ कर्म का बंधन करते हैं। सयोगी सम्यगमिथ्यादृष्टि, निवृत्ति वादर गुणस्थान व अनिवृत्ति वादर गुणस्थानवाले सात कर्म (आयुष्यकर्म बाद देकर ) का बंधन करते हैं। सयोगी सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में छः कर्म ( मोहनीय-आयुष्य बाद देकर ) का बंध करते हैं। सयोगी उपशांत मोह, सयोगी क्षीण मोह गुणस्थान व सयोगी केवली एक साता वेदनीय कर्म का बंध करते हैं। अयोगी केवली के किसी भी प्रकार का बंध नहीं होता है।
-झीणी चर्चा ___ सयोगी मिथ्यादृष्टि यावत् सयोगी सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में आठ कर्म का उदय है। सयोगी उपशांत मोह तथा क्षीण मोहनीय गुणस्थान में सात कर्मों का उदय है । ( मोहनीय कर्म को बाद ) सयोगी केवली व अयोगी केवली के चार अघातिक कर्म का उदय है।
-झीणी चर्चा
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