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बहुत्वेन लभ्यमानत्वात् 'मणजोगी वइजोगी जहा सम्मामिच्छद्दिट्ठी यत्ति मनोयोगिनो वाग्यो गिनश्च यथा प्राक् सम्यग्मिथ्यादृष्टय उक्तास्तथा वक्तव्याः, एकवचने बहुवचने चाहारका एव वक्तव्या न त्वनाहारका इति भावः, नवरं 'वजोगो विगलिदियाणवि त्ति नवरमिति सम्यग्मिथ्यादृष्टि सूत्रादयं विशेषः, सम्यग्मिथ्यादृष्टित्वं विकलेन्द्रियाणां नास्तीति तत्सूत्रं तव नोक्तं वाग्योगः पुनवकलेन्द्रियामप्यस्तीति तत्सूत्रमपि वाग्योगे वक्तव्यं तच्चैवम् – 'मणजोगी णं भंते! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! आहारए नो अनाहारए, एवं एगिदियविलदियवज्जं जाव वैमाणिए, एवं पुहुत्तेणवि, वइजोगी णं भंते । किं आहारए अणाहारए ? गोयमा ! आहारए णो अणाहारए, एवं एगिदियवज्जं जाव वैमाणिए, एवं पुहुत्तेणवि' त्ति, काययोगिसूत्रमप्येकवचने बहुवचने च सामान्यतः सयोगिसूत्रमिव, अयोगिनो मनुष्याः सिद्धाश्व, तेनात्र वीणि पदानि, तद्यथा - जीवपदं मनुष्यपदं सिद्धपदं च विष्वपि स्थानेष्वेकवचने बहुवचने चानाहारकत्वमेव ।
सयोगी जीव ( एक वचन ) कदाचित् आहारक होते हैं, कदाचित् अनाहारक होते हैं । इसी प्रकार दंडक के सभी जीवों के विषय में जानना ।
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योगी जीव ( बहु वचन ) औधिक तथा एकेन्द्रिय जीव में एक भंग होता है । यथा - आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं । क्योंकि ये दोनों प्रकार के जीव सदैव अनेकों रहते हैं । इसके सिवाय अन्यों में तीन अंग होते हैं ( एकेन्द्रियों को छोड़ कर ) यथा - ( १ ) अनेक आहारक, अनेक अनाहारक होते हैं । (२) अनेक आहारक, एक अनाहारक । (३) सर्व आहारक होते हैं । मनोयोगी तथा वचन योगी एक वचन बहुवचन की अपेक्षा सम्यग् मिथ्या दृष्टि की तरह आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं होते हैं । वचन योग बेइन्द्रिय, इन्द्रिय, चतुदिन्द्रिय के होता है लेकिन सम्यग् मिथ्या दृष्टि गुण स्थान नहीं है । वे भी वचन योग में सब आहारक होते हैं - अनाहारक नहीं होते हैं । मनो योग एकेन्द्रिय तथा विकेन्द्रियों में नहीं होता है ।
काय योगी में एकेन्द्रियों को छोड़ कर तीन भंग होते हैं ।
अयोगी - मनुष्य-सिद्ध तीन पद अनाहारक होते हैं, आहारक नहीं होते हैं । ·६ अयोगी जीव अनाहारक होते हैं
केवलि समुहय अरुह अजोइ सिद्ध ते ण लेंति आहारु
विग्गह- गइ-गय । परमप्पय ॥ वियारिय ।
- वीरजि० संधि १२ | कडे ४
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